शिवहर/सीतामढ़ी/पटना: बिहार के शिवहर जिले के पिपराही ब्लॉक की परसौनी बैज पंचायत के धरमपुर गांव के 62 वर्षीय किसान मंगल राय अपने इलाके में सिकुड़ते कृषि आधारित उद्योग, बागमती नदी की डूब की वजह से खरीफ फसल को होने वाले नुकसान और चुनाव के दौरान किये जाने वाले राजनीतिक वादों के पूरा नहीं होने पर अफसोस जताते हैं।

मंगल राय कहते हैं, “यह इलाका गन्ना की खेती के लिए जाना जाता रहा है, लेकिन अब किसान गन्ना की फसल से दूर जा रहे हैं”। वे इसकी वजह बताते हुए कहते हैं, “गन्ना नकदी के साथ एक कच्ची फसल है और उसको खपाने के चीनी मिल चाहिए, लेकिन इस इलाके की कई चीनी मिलें बंद हैं। हम मुख्य रूप से गन्ना की खेती ही करते रहे हैं, प्रति बीघा 300 से 350 क्विंटल गन्ना उपजता है और बुरे से बुरे हाल में भी 200 क्विंटल प्रति बीघा गन्ना हो ही जाता है, लेकिन अब गन्ना की खेती की ओर किसानों का झुकाव कम हो गया है, क्योंकि उसके लिए बाजार नहीं है”।

“पूर्वी चंपारण जिले में मोतिहारी व चकिया की गन्ना (चीनी) मिल बंद है, सीतामढ़ी के रीगा की गन्ना मिल बंद है। मोदी जी (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) बोले थे कि मोतिहारी की मिल चालू कराएंगे और उसकी चीनी से बनी चाय पीएंगे, लेकिन उनका वादा पूरा नहीं हुआ। इसी इलाके से राधामोहन सिंह केंद्र में कृषि मंत्री रहे, लेकिन कुछ नहीं हुआ”। वे आगे बताते हैं।

मंगल राय बागमती के तट पर स्थित उर्वर खेतों को दिखाते हुए कहते हैं कि आप पहले कभी यहां आते तो यह पूरा इलाका आपको गन्ना से भरा मिलता, अब हम उसे उपजा कर क्या करेंगे, बेचेंगे कहां? वे कहते हैं पानी से भरे रहने के कारण यहां धान की खेती नहीं होती और रबी में हम गेहूं, मसूर व दूसरी दलहन फसल उपजाते हैं।

यहाँ से सबसे नज़दीकी चालू चीनी मिल पश्चिमी चंपारण में रामनगर और गोपालगंज में सुगौली में है, जहां गन्ना ले जाने में गाड़ी भाड़ा ही काफी ज्यादा लग जाता है, जिससे इन किसानो का मुनाफा कम हो जाता है।

शिवहर से 27 किमी दूर सीतामढ़ी जिले में पड़ने वाली रीगा चीनी मिल इस इलाके के आर्थिक पिछड़ेपन की और अधिक स्पष्ट तसवीर पेश करती है। यह चीनी मिल पिछले कुछ सालों से बंद है और दिवालिया संहिता के तहत इसका केस चल रहा है। कभी यहां तीन से चार हजार लोग काम करते थे, अब सिर्फ 60 सिक्यूरिटी स्टॉफ हैं, जिसमें एजेंसी के 40 व कंपनी के करीब 20 कर्मचारी हैं। यहां तैनात एक कर्मचारी अपनी पहचान न जाहिर करते हुए इस संवाददाता से संक्षिप्त बातचीत के लिए राजी हुए। उन्होंने बताया कि जब यह मिल चालू थी तो आसपास के जिलों से लेकर नेपाल तक के गन्ना किसानों की फसल यहां खप जाती थी, उस समय लगभग साढ़े तीन हजार लोग यहां काम करते थे, जिसमें करीब 600 से 700 वेजबोर्ड वाले और बाकी डेली वर्कर व कांट्रेक्ट वाले थे। जब यह मिल चालू थी तो रात के 11 बजे भी यह इलाका गुलजार रहता था, अब ऐसी स्थिति नहीं है।

सीतामढ़ी जिले के रीगा में स्थित रीगा चीनी मिल जो पिछले कई सालों से बंद है। इस मिल के बंद होने से किसानों के सामने गन्ना खपाने की समस्या है।

इंडियास्पेंड हिंदी से बातचीत में कई किसानों ने गन्ना मिलों के पास अपने गन्ना के पैसे के भुगतान के अटके होने की भी बात कही। हालांकि बिहार सरकार के गन्ना विभाग की वेबसाइट पर चीनी उद्योग में भारी भरकम निवेश व विस्तार योजनाओं का जिक्र मिलता है व निजी क्षेत्र के केवल दो मिलों के बंद होने का उल्लेख किया गया है और ये दावे जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाते हैं। अलबत्ता बिहार के गन्ना किसान उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों को गन्ना बेचने को भी विवश हैं।

बिहार का आर्थिक सर्वे सबसे गरीब जिलों की कैसी तस्वीर पेश करता है?

बिहार के नवीनतम आर्थिक सर्वे(वर्ष 2023-24) के अनुसार, शिवहर, अररिया और सीतामढ़ी बिहार के तीन सबसे गरीब जिले हैं, जहां के लोगों का प्रति व्यक्ति सकल जिला घरेलू उत्पाद क्रमशः 18,980 रुपए (52 रुपए प्रतिदिन), 19,795 रुपए (54.23 रुपए प्रतिदिन) और 21,448 रुपए (58.76 रुपए प्रतिदिन) है।

शिवहर, अररिया, सीतामढ़ी से उलट पटना, बेगूसराय व मुंगेर प्रति व्यक्ति सकल जिला घरेलू उत्पाद की दृष्टि से बिहार के सबसे समृद्ध जिले हैं। पटना के लोगों का औसत सकल जिला घरेलू उत्पाद 1,14,541 रुपए (313.81 रुपए प्रतिदिन) है, बेगूसराय का 46,991 रुपए (128.74 रुपए प्रतिदिन) मुंगेर का 44,176 रुपए (121 रुपए प्रतिदिन) है। यानी शिवहर के प्रति व्यक्ति सकल जिला घरेलू उत्पाद से पटना का प्रति व्यक्ति सकल जिला घरेलू उत्पाद सात गुणा अधिक है।
बिहार के आर्थिक सर्वे के अनुसार, राज्य के 38 जिलों में सिर्फ छह जिलों पटना, रोहतास, मुजफ्फरपुर, बेगूसराय, मुंगेर व भागलपुर में प्रति व्यक्ति सकल जिला घरेलू उत्पाद 2021-22 में राज्य के औसत (28,679 रुपए) से अधिक था। दिलचस्प तथ्य यह है कि बिहार का सबसे कम उत्पादकता व आय वाला जिला शिवहर देश के 112 आकांक्षी जिलों की सूची में शामिल नहीं है और नीति आयोग के आंकड़ों में वहां तेजी से गरीबी उन्मूलन का दावा किया गया है। हालांकि इस सूची में बिहार से जो 13 जिले शामिल हैं, उसमें सीतामढ़ी और अररिया का नाम है।

रीगा चीनी मिल के मुख्य दरवाजे पर दिवालिया संहिता के तहत केस चलने का लिखा गया नोटिस।

आंकड़े बताते हैं कि बिहार के प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद देश के प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद का मोटे तौर पर एक तिहाई है। वर्ष 2022-23 के त्वरित आकलन के अनुसार, भारत का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 98, 374 रुपये रहा, जबकि बिहार का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 31,280 रुपये रहा। यानी बिहार के एक व्यक्ति से भारत के एक व्यक्ति का सकल घरेलू उत्पादन करीब तीन गुणा अधिक है। अमूमन इससे पूर्व के चार सालों का ट्रेंड भी ऐसा ही रहा है।

आंकड़े यह भी बताते हैं कि भारत व बिहार में विभिन्न सेक्टर में रोजगार के हिस्से का ट्रेंड एक जैसा है, लेकिन उनकी संख्या या प्रतिशत में अंतर है।


नीति आयोग के आंकड़े क्या कहते हैं?

नीति आयोग के नेशनल मल्टीडायमेंशनल प्रॉवर्टी इंडेक्स - 2023 के अनुसार, बिहार का अररिया ऐसा जिला है जहां बहुआयामी रूप से सबसे अधिक गरीब (52.07 प्रतिशत) लोग रहते हैं। इसके साथ ही पूर्णिया (50.70%) व सुपौल (50.64%) दो और ऐसे जिले हैं जहां 50 प्रतिशत से अधिक लोग बहुआयामी रूप से गरीब हैं। शिवहर सहित राज्य में 18 ऐसे जिले हैं, जहां एक तिहाई यानी 33 प्रतिशत से अधिक लोग बहुआयामी रूप से गरीब हैं। ये आंकड़े एनएफएचएस - 5 (वर्ष 2019-21) के डेटा पर आधारित हैं।

इस रिपोर्ट के अनुसार, पूर्वी चंपारण (27.74%) व शिवहर (26.24%) दो ऐसे शीर्ष जिले हैं जहां बड़ी संख्या में लोगों को बहुआयामी गरीबी के दायरे से निकाला गया है। इस कड़ी में सीतामढ़ी का नंबर दसवां हैं जहां 20.64 प्रतिशत लोग गरीबी के दायरे से बाहर हो गये। ये अंतर एनएफएचएस - 4 (वर्ष 2015-16) व एनएएफएचएस - 5 (वर्ष 2019-21) के आंकड़ों की तुलना पर आधारित हैं। ध्यान रहे कि बिहार के आर्थिक सर्वे के अनुसार, शिवहर, अररिया, सीतामढ़ी व पूर्वी चंपारण चार सबसे कम प्रति व्यक्ति आय वाले जिले हैं।

बिहार का औद्योगिक स्वरूप और सरकार के प्रयास

पिछली सदी तक (एकीकृत बिहार के दौरान) जब झारखंड अलग राज्य नहीं बना था; तब भी राज्य का उत्तरी हिस्सा एक कृषि प्रधान क्षेत्र था, जहां ज्यादातर औद्योगिक इकाइयां कृषि आधारित ही थीं। एकीकृत बिहार का दक्षिणी हिस्सा जहां खनिजों का भंडार व औद्योगिक इकाइयां रही हैं, वह अब झारखंड है। खनिज आधारित औद्योगिक इकाइयां मौजूदा बिहार में हमेशा से कम रही हैं। उर्वर कृषि भूमि, विभिन्न प्रकार की फसलों की व्यापक विविधता के कारण अब भी राज्य में इस क्षेत्र में काफी संभावनाएं हैं।

हालांकि कई कृषि आधारित औद्योगिक इकाइयों के बंद होने से उस पर निर्भर लोगों को जहां पलायन को मजबूर होना पड़ा, वहीं किसानों के सामने कृषि उत्पाद के विक्रय व उसका उचित मूल्य हासिल करने में भी दिक्कत जैसी समस्याएं हैं।

बिहार सरकार ने राज्य को औद्योगिक रफ्तार देने व सुस्त औद्योगिक हालात को बदलने के लिए वर्ष 2016 में इंडस्ट्रियल इन्वेस्टमेंट पॉलिसी बनाया, जिसमें 15 प्रतिशत सालाना औद्योगिक विकास वृद्धि दर को हासिल करने का लक्ष्य रखा गया और यह संकल्प व्यक्त किया गया कि सेकेंडरी सेक्टर का राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में योगदान 25 प्रतिशत तक पहुंचाना है। इस नीति में खाद्य प्रसंस्करण, पर्यटन, छोटी मशीनों का निर्माण मुख्य रूप से कृषि यंत्र, इलेक्ट्रिक एवं इलेक्ट्रॉनिक हार्डवेयर निर्माण क्षेत्र, कपड़ा निर्माण, प्लास्टिक एवं रबर निर्माण, नवीनीकृत ऊर्जा क्षेत्र, चमड़ा उद्योग, स्वास्थ्य एवं तकनीकी शिक्षा क्षेत्र का प्रमुखता से उल्लेख किया गया है। इस सूची में वैसे क्षेत्र प्रमुखता से शामिल हैं जो कृषि से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर सीधे जुड़े हैं, जैसे - खाद्य प्रसंस्करण, छोटी मशीनों का निर्माण, नवीनीकृत ऊर्जा (बायोमास आधारित), कपड़ा, रबर, चमड़ा उद्योग।

हालांकि वित्त वर्ष 2017-18 से 2021-22 तक यह 20 प्रतिशत के आसपास बना हुआ है। यह न सिर्फ पश्चिमी और दक्षिणी औद्योगिक राज्यों से कम है, बल्कि यह पड़ोसी व अन्य बड़े पूर्वी राज्यों उत्तरप्रदेश (29.2), पश्चिम बंगाल(30.3), झारखंड (43.5), ओडिशा(48.6), असम(39.7), छत्तीसगढ़ (49.9)से कम है। (विस्तृत तुलनात्मक जानकारी के लिए आर्थिक सर्वे का पेज 157 देखा जा सकता है।) आर्थिक सर्वे के अनुसार, 2016 में औद्योगिक नीति के अस्तित्व में आने के बाद 30 सितंबर 2023 तक राज्य ने जिन सेक्टरों में प्रमुख रूप से निवेश आकर्षित किया या प्रस्ताव मिले उसमें प्रमुख रूप से खाद्य प्रसंस्करण, नवीनीकृत ऊर्जा, सामान्य निविर्माण, इथेनॉल, प्लास्टिक व रबर एवं सीमेंट प्रमुख हैं। यह रूझान इस बात का भी संकेत देता है कि कृषि व उससे जुड़े सेक्टर में भी बिहार में बेहतर औद्योगिक संभावनाए हैं।

बागमती नदी, जिसकी डूब से धरमपुर के किसान खरीफ की फसल के प्रभावित होने की बात कहते हैं। सभी तस्वीरें - राहुल सिंह।

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस के पूर्व प्रोफेसर पुष्पेंद्र कुमार पलायन से जुड़े सवालों पर कहते हैं, “बिहार में पलायन अपने आप में एक समस्या नहीं है, सवाल यह है कि इससे मिलता क्या है? वे कहते हैं कि कई विकसित समाज में अधिक पलायन होता है और समाज का समृद्ध तबका अधिक गतिशील होता है। बहुत पढा-लिखा आदमी गांव में नहीं रह सकता है, अगर उसके अंदर महत्वाकांक्षा है तो उसे पलायन करना होगा”। वे कहते हैं कि विकसित जगहों पर टू-वे मोबिलिटी होती है, लोग वहां से जाते हैं तो लोग वहां आते भी हैं। वे कहते हैं कि गुजरात के लोग पूरी दुनिया में हैं, पंजाब के लोग इंग्लैंड और अमेरिका में हैं। गुजरात, पंजाब, केरल में बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा के मजदूर काम करते हैं, लेकिन वहां के लोग इस क्षेत्र में काम करने नहीं आते हैं।

वे अपने अनुभवों के आधार पर कहते हैं कि बिहार से मौसमी पलायन होता है और पलायन करने वाले लोग उम्र के ढलान पर या बुढापे में अपने गांव में स्थायी तौर पर रहने आ जाते हैं। वे कहते हैं कि बिहार में उद्योग नहीं हैं, सर्विस सेक्टर कमजोर है, क्षेत्रफल के हिसाब से जनसंख्या का अनुपात (वर्ष 2023 के नवीनवतम आकलन के अनुसार 1388 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी) अधिक है। राज्य में पूर्व में भूमि सुधार में सरकारें हाथ डालने से डरती रही हैं। वे श्रम सुधारों की जरूरत का भी जिक्र करते हैं।

पटना स्थित एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ विद्यार्थी विकास ने इंडियास्पेंड हिंदी से बातचीत में कहा, “बिहार एक कृषि प्रधान राज्य है और यहां प्रमुख रूप से कृषि आधारित उद्योग रहे हैं, पर यहां के बहुत कम किसानों को एमएसपी का लाभ मिल पाता है। वे कहते हैं कि एक कृषि प्रधान राज्य में एग्री इनपुट की कंपनी नहीं है, उर्वरक कारखाने भी कम हैं। राज्य में बड़ा कृषि भूभाग असिंचित है”। वे कहते हैं, झारखंड बनने के बाद भी राज्य में माइक्रो इंटरप्राइज का विकास नहीं हुआ।

डॉ विद्यार्थी कहते हैं कि राजधानी केंद्रित विकास मॉडल या शहर केंद्रित विकास मॉडल से पूरे बिहार का विकास नहीं हो सकता, इसके लिए जरूरी है कि प्रत्येक ब्लॉक व जिले की मैपिंग हो और वहां की माइक्रो इंडस्ट्री की संभावनाओं को चिह्नित किया जाए।

वे बिहार के औद्योगिकरण व पिछड़ेपन की चर्चा करते हुए अतीत में जाते हैं और कहते हैं, “प्रथम पंचवर्षीय योजना से ही बिहार के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार रहा, इस राज्य के पिछड़ जाने की एक वजह फ्रेड इक्वलाइजेशन पॉलिसी (माल ढुलाई समानीकरण नीति) भी है”।

वर्ष 1952 में बनी इस पॉलिसी के तहत भारत में कहीं भी कारखाना लगाया जा सकता था और केंद्र सरकार खनिजों के परिवहन पर सब्सिडी देती थी, जिससे किसी भी औद्योगिक समूह को देश में कहीं भी एक समान दर पर खनिज मिल सकता था।

यह नीति कोयला, एल्युमीनियम, लोहा जैसे वस्तुओं के लिए लागू होती थी, जिन्हें औद्योगिक और आर्थिक विकास के लिए जरूरी माना जाता था। डॉ विद्यार्थी कहते हैं कि इस नीति ने एकीकृत बिहार को नुकसान पहुंचाया जिसके पास विशाल खनिज भंडार था। वे तर्क देते हैं कि जब खनिज एक ही दर पर मिलना था तो स्वाभाविक है कि औद्योगिक समूह परिवहन के लिए अधिक सहज तटीय राज्यों में ही उद्योगों की स्थापना पर जोर देते और इस वजह से यहां की कीमत पर उनका विकास हुआ।

बिहार की अर्थव्यवस्था व पिछड़ेपन पर रिसर्च करने वाले लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर स्टुअर्ट कॉरब्रिज ने भी अपने अध्ययन व वक्तव्यों में कहा है कि फ्रेट इक्वलाइजेशन एक्ट ने बिहार के आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचाया है। हालांकि यह नीति अब बदली जा चुकी है।


एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट, पटना के पूर्व निदेशक व मधुबनी जिले में स्थित डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर डॉ डीएम दिवाकर ने इंडियास्पेंड हिंदी से बातचीत में कहा, “बिहार के साथ यह विरोधाभासी स्थिति है कि यहां की भूमि उर्वर है, भरपूर पानी है और लोग मेहनती हैं फिर भी लोग गरीब हैं”। वे कहते हैं कि राज्य में भूमि व जल का प्रबंधन अच्छा नहीं है। बिहार देश का पहला राज्य है जिसने लैंड रिफॉर्म एक्ट लागू किया। वे कहते हैं कि विनोबा के भूदान आंदोलन के दौरान जिन लोगों को भूमि का जो दान पत्र दिया गया उनमें से बहुत के पास वह जमीन है ही नहीं।

बिहार में हाल में शुरू किये गये भूमि सर्वे का जिक्र करते हुए डॉ दिवाकर कहते हैं कि बड़ी मात्रा में ऐसी भूमि है जो उत्पादक वर्ग के पास नहीं है और वह ऐसे लोगों के पास हैं जो खेत नहीं जोतते। ऐसे में भूमि सर्वे एक बेहतर कदम है, जिससे भूमिहीनों को जमीन मिल सकती है।

वे कहते हैं कि बड़ी संख्या में राज्य में आवास विहीन लोग हैं। बिहार में 88.7 प्रतिशत लोग गांव में रहते हैं। राज्य सुखाड़ और बाढ़ दोनों का सामना करता है। बिहार को नोटबंदी, जीएसटी और कोविड लॉकडाउन ने भी नुकसान पहुंचाया है और आज भी बहुत से युवा गांव में बेरोजगार बैठे हैं। राज्य में शिक्षा का बेहतर इंतजाम नहीं है, इससे अर्द्ध शिक्षित व अकुशल लोग तैयार होते हैं।

वे आर्थिक सर्वे के डेटा को इंगित करते हुए कहते हैं कि बिहार में लगभग 15-16 ऐसे जिले हैं जहां के लोगों की औसत वार्षिक आय 25 हजार रुपये से कम है। ऐसे में क्षेत्रीय विकास परिषद (मिथिलांचल विकास परिषद, सीमांचल विकास परिषद आदि) का गठन कर और उसके अनुसार योजना तय कर आगे बढने से विकास में मदद मिल सकती है।

प्रधानमंत्री की आर्थिक मामलों की सलाहकार परिषद के वर्किंग पेपर रिलेटिव इकोनॉमिक परफॉरमेंस ऑफ इंडियन स्टेट्स: 1960-61 टू 2023-24 के अनुसार, बिहार की प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे कम बनी हुई है और यह भारत के प्रति व्यक्ति आय से 77 प्रतिशत कम है। यह देश की तुलना में किसी राज्य का देखा गया अबतक का सबसे बड़ा अंतर है। आर्थिक सलाहकार परिषद ने अपने पेपर में कहा है कि यह अंतर काफी बड़ा है और इस अंतर को पाटने की दिशा में प्रगति के लिए बिहार को अपनी आर्थिक प्रगति में काफी तेजी लाने की आवश्यकता होगी। इस रिपोर्ट में देश की तुलना में बिहार की सापेक्ष प्रति व्यक्ति आय में 1960-61 से 2000-01 तक गिरावट को रेखांकित किया गया है। हालांकि 2000-01 से 2010-11 के बीच इसमें मामूली सुधार हुआ और यह अब अपेक्षाकृत स्थिर बनी हुई है। इस अध्ययन के अनुसार, 1960-61 में एकीकृत बिहार की प्रति व्यक्ति आय देश की प्रति व्यक्ति आय की तुलना में 70.3 प्रतिशत थी। वर्ष 2000 में बिहार से अलग झारखंड का गठन हुआ, उस समय (वर्ष 2000-01) राष्ट्रीय औसत से विभाजित बिहार की आय 31.2 और नवगठित झारखंड की 52.8 प्रतिशत थी। जबकि वर्ष 2023-24 में बिहार की प्रति व्यक्ति आय देश की तुलना में 32.8 प्रतिशत और झारखंड की 57.2 प्रतिशत है।

हालांकि बिहार अपने आर्थिक पिछड़ेपन से निजात पाने के लिए केंद्र से स्पेशल स्टेटस (विशेष राज्य) का दर्जा मांगता रहा है और केंद्र उसकी इस मांग को खारिज करता रहा है। 22 जुलाई 2024 को केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने लोकसभा में एक सवाल के जवाब में कहा कि नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल के मानकों के अनुसार बिहार विशेष राज्य के दर्जे की अर्हता को पूरा नहीं करता है।