कितना आसान है धान का रकबा घटाना, ‘माइनस 5 और प्लस 10' फॉर्मूला की डगर मुश्किल क्यों?`
क्या माइनस 5 और प्लस 10 का फॉर्मूला इतना आसान होने वाला है जितना बताया जा रहा? जानकार कह रहे हैं कि इसके लिए किसानों को समझाना बड़ी चुनौती साबित होगी।

कृषि मामलों के जानकार और वैज्ञानिकों का कहना है कि तिलहन, दलहन का उत्पादन बढ़ाने के लिए हमें और बेहतर बीज तैयार करने होंगे। फोटो- मिथिलेश धर दुबे
लखनऊ। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की चार मई को हुई बैठक में जीनोम-संपादित धान की किस्मों को जारी करने के बाद केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सोयाबीन, अरहर, तुअर, मसूर, उड़द, तिलहन और दलहनों का उत्पादन बढ़ाने की बात तो की ही, साथ ही उन्होंने ‘माइनस 5 और प्लस 10’ फॉर्मूला भी पेश किया, जिसमें बताया गया, “इसमें धान की खेती के क्षेत्र को 5 मिलियन हेक्टेयर (50 लाख हेक्टेयर) तक कम करना शामिल है, जबकि उसी क्षेत्र में धान का उत्पादन 10 मिलियन टन बढ़ाना है। इससे दालों और तिलहन की खेती के लिए जगह खाली हो जाएगी।”
लेकिन क्या ये इतना आसान है? किसान और व्यापारियों ने इसे लेकर चिंता जाहिर की है। किसान और खेती मामलों के जानकारों का कहना है कि ये इतना आसान नहीं है जितना बताया जा रहा। अगर सही बीज, समय पर समर्थन और ट्रेनिंग जैसी सुविधा नहीं दी गई तो सिर्फ धान ही नहीं, दलहन और तिलहन की पैदावार भी कम हो सकती है। इससे इनकी कीमतें बढ़ सकती हैं। मांग और उपलब्धता पर संकट आ सकता है।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कृषि अर्थशास्त्री रहे चंद्र सेन कहते हैं कि इसका उद्देश्य धान की खाली जमीन पर तिलहन और दलहन का उत्पादन बढ़ाने का है। ये सही भी है कि क्योंकि हम लंबे समय से इसके निर्यात पर निर्भर हैं। लेकिन सैद्धांतिक रूप से ये आसान नहीं होगा। “इस रणनीति की व्यवहार्यता एक महत्वपूर्ण प्रश्न पर टिकी हुई है कि क्या किसान ऐसी फसलों की ओर रुख करेंगे जो बहुत ज्यादा आर्थिक फायदा नहीं देती।”
वर्ष 2023-24 के लिए मुख्य फसलों के उत्पादन के अंतिम अनुमान के अनुसार 3322.98 लाख टन रिकार्ड खाद्यान्न उत्पादन में अकेले धान का कुल उत्पादन 1378.25 लाख टन अनुमानित है जो अन्य फसलों से कहीं ज्यादा है। धान सबसे ज्यादा बोई जाने वाली फसल भी है।2020 से 2024-25 के बीच फसलों की बुवाई का रकबा और उत्पादन रिपोर्ट।
भारत खाद्य तेलों का दुनिया का सबसे बड़ा आयातक और खपत के मामले में दुनिया में दूसरे नंबर पर है। दालें भी कुछ ऐसी ही कहानी बयां करती हैं। सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता होने के बावजूद भारत भारी मात्रा में दाल का आयात करता है।
“सरकार की योजना सही मायने में इस पुरानी निर्भरता को दूर करने का लक्ष्य रखती है। लेकिन इसका समाधान सिर्फ जमीन उपलब्ध कराने से कहीं आगे है। किसान तभी बदलाव करेंगे जब वैकल्पिक फसलें धान के बराबर मुनाफा देने का वादा करेंगी। और इसके लिए किसान और वैज्ञानिकों को बहुत काम करने की जरूरत पड़ेगी।” सेन आगे कहते हैं।
वर्ष 1950-51 से 2023-24 के बीच भारत में फसल उत्पादन की स्थिति।
धान लाखों किसानों के लिए पसंदीदा फसल बनी हुई है, न सिर्फ परंपरा या पानी की उपलब्धता के कारण, बल्कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के तहत लगभग निश्चित खरीद भी एक बड़ी वजह है। उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीदा जाता है, खासकर पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना जैसे राज्यों से, जिससे किसानों के लिए एक विश्वसनीय आय सुनिश्चित होती है। इसके विपरीत एमएसपी सूची में होने के बावजूद, दलहन और तिलहन की खरीद नगण्य है। वर्ष 2023-24 में 55 मिलियन टन से ज्यादा धान खरीदा गया था। दलहन और तिलहन के लिए एमएसपी खरीद मुश्किल से कुछ लाख टन को छू पाई।
“दलहन, तिलहन की कीमतें अक्सर एमएसपी से नीचे गिर जाती हैं। इसलिए किसानों को रिस्क उठाना पड़ता है। ऐसा बहुत कम ही होता है कि चना या सरसों या अरहर की कीमत तय रेट से ज्यादा तक पहुंचे। बिना सुनिश्चित खरीद और सही लाभ के दालों और तिलहन की ओर बदलाव को अपना पाना किसानों के लिए आसान नहीं होगा।” खेती किसानी के एग्री बिजनेस मामलों के जानकार विजय सरदाना दावा करते हैं।
सात फरवरी 2025 को महाराष्ट्र के जिला लासलगांव में रहने अशोक देवरे जब लगभग 12 क्विंटल अरहर (तुअर) लेकर मंडी पहुंचे तो उन्हें 6,400 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से फसल बेचनी पड़ी थी जो न्यूनतम समर्थन मूल्य से 1,100 रुपए कम थी। वे बताते हैं, “एक साल 2024 में इस समय मंडी में अच्छी अरहर की कीमत 9,000 प्रति क्विंटल थी। जो फरवरी 2025 में 6,400-6,500 रुपए पहुंच गई। पिछले साल कीमत अच्छी मिली थी इसीलिए रकबा एक से बढ़ाकर दो एकड़ कर दिया थी। लेकिन जो कीमत मिलीख् उससे काफी नुकसान हुआ।"
न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य है जिस पर वह किसानों से फसल खरीदती है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि बाजार में उतार-चढ़ाव के कारण उन्हें नुकसान न हो। कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के तहत काम करने वाला कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिश पर फसलों की कीमत तय होती है। वर्ष 2024-25 के लिए तुअर/अरहर की एमएसपी 7,550 प्रति क्विंटल है।
“पूर्वी भारत में जहां जलस्तर काफी ऊपर है, वहां धान किसान एक बार रिस्क ले सकते हैं। लेकिन सिंधु-गंगा के मैदानों और दक्षिणी राज्यों के बड़े हिस्से में किसान कम मार्जिन वाली फसलों के साथ रिस्क नहीं लेना चाहेंगे। ऐसे में इस योजना को सफल बनाने के लिए ठीक-ठाक काम करना होगा। निजी क्षेत्र को भी एमएसपी पर किसानों से सीधे दालों और तिलहनों की खरीद को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।” सेन कहते हैं।
कन्फेडरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (सीएआईटी) के शंकर ठक्कर कहते हैं कि इसे लागू करने से पहले अगर किसानों को ठीक से जागरूक नहीं किया गया तो देश चावल की कमी से जूझ सकता है। इससे कीमत तो बढ़ेगी ही, मांग और आपूर्ति के बीच एक लंबा गैप भी हो सकता है।
“भारतीय किसानों को खेती के आधुनिक तरीकों के बारे में सिखाया जाना चाहिए और उन्हें अपनाना चाहिए। खेतों की मिट्टी की जांच होनी चाहिए ताकि किसान को पहले से पता हो कि कौन सी फसल सबसे ज्यादा पैदावार देगी। जमीन पर ढंग से कार्ययोजना तैयार करके ही इसे लागू करने की जरूरत है।” वे आगे कहते हैं।
हालांकि कृषि मंत्री चौहान को लगता है कि बुवाई क्षेत्र का रकबा होने के बावजूद धान के उत्पादन में कोई कमी नहीं आयेगी। वे कार्यक्रम के दौरान कहते हैं, “2024-25 फसल वर्ष (जुलाई-जून) में धान की खेती का रकबा मौजूदा 47.83 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 47.73 मिलियन हेक्टेयर रह जाएगा। लेकिन उत्पादन 127.86 मिलियन टन से बढ़कर 135.84 मिलियन टन होने का अनुमान है। उत्पादन में यह वृद्धि मुख्य रूप से नई जीनोम एडिटिंग तकनीक का उपयोग करके विकसित धान की किस्मों से हासिल होगी।" सरकार ने यह भी दावा किया है कि जलवायु के अनुकूल दो किस्में न केवल धान की पैदावार बढ़ाने में मदद करेंगी बल्कि पानी की बचत करने में भी मदद करेंगी।
"किसानों को बीजों की नवीनतम किस्मों के बारे में भी जानकारी दी जानी चाहिए। इन कदमों से पैदावार बढ़ाई जा सकती है। अगर ऐसा नहीं किया गया तो दलहन और तिलहन की पैदावार बढ़ाने के चक्कर में चावल की फसल कम हो जाएगी।" ठक्कर आगे कहते हैं।
दलहन में आत्मनिर्भर बनने की चुनौती बरकरार
एक फरवरी 2025 को बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दालों के उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए 6 वर्षीय मिशन की घोषणा की थी। इस दौरान उन्होंने कहा, "हमारी सरकार अब 6 साल का "दलहनों में आत्मनिर्भरता मिशन" शुरू करेगी, जिसमें तुअर, उड़द और मसूर पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। केंद्रीय एजेंसियां (नेफेड और एनसीसीएफ) इन तीन दालों की खरीद के लिए तैयार रहेंगी, जो अगले चार वर्षों के दौरान उन किसानों से खरीद के लिए तैयार होंगी जो इन एजेंसियों के साथ पंजीकरण करते हैं और समझौते करते हैं।"
इसके बाद 10 फरवरी को केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ऐलान किया कि सरकार अगले चार वर्षों तक तुअर, मसूर और उड़द की 100% खरीदी करेगी। उन्होंने कहा, "केंद्र सरकार ने दालों के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने में योगदान देने वाले किसानों को प्रोत्साहित करने और आयात पर निर्भरता को कम करने के लिए खरीद वर्ष 2024-25 के लिए राज्य के उत्पादन के 100% के बराबर पीएसएस के तहत तुअर, उड़द और मसूर की खरीद की अनुमति दी है। सरकार ने बजट 2025 में यह भी घोषणा की है कि देश में दालों में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लिए केंद्रीय नोडल एजेंसियों के माध्यम से राज्य के उत्पादन के 100% तक तुअर, उड़द और मसूर की खरीद अगले चार वर्षों तक जारी रहेगी, जिससे दालों के घरेलू उत्पादन में वृद्धि होगी और आयात पर निर्भरता कम होगी और भारत दालों में आत्मनिर्भर बनेगा।"
ऐसा नहीं है कि सरकार ने पहली बार दाल को लेकर आत्मनिर्भर बनने की बात की हो। इससे पहले वर्ष 2020 में तत्कालीन केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि हमें दाल का उत्पादन इतना कर लेना है कि हमें दूसरे देश से न मंगाना पड़े। इससे पहले 2017 में तत्कालीन कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने भी कुछ ऐसा ही कहा था।
लेकिन इन तमाम दावों, प्रयासों के बाद भी स्थिति में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं हुआ। कई मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार कैलेंडर वर्ष 2024 के दौरान दालों का आयात लगभग दोगुना होकर रिकॉर्ड 66.33 लाख टन हो गया, जबकि पिछले वर्ष यह 33.07 लाख टन था। कैलेंडर वर्ष 2024 के दौरान आयात घरेलू खपत का लगभग एक चौथाई है जो लगभग 270 लाख टन है। सरकार के अनुमान के अनुसार भारत का दाल उत्पादन 2015-17 में 163.23 लाख टन से बढ़कर 2021-22 के दौरान 273.02 लाख टन के उच्च स्तर पर पहुंच गया जो 2023-24 के दौरान अनियमित जलवायु के कारण उत्पादन को प्रभावित करने के कारण घटकर 242.46 लाख टन रह गया।
खरीफ 2024-25 सीजन में भी रकबे में वृद्धि के बावजूद उत्पादन पिछले सीजन के 69.74 लाख टन से मामूली रूप से कम यानी 69.54 लाख टन रहने का अनुमान है। आपूर्ति बढ़ाने के लिए सरकार ने पहले ही तुअर के लिए मुफ्त आयात अवधि मई 2025 तक बढ़ा दी।
बजट 2025 पेश करते हुए जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने छह साल के दलहन में आत्मनिर्भरता मिशन का ऐलान किया तो इसके लिए 1,000 करोड़ रुपए भी आवंटित किए गये। यह तब हुआ है जब अप्रैल-नवंबर 2024 के दौरान भारत का दालों का आयात 3.28 बिलियन डॉलर था जो 2023 की इसी अवधि के 2.09 बिलियन डॉलर से 56.6% अधिक है। इस दर पर 2024-25 वित्तीय वर्ष (अप्रैल-मार्च) के लिए आयात 5.9 बिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है, जो 2016-17 में 4.24 बिलियन डॉलर के उच्च स्तर को पीछे छोड़ सकता है।
वर्ष 2013-14 और 2016-17 के बीच भारत का दालों का आयात मूल्य (1.83 बिलियन डॉलर से 4.24 बिलियन डॉलर तक) और मात्रा (31.78 लाख टन से बढ़कर 66.09 लाख टन) दोनों बढ़ा है। 2018-19 में यह घटकर 25.28 लाख टन (1.14 बिलियन डॉलर), 2019-20 में 28.98 लाख टन (1.44 बिलियन डॉलर), 2020-21 में 24.66 लाख टन (1.61 बिलियन डॉलर), 2021-22 में 27 लाख टन (2.23 बिलियन डॉलर) और 2022-23 में 24.96 लाख टन (1.94 बिलियन डॉलर) रह गया। [एक बिलियन मतलब 100 करोड़]
तिलहन की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने तीन अक्टूबर 2024 को राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन - तिलहन (एनएमईओ-तिलहन) को मंजूरी दी। इसका उद्देश्य घरेलू तिलहन उत्पादन को बढ़ावा देना और खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता (आत्मनिर्भर भारत) हासिल करना है। मिशन को 2024-25 से 2030-31 तक सात साल की अवधि में लागू किया जाएगा, जिसका वित्तीय परिव्यय 10,103 करोड़ रुपए है।
मिशन का लक्ष्य प्राथमिक तिलहन उत्पादन को 39 मिलियन टन (2022-23) से बढ़ाकर 2030-31 तक 69.7 मिलियन टन और 2030-31 तक घरेलू खाद्य तेल उत्पादन को बढ़ाकर 25.45 मिलियन टन करना है। सरकार भी मानती है कि अगर इतना उत्पादन हो भी गया, तब भी हमारी घरेलू आवश्यकता का लगभग 72% ही पूरा हो पायेगा।
भारत खपत किए जाने वाले खाद्य तेल का आधे से अधिक हिस्सा आयात किया जाता है, आयात कुल घरेलू खपत का लगभग 57 प्रतिशत है। तिलहन और दालों के दुनिया के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक होने के बावजूद, भारत का घरेलू उत्पादन मांग से कम है।
पिछले दो दशकों (2001-02 से 2023-24) में खाद्यान्न उत्पादन में 1.54 गुना वृद्धि हुई है। लेकिन तिलहन उत्पादन संघर्ष कर रहा है जो 1.9 प्रतिशत (2011-12 से 2021-22) की मामूली सीएजीआर से बढ़ रहा है। 2021-22 में भारत ने 37.96 मिलियन टन तिलहन का उत्पादन किया, फिर भी घरेलू खाद्य तेल की उपलब्धता केवल 11.57 मिलियन टन रही जो मांग का 50 प्रतिशत से भी कम है। इस कमी के कारण 14.19 मिलियन टन खाद्य तेलों का आयात हुआ जिससे भारत के खाद्य तेल आयात बिल में वृद्धि हुई, जिसमें कच्चे पाम तेल, सोयाबीन तेल और सूरजमुखी तेल का योगदान रहा।
सरकार ने घरेलू किसानों की सुरक्षा के लिए सितंबर 2024 में कच्चे खाद्य तेलों (सोयाबीन, पाम, सूरजमुखी) पर आयात शुल्क शून्य से बढ़ाकर 20 प्रतिशत कर दिया गया, जिससे प्रभावी शुल्क 27.5 प्रतिशत हो गया। इसी तरह रिफाइन खाद्य तेल शुल्क 12.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 32.5 प्रतिशत कर दिया गया जिससे प्रभावी शुल्क 35.75 प्रतिशत हो गया। ये उपाय अत्यधिक मूल्य अस्थिरता को रोकते हुए स्थानीय उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए डिजाइन किए गए हैं। हालाँकि, घरेलू माँग में सालाना वृद्धि के साथ, अकेले आयात प्रतिबंध आत्मनिर्भरता की खाई को पाट नहीं पा रहे।
घरेलू क्षमता को मजबूत करने के लिए, 2021 में ₹11,040 करोड़ के व्यय से खाद्य तेलों पर राष्ट्रीय मिशन-ऑयल पाम (NMEO-OP) शुरू किया गया था। सरकार का लक्ष्य घरेलू खाद्य तेल उत्पादन को 25.45 मिलियन टन तक बढ़ाना है जो 2030-31 तक भारत की अनुमानित मांग का 72 प्रतिशत कवर करेगा। NMEO-OP के साथ-साथ, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने पिछले साल खाद्य तेलों पर राष्ट्रीय मिशन-तिलहन (NMEO-Oilseed) को भी मंजूरी दी थी। यह ₹10,103 करोड़ के खर्च के साथ सात साल की पहल (2024-25 से 2030-31) है। मिशन का लक्ष्य 2022-23 में तिलहन उत्पादन को 39 मिलियन टन से बढ़ाकर 2030-31 तक 69.7 मिलियन टन करना है। नीति में चावल और आलू की परती भूमि के बेहतर उपयोग, अंतर-फसल को बढ़ावा देने और उच्च तेल-सामग्री वाले बीज किस्मों को प्रोत्साहित करके तिलहन की खेती को 40 लाख हेक्टेयर तक बढ़ाने पर जोर दिया गया है।
अन्य फसलों के लिए किसानों को प्रेरित करना मुश्किलों क्यों?
नई दिल्ली स्थित थिंक-टैंक, इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस (आईसीआरआईईआर) के अध्ययन में कहा गया है कि सब्सिडी की चलते किसान धान की खेती में ज्यादा रुचि ले रहे हैं। ऐसे में सरकार को धान की जगह अन्य फसलों की खेती करने के लिए किसानों को प्रेरित करने में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। साल 2023-24 के दौरान केंद्र और पंजाब सरकार ने राज्य में धान के लिए बिजली, बीज उर्वरक और सिंचाई के लिए संयुक्त सब्सिडी पर 38,973 रुपए प्रति हेक्टेयर खर्च किए जो किसी भी फसल के लिए सबसे अधिक है। वहीं दूसरी फसलों को धान की तरह सब्सिडी का समान लाभ नहीं मिलता।
इस रिपोर्ट को दखेंगे तो पता चल रहा कि सरकारी दर पर धान की खरीद सबसे पंजाब में होती है।
प्रोफेसर अशोक गुलाटी के नेतृत्व में आईसीआरआईईआर के अर्थशास्त्रियों द्वारा तैयार किए गए एक पेपर में खरीफ सीजन के दौरान धान की बजाय दलहन, तिलहन, बाजरा और मक्का की खेती करने वाले किसानों को 35,000 रुपये प्रति हेक्टेयर आर्थिक सहायता देने का सुझाव दिया गया है। साथ ही, इन फसलों की खरीद पांच साल तक एमएसपी पर करने का भी सुझाव दिया गया है।
पंजाब में फसलों का पैटर्न।
पंजाब का उदाहरण देते हुए, कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी और उनके सहयोगियों द्वारा किए गए अध्ययन में कहा गया है कि पंजाब सरकार और भारत सरकार द्वारा संयुक्त सब्सिडी के रूप में 2023-24 के दौरान प्रति हेक्टेयर 38,973 रुपए की चौंका देने वाली रकम दी गई। वह कहते हैं, खेत में और कटाई के बाद फसल अवशेषों के प्रबंधन के लिए अतिरिक्त सब्सिडी पर विचार करें तो धान की खेती के लिए वित्तीय सहायता आसानी से 40,000 रुपये प्रति हेक्टेयर से अधिक हो जाएगी।
भुवनेश्वर स्थित कलिंगा इंस्टीट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी के प्रोफेसर तपन कुमार आध्या कहते हैं कि अमेरिका में भूमि को परती रखने के लिए सब्सिडी और चीन में फसल प्रणाली बदलने के लिए सब्सिडी दी जाती है। लेकिन, भारतीय मानसिकता और प्रशासनिक सुस्ती को देखते हुए यह बड़ा सवाल है कि क्या इसे प्रभावी ढंग से लागू किया जा सकता है?
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में वरिष्ठ वैज्ञानिक और विभिन्न फसलों पर काम करने वाले डॉक्टर दीपक सिंह कहते हैं कि तिलहन और दलहन के उत्पादन को बढ़ाने का फैसला तो अच्छा है। हालांकि इस पर हमें नई किस्मों और रोगों से लड़ने की क्षमता विकसित करनी होगी। खराब मौसम की वजह से फसल अक्सर खराब हो जाती है। ऐसे में हमें ज्यादा उत्पादन और टिकाऊ तरह की किस्में विकसित करनी होगी। तभी हम अपने तय लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगे।
धान की खेती के लिए बड़े पैमाने पर भूजल का उपयोग होता है। पंजाब और हरियाणा जैसे दो प्रमुख उत्तरी राज्यों में उर्वरक सब्सिडी का एक बड़ा हिस्सा जाता है। यहां खरीफ सीजन के दौरान दूसरे राज्यों की तुलना में अधिक उर्वरकों का उपयोग होता है।