लुड़ेरा (चम्बा): पश्चिमी हिमालय के कई गांवों में पारंपरिक घराट आज भी सिर्फ एक तकनीक नहीं, बल्कि स्थानीय आजीविका और सामाजिक जीवन का अहम हिस्सा रहा है। घराट एक पारंपरिक जलचालित यंत्र है जो पहाड़ी क्षेत्रों में बहते जल स्रोतों की ताकत से संचालित होता है और मुख्यतः अनाज पीसने के लिए प्रयोग में लाया जाता है। यह तकनीक ऊर्जा कुशल, पर्यावरण-अनुकूल और स्थानीय संसाधनों पर आधारित है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर जैसे हिमालयी राज्यों में ये घराट न केवल सांस्कृतिक धरोहर हैं, बल्कि संभावित रूप से लघु जलविद्युत उत्पादन के सशक्त स्थानीय विकल्प भी हैं—यदि इन्हें वैज्ञानिक दृष्टिकोण और नीति समर्थन के साथ पुनर्जीवित किया जाए।

हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले के मैहला ब्लॉक की धिमला पंचायत में बसा लुडेरा गांव, एक समय घराटों की गूंज से सराबोर रहता था। गांव से बहने वाली जहौली खड्ड ग्लेशियरों पर निर्भर, एक नदी स्थानीय अर्थव्यवस्था और संस्कृति की जीवन रेखा रही है। यह नदी आगे चलकर कलेईला नामक स्थान पर मुख्य नदी रावी में मिलती है।

66 वर्षीय ज्ञान चन्द, घराट के मालिक जिनकी तीसरी पीढ़ी घराट संभाले हुए हैं। ज्ञान चाँद कहते हैं, “ लुड़ेरा में बहती नदियों की ऊर्जा कभी ग्रामीण जीवन का आधार हुआ करती थी। घराटों की घरघराहट न केवल अनाज पीसती थी, बल्कि एक आत्मनिर्भर तकनीक, सामूहिक संस्कृति और टिकाऊ ऊर्जा मॉडल का प्रतीक थी। परंतु बीते कुछ वर्षों में, खासकर सर्दियों के महीनों में आज वही घराट जलवायु परिवर्तन, घटते जल प्रवाह के कारण इतिहास बन चुके हैं। जिससे न केवल घराट ठप पड़ जाते हैं, बल्कि पशुओं और फसलों की सिंचाई भी प्रभावित हो रही है।”

हिमाचल प्रदेश में अब तक 2554 ग्लेशियर चिन्हित किए गए हैं, जो 4160.5 वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैले हैं और 387.3 घन किमी बर्फ संग्रहित किए हुए हैं; सतलुज बेसिन में सबसे अधिक 945 ग्लेशियर हैं जबकि आकार में सबसे बड़े ग्लेशियर चेनाब बेसिन (681) में हैं। 1994 से 2021 के बीच प्रदेश में ग्लेशियर क्षेत्रफल में लगभग 1822 वर्ग किमी की कमी (औसतन 1.678% प्रतिवर्ष) दर्ज की गई है।

एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार, पारंपरिक जल-चक्कियाँ प्रतिमाह 1.3 से 2.6 मेगावाट तक बिजली के बराबर ऊर्जा बचा सकती हैं। “लेकिन क्या हमने सचमुच इस क्षमता को पहचाना है? इन जल स्रोतों के सतत उपयोग के लिए सरकारी सहायता, तकनीकी प्रशिक्षण और वित्तीय प्रोत्साहन आवश्यक हैं, जिससे इन घराटों को ग्रामीण आत्मनिर्भरता और जलवायु-उत्तरदायी ऊर्जा मॉडल के रूप में पुनर्जीवित किया जा सके,”स्थानीय घराटी अर्जन सिंह कहते हैं ।

भारत की चौथी द्विवार्षिक रिपोर्ट (BUR-4, 2024) के अनुसार, 2020 में देश का कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 2,959 मिलियन टन CO₂e रहा (LULUCF को छोड़कर), जिसमें ऊर्जा क्षेत्र का योगदान 75.66% था। इसके अलावा पारंपरिक चक्की जैसे गैर-औद्योगिक स्रोतों का योगदान नगण्य है।

स्थानीय घराटी अर्जन सिंह (67) जिनके घर में 90-95 सालों से घराट चलाने के काम होता है बताते हैं कि “घराटों ने केवल अनाज ही नहीं पीसा है, बल्कि ग्रामीण लोक कथाओं, किस्सों, कहावतों और गीतों को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया है। यहां गाँव के बुजुर्ग मवेशियों को खड्ड के किनारे मैदान में यहां सर्दियों में लाकर के घराट के आसपास बैठकर बच्चों को कहानियाँ सुनाते थे, आटा पीसने आए हुए दूसरे गांवों की महिलाएं अनाज पीसते बुनाई करती थीं, पुरुष रस्सियाँ बनाते थे। जो एक मौखिक सांस्कृतिक धरोहर थी। इसके अलावा उन्होंने बताया कि घराट का आटा बाजार या बिजली से पिसे आटे की तुलना में ज्यादा स्वादिष्ट, पौष्टिक और ताज़ा होता है। घराट केवल अनाज पीसने का स्थान नहीं, बल्कि आपसी मेल-जोल और सामाजिक गतिविधियों का केंद्र भी था।”

मैहला ब्लॉक के लुड़ेरा गांव में पारंपरिक पनचक्की (घराट)। फोटो- सुरिन्द्र कुमार

घराट क्या है?

स्थानीय खड्ड से पानी की एक धार जिसे यहां बोलचाल में कुल्ह और उत्तराखंड में गूल्ह कहा जाता है बनाकर थोड़ी ऊंचाई तक लाया जाता है जिसे एक लकड़ी की बनी हुई नाली जिसे यहां भरनाला और उत्तराखंड में पानियों कहा जाता है के द्वारा घराट के पहिए (गरड़) तक नीचे के छोर की तरफ होता है, वहां नाली का पानी पूरे वेग के साथ गरड़ के एक तरफ गिरता है। जिसके चलते गरड़ घूमता है और घराट चलना शुरू हो जाता है।

घराट के मालिक को स्थानीय बोली में घराटी कहते हैं ऐसे ही लुड़ेरा गांव के घराटी बालकृष्ण जी ने घराट की मरम्मत करते हुए इंडियन स्पेंड हिंदी से बातचीत कर घराट की पूरी प्रक्रिया को बेहतरीन तरीके से समझाया।

बालकृष्ण ठाकुर , 62, जो तीसरी पीढ़ी के घराती है बताते है आज उनका घराट अचानक खराब हो गया। जिसे कोई परंपरागत तकनीक में माहिर मिस्त्री ही ठीक कर सकता है या स्वयं घराट शिल्प में निपुण घराटी ही मरम्मत कर सकता है। लगभग सौ सालों से चला रहे घराट के कारण बालकृष्ण भी इस घराट मरम्मत के काम को अच्छे से जानते हैं।

घराट में दो पाट होते हैं जिसमें एक निचला पाट स्थिर रहता है। तथा ऊपरवाला पाट घूमता है। निचले पाट के केंद्र में इंच का एक गोलाकार छेद होता है, जिसके बीच में लकड़ी के एक गोलाकार टुकड़े को डाला जाता है जिसे स्थानीय बोली में "दम्मा" कहा जाता है। इसी दम्मा के के मध्य में बिंडू फिक्स किया जाता है। जब गरड़ घूमता है तो बिंडू में फिक्स की हुई हल्ली घराट को घुमाने में मदद करती है।

बालकृष्ण घराट के आपस में घिसने के कारण निचले पाट को कुछ खरदरा कर रहे हैं। ताकि अनाज सही से पिसा जा सके। इसके लिए जिस औजार का इस्तेमाल किया जा रहा है, इसे राणोटू कहा जाता है।

बिंडू के ऊपर लोहे का बना एक उपकरण जिसे "हल्ली" कहा जाता है, को फिक्स किया जाता है। इसी की आकृति का सुराख घराट के ऊपर वाले पाट में रहता है। जिसमें यह आसानी से फिक्स हो जाती है।

घराट के बगल में लगा एक डंडा जो इसे कंट्रोल करता है।यह इसके उपकरणों में सबसे महत्वपूर्ण है। जिसे स्थानीय बोली में 'उखा' कहते हैं। इसके बीच में डाला गया लकड़ी का ये टुकड़ा जिसे 'जख ' कहा जाता है। इसे अन्य डंडे की सहायता से अनाज के अनुसार ऊपर या नीचे करने पर घराट की गति को नियंत्रित किया जा सकता है।

घराट (पारंपरिक जलचालित आटा चक्की) के प्रमुख हिस्सों का चित्रात्मक विवरण - स्त्रोत : NIH

क्यों है घराट पर्यावरण के लिए सबसे अनुकूल?

बालकृष्ण ने बताया कि ये न्यूनतम लागत, स्थानीय संसाधनों और पारंपरिक कौशल पर आधारित होते हैं। यह स्थानीय संसाधनों से बना एक टिकाऊ यंत्र है, जो जल प्रवाह की शक्ति से चलता है। यह बिजली की तरह किसी ग्लोबल फ्यूल या प्रदूषणकारी संसाधन पर निर्भर नहीं होता। ऐसे क्षेत्रों में जहाँ बिजली की उपलब्धता सीमित है, वहां घराट सालों से आत्मनिर्भर आदर्श मॉडल रहा है।

यह प्रणाली न्यूनतम रखरखाव पर चलती है और बिजली की अनुपलब्धता के दौरान भी काम करती है। हालांकि, जलवायु परिवर्तन के चलते असामान्य बारिश और हिमपात के कारण जलधाराओं का प्रवाह घटा है, जिससे इन घराटों का संचालन प्रभावित हो रहा है।

एक हालिया शोध पत्र के अनुसार घराट न केवल पारंपरिक पद्धति हैं, बल्कि इन्हें हरित ऊर्जा के स्रोत के रूप में विकसित किया जा सकता है। एक आधुनिकीकृत घराट 5 से 10 किलोवाट तक बिजली पैदा कर सकता है, जो एक छोटे गांव या 10–20 घरों के लिए पर्याप्त है।

हिमाचल प्रदेश ऊर्जा विकास अभिकरण (HIMURJA) हिमऊर्जा की स्थापना वर्ष 1989 में की गई थी। यह संस्था राज्य में नवीकरणीय ऊर्जा के प्रचार-प्रसार और सतत विकास के साथ-साथ ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी निभा रही है। इसके अतिरिक्त, यह अनुसंधान एवं विकास (R&D) से जुड़े कार्यक्रमों को सक्षम और किफायती ढंग से लागू करने का कार्य भी करती है। हिमऊर्जा यह कार्य हिमाचल प्रदेश के विभिन्न चिन्हित ब्लॉक/जिला स्तरीय कार्यालयों के माध्यम से कर रही है।

हिमाचल प्रदेश सरकार की ऊर्जा एजेंसी हिम ऊर्जा का दावा है कि पारंपरिक घराटों को तकनीकी रूप से उन्नत बनाकर उनकी क्षमता में 40% तक वृद्धि की गई है। यह भी बताया गया कि अब ये उन्नत जल चक्कियाँ 5 किलोवाट तक बिजली पैदा कर सकती हैं, जो 5–10 घरों के लिए पर्याप्त है। लेकिन सवाल यह है कि इन योजनाओं का लाभ ज़मीन पर कितना पहुंचा है?

हिम ऊर्जा के इंजीनियर राजेन्द्र कुमार शुक्ला ने बताया कि पारंपरिक घराटों को ऊर्जा उत्पादन के स्रोत में बदलने की दिशा में भारत सरकार द्वारा एक विशेष योजना चलाई गई थी, जो मार्च 2017 में बंद कर दी गई। उन्होंने कहा कि योजना को अपेक्षित सफलता इसलिए नहीं मिल सकी क्योंकि जलस्रोतों में निरंतर बहाव की कमी एक बड़ी तकनीकी चुनौती बनकर सामने आई। "यदि घराट को अनाज पीसने के लिए चलाया जाता है, तो विद्युत उत्पादन बाधित होता है, और यदि बिजली बनाई जाती है, तो घराट नहीं चल पाता," उन्होंने स्पष्ट किया। हालांकि, सोलन जिले के नवगांव में जगत सिंह द्वारा इस योजना के तहत किया गया प्रयोग एक प्रेरणादायक उदाहरण बनकर सामने आया, जो अब तक तकनीकी रूप से सफल रहा है।

लुड़ेरा गांव के बालकृष्ण घराट की जानकारी देते हुए। फोटो- सुरिन्द्र कुमार

लुडेरा गांव में कभी 6 घराट चलते थे। आज सिर्फ 3 बच पाए हैं, वो भी बिना किसी सरकारी तकनीकी हस्तक्षेप के। यहाँ न तो किसी घराट को हिम ऊर्जा की स्कीम के तहत अपग्रेड किया गया है, और न ही कोई प्रशिक्षण या सब्सिडी दी गई है। “हमने अपनी चक्की खुद बचाई है। बहुत से लोग आते हैं, तस्वीरें लेते हैं, और चले जाते हैं लेकिन कुछ नहीं बदलता,” — बालकृष्ण, लगभग 100 साल से उनका परिवार घराट चला रहा है।

पर्यावरण विज्ञान में लुड़ेरा गांव के स्नातकोत्तर संजीव ठाकुर कहते हैं कि वैसे घराटों को ‘सस्टेनेबल मॉडल’ कहा जाता है, लेकिन उन्हें ऊर्जा नीति में औपचारिक स्थान नहीं दिया गया है। यहां के घराट अब भी पारंपरिक, गैर-सरकारी और ‘गुमनाम तकनीक’ बने हुए हैं — जबकि ये सबसे स्थानीय, सबसे स्वच्छ और सबसे सस्ते ऊर्जा स्रोत हो सकते हैं। जब तक ऐसी योजनाएं कागज़ से निकलकर खड्डों तक नहीं पहुंचतीं, तब तक घराटों की आवाज़ सिर्फ इतिहास में गूंजेगी — गांवों में नहीं।

भारत मौसम विभाग (IMD) के अनुसार, 1971 से 2000 की अवधि में चंबा जिले में अगस्त महीने में औसतन 168.3 मिमी वर्षा दर्ज की जाती थी। यह वर्षा नदी के साल भर बहाव को बनाए रखने में सहायक होती थी। लेकिन हालिया वर्षों में बारिश की यह नियमितता टूट गई है। उदाहरण के लिए: 2002 में अगस्त माह में वर्षा 572.4 मिमी तक पहुंच गई — यानी सामान्य से तीन गुना अधिक। वहीं 2005 में यह घटकर मात्र 226.6 मिमी रह गई। 2020 से 2023 तक, उपलब्ध रिकॉर्ड में कई वर्षों में डेटा दर्ज नहीं किया गया — जो जलवायु निगरानी में एक और कमी को दर्शाता है। इस प्रकार के चरम उतार-चढ़ाव का असर सबसे पहले छोटी, बरसाती और हिमपात-आधारित जलधाराओं पर पड़ता है — जैसे लुडेरा की जहौली खड्ड। यह खड्ड अब सर्दियों में लगभग सूख जाती है, और बरसात में बाढ़ जैसी स्थिति बनाती है।


वर्ष 2004 से 2010 तक अगस्त माह में मासिक कुल वर्षा (मिलीमीटर में) का प्रवृत्ति विश्लेषण। ग्राफ़ में वर्ष 2006 से 2008 के बीच सर्वाधिक वर्षा दर्ज की गई, जिसके बाद वर्षा में क्रमिक गिरावट देखी गई।


वर्ष 1971 से 2000 की अवधि में मासिक औसत वर्षा (मिमी में) का विश्लेषण। ग्राफ़ से स्पष्ट है कि जुलाई और अगस्त के महीनों में वर्षा अपने चरम पर होती है, जबकि नवम्बर माह में न्यूनतम औसत वर्षा दर्ज की गई।

भारत मौसम विभाग (IMD) के आंकड़ों से पता चलता है कि हिमाचल प्रदेश में 2010 से 2020 के बीच औसत वार्षिक वर्षा में लगभग 10–15% की गिरावट दर्ज की गई है। इसका असर केवल खेती पर ही नहीं पड़ा, बल्कि राज्य की छोटी नदियों और खड्डों — विशेषकर हिमपात और वर्षा पर निर्भर जलधाराओं — पर भी साफ दिखाई देता है।

लुड़ेरा गांव में इकलौता घराट जहां दो चक्कियां थी। जो आज खंडहर बन चुकी है। फोटो- सुरिन्द्र कुमार

“पहले तो घराट का पानी कभी कम नहीं होता था। सर्दियों में भी खड्ड बहती रहती थी। अब हालत ये है कि कई दिन तो सूखा पड़ जाता है और बरसात में बाढ़ आती है जिसके कारण हमारी कुल्ह बंद हो गई है और आज तक दोनों घराट बंद हैं,” सुखदेव ने बताया। वे बताते हैं “पहले जहां एक दिन में लगभग 1 क्विंटल अनाज पिसता था। घराट की ताकत पानी का वेग है, पानी कम हो रहा है और घराट खत्म हो रहे हैं।” वे बताते हैं कि पानी की कमी से सिर्फ चक्की नहीं रुकी है, गांव की परंपरा और आत्मनिर्भरता भी डगमगाई है।

बालकृष्ण अपनी पारंपरिक धरोहर के साथ। फोटो- सुरिन्द्र कुमार

तकनीकी बदलाव की गुंजाइश में पिछड़ा हिमाचल

कुछ दशक पहले नेपाल के पर्वतीय इलाकों में जब स्थानीय जल स्रोतों पर आधारित पारंपरिक घराटों को लघु जलविद्युत परियोजनाओं में बदला गया, तब यह स्पष्ट हुआ कि सामुदायिक संसाधन न केवल टिकाऊ ऊर्जा के स्रोत बन सकते हैं, बल्कि विकेंद्रीकृत विकास का आधार भी। इसी मॉडल से प्रेरित होकर उत्तराखंड में घराटों को सिर्फ कृषि-आधारित उपकरण मानने की बजाय, एक स्वच्छ और स्थानीय ऊर्जा प्रणाली के रूप में पुनर्परिभाषित किया गया। उत्तराखंड अक्षय ऊर्जा विकास एजेंसी (UREDA) और हिमालयी पर्यावरण अध्ययन एवं संरक्षण संगठन (HESCO) ने मिलकर यह प्रमाणित किया कि यदि जल प्रवाह, ऊंचाई और घर्षण-ऊर्जा की भौतिकी को समझकर डिज़ाइन किया जाए, तो पारंपरिक घराट 5 किलोवाट तक बिजली पैदा कर सकते हैं—जो सुदूरवर्ती गांवों में 15–20 घरों की जरूरतें पूरी करने में सक्षम हैं।

उत्तराखंड में भले ही यह परियोजना व्यापक असर नहीं छोड़ पाई हो, लेकिन पड़ोसी हिमाचल प्रदेश में ऐसे प्रयास ही उंगलियों पर गिनने लायक रहे हैं। अब तक राज्य में न तो कोई ठोस नीति बनी, न ही किसी भी घराट को ग्रिड से जोड़ने की दिशा में कोई पहल हुई है। जबकि दोनों राज्यों की भौगोलिक, जलवायु और सांस्कृतिक परिस्थितियां लगभग समान हैं, फिर भी नीति निर्धारण में दृष्टिकोण की भिन्नता ने उत्तराखंड को आगे और हिमाचल को पीछे धकेल दिया।

उत्तराखंड में HESCO और UREDA जैसे संस्थानों ने मिलकर स्थानीय जल स्रोतों को विकेंद्रीकृत ऊर्जा उत्पादन की रीढ़ बनाया, वहीं हिमाचल में HIMURJA जैसी संस्थाएं पारंपरिक घराटों को केवल सांस्कृतिक विरासत के तौर पर देखती रहीं। नतीजतन, जहां उत्तराखंड में कई गांव घराटों से रौशन होने लगे, वहीं हिमाचल के गांवों में ये आज भी सिर्फ इतिहास की धरोहर बनकर रह गए हैं। यह अंतर केवल तकनीक का नहीं, बल्कि नीति, सोच और संकल्प का भी है।

"देखिए, यह बात अब तय है कि घराट जैसे परंपरागत उपक्रम आज पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं। इसका प्रमुख कारण यह है कि ये विकेन्द्रीकृत ऊर्जा का एक बेहतरीन उदाहरण हैं। जब कोई व्यक्ति घराट के माध्यम से आटा पिसाई या अन्य कार्य करता है, तो वह डीज़ल इंजन या बिजली जैसे पारंपरिक संसाधनों की खपत को कम करता है। इससे न केवल ऊर्जा की बचत होती है, बल्कि कार्बन उत्सर्जन में भी कमी आती है,” हेस्को से जुड़े पर्यावरणविद डॉ अनिल जोशी बताते है।

वे आगे कहते है, “एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि जब कोई घराट का संचालन करता है, तो हमें इसे सिर्फ एक सीमित दायरे में नहीं देखना चाहिए। वास्तव में यह स्थानीय जल संसाधनों और समुदाय आधारित उद्योगों से भी जुड़ा होता है। पानी की जो आज चर्चा हो रही है, वह केवल संकट के रूप में नहीं बल्कि संसाधन के रूप में देखी जानी चाहिए। सालों से यह घराट की परंपरा जीवित है, और 21वीं सदी में भी यह तकनीक प्रासंगिक बनी हुई है।पानी की कमी की वजह से घराटों के अस्तित्व पर संकट जरूर है, लेकिन हमें इन्हें महत्व देना होगा। मुझे याद है कि हमने हिमाचल प्रदेश में घराटों को लेकर कई पद यात्राएं की थीं, जिसके बाद भारत सरकार ने घराटों के लिए एक योजना भी शुरू की थी। उस समय वसुंधरा राजे स्मॉल स्केल इंडस्ट्री की मंत्री थीं और उन्होंने इसे लघु उद्योग का दर्जा दिया था। इसका उद्देश्य यही था कि भविष्य में जब पारंपरिक ऊर्जा स्रोत संकट में आएंगे, तो ये घराट जैसे संसाधन ही गांवों की सेवा करेंगे।”

“अगर पानी की कमी का असर छोटे घराटों पर हो रहा है, तो यह मानकर चलिए कि बड़े जल-आधारित बिजली संयंत्रों पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा। इसलिए जब आप घराटों को बचाते हैं, तो असल में आप पानी के प्रवाह को भी बनाए रखते हैं—जो आगे जाकर नदियाँ बनती हैं और जिन पर बड़े जलविद्युत संयंत्र निर्भर होते हैं। हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के कुछ क्षेत्रों में आज भी घराट सक्रिय हैं। हमने स्वयं कई प्रयोग किए थे, और वे अब भी जीवित हैं। बात बस यह स्वीकार करने की है कि घराट आज भी संभव हैं, भले ही कुछ स्थानों पर पानी सूख गया हो।मेरी दृष्टि में सबसे ज़रूरी काम यह है कि पानी और घराट को एक साथ देखा जाए। जल संरक्षण के हर प्रयास में यह देखा जाए कि उससे घराट को भी कैसे पुनर्जीवित किया जा सकता है। यही पानी मत्स्य पालन, बिजली उत्पादन और आटा पिसाई जैसे कार्यों में भी उपयोगी हो सकता है। यह एक छोटा लेकिन प्रभावशाली उद्योग है।दुर्भाग्य से हमारे भीतर कई गलत धारणाएँ बन गई हैं कि अब घराट नहीं चल सकते। सब कुछ चल सकता है—ज़रूरत है तो बस प्राथमिकता देने की। सरकार को चाहिए कि वह इस दिशा में एक समग्र समीक्षा करे। आप जो सवाल उठा रहे हैं, वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। मेरा सुझाव है कि सरकार हिमाचल प्रदेश के सक्रिय घराट संचालकों को बुलाए, उनकी बात सुने, और वे पानी बढ़ाने के रास्ते भी सुझा सकते हैं। उन्हें मंच और सोच—दोनों देने की ज़रूरत है।"