गाज‍ियाबाद, उत्तर प्रदेश: नई दिल्ली के बाहरी इलाके में चार महीने का ईंट निर्माण का सीजन अब पूरा होने वाला है। मुन्ना मजनू पश्चिम बंगाल के पूर्वोत्तर में स्थित अपने घर ज‍िला कूचबिहार जाने की तैयारी कर रहे हैं और इसके ल‍िए उन्‍हें लगभग 1,560 किलोमीटर की कठ‍िन यात्रा करनी है।

मजनू (40 वर्षीय) इस साल उत्तर प्रदेश के गौतम बुद्ध नगर में भट्ठे पर आये हैं। इससे पहले वो जिस भट्ठे पर काम रहे थे वे अब बंद हो गए हैं। वहाँ सरकार ने दिल्ली की जहरीली हवा को साफ करने के लिए अधिक प्रदूषण फैलाने वाले ईंट भट्ठे को प्रदूषण मुक्त करने के लिए नए मानक लागू कर द‍िये।

यह बदलाव कई भट्ठा मालिकों के हित में नहीं रहा है और इसका व्यापक प्रभाव पड़ा है, क्योंकि भारत की राजधानी के आसपास के जिलों में एक के बाद एक भट्ठे बंद हो रहे हैं।

मजनू ने बंगाली और हिंदी में बात करते हुए कहा, "जिस भट्ठे पर हम काम कर रहे थे, वह बंद हो गया और मालिक ने अपनी जमीन एक बिल्डर को बेच दी। वहां मकान बनाएंगे।"

मजनू को उत्तर प्रदेश के गाज‍ियाबाद जिले में अब बंद हो चुके भट्ठे में ठेकेदारों के एक नेटवर्क के जरिए काम मिला था जो फोन पर मजदूरों से जुड़े हुए थे। उसी नेटवर्क ने उन्हें फिर से काम दिलाने में मदद की।

"भट्ठा बंद होने के बाद भी हमें एक भी सीजन में खाली नहीं बैठना पड़ा।" मजनू ने बताया। उन्होंने कहा कि नया सीजन शुरू होने से पहले छह महीने का समय उनके लिए काम खोजने के लिए पर्याप्त था।

शोध संस्था सेण्टर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली के कुल उत्सर्जन में ईंट भट्ठों का योगदान लगभग 6-7% था।

वायु प्रदूषण से निपटने के लिए ईंट भट्ठों को स्थानांतरित करने, नई तकनीकी को अनिवार्य करने और कोयले पर प्रतिबंध लगाने सहित, पर्यावरण संरक्षण के लिए शुरू किए गए उपायों के परिणाम सामने आ रहे हैं जिससे दिल्ली में वायु गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ है।

लेकिन श्रम अधिकार विशेषज्ञों और ईंट भट्ठा मालिकों का कहना है कि देश में सबसे अधिक रोजगार देने वाले क्षेत्रे में से एक ईंट भट्ठा उद्योग में हो रहे परिवर्तन में मालिकों और मजदूरों के लिए कोई उचित योजना नहीं होने के कारण यह उद्योग अब लड़खड़ा रहा है।

क्लाइमेट एक्शन की जानकार उत्तर प्रदेश की अभियानकर्ता सानिया अनवर ने कहा, "बायोमास के उपयोग और भट्ठा मजदूरों पर इसके प्रभाव को लेकर उत्तर प्रदेश में शोध किए जाने की आवश्यकता है।"

"ये मजदूर अकुशल हैं। अक्सर भूमिहीन होते हैं और हमारे अनुभव में वे अक्सर अपने फोन नंबर बदलते रहते हैं जिससे इन श्रमिकों का पंजीकरण मुश्किल हो जाता है। इसका मतलब यह है कि वे अक्सर प्रवासी मजदूरों के लिए सरकार द्वारा दी जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं से बाहर हो जाते हैं।" वे आगे कहते हैं।

मजनू की तरह, 29 वर्षीय सलाम हक भी कूचबिहार से गौतम बुद्ध नगर चले आये। क्‍यों गाज‍ियाबाद में वह जिस भट्ठे पर काम करते थे, वह बंद हो गया।

हक ने द माइग्रेशन स्टोरी को बताया, "हमारे पास जॉब कार्ड नहीं हैं (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत काम के लिए), इसलिए जब हम घर पर दैनिक मजदूरी करते हैं तो अक्सर काम मिलना आसान नहीं होता है।"

"भट्ठों से होने वाली आमदनी ही साल भर हमारा भरण-पोषण करती है। कई भट्ठे बंद हो चुके हैं और हमें नहीं पता कि भविष्य में क्या होगा - लेकिन हमें लगता है कि अभी इसके बारे में चिंता करने का कोई मतलब नहीं है।" सलाम हक आगे बताते हैं।

मुन्ना मजनू (40) अपनी पत्नी फातिमा बीबी और बेटे हसन रहमान के साथ गौतम बुद्ध नगर में अपने ईंट भट्ठे के शेल्टर में। फोटो- ईशा रॉय/द माइग्रेशन स्टोरी

अलगाव

सरकार नई दिल्ली शहर और आसपास के क्षेत्रों में ईंट भट्ठों के लिए हरित नियमों को सख्ती से लागू कर रही है जिसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र या एनसीआर कहा जाता है। इसमें बड़े पैमाने पर अनौपचारिक क्षेत्र को सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों में से एक के रूप में पहचाना जाता है जो राष्ट्रीय राजधानी में वायु की गुणवत्ता को प्रभावित करता है।

दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के 22 जिलों में, जिनमें अन्य राज्यों में आने वाले लेकिन दिल्ली से सटे जिले भी शामिल हैं, 3,823 ईंट भट्ठे हैं। इनमें से उत्तर प्रदेश में भट्ठों की संख्या सबसे अधिक 2,062 हैं।

उत्तर प्रदेश के अधिकारियों ने कहा कि गाज‍ियाबाद इस परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में से एक है जहां पिछले छह वर्षों में भट्ठों की संख्या आधी रह गई है। उन्होंने कहा कि यहां अपनी नौकरी खो चुके मजनू जैसे मजदूरों की कोई गिनती या योजना नहीं है।

उत्तर प्रदेश राज्य के एक अधिकारी ने कहा, "ईंट भट्ठा मजदूर सीजनल मजदूर होते हैं, स्थायी नहीं होते। इसलिए वे राज्य सरकार की वैकल्पिक रोजगार योजनाओं के हकदार नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए, फैक्ट्री बंद होने की स्थिति में फैक्ट्री मजदूरों के लिए हमारे पास जो योजनाएं हैं।"

''वे कृषि मजदूर हैं और पहले से ही खेतों में काम करते आये हैं और यह काम केवल पार्ट टाईम रूप से करते हैं।'' उन्‍होंने आगे कहा।

गाज‍ियाबाद में ईंट भट्ठों की जगह खेतों ने ले ली है क्योंकि भट्ठा मालिकों को हरित तकनीकी अपनाना महंगा पड़ रहा है। फोटो- ईशा रॉय/द माइग्रेशन स्टोरी

लेकिन कृषि से कभी भी मजनू और उसके परिवार को पर्याप्त आमदनी नहीं मिल पाई, क्योंकि वे जमीदारों की जमीन पर खेती करते हैं और फसल का एक हिस्सा, मुख्यतः धान, आमदनी के रूप में रख पाते हैं।

"हम अपने घर में भागचासी (बटाईदार) हैं और हम कभी भी पर्याप्त कमाई नहीं कर पाते हैं," दनकौर स्थित भट्ठे को जलाने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे जमा कृषि अपशिष्ट के पास ईंटों के आखिरी हिस्से को जमा करते हुए मजनू ने बताया।

वे आगे कहते हैं, "यहाँ (भट्ठों पर) कमाई हमारे घर से ज्‍यादा है। वहां तो हमें फसल का सिर्फ एक हिस्सा ही खाने या बेचने के लिए मिलता है। जबकि यहाँ हम 1000 ईंटों पर 600 रुपए कमाते हैं और एक दिन में 1200 रुपए तक कमा सकते हैं।

भवन एवं सन्निर्माण श्रमिक (BoCW) अधिनियम 1996 ईंट भट्ठा श्रमिकों सहित निर्माण श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा और कल्याण का लाभ प्रदान करता है। इनमें शिक्षा छात्रवृत्ति, मातृत्व लाभ, विवाह सहायता, पेंशन, अंतिम संस्कार सेवाओं और राशन के लिए वित्तीय सहायता शामिल है।

लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि अधिकांश ईंट भट्ठा श्रमिक इस योजना के तहत पंजीकृत नहीं हैं और इसलिए वे इसका कोई लाभ नहीं उठा पाते हैं और यह ऊर्जा परिवर्तन की चर्चा का हिस्सा नहीं हैं।

ह्यूमन डेवलपमेंट संस्थान के सेंटर फॉर एम्प्लॉयमेंट स्टडीज के निदेशक रवि श्रीवास्तव ने बताया, "ईंट भट्ठों पर सीजनल प्रवासी श्रमिकों की अलगाव की प्रकृति ही उन तक सेवाओं की पहुंच बनाने में बाधा डालने वाला एक प्रमुख कारक है। उन्हें पूरी तरह से भट्ठा मालिकों पर निर्भर बनाती है।"

"भट्ठे भौगोलिक रूप से अलग-थलग क्षेत्र हैं और आमतौर पर गांवों के बाहरी इलाकों में स्थित हैं जिसका मतलब है कि जब 'एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड' योजना लागू की जा रही है तब भी उन्हें या तो इसकी जानकारी नहीं है या वे इन राशन की दुकानों तक नहीं पहुँच सकते हैं। वे आंगनवाड़ी सेवाओं, मातृत्व और अन्य चिकित्सा लाभों से भी कटे हुए हैं।"

ग्रीन होने की कीमत

गाज‍ियाबाद राष्ट्रीय राजधानी से 36 किलोमीटर दूर एक भीड़भाड़ वाला, तेजी से बढ़ता औद्योगिक शहर है, जहां इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटो पार्ट्स, फार्मास्यूटिकल्स और स्टील जैसे विभिन्न उद्योग स्थित हैं और यह कभी ईंट निर्माण का प्रमुख केंद्र था।

पिछले छह वर्षों में कई ईंट भट्ठे बंद हो गए हैं और जिस भूमि पर कभी भट्ठों की ऊंची चिमनियां हुआ करती थीं, उसे समतल कर दिया गया है और उस पर खेती की जा रही है।

बागपत में एक भट्ठे पर तैयार ईंटों का ढेर, ईंट उत्पादन का सीज़न खत्म होने के बाद। फोटो- ईशा रॉय/द माइग्रेशन स्टोरी

ऑल इंडिया ब्रिक्स एंड टाइल मैन्युफैक्चरर्स फेडरेशन के पूर्व महासचिव रविंदर कुमार तेवतिया ने बताया कि गाज‍ियाबाद में 2018 से 430 ईंट भट्ठों में से 200 बंद हो चुके हैं, जिनमें से 15 भट्ठे पिछले साल बंद हुए थे। तेवतिया ने अपने चार भट्ठों में से आखिरी भट्ठे को दो साल पहले बंद कर दिया था, क्योंकि नियम सख्त हो गए थे और व्यवसाय कम लाभदायक हो गया था।

वर्ष 2016 में पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम और नियंत्रण) प्राधिकरण ने गाज‍ियाबाद में सभी भट्ठों को ज‍िग जैग तकनीक अपनाने के लिए दो साल की अवधि देते हुए निर्देश जारी किए थे- एक ऊर्जा कुशल भट्ठा डिजाइन जहां चिमनी लंबे समय तक गर्मी बरकरार रखती है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने ईंटों के निर्माण की अवधि को सात महीने से घटाकर चार महीने करने और कोयले के बजाय कृषि अपशिष्ट का अनिवार्य उपयोग करने का आदेश दिया।

इससे इस क्षेत्र के सामने आने वाली अनेक चुनौतियों की शुरुआत हो गई।

तेवतिया ने कहा, "अब आप चाहकर भी कोयला नहीं इस्तेमाल कर सकते हैं।" उन्होंने कहा कि कृषि अपशिष्ट के उपयोग में मुख्य समस्या यह है कि कोयले की तुलना में कृषि अपशिष्ट से कम तापमान कम मिल पाता है।

"मिट्टी को पकाने के लिए हमें 1,200 डिग्री सेल्सियस का तापमान चाहिए। कृषि अपशिष्ट के साथ यह तापमान बनाए नहीं रखा जा सकता है और केवल 900-950 डिग्री तक ही पहुँच पाता है। इसके परिणामस्वरूप जो ईंटें बनाई जा रही हैं वे निम्न गुणवत्ता वाली और कमजोर हैं।" उन्होंने आगे बताया।

परिवर्तन के शुरुआती वर्षों के दौरान उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के गाज‍ियाबाद डिविजन की देखरेख करने वाले उत्सव शर्मा ने कहा कि ईंट भट्ठे चरणबद्ध तरीके से बंद हुए।

शर्मा अब प्रदूषण बोर्ड के नोएडा डिविजन के प्रमुख हैं। उन्‍होंने बताया, "ज‍िग-जैग में बदलाव के लिए 40-50 लाख रुपए की शुरुआती निवेश लागत की आवश्यकता होती है, और उस समय कई भट्ठा मालिकों ने अपना काम बंद कर दिया था। पिछले साल, दिल्ली-एनसीआर में कोयले के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और कृषि अपशिष्ट के इस्तेमाल को अनिवार्य कर दिया गया था जिसके कारण और भी अधिक बंद हो गए।"

भट्ठा मालिकों ने कहा कि ईंट पकाने के सीजन की अवधि कम होने से उत्पादन की मात्रा पर भी असर पड़ा जिससे कुल आय प्रभावित हुई जबकि कोयले की जगह कृषि अपशिष्ट के इस्तेमाल के कारण ईंट की गुणवत्ता में गिरावट आने लगी। उन्होंने कहा कि भट्ठे बंद होना जरूरी हो गया था।

कोयले से बनी उच्च गुणवत्ता वाली ईंटों की कीमत प्रति 1000 ईंट 5,500 रुपए थी जो अब 2500-3000 रुपये में बिक रही है।

तेवतिया ने कहा, "हम मांग कर रहे हैं कि सरकार हमें कोयला और कृषि अपशिष्ट के मिश्रण का उपयोग करने की अनुमति दे।"

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों ने कहा कि केंद्र सरकार ने बायोमास ईंटों और सीएनजी सहित अन्य विकल्प उपलब्ध कराए हैं। "लेकिन ये भी कोयले के समान पर्याप्त कैलोरीफिक मान नहीं देंगे। सीएनजी के लिए भी अलग बुनियादी ढांचे की जरूरत होती है, जो भट्ठों के पास नहीं है," एक अधिकारी ने कहा।

बागपत में ईंट भट्ठे पर काम करने वाले प्रवासी मजदूरों का एक समूह फोटो खिंचवाता हुआ। फोटो ईशा रॉय/द माइग्रेशन स्टोरी

श्रम नेटवर्क

निदेश कुमार के लिए ये भट्ठे उनके दूसरे घर की तरह हैं। जब वे छोटे थे और अपने माता-पिता के साथ ईंटों को ढालने और आकार देने के लिए यहां आते थे।

उत्तर प्रदेश के संभल जिले के 27 वर्षीय ईंट भट्ठा मजदूर और मजदूरों के ठेकेदार, एनसीआर में ईंट भट्ठों पर काम के लिए पलायन कर रहे हैं और अपने क्षेत्र के कई लोगों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं, क्योंकि उनके गांव के पास बहने वाली गंगा नदी में बार-बार आने वाली बाढ़ के कारण फसलें नहीं हो पाती हैं।

कुमार ने बताया, "मैं गाज‍ियाबाद में एक भट्ठे पर काम करता था। लेकिन वह हमेशा के लिए बंद हो गया। मालिक ने इसे बंद कर दिया क्योंकि उसे जिग-जैग (तकनीक) अपनाना पड़ा।" "गाज‍ियाबाद में कई भट्ठे बंद हो गए हैं और हममें से ज्‍यादातर लोग दूसरी जगहों पर भट्ठों पर चले गए हैं।"

पिछले पांच सालों से कुमार संभल से दिल्ली-एनसीआर में प्रवासी मजदूरों को भट्ठे पर पहुंचा रहे हैं। इस साल उन्होंने इलाके के तीन भट्ठों में 40 परिवारों को रखा और बताया कि उनका नेटवर्क मजबूत और व्यापक है।

प्रत्येक भट्ठे पर अधिकतम चार ठेकेदार काम करते हैं जो फायरमैन और ईंट-ढालने वालों सहित श्रमिकों की तलाश करते हैं।

कुमार ने कहा, "हम ठेकेदार नियमित रूप से फोन पर एक-दूसरे के संपर्क में रहते हैं और जानते हैं कि आने वाले सीजन में किस भट्ठे को श्रमिकों की आवश्यकता होगी।" उन्होंने कहा कि कई लोग तो रोजगार के अवसरों के बारे में जानकारी लेने के लिए "ऑफ-सीजन" के दौरान भी भट्ठों पर जाते हैं और मालिकों से मिलते हैं।

लेकिन श्रम अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि ईंट भट्ठों के बंद होने से अभी कुछ लोगों के लिए यह सीजनल पलायन का पैटर्न समाप्त हो गया है। लेकिन यह भविष्य का संकेत हो सकता है जिसमें बहुत लोग शामिल होंगे।

फिलहाल श्रम नेटवर्क ने बंद हो चुके भट्ठों में काम करने वाले अधिकांश लोगों को सेफ्टी नेट और रोजगार प्रदान किया है।

संभल के ही 55 वर्षीय ईंट निर्माता और श्रमिक ठेकेदार लटूरी सिंह ने पूछा, "हम क्या कर सकते हैं?"

"जब भट्ठे बंद हुए तो अधिकांश (श्रमिक) अन्य भट्ठों पर देखे गए। लेकिन कुछ गांव वापस चले गए हैं और दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम कर रहे हैं और प्रतिदिन 300 रुपए कमा रहे हैं जो बहुत कम है।"

यह कहानी बुनियाद के सहयोग से प्रस्तावित तीन कहानियों में तीसरी कहानी है। बुनियाद ईंट भट्ठा क्षेत्र में न्यायसंगत तकनीकी परिवर्तन के लिए कार्यरत है, जिसका उद्देश्य उत्तर प्रदेश के ईंट भट्ठा उद्योग में न्यायसंगत परिवर्तन से संबंधित सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय कहानियों को सामने लाना है।