ताराकंडी, बारपेटा: अक्टूबर के महीने में हो रही तेज बारिश 45 साल की विधवा असमा खातून के लिए एक बड़ी परेशानी की वजह थी। लगातार हो रही बारिश ने नदी और उनकी जिंदगी में तूफान ला दिया था। उनका घर नदी के तट के कटाव में समा गया और वह बेघर हो गईं।

असम के बारपेटा जिले के कलगछिया उपखंड के ताराकंडी गांव में रहने वाली असमा पहले ही बड़ी मुश्किल से अपना गुजारा चला रही थीं। उनके लिए सिर के ऊपर की छत का चले जाना एक बहुत बड़ा झटका था। असमा ने कहा, " न तो मैं चैन से खा पा रही हूं और न ही सो पा रही हूं।" उन्हें हमेशा एक चिंता घेरे रहती है।

फिलहाल, असमा और उनके दो बड़े बच्चों ने अपने रिश्तेदारों के यहां शरण ली हुई है। उन्होंने इंडियास्पेंड को बताया कि वह जल्द ही पास के ‘चार’ पर चले जाएंगे। ‘चार’ नदी के गाद से बने द्वीप हैं, जहां काफी लोग खेती कर अपना गुजारा चलाते हैं। ब्रह्मपुत्र नदी में 2,000 से अधिक चार हैं, ये सभी मुख्य भूमि से कटे हुए हैं। इनमें कई किसान परिवार रहते हैं। हर दो या तीन साल में, जब मानसून में नदी में उफान आता है, तो ये चार कट जाते है और वहां रहने वाले लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ता है।

ये चार काफी उपजाऊ होते हैं। इसलिए पीढ़ियों से स्थानीय लोग इन द्वीपों पर आकर रहते आए हैं. यहां वे बांस और मिट्टी से घर बनाते हैं, परिवार बसाते हैं। खेती और मछली पकड़कर अपना गुजारा करते हैं। इंडिया स्पेंड ने जून 2022 में अपनी एक रिपोर्ट में इसकी जानकारी दी थी।

हालांकि ताराकांडी एक चार नहीं है। यह ब्रह्मपुत्र की सहायक नदियों में से एक बेकी नदी के तट पर बसा एक गांव है। स्थानीय लोगों का कहना है कि मानसून के दौरान जब जल स्तर बढ़ता है, तो ताराकांडी में जमीन का कटाव शुरू हो जाता है। इस वजह से लोगों को पास के किसी "चार" पर जाने या जिंदगी बचाने के लिए कस्बों और शहरों में जाने पर मजबूर होना पड़ता है।

ताराकांडी गांव में ज्यादातर बंगाली मुसलमान रहते हैं, जिन्हें अक्सर असम के कुछ स्थानीय लोग और समुदाय बांग्लादेश से आए "बाहरी" और "अवैध अप्रवासी" के रूप में देखते हैं।

असम के बारपेटा जिले के कलगछिया उपखंड के ताराकांडी गांव में पैंतालीस वर्षीय असमा खातून का घर नदी के तट के कटाव में समा गया। असमा और उनके दो बच्चों ने रिश्तेदारों के यहां शरण ली थी।

इसी गांव में रहने वाले 36 साल के बहारुल इस्लाम ने कहा, "पिछले कुछ सालों में, ब्रह्मपुत्र और बेकी नदियां मिलकर एक हो गईं। इस उफनती नदी ने बहुत सारी जमीन निगल ली है।" उन्होंने आगे बताया, "अब यह हमारे गांव तक पहुंच गई है और जल्द ही यहां भी कुछ नहीं बचेगा। पिछले कुछ दिनों में तकरीबन 50-60 परिवारों को जमीन कट जाने के कारण अपना घर छोड़ना पड़ा है।"

असम के कई तटीय जिले हर साल कटाव से प्रभावित होते हैं। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के एक आकलन के मुताबिक, राज्य का लगभग 40% यानी लगभग 31 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ का खतरा झेलता है। यह भारत के बाढ़ प्रभावित इलाकों का लगभग 9.4% है।

इसके अलावा, राज्य में हर साल औसतन लगभग 8,000 हेक्टेयर नदी तट का कटाव होता है। 1950 से 2010 के बीच कुल 427,000 हेक्टेयर या 7.4% भूमि क्षेत्र का नुकसान हुआ है।

स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों का कहना है कि नदी तट के कटाव को कम करना असम सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है। उन्हें एक व्यापक रणनीति बनाने की जरूरत है। लेकिन राज्य ने अभी तक ऐसी कोई रणनीति तैयार नहीं की है। विशेषज्ञों के मुताबिक, इस समस्या की वजह से कितनी जमीन खत्म हुई है, कितने लोग प्रभावित हुए हैं और कितने लोगों को पुनर्वास मिला है, इस बारे में आकड़ों के अभाव से असली प्रभाव का आकलन कर पाना मुश्किल है।

बारपेटा शहर के स्थानीय व्यापारी लुतफर रहमान खान ने बताया, “इस समस्या का कभी कोई समाधान नहीं निकला है। नदी के किनारे रहने वाले लोगों के लिए स्थायी जीवन संभव नहीं है।”

"अगर मेरा घर टूट गया, तो मुझे नहीं पता, मैं क्या करूंगी।"

पच्चीस वर्षीय मोइना खातून को याद नहीं आता कि उन्हें आखिरी बार रात में कब अच्छी नींद आई थी। वह कहती हैं, “हम आधी रात को यह देखने के लिए जाग उठते हैं कि कहीं नदी हमारी ओर तो नहीं बढ़ रही है…नदी की आवाज और भूमि कटाव का डर हमें कभी चैन से सोने नहीं देता है।”

मोइना अपने तीन नाबालिग बच्चों के साथ नदी के किनारे एक घर में रहती हैं। उन्होंने कहा, “अगर मेरा घर टूट गया, तो मुझे नहीं पता कि मैं क्या करूंगी।” उनके पति ताराकांडी से लगभग 52 किमी दूर बोंगाईगांव में रहते हैं।

मोइना अपनी दसवीं की पढ़ाई पूरी करने की कोशिश कर रही हैं। जब मोइना की शादी हुई, तब उनकी उम्र 18 साल थी। उनके पति अब्दुल घनी खान पत्तागोभी, फूलगोभी, बैंगन, मिर्च, जूट, आदि की खेती करते थे। लेकिन फिर नदी ने उनकी छोटी सी खेती वाली जमीन निगल ली। उन्हें रोजगार की तलाश में बोंगाईगांव जाना पड़ा और तभी से वहां मजदूरी कर रहे हैं। वह हर दो हफ्ते में एक बार घर आते हैं।

मोइना को डर है कि अगली बार जब नदी का जलस्तर बढ़ेगा तो उनका घर कटाव की अगली लहर में समा जाएगा, लेकिन असमा का घर तो पहले ही नदी में समा चुका है। उनका बेटा 12वीं कक्षा पास कर चुका है, लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए कोई परीक्षा नहीं दे पाया है। आसमा कहती हैं, "मेरे पास उसकी पढ़ाई के लिए पैसे नहीं हैं। मुझे डर है कि वह स्कूल खत्म करने के बावजूद भी मजदूरी ही करेगा।"

पच्चीस वर्षीय मोइना खातून को याद नहीं है कि आखिरी बार उन्हें रात में कब चैन की नींद आई थी। वह अपने तीन छोटे बच्चों के साथ नदी किनारे रहती हैं। उन्होंने कहा, “अगर मेरा घर टूट गया, तो मुझे नहीं पता कि मैं क्या करूंगी।”

ईंट भट्ठों में काम करने के लिए पलायन

तराकंडी के लोग लगातार विस्थापन के डर में जीते हैं। ह्यूमैनिटेरियन एड इंटरनेशनल के स्थानीय सदस्य आंचलिक ग्राम उन्नयन परिषद से जुड़े बारपेटा के एक सामाजिक कार्यकर्ता रफीकुल इस्लाम के अनुसार, कटाव से घरों और खेतों वाली जमीन खत्म हो रही है। उन्होंने कहा, "कुछ लोग पास के तटबंधों पर अस्थायी रूप से रहते हैं, जबकि कुछ अपने रिश्तेदारों के घर चले जाते हैं।" वह आगे कहते हैं, "कुछ परिवार, जो थोड़े भाग्यशाली होते हैं, पास के गांवों या कस्बों में थोड़ी जमीन खरीद लेते हैं। लेकिन ज्यादातर लोगों के लिए, शहरों में जाकर काम करना और जीवित रहना ही एकमात्र विकल्प है।"

30 वर्षीय अब्दुल बासिद का उदाहरण लें, जो ताराकांडी में पैदा हुए थे। वह कभी स्कूल नहीं गए। उनके मुताबिक, उसका परिवार इतना गरीब था कि वह स्कूल की पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकता था, इसलिए उन्हें छोटी उम्र से ही काम करना पड़ा।

बासिद अपनी छोटी सी जमीन पर मिर्च उगाते थे। लेकिन जब नदी ने उनकी जमीन ले ली, तो उन्हें ऊपरी असम के डिब्रूगढ़ जिले के मोरण कस्बे में एक ईंट भट्ठे पर काम करना पड़ा। मोरण, ताराकंडी से सड़क मार्ग से लगभग 530 किलोमीटर दूर है। बासिद बताते हैं कि आमतौर पर काफी सारे लोगों को रात के समय में बस में बिठाकर वहां ईंट भट्ठे पर काम करने के लिए ले जाया जाता है।

30 वर्षीय अब्दुल बासिद अपने खेतों के बर्बाद होने के बाद ईंट भट्टे पर काम करने के लिए चले गए। परिवार मानसून से ठीक पहले ताराकांडी लौट आता है। उन्होंने कहा, “मानसून के समय, हम घर पर होते हैं। जल स्तर को बढ़ते हुए देखना और डर के साये में जीना ही अब हमारी जिंदगी है।”

बासिद सात साल से भट्ठे पर काम कर रहे हैं। उन्हें बहुत ज्यादा पैसे नहीं मिलते हैं, लेकिन फिर भी उन्हें ये काम करना पड़ता है क्योंकि यह उनके परिवार का पेट पालने का एकमात्र तरीका है। जब वे मोरण जाते हैं तो उनके साथ उनकी पत्नी और तीन बच्चे भी होते हैं। बासिद कहते हैं, "मेरी पत्नी भी भट्टे पर काम करती है। वहां रहते हुए मेरे बच्चे कई महीनों तक स्कूल नहीं जा पाते हैं। जहां हम रहते हैं वह जगह बहुत बुरी है, लेकिन हमें किसी तरह से गुजारा करना पड़ता है।"

बासिद से लगातार आठ से दस घंटे काम कराया जाता है। उन्होंने कहा, "वे हमें रोजाना 500 रुपये मजदूरी देते हैं। लेकिन कई बार बिना कोई कारण बताए, कुछ पैसे काट लेते हैं और 300-400 रुपये हाथ में थमा देते हैं। हमें हमारी पहचान के कारण निशाना बनाया जाता है।"

ईंट भट्टे पर काम सितंबर से लेकर मार्च तक चलता है। परिवार मानसून से ठीक पहले ताराकंडी लौट आता है। उन्होंने कहा, "मानसून के दौरान, हम घर पर होते हैं। बढ़ते जलस्तर को देखना और कुछ सबसे बुरा होने की आशंका से डरे रहना ही हमारी जिंदगी हो गई है।"

ईंट भट्टों पर काम करने के लिए पलायन सिर्फ बरपेटा जिले तक सीमित नहीं है। 43 साल के अयनुद्दीन मल्लाह धुबरी जिले में रहते हैं। पहले, वे कोइमारी चार पर रहते थे। चार की प्रकृति ऐसी होती है कि गर्मियों के महीनों में ब्रह्मपुत्र नदी द्वारा लाई गई गाद जमा हो जाती है और जमीन ऊंची हो जाती है। लेकिन मानसून में, जब नदी में बाढ़ आती है, तो पानी का बहाव जमीन को काट ले जाता है।

मल्लाह को अपना घर 14 बार बनाना पड़ा था। आखिर में उन्होंने हार मान ली और अपनी पत्नी के साथ उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ के पास एक ईंट भट्टे पर काम करना शुरू कर दिया। वह कहते हैं, "मैं यूपी में भट्टे पर छह महीने काम करता हूं और बाकी छह महीने यहां अपने भाई के साथ रहता हूं और मछली पकड़ता हूं।"

असम के स्वायत्त क्षेत्र बोडोलैंड टेरिटोरियल रीजन (BTR) के गोसाईगांव के रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता मिजानुर रहमान ने कहा, "नदी के किनारे का कटाव परिवारों को शहरों में जाने के लिए मजबूर कर रहा है, जहां वे दूसरा काम ढूंढते हैं। इससे उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति प्रभावित होती है। बच्चों की तस्करी की जाती है और उन्हें काम पर लगाया जाता है। उनके पोषण और शिक्षा दांव पर है। इसका मूल कारण कटाव है।"

जिलेवार आंकड़ों का अभाव

पिछले साल, रहमान ने सूचना के अधिकार (RTI) अधिनियम के जरिए अपने क्षेत्र के बारे में तीन बातें जानने के लिए अनुरोध दायर किया था: कटाव से कितने लोग प्रभावित हुए, कटाव के कारण कितनी जमीन चली गई और कितने लोगों को पुनर्वास मिला।

रहमान ने गोसाईगांव में राजस्व सर्कल कार्यालय में व्यक्तिगत रूप से आरटीआई दायर की थी, जहां तीन दिन बाद, उन्हें बताया गया कि उनके पूछे गए सवालों के लिए यहां कोई डेटा उपलब्ध नहीं है। रहमान के मुताबिक, पुनर्वास के बारे में भी कोई सरकारी आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।

हालांकि असम सरकार के जल संसाधन विभाग के पास 2006 तक राज्य में कटाव से प्रभावित कुल क्षेत्र और प्रभावित गांवों और परिवारों की संख्या के बारे में जानकारी है, लेकिन इस डेटा को तब से अपडेट नहीं किया गया है। यहां तक कि मौजूदा डेटा में भी असम में नदी के किनारे के कटाव का जिलावार आंकड़ा नहीं दिया गया है।

कांग्रेस के पूर्व सांसद अब्दुल खालिक ने कहा कि कटाव के कारण कितने लोग बेघर हुए हैं, सरकार के पास इसका कोई डेटा बैंक नहीं है। उन्होंने बताया, "इन लोगों को माइग्रेशन सर्टिफिकेट मिलना चाहिए क्योंकि उन्हें काम के लिए बाहर जाना पड़ता है। जहां उन्हें सर्टिफिकेट की जरूरत पड़ सकती है कि उनकी जमीन चली गई है।" खालिक ने कहा, “यह प्रमाण पत्र राजस्व विभाग से जारी किया जाना चाहिए।”

वह आगे कहते हैं, "कुछ मौकों पर, जब जिला प्रशासन से जानकारी मांगी गई, तो उन्होंने प्रभावित परिवारों की संख्या तो बता दी, लेकिन उनके पास खोई हुई जमीन की मात्रा और पुनर्वास की स्थिति के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।" जलवायु नीति शोधकर्ता एविटा रोड्रिग्स ने कहा, "ये कटाव से निपटने के लिए आवश्यक जानकारी हैं। इसे शोधकर्ताओं, मीडिया और आम जनता को उपलब्ध कराया जाना चाहिए ताकि हम मिलकर इस मुद्दे से निपट सकें।"

इंडिया स्पेंड ने असम सरकार के जल संसाधन विभाग से संपर्क किया और असम में नदी के किनारे के कटाव से कितनी जमीन खत्म हुई और कितने लोग प्रभावित हुए, इस संबंध में जिलेवार डेटाबैंक की जानकारी मांगी है। उनका जवाब मिलने पर इस खबर को अपडेट कर दिया जाएगा।

अभी तक कोई व्यापक रणनीति नहीं

कांग्रेस सांसद प्रद्युत बोरदोलोई बताते हैं कि ब्रह्मपुत्र जल प्रणाली में लगभग 3,000 किलोमीटर लंबी मुख्यधारा की सीमा-पार नदी शामिल है जो चीन, भारत और बांग्लादेश से होकर बंगाल की खाड़ी तक जाती है। उन्होंने बताया, “ब्रह्मपुत्र की मुख्यधारा और इसकी कुछ सहायक नदियां (खासकर, असम के मैदानी इलाकों में) वास्तव में ऊपर से बहने वाले पानी की धाराएं हैं जो बड़ी मात्रा में गाद लेकर बहती हैं और उनका प्रवाह अक्सर बदलता रहता है। पिछले 40 सालों में यह समस्या और भी बढ़ गई है।"

बोरदोलोई ने कहा कि नदी के किनारे के कटाव "स्थानीय या अस्थायी कटाव रोधी उपायों से रोके नहीं जा सकते हैं। इसके लिए एक समग्र योजना बनानी होगी।"

बरपेटा जिले की बागबर निर्वाचन क्षेत्र के विधायक शेरमन अली अहमद ने बताया कि आजादी के बाद से कुछ अल्पकालिक योजनाएं बनाई गई हैं, लेकिन कुछ ठोस काम नहीं हुआ है। वह कहते हैं, "विश्व बैंक का असम इंटीग्रेटेड रिवर बेसिन मैनेजमेंट प्रोजेक्ट (AIRBMP), असम में बेकी नदी बेसिन के क्षेत्र में बाढ़ जैसी आपदाओं से निपटने की तैयारियों को बेहतर बनाने के लिए कुछ उपाय कर रहा है, लेकिन ये प्रयास कभी सफल नहीं होगा क्योंकि इस प्रोजेक्ट में सिर्फ नदी के एक हिस्से को ही ध्यान में रखा गया है, पूरी नदी को नहीं।”

अहमद कहते हैं, "अगर हम चाहते हैं कि कटाव पूरी तरह से बंद हो जाए, तो नदी को एक ही दिशा में बहने में मदद करनी होगी," उन्होंने आगे बताया, "ब्रह्मपुत्र अब एक नदी नहीं है। इसकी कई शाखाएं और सहायक नदियां हैं। जब तक हम ब्रह्मपुत्र को एक नदी के रूप में एक ही दिशा में बहने में सफल नहीं होते, मुझे नहीं लगता कि हम कुछ ठोस हासिल कर पाएंगे।"

खालिक का भी यही विचार था। उन्होंने कहा कि सरकार बहुत सारे अल्पकालिक उपाय कर रही है जो पर्याप्त नहीं हैं। वह कहते हैं, "हम कटाव को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने में सफल नहीं हुए। जब मैं संसद में था तो मैंने अपने अन्य सहयोगियों के साथ इसे आपदा घोषित करने के लिए काम किया। लेकिन सरकार इस पर विचार नहीं कर रही है।"

इंडियास्पेंड ने असम सरकार के जल संसाधन विभाग से नदी तट कटाव से निपटने के लिए राज्य द्वारा किए गए दीर्घकालिक उपायों पर टिप्पणी के लिए संपर्क किया है। उनकी तरफ से प्रतिक्रिया मिलने पर हम इस लेख को अपडेट करेंगे।