शिलांग, मेघालय: शिलांग के नॉर्थ-ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी (NEHU) में 10-फुट ऊंचा एक ऐसा व‍िशेष मंडप लगा है ज‍िसमें लगी सीढ़ियां अपने आप बढ़ेंगी।

राज्य के लिविंग रूट ब्रिज (LRBs) (मेघालय के स्वदेशी लोगों द्वारा बनाए गए पुल हैं। ये पुल, पेड़ों की जड़ों से बने होते हैं और इन्हें बनाने में कई साल लगते हैं, इन्‍हें जीवित जड़ों वाला पुल भी कहते हैं) से प्रेरित होकर यह सीढ़ी भारतीय रबर प्लांट (फ़िकस इलास्टिका) की बुनी हुई जड़ों से बनाई जाएगी, जिससे एक ऐसा मॉडल तैयार होगा जो संभवतः जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने में मदद कर सकती है। ये कैसे होगा, इसे हम आगे समझेंगे।

लिविंग रूट ब्रिज बायोइंजीनियरिंग का एक आकर्षक ‘पुनर्जनन’ रूप है जिसमें मनुष्य और प्रकृति कठिन इलाकों में स्थानों को जोड़ने के लिए सामंजस्य बैठाने की कोश‍िश करते हैं। भौगोलिक रूप से मेघालय पहाड़ी क्षेत्र है जिसमें घाटियां और उच्चभूमि पठार, नदियां, धाराएं और झरने हैं। खासी और जयंतिया जनजाति के लोग नदियों, घाटियों के पार बसे गांवों को जोड़ने के लिए पारंपरिक रूप से एलआरबी का निर्माण करते हैं।

इस तरह के निर्माण में किसी इंजीनियरिंग उपकरण का इस्तेमाल नहीं होता और कोई भी दो रूट ब्रिज बिल्कुल एक जैसे नहीं दिखते। फिर भी पीढ़ियों से मौखिक रूप से चला आ रहा यह पारंपरिक ज्ञान केवल संपर्क के माध्यम तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि पर्यटन के माध्यम से आजीविका का स्रोत भी बन चुका है और वास्तुकला के एक नए रूप के लिए प्रेरणा भी है।

परंपरागत रूप से रूट ब्रिज बनाने में सबसे पहले नदी के किनारे एक या दोनों तरफ रबड़ का पौधा लगाना होता है। एक बार जब यह परिपक्व हो जाता है तो पेड़ की बाहर की जड़ों को बांस के ढांचे के सहारे सुपारी के पेड़ के खोखले तने के माध्यम से नदी के दूसरी तरफ कर द‍िया जाता है।

जड़ें जब दूसरे छोर पर पहुंच जाती हैं तो उन्हें मिट्टी में रोप दिया जाता है। जैसे-जैसे ये जड़ें मोटी होती जाती हैं, वे छोटी सहयक जड़ें पैदा करती हैं जो बांस के ढांचे के आकार में फ‍िट होने लगती हैं। जैसे-जैसे ये जड़ें बढ़ती जाती हैं, लोग जड़ों को आपस में जोड़ते हैं ताकि
इनोसकुलेशन
शुरू हो जाए जिससे एक घना ढांचा तैयार होता है।

मेघालय के लिविंग रूट ब्रिज को बनने में दशकों लगते हैं और पारंपरिक रूप से इनका उपयोग राज्य की नदियों, घाटियों और घाटियों को पार करने के लिए किया जाता है। अब वे पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन गए हैं।

इस प्रक्रिया से सीख लेते हुए
NEHU में जहां अब लिविंग रूट पैवेलियन विकसित हो रहा है, वहां एक ऐसी ही प्रक्रिया चल रही है। लिविंग ब्रिज फाउंडेशन ने पिछले साल रबड़ के पौधे लगाए गए थे जो रूट ब्रिज बनाने की कला को संरक्षित करने के लिए काम करने वाला एक गैर सरकारी संगठन है। फाउंडेशन के मॉर्निंगस्टार खोंगथॉ के अनुसार सीढ़ी को उपयोग के लिए पूरी तरह से परिपक्व होने में 25 साल लगेंगे।

खोंगथॉ ने इंडियास्पेंड को बताया, "वैचारिक रूप से सीढ़ी एक लिविंग रूट ब्रिज के समान होगी।" "फ़िकस इलास्टिका पेड़ की बाहरी जड़ों का सीढ़ी बनाने के लिए तैयार किया जायेगा और हम जड़ों को एक निश्चित दिशा में बढ़ने के लिए छंटाई और मार्गदर्शन करते रहेंगे... सीढ़ी अपने आप बन जाएगी। इसे 2047 तक पूरा करने की योजना है और तब तक कोई भी झील को देखने के लिए मंडप की सीढ़ियों पर चढ़ सकेगा।"

इस मंडप को जर्मनी के म्यूनिख तकनीकी विश्वविद्यालय (TUM) के शोधकर्ताओं द्वारा डिज़ाइन किया गया है, जिन्होंने LRB का व्यापक अध्ययन किया है। लैंडस्केप आर्किटेक्चर में ग्रीन टेक्नोलॉजी के प्रोफेसर फर्डिनेंड लुडविग और फ्रीबर्ग विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर थॉमस स्पेक ने 74 एलआरबी का विश्लेषण किया और इन पुलों को बनाने वाले समुदाय के सदस्यों के साथ साक्षात्कार आयोजित किए, ताकि जटिल जड़ संरचना को समझा जा सके। उन्होंने हजारों तस्वीरें भी लीं, जिनके आधार पर 3-डी मॉडल बनाए गए। NEHU में मंडप परियोजना का नेतृत्व लुडविग के साथ काम करने वाले शोधकर्ता विल्फ्रिड मिडलटन ने किया है।

TUM के अनुसार, लुडविग और फ्रीबर्ग ने पहली बार LRB के स्थान का मानचित्रण भी किया। खोंगथॉ ने कहा कि अब 132 LRB के GPS स्थान का मानचित्रण किया जा चुका है, "लेकिन अभी भी कई और मानचित्रित किए जाने बाकी हैं"।

इमारतों को भविष्य के लिए तैयार करना

लुडविग ने इस दृष्टिकोण पर केंद्रित शोध के एक नए क्षेत्र की अवधारणा बनाई जिसे बाउबोटानिक कहा जाता है, जिसमें निर्माण सामग्री के रूप में जीवित पेड़ों का उपयोग किया जाता है। NEHU में सीढ़ी परियोजना इसी अवधारणा पर आधारित है।

उन्होंने इंडियास्पेंड को बताया, "पारंपरिक लिविंग रूट ब्रिज की जांच के माध्यम से हम खासी लोगों की अवधारणा, दृष्टिकोण और अभ्यास के बारे में बहुत कुछ जान सके।” "लिविंग ब्रिज फाउंडेशन के साथ मिलकर हमारा लक्ष्य इस ज्ञान को आधुनिक हरित वास्तुकला में स्थानांतरित करना है।"

NEHU में वास्तुकला विभाग की इबिंटा बी. टिएव्सोह ने कहा कि यह परियोजना उन्हें शहरी संदर्भ में जीवित वास्तुकला को देखने और प्रकृति के साथ-साथ निर्माण को समझने में मदद करेगी।

"जर्मनी में लुडविग द्वारा इसी तरह की एक परियोजना शुरू की गई है। यह पहली बार है जब इस तरह का सहयोगात्मक प्रयास यहां किया गया है।" उन्‍होंने इंड‍िया स्‍पेंड को बताया। लुडविग ने कहा कि NEHU मंडप वास्तुकला और पेड़ों को मिलाने की दिशा में पहला कदम है। इस तरह से कि शहर हरियाली से भरपूर, ठंडे और रहने लायक बनेंगे। पत्थर, कंक्रीट, डामर उच्च परिवेश के तापमान पर तेजी से गर्म होते हैं, इसलिए शहरों में ज्‍यादा गर्मी पड़ती है।

“पौधे ठंडक प्रदान करते हैं और शहरों में ये गर्मी के मौसम में ये बहुत कारगार होंगे। इसलिए, उम्मीद है कि लिविंग रूट मंडप पूरे इलाके को ठंडा कर देगा और तापमान को कम कर देगा।” NEHU में वास्तुकला विभाग के प्रमुख बनभलंग स्वर ने कहा।

रूट ब्रिज का रखरखाव एक सामुदायिक प्रयास है जो पीढ़ियों तक चलता है। पीढ़ियों से मौखिक रूप से प्रचल‍ित ज्ञान का उपयोग अब जीवित वास्तुकला की अवधारणा के लिए किया जा रहा है।

"इस परियोजना के तीन भाग हैं: डिजाइनिंग, निर्माण और विकास," टिएव्सो ने कहा। "हमारे विश्वविद्यालय के वास्तुकला छात्रों ने डिजाइन चरण में TUM के छात्रों के साथ सहयोग किया। फिर छात्रों के एक अन्य बैच ने निर्माण चरण में बांस के ढांचे को बनाने के लिए प्रशिक्षण लिया। लिविंग ब्रिज फाउंडेशन अब फिकस के पौधों की वृद्धि की निगरानी कर रहा है।"

स्वर ने हमें बताया कि विभाग यह पता लगा रहा है कि इसे शहरों और गांवों में विभिन्न स्तरों पर कैसे लागू किया जा सकता है। "हम इस बात का प्राथमिक सर्वेक्षण करेंगे कि कौन सी मिट्टी उपयुक्त है और क्या अन्य पौधों का उपयोग किया जा सकता है - ऐसे पौधे जो तेजी से बढ़ सकते हैं।" उन्‍होंने आगे बताया।

लुडविग ने कहा कि उन्होंने शुरू से ही कई तरह के लाभ लेने के दृष्टिकोण से बड़ी संख्या में युवा पेड़ों को विकसित किए हैं। उन्होंने आगे बताया कि उनकी टीम ने यूरोपीय पेड़ों का उपयोग करके जर्मनी में कई परियोजनाओं पर काम किया है।

आजीविका का स्रोत

भविष्य के लिए इमारतों को तैयार करने के प्रयास चल रहे हैं। वहीं दशकों पुराने, कभी-कभी सदियों पुराने लिविंग रूट ब्रिज भी पर्यटन के माध्यम से स्थानीय समुदायों के लिए आजीविका का स्रोत बनते जा रहे हैं।

वर्ष 2022 में यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल की संभावित सूची में शामिल LRB मेघालय में यात्रियों के यात्रा कार्यक्रम का एक अनिवार्य हिस्सा हैं। पिछले कुछ वर्षों में लिविंग रूट ब्रिज की ओर जाने वाले रास्तों पर होमस्टे और खाने-पीने की जगहों की संख्या में वृद्धि देखी गई है जो पर्यटकों की बढ़ती संख्या को ध्यान में रखते हैं।

शिलांग से 65 किलोमीटर दूर पूर्वी खासी हिल्स में नोंग्रियाट डबल-डेकर लिविंग रूट ब्रिज में एक स्थानीय गाइड डेविड पारियाट ने कहा कि लगभग चार साल पहले तक इन गांवों के पास इतने होमस्टे नहीं थे, जितने अब हैं।

"स्थानीय समुदायों ने महसूस किया है कि यहां एक अवसर है और अब आपको अपने रास्ते में ऐसी कई जगहें देखने को मिलेंगी।" उन्होंने आगे बताया।

जर्नल सस्टेनेबिलिटी में 2020 के एक शोध लेख में एलआरबी और पर्यटन के बीच परस्पर संबंधों पर विस्तार से बताया गया है जिसमें कहा गया है कि पुलों का उपयोग अभी भी पारंपरिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है। लेकिन पर्यटन की ओर एक क्षेत्रीय बदलाव हो रहा है।

लेख में कहा गया है, "उदाहरण के लिए वाह थिलोंग पुल पर हर दिन सैकड़ों पर्यटक आते हैं। लेकिन इसका उपयोग अभी भी किसान, बाज़ार विक्रेता और स्कूली छात्र करते हैं।" लेख में कहा गया है कि पर्यटन के अनुकूल होने के लिए, "पर्यटकों की सुरक्षा के लिए पुलों को मजबूत किया जाता है"। "पर्यटन को और बढ़ाने के क्रम में, गेस्ट हाउस बनाए जा रहे हैं। पुलों तक जाने वाले रास्तों को सड़कों से बदला या बदला जा रहा है और पर्यटन से आय उत्पन्न होने के कारण खेती को कम किया जा रहा है।"

स्थिरता महत्वपूर्ण है

हालांकि सभी अच्छी चीजों की तरह रूट ब्रिज के मामले में पर्यटन को किस हद तक बढ़ने दिया जाए, इस पर एक सीमा खींची जानी चाहिए। मेघालय में शासन की एक पारंपरिक प्रणाली हिमा के सचिव टैम्बोर लिंगदोह ने कहा, जिन्होंने मावफलांग में इको-टूरिज्म की शुरुआत की थी।

भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिक साल्वाडोर लिंगदोह, जिनका काम हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र में संरक्षण पर केंद्रित है, ने कहा, "बड़े पैमाने पर पर्यटन खतरनाक है और इसका दोहरा असर हो सकता है।" "रूट ब्रिज बनाने में बहुत समय और ऊर्जा लगती है इसलिए हमें और अधिक गुणवत्तापूर्ण और शोध-आधारित पर्यटन की आवश्यकता है।" शोध लेख में पाया गया कि 75 एलआरबी में से 14% में पर्यटन के कारण महत्वपूर्ण बदलाव हुए हैं।

डब्ल्यूआईआई के लिंगदोह ने कहा कि सतत पर्यटन को विकसित करने पर ध्यान केंद्रित किअज़ेरा परवीन रहमान एक स्वतंत्र लेखिका हैं जो वर्तमान में गुजरात के भुज में रहती हैं। वह मुख्य रूप से विकास, पर्यावरण, कला और संस्कृति पर लिखती हैं और 15 से अधिक वर्षों से इस क्षेत्र में हैं।या जाना चाहिए ताकि रूट ब्रिज नकारात्मक रूप से प्रभावित न हों।

वे आगे कहते हैं जैव विविधता और इन पुलों के बीच एक संबंध है। "एलआरबी अपने आप में एक पारिस्थितिकी तंत्र है। गिलहरी जैसे जानवर उनकी शाखाओं का उपयोग करते हैं। पक्षी उनमें घोंसला बनाते हैं। बादल वाले तेंदुए और हिरण जंगल के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने के लिए उनका उपयोग करते हैं। इसलिए उन्हें संरक्षित किया जाना चाहिए।"

लिविंग ब्रिज फाउंडेशन की पहलों में से एक एलआरबी के चारों ओर एक बफर जोन का प्रस्ताव करना है। खोंगथाव कहते है, "हमने कबीले समितियों, हमारे पारंपरिक प्रमुखों को रूट ब्रिज के चारों ओर 50 मीटर का बफर जोन प्रस्तावित किया है ताकि कोई भी निर्माण गतिविधि न हो जो किसी भी तरह से पेड़ों को नुकसान पहुंचा सकती है।"

खोंगथाव ने कहा कि युवा पीढ़ी के बीच रूट ब्रिज बनाने के बारे में ज्ञान के नुकसान का भी जोखिम है, यही वजह है कि वे रूट ब्रिज और उनके पीछे निस्वार्थता के बड़े विचार के बारे में जागरुकता भी बढ़ाते हैं। रूट ब्रिज का रखरखाव एक सामुदायिक प्रयास है जो पीढ़ियों तक चलता है। वे आगे बताते हैं कि पिनुरसला तहसील के मेरे गांव में 22 लिविंग रूट ब्रिज हैं। मेरा काम समुदाय से इस बारे में बात करने से शुरू हुआ कि हम किस तरह का पर्यटन चाहते हैं और फिर युवाओं को गाइड के रूप में प्रशिक्षित करने के लिए आगे बढ़ा, बुजुर्गों की मदद ली जो युवाओं को रूट ब्रिज बनाए रखने और बनाने का तरीका सिखा सकते हैं।"

उन्होंने सामुदायिक होम स्टे स्थापित करने में भी मदद की है। यूएनडीपी के समर्थन से फाउंडेशन ने तीन गांवों के 400 घरों में पर्यटन मॉडल स्थापित किए हैं। खोंगथाव ने कहा, "हमने 2018 में अपनी स्थापना के बाद से 50 से अधिक रूट ब्रिज की मरम्मत भी की है।"

उन्होंने मावकिनरोट और फलांगटिंगोर गांव के बीच बनने वाले ट्रिपल-डेकर रूट ब्रिज के केयरटेकर होने की जिम्मेदारी भी ली है। उन्होंने कहा, "पहले मैं एलआरबी का प्रमोटर था, लेकिन अब मैं इसका संरक्षक बन गया हूं।"