नई दिल्ली। सरकारी आंकड़ों को देखे तो दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सड़कों का जाल भारत में है। आंकड़े बताते हैं कि बीते 10 साल में सड़को का यह नेटवर्क 50 हजार किलोमीटर से भी ज्यादा बढ़ा है। साथ में कार और दोपहिया वाहनों की संख्या भी दोगुना हुई है लेकिन वही आंकड़े सड़क सुरक्षा को उतना ही कमजोर भी मानते हैं। ​स्थिति यह है कि इन रास्तों पर बीते पांच दशक में मरने वालों की संख्या 13 गुना ज्यादा तक पहुंची है जो हर साल करीब छह फीसदी की औसत गति के साथ बढ़ती जा रही हैं। यह हालात तब हैं जब विशेषज्ञ इन घटनाओं को बेहतर नीति और प्रयासों के साथ रोके जाने का दावा कर रहे हैं। बावजूद इसके 2015 में ब्रासीलिया घोषणा में बतौर हस्ताक्षरकर्ता भारत सरकार साल 2022 तक सड़क दुर्घटनाओं और यातायात मृत्यु दर को 50% तक कम करने के लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाई और अब एक नया 2030 का लक्ष्य तय किया है।

केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय (एमओआरटीएच) के अनुसार, साल 2022 में भारत की सड़कों पर 4,61,312 हादसे हुए जिनमें 1,68,491 लोगों की मौत हुई और 4,43,366 लोगों को चोटें आईं। साल 2018 से 2022 के बीच सड़क दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या में करीब 6.9 फीसदी की वृद्धि हुई।



भारत की राजधानी नयी दिल्ली में लगा एक ट्रैफिक जाम। तस्वीर साभार: परीक्षित निर्भय

अभी तक भारत में राष्ट्रीय स्तर पर सड़क हादसों को लेकर साल 2022 के आंकड़े ही सार्वजनिक हैं जिसके अनुसार कुल 168,491 में से 119,904 मौत ओवर स्पीड की वजह से हुई हैं। नशे में गाड़ी चलाने की वजह से 4201, गलत साइड पर गाड़ी चलाने से 9094, लाल बत्ती जंप करने से 1462 और मोबाइल फोन का इस्तेमाल करने से 3395 लोगों की मौत हुई है।


इनके अलावा 30,435 मौत के लिए सरकार ने अपनी रिपोर्ट में अन्य कारणों को जिम्मेदार बताया लेकिन भारत में लंबे समय से सड़क सुरक्षा को लेकर सक्रिय सेव लाइफ फाउंडेशन ने अपनी रिपोर्ट में सड़कों पर गड्ढों की वजह से सड़क दुर्घटनाएं होने और उनमें 1856 लोगों की मौत होने का दावा किया है जो साल 2021 (1481) की तुलना में करीब 25.3% ज्यादा है। इसके अलावा सड़क दुर्घटनाओं में 25.2% मौत के लिए 10 वर्ष से अधिक पुराने वाहनों को जिम्मेदार ठहराया जिनका सरकारी रिपोर्ट में जिक्र तक नहीं है।

अन्य कारणों में गाड़ियों का आपस में भिड़ना, पीछे से टक्कर मारना, रोडरेज की घटनाएं और नींद की वजह से गाड़ी आउट ऑफ कंट्रोल होना जैसे कारण शामिल हैं।

इसी तरह नई दिल्ली ​स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) के परिवहन अनुसंधान एवं चोट निवारण केंद्र ने हाल ही में जारी रिपोर्ट “भारत में सड़क सुरक्षा स्थिति रिपोर्ट 2023” में यहां तक कहा है कि भारत में कुल सड़क नेटवर्क में राष्ट्रीय राजमार्ग (एक्सप्रेसवे सहित) का हिस्सा केवल दो फीसदी है लेकिन सड़क हादसों में सालाना 36 फीसदी मौतें इसी से हो रही हैं। आईआईटी के विशेषज्ञों ने सीधे तौर पर इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर बनाई जा रहीं सड़कों के डिजाइन पर सवाल खड़े करते हुए भविष्य में सुधार को जरूरी बताया है।

रिपोर्ट के अनुसार, भारत में साल 2021 के दौरान सड़क दुर्घटनाओं में 153,97 लोगों की मौत हुई जो आबादी के हिसाब से प्रति एक लाख लोगों पर 11.3 मौत है जो 2022 में बढ़कर 12.3 तक पहुंच गया है। राष्ट्रीय राजमार्ग को लेकर रिपोर्ट में हर साल प्रति​ किलोमीटर पर मृत्युदर औसतन 0.42 दर्ज की है।

नया ट्रेंड : आबादी के बीच हाईवे

आईआईटी दिल्ली की वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. गीतम तिवारी ने इंडियास्पेंड से बातचीत में कहा, "सड़क सुरक्षा को लेकर पूरे भारत में एक नए तरह का ट्रेंड देखने को मिल रहा है। आजकल आबादी के बीचों-बीच राज्य या फिर राष्ट्रीय राजमार्ग निकाले जा रहे हैं। इनमें फोर और सिक्स लेन हाईवे सबसे ज्यादा कॉमन हैं जिन्होंने गाड़ियों की स्पीड को काफी बढ़ाया है। यह सड़कें दोपहिया वाहनों के लिए जितना जो​खिम भरी हैं उससे कहीं ज्यादा राहगीरों के लिए खतरनाक हैं जो उस क्षेत्र के निवासी हैं और अपने रोजमर्रा के कामों के लिए उन्हें सड़क की एक से दूसरी दिशा को पार करके जाना पड़ता है।"

आईआईटी दिल्ली की वरिष्ठ प्रोफेसर डॉ. गीतम तिवारी ने इंडियास्पेंड से बातचीत करते हुए। तस्वीर साभार: परीक्षित निर्भय

उन्होंने कहा, "यह ट्रेंड इसलिए भी जो​खिम भरा है क्योंकि देश का करीब 40 से 50 फीसदी यातायात इन्हीं राज्य या राष्ट्रीय हाईवे से गुजरता है जो पूरी तरह से मिश्रित है। यानी इन सड़कों पर भारी वाहन, कार, मोटर साइकिल, साइकिल और पैदल सभी तरह का ट्रैफिक दिखाई देता है। इन सड़कों पर क्रॉस बैरियर दिखाई नहीं देते हैं और इनके डिजाइन भी गुणवत्ता पर खरे नहीं है जिनमें वाहनों के हिसाब से अलग अलग लेन और पैदल यात्रियों के लिए सुविधाजनक रास्ता शामिल हैं। इसके साथ साथ भारत में इन सड़कों की सुरक्षा लेखापरीक्षा यानी सेफ्टी ऑडिट का रिवाज भी सिस्टम में नहीं है।"

भारी वाहनों पर ध्यान नहीं, स्पीड पर जोर

साल 2022 में लगभग 59.7% मौतें (1,10,107) ग्रामीण क्षेत्रों में हुईं और 40.3% मौत (60,993) शहरी क्षेत्रों में दर्ज की गईं जिसके लिए सेव लाइफ फाउंडेशन के संस्थापक और सीईओ पीयूष तिवारी सड़कों के डिजाइन, स्पीड और रोड सेफ्टी फर्नीचर को जिम्मेदार मानते हैं।

इंडियास्पेंड से बातचीत में पीयूष तिवारी ने कहा, "भारत में सड़क सुरक्षा ऐसा विषय है जिस पर हमारे सिस्टम की गंभीरता उतनी ही कम है जितनी ज्यादा नए रास्तों को बनाने में है। हम बिना रोड सेफ्टी फर्नीचर नई सड़के बना रहे हैं और जनता से चंद घंटे में 300 या 500 किलोमीटर की दूरी तय करने का वादा भी कर रहे हैं जिसका परिणाम है कि इन सड़कों पर गाड़ियों की स्पीड बढ़ी है जो हादसों को न्योता देने का एक अहम कारण भी है। स्पीड कंट्रोल के लिए सरकार अब कैमरों की मदद ले रही है लेकिन जमीनी स्तर पर अभी यह सेटअप नाकाफी है।"

उन्होंने सड़क हादसों के लिए दूसरा सबसे अहम कारण भारी वाहनों को भी बताया। पीयूष ने कहा, "जब भी सड़क सुरक्षा की बात आती है तो हम कार या दोपहिया वाहनों की बात करने लगते हैं। इससे सरकार बिलकुल भी अछूती नहीं है लेकिन भारी वाहनों पर कोई चर्चा नहीं करता है। उनकी सुरक्षा को लेकर कोई ध्यान नहीं देता जबकि बड़े हादसों में हमारी बसें या ट्रक का योगदान काफी रहता है। इन वाहनों के चलते बड़ी संख्या में दुर्घटनाएं होती हैं जिसमें मरने वाले और गंभीर चोटों के मामले काफी ज्यादा होते हैं।"

उन्होंने यह स्वीकार किया है कि बीते वर्षों की तुलना में अब दुर्घटनाओं की रिपोर्टिंग में सुधार जरूर आया है लेकिन साथ में गंभीरता का स्तर भी कई गुना बढ़ा है। सड़क हादसों में मरने वालों की मृत्युदर 35 से 36 फीसदी तक पहुंची है। सीईओ पीयूष तिवारी ने कहा कि फिलहाल भारत की सड़कों पर पर प्रति 2.5 किलोमीटर की दूरी पर औसतन एक व्यक्ति की मौत हो रही है।


ट्रामा केयर पर सुस्ती अ​धिक

भारत में सड़क दुर्घटनाओं की वजह से स्वास्थ्य पर बोझ (मृत्यु और विकलांगता) काफी है। पिछले दशक ( 2009-2019) में भारत के स्वास्थ्य बोझ में सड़क यातायात दुर्घटनाओं का 13वां सबसे बड़ा योगदान रहा है जिसमें 15 से 49 वर्ष के कामकाजी उम्र वाले छठे सबसे बड़े योगदानकर्ता हैं।

नई दिल्ली ​स्थित अ​खिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के जयप्रकाश नारायण एपेक्स ट्रामा सेंटर के विशेषज्ञों का कहना है कि सड़क सुरक्षा में ट्रामा केयर की भूमिका भी बाकी उपायों की तरह काफी अहम है लेकिन सरकारों की सुस्ती चिकित्सा के इस अत्याधुनिक सिस्टम को देश में पनपने नहीं दे रहीं।

इस सेंटर के पूर्व निदेशक डॉ. राजेश मल्होत्रा ने इंडिया स्पेंड से बातचीत में कहा, "सड़क हादसों में ट्रामा केयर की बदौलत हम मौतों को करीब 20 से 25 फीसदी और गंभीर दिव्यांगता होने की आशंका में 50 फीसदी या उससे अ​धिक की कमी ला सकते हैं लेकिन अभी भी भारत के सभी जिलों में यह सुविधा नहीं है जबकि दुर्घटना के तुरंत बाद ट्रामा चिकित्सा पीड़ितों के लिए संजीवनी बन सकती है।"

दिल्ली एम्स के इसी केंद्र से प्र​शिक्षण पाने के बाद राजस्थान की राजधानी जयपुर के एसएमएस अस्पताल में ट्रामा सर्जन डॉ. दिनेश गोरा का कहना है कि सड़क सुरक्षा को लेकर जनता से लेकर सरकार सभी को जागरूक करने की जरूरत है।

उन्होंने अपना अनुभव साझा करते हुए कहा कि अक्सर स्कूलों के पास सुबह या दोपहर के वक्त ज्यादातर अभिभावक दोपहिया वाहनों पर दिखाई देते हैं और उनमें से लगभग सभी नियमों की अनदेखी करते हैं जबकि उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि बचपन की गंभीर चोट उनके बच्चे को आजीवन गहरे घाव दे सकती है।

उन्होंने लोगों से अपील करते हुए कहा कि घर की छतों पर पक्की बालकनी रखे, बच्चों को वाहनों पर सुरक्षित तरीके से बिठाए और छोटे बच्चों के लिए कार में चाइल्ड सीट लगवाकर रखें।

दरअसल दिल्ली में इस समय तीन ट्रामा सेंटर हैं जिनमें सबसे बड़ा एम्स का है। इनके अलावा दिल्ली सरकार का सिविल लाइन स्थित सुश्रुत ट्रामा सेंटर और डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल का ट्रामा केयर सेंटर शामिल है। दिल्ली एम्स के जेपीएन ट्रामा सेंटर के मौजूदा निदेशक डॉ कामरान फारूक ने इंडियास्पेंड से आंकड़े साझा करते हुए बताया कि साल 2022 के दौरान उनके यहां इलाज के लिए पहुंचने वाले सड़क दुर्घटनाओं में घायलों में से 82 फीसदी ब्रॉड डेड घोषित किए गए। यानी अस्पताल पहुंचने से पहले ही उनकी मौत हुई। घायलों में 61 फीसदी को उनके परिजन और बाकी को राहगीरों की मदद से ऑटो में लेकर ट्रामा सेंटर तक लाया गया।

उन्होंने इंडिया स्पेंड से कहा, '' इन आंकड़ों से पता चलता है कि सड़क दुर्घटना के लगभग 60% पीड़ित 21 से 40 वर्ष की आयु के थे। इसका हमारी अर्थव्यवस्था पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है क्योंकि उनके इलाज और देखभाल पर खर्च करने के अलावा, वे सबसे अधिक उत्पादक और सक्रिय आयु वर्ग से हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है।''

भारत में सड़कों पर भी दिखती लैंगिक असामनता

ट्रांसपोर्ट रिसर्च एंड इंजरी रोकथाम (टीआरआईपी) केंद्र, आईआईटी दिल्ली की रिपोर्ट बताती है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सड़क दुर्घटनाओं और उनमें मरने वालों में महिलाओं का औसत सबसे कम रहता है लेकिन भारत में यह संख्या पूरी दुनिया में सबसे कम है। साल 2021 में सड़क हादसों में मरने वाले लोगों में महिलाएं 14 फीसदी थीं जबकि बाकी पुरुष थे। इसी तरह के आंकड़े सेव लाइफ फाउंडेशन की 2022 पर आधारित रिपोर्ट में लिंग-वार विभाजन करते हुए बताया कि सड़क हादसों में मरने वालों में 1,45,177 (86.2%) पुरुष और 23,314 (13.8%) महिलाएं थीं। आईआईटी के विशेषज्ञों ने रिपोर्ट में इसके लिए सबसे बड़ा कारण भारत में यातायात को लेकर महिलाओं को बहुत कम एक्सपोजर मिलना बताया। इनके मुताबिक, मोटर वाहन लाइसेंस धारकों की कुल संख्या में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल छह फीसदी है जबकि शेष लाइसेंस धारक पुरुष हैं। यानी 100 लाइसेंस धारकों में केवल छह महिलाएं हैं।


महिला और पुरुष चालकों के बीच इस असामनता से सरकार भी अनजान नहीं है। साल 2020 में जारी भारत के रजिस्ट्रार जनरल एवं जनगणना आयुक्त कार्यालय के अधीन जनसंख्या अनुमान पर गठित तकनीकी समूह की रिपोर्ट बताती है कि साल 2001 से 2020 के बीच भारत में पंजीकृत मोटर वाहनों की संख्या प्रति 1000 व्यक्ति पर 53 से बढ़कर 246 तक पहुंची। रिपोर्ट में कहा है कि इन 20 वर्ष में मोटर वाहन जनसंख्या 4.89 करोड़ से बढ़कर 32.63 करोड़ से अधिक पहुंची है जो करीब छह गुना से ज्यादा की बढ़ोतरी दर्शाता है लेकिन इस पूरी अव​धि में महिलाओं की भागेदारी सिर्फ दो से बढ़कर छह यानी चार फीसदी ही बढ़ी। इसमें उछाल क्यों नहीं आया? इस पर रिपोर्ट में जिक्र नहीं किया गया।

कैसे करें शोध, डाटा प्रबंधन एक चुनौती

इन सब के बीच भारत में सड़क सुरक्षा का सही आकलन करने के लिए डाटा प्रबंधन भी एक गंभीर चुनौती है जिसका सीधा असर इनसे जुड़े शोध और अनुसंधान पर पड़ता है। दिल्ली और उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों के लिए सड़क सुरक्षा के प्रोजेक्ट तैयार कर रहे दिल्ली आईआईटी के शोधकर्ताओं का मानना है कि भारत में सड़क सुरक्षा का डाटा प्रबंधन बहुत कमजोर है। प्रो. गीतम तिवारी का कहना है कि एक तथ्यपरक रिपार्ट के लिए प्रत्येक राज्य के आंकड़ों को लेकर उनकी समीक्षा करनी पड़ती है। हर राज्य का डाटा सार्वजनिक नहीं है। दिल्ली पुलिस जैसे कुछ राज्य या महानगर का डाटा सिस्टमैटिक मिल जाता है लेकिन केंद्रीय स्तर पर यह उपलब्ध नहीं है। करीब दो साल से आईआरएडी इंटीग्रेटेड रोड एक्सीडेंट डेटा बेस नामक सिस्टम संचालित है लेकिन अभी तक इसका एक्सेस ओपन नहीं है।

आईआईटी दिल्ली के मुताबिक, आबादी के लिहाज भारत पूरी दुनिया में शीर्ष पर है लेकिन डाटा प्रबंधन की वजह से वै​श्विक स्तर पर भारत की ओर से सड़क यातायात दुर्घटनाओं को लेकर केवल 0.7% शोध लेख प्रकाशित हुए हैं। अगर इसके लिए चीन से भारत की तुलना करें तो बीते एक दशक में काफी बड़ा अंतर आया है। भारत से तीन गुना अ​धिक शोध चीन के प्रका​शित हुए हैं। इतना ही नहीं भारत से प्रका​शित होने वाले शोधों में से केवल एक तिहाई में ही सांख्यिकीय शामिल है। भारत में सड़क यातायात चोट अनुसंधान आउटपुट अभी भी उप-महत्वपूर्ण है और पर्याप्त मौलिक नहीं है जबकि शोध के निष्कर्षों का उपयोग भारत में भविष्य के लिए किया जा सकता है।

भारत के राज्यों की तस्वीर : कोई गंभीर तो कोई हद लापरवाही


टीआरआईपी के मुताबिक, साल 2015 से 2019 के बीच भारत के कुछ राज्यों ने जब सड़क सुरक्षा पर ध्यान दिया तो सड़क मृत्युदर में भारी गिरावट आई है। इनमें पुडुचेरी (39%), नागालैंड (35%), चंडीगढ़ (29%) और मिजोरम 21% तक की कमी दर्ज की है जबकि बिहार (44%), त्रिपुरा (31%) और छत्तीसगढ़ (30%) में वृद्धि दर्ज की गई। इनके अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड, असम, छत्तीसगढ़, त्रिपुरा और मणिपुर में सड़क मृत्युदर में करीब 20 फीसदी तक उछाल आया है। यह राज्य मिलकर भारत में सड़क पर होने वाली तीन मौतों में से एक का योगदान दे रहे हैं। इनके अलावा 2019 से 2021 के बीच सबसे ज्यादा मृत्यु दर वाले पांच शहर आसनसोल, लुधियाना, विजयवाड़ा और जयपुर हैं जहां एक लाख की आबादी पर सड़क मृत्युदर का औसत 21 है। यह राष्ट्रीय स्तर पर 12.3 से लगभग दोगुना है।

रोड ट्रांसपोर्ट ईयर बुक 2020 के अनुसार, भारत में 36 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश हैं। देश में हर साल सड़क हादसों में मरने वालों में करीब 50 फीसदी योगदान छह राज्य उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान और तमिलनाडु का है। वहीं आंध्र प्रदेश, गुजरात, बिहार, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल से 25 फीसदी तक योगदान है।