लखनऊ: बहराइच जिले के एक गांव में रहने वाली 24 साल की होनहार दिव्या अपना ग्रेजुएशन पूरा कर चुकी हैं। पिछले तीन महीनों से उनके व्यवहार में एक अजीब सा बदलाव नजर आ रहा था। दिव्या ठीक से सो भी नहीं पाती है। उनका किसी काम में मन नहीं लगता, अचानक गुस्से में चिल्लाने लगती और कभी-कभी ऐसी कहानियां सुनाती, जो कभी घटी ही नहीं थीं।

दिव्या के घरवालों ने शुरू में उसकी अजीबोगरीब हरकतों को नजरअंदाज किया। लेकिन, जब आस-पड़ोस के लोग टोकने लगे तो उन्हें डर हुआ कि कहीं समाज में उनकी बदनामी न हो जाए। दिव्या की मां ने बताया कि वो उसकी शादी को लेकर ज्यादा परेशान थे। अगर उसके पागलपन की बात फैल गई तो उसकी शादी नहीं हो पाएगी। इस डर से वो दिव्या को पास के एक बाबा के पास ले गए। बाबा ने झाड़-फूंक की और बताया कि दिव्या पर कोई साया है। उसकी किसी रिश्तेदार महिला ने उसे चाय में कुछ मिलाकर पिलाया था, इसलिए वो इस तरह से व्यवहार कर रही है। बाबा ने पूजा कराने की बात कही, जिसमें 11 हजार रुपए का खर्चा आया था।

ये कहानी सिर्फ दिव्या की नहीं, बल्कि ऐसे कई लोगों की है जो मानसिक सेहत को गंभीरता से लेने के बजाय उसे झाड़-फूंक का मामला समझते हैं। इंडियास्पेंड हिन्दी ने जब दिव्या से बात की तो उन्होंने बताया कि कुछ समय पहले उनकी एक चचेरी बहन ने आत्महत्या कर ली थी। तब से उनकी बहन सपने में आती है। दिव्या ने कहा, वो और उनकी बहन सहेलियों की तरह थीं, हर बात एक-दूसरे से साझा करती थीं। अब उन्हें लगता है कि ऐसा कोई नहीं है जिससे वो अपनी मन की बात कर सकें।

भारत में हाल के वर्षों में मानसिक स्वास्थ्य से जूझ रहे लोगों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है। क्यूरियस जर्नल में प्रकाशित 2023 की एक रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक भारत मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से बुरी तरह से जकड़ा हुआ है। इनमें अवसाद, चिंता, सिज़ोफ्रेनिया जैसी समस्याएं शामिल हैं। अध्ययन से यह भी पता चला कि भारत में इन बीमारियों के इलाज के लिए जरूरी सेवाएं लोगों तक नहीं पहुंच पा रही हैं। इलाज महंगा है और कई जगहों पर अच्छे डॉक्टर भी नहीं हैं। बहुत से लोग अपनी बीमारी से जूझते रह जाते हैं या फिर बिना ठीक हुए ही इलाज छोड़ देते हैं। ग्रामीण भारत में ये समस्याएं और जटिल हैं।

ग्रामीण भारत अभी भी इलाज की पहुंच से दूर

गोण्डा जिले से 16 किमी दूर मुंडेरवा माफी को लेकर मान्यता है कि अगर किसी पर कोई बुरी शक्ति का साया है तो वहां उससे छुटकारा दिलाया जाता है।

54 साल की किरण देवी हर मंगलवार को अपने बेटे को लेकर मुंडेरवा आती हैं। उन्होंने कहा, "मेरे बेटे की हालत अब थोड़ी ठीक है।" किरण देवी का बेटा इंटर में पढ़ता है और पिछले कुछ महीनों से किसी से नहीं मिल रहा है। घर में भी किसी से बात नहीं करता, बस एक कमरे में बंद रहता है। स्कूल से भी शिकायत आई है। किरण देवी बताती हैं, "मेरा इकलौता बेटा है। मुझे लगता है कि किसी ने जायदाद के चक्कर में उस पर कुछ करा दिया है। हम जिन बाबा के पास जाते हैं, वो भी यही कहते हैं। उन्होंने कई अलग-अलग उपाय भी बताएं जिन्हें हम लगातार कर रहे हैं।"

अगर गोण्डा जिले में मनोचिकित्सक की बात करें, तो यहां कोई ऐसा डॉक्टर नहीं हैं। सिर्फ एक प्राइवेट अस्पताल में महीने के तीसरे शनिवार को एक मनोचिकित्सक बाहर से आती हैं।

आबर्जव रिसर्च फाउंडेशन की एक रिपोर्ट की मानें, तो प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHCs) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (CHCs) में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चल रही योजनाओं का ठीक तरीके से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। जागरूकता की कमी एक बड़ी समस्या है। रिपोर्ट में बताया गया है कि प्राथमिक से जिला केंद्रों में रेफर किए जाने वाले मरीज डॉक्टर की सलाह लिए बिना ही घर लौट जाते हैं। इसके अलावा मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े बुनियादी ढांचे में भी कई कमियां हैं। प्राथमिक चिकित्सकों को मानसिक बीमारियों की पहचान करने का प्रशिक्षण ठीक तरह नहीं मिलता है, इसलिए वो मरीजों को उन जगहों पर नहीं भेज पाते जहां उन्हें पर्याप्त और बेहतर देखभाल मिल सके।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा दुनिया भर में किए गए सर्वेक्षण से पता चला है कि मानसिक स्वास्थ्य के तकरीबन 76-85 प्रतिशत गंभीर मामलों का कभी इलाज ही नहीं किया जाता है। 2016 में किए गए राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य एवं तंत्रिका विज्ञान संस्थान (NIHMANS) के हालिया मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आकलन के मुताबिक, भारत में स्वास्थ्य संबंधी विकारों से पीड़ित हर 10 में से केवल एक मरीज को ही सही इलाज मिल पाता है।

मनोचिकित्सक और काउंसलर की कमी

2011 की जनगणना के अनुसार, देश में 7.22 लाख से अधिक लोग ‘मानसिक बीमारी’ से पीड़ित हैं जबकि 15 लाख से अधिक लोगों में ‘बौद्धिक अक्षमता’ है। उत्तर प्रदेश में ही 76,603 लोग मानसिक बीमारी से जूझ रहे हैं। और 1,81,342 लोगों में बौद्धिक अक्षमता है। लेकिन दुख की बात है कि इतनी बड़ी आबादी वाले राज्य में मानसिक अस्पतालों की स्थिति बेहद खराब है। नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में केवल 3 बड़े मानसिक अस्पताल हैं।

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-16) से पता चलता है कि लगभग 15 प्रतिशत आबादी को मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के लिए इलाज की जरूरत है। डॉक्टरों की कमी भी एक बड़ी समस्या है। वर्ष 2023 में अमेरिका में 10 लाख से अधिक मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर काम कर रहे थे। जबकि भारत में 100,000 लोगों पर 0.75 मनोचिकित्सक हैं। यानी 27000 मनोचिकित्सकों की कमी है। हालांकि, दिशा-निर्देशों के मुताबिक, प्रति एक लाख आबादी पर कम से कम तीन मनोचिकित्सक होने चाहिए। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2,000 मान्यता प्राप्त मनोवैज्ञानिक,1500 सामाजिक कार्यकर्ता और 1000 मनोरोग नर्स हैं। लेकिन भारत में किसी भी विशेषज्ञता वाले डॉक्टरों की सटीक संख्या जानने का कोई विश्वसनीय स्रोत नहीं है। यह जानकारी भारतीय चिकित्सा परिषद की वेबसाइट पर भी उपलब्ध नहीं है।

महंगा इलाज, बीच में छूटती दवाएं

अम्बेडकर नगर जिले की रहने वाली पूनम मात्र 22 साल की हैं। उनके पति मुंबई में एक फैक्ट्री में काम करते हैं। पिछले छह महीनों से पूनम मानसिक बीमारी का शिकार हैं और लखनऊ के एक निजी अस्पताल में उनका इलाज चल रहा है। पूनम के भाई रवि बताते हैं, " पूनम पिछले दो साल से किस हालत में है, इससे उसके पति को कोई मतलब नहीं है। जब उसे अचानक दौरे आने लगे, तो हमने उसे लखनऊ ले जाकर दिखाया। लेकिन यहां की दवाएं बहुत मंहगी हैं और आने-जाने में भी बहुत खर्चा हो जाता है। घर में मैं अकेला कमाने वाला हूं। जब तक करा सकता हूं, तब तक किसी तरह से इलाज करा रहा हूं। जब नहीं हो पाएगा, तो इलाज रोकना पड़ेगा।"

अक्सर मरीजों के पास आस-पास कोई सुविधा न होने के कारण उन्हें बड़े शहरों में डॉक्टर के पास आना पड़ता है जिसकी वजह से कई बार इलाज बीच में ही छूट जाता है।

नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कई देशों में मानसिक स्वास्थ्य के लिए बने अस्पताल बड़े शहरों में होते हैं। यह उन बहुत से लोगों के लिए समस्या है, जिनके घर अस्पताल से बहुत दूर हैं। इस वजह से बहुत से जरूरतमंद लोगों को इलाज नहीं मिल पाता है। अगर ये सुविधाएं उनके घर के पास मिल जाएं तो उनके कई अनावश्यक खर्चे बच जाएं, जैसे आने-जाने का खर्चा, दूसरे शहर में ठहरने का खर्चा, खाने-पीने का खर्चा आदि। साथ ही मरीज अपना इलाज लंबे समय तक चलाने में भी सक्षम हो जाता है।

बलरामपुर अस्पताल के मनोचिकित्सक डॉ. प्रवीण श्रीवास्तव बताते हैं कि मानसिक रोग से जुड़ी कुछ प्राथमिक दवाएं तो सरकारी अस्पतालों में सस्ती मिल जाती हैं। लेकिन अगर कोई प्राइवेट अस्पताल में इलाज करा रहा है तो दवाएं और फीस दोनों ही महंगी हो जाती हैं। डॉ. श्रीवास्तव कहते हैं कि कुछ मानसिक बीमारियां डायबिटीज और बीपी जैसी होती हैं। इनकी दवाएं हमेशा चलती रहती हैं, तभी बीमारी पर नियंत्रण रहता है। इसलिए बिना डॉक्टर की सलाह के, कभी भी किसी मानसिक बीमारी की दवा को अपने मन से बीच में नहीं छोड़ना चाहिए।

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-2016 में पाया गया कि सामान्य मानसिक बीमारियों में उपचार में 80% की कमी है। इसका मतलब है कि 12 करोड़ से ज्यादा लोग बिना किसी उपचार के ही रह जाते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य और आत्महत्या

विश्व स्वास्थ्य संगठन की 17 जून 2022 को जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में हर आठवें व्यक्ति को किसी न किसी प्रकार का मानसिक विकार है। भारत मानसिक समस्याओं से ग्रस्त दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाले देश में एक है यहां करीब 20 प्रतिशत लोग किसी न किसी मनोरोग के शिकार हैं। वहीं 80 प्रतिशत से ज्यादा लोगों को मानसिक स्वास्थ्य सहायता नहीं मिल पाती है। WHO की मानें तो देश औसतन अपने स्वास्थ्य बजट का 2 प्रतिशत से भी कम मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करता है।

जून 2023 को, 24 साल के आशीष ने पंखे से लटक कर अपनी जान दे दी। आशीष के पिता ने बताया, उसे पिछले कुछ महीने से नशे की लत लग गई थी। वह अपने आप में ही खोया रहता, हर छोटी छोटी बात पर सामान तोड़ना, जोर-जोर से चीखना उसकी आदत हो गई थी। उन्होंने कहा, एक दिन मैंने देर से आने पर उसे डांटा, तो उसने खुद को कमरे में बंद कर लिया। हमें लगा हमेशा की तरह थोड़ी देर बाद बाहर आ जाएगा। जब देर हुई तो हमने दरवाजा खुलवाने की कोशिश की। दरवाजा नहीं खुलने पर, आस-पास के लोगों की मदद से दरवाजा तोड़ा गया। सामने मेरा बेटा पंखे से झूल रहा था। आशीष के पिता ने रोते हुए कहा, एक बाप के लिए इससे बड़ा दुख क्या होगा कि उसका जवान बेटा खुद को मार दे।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की ‘भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्या’ 2022 की रिपोर्ट के अनुसार,2022 में, आत्महत्या की दर 2021 से 4.2% बढ़कर 12 से 12.4 प्रति 100,000 जनसंख्या (1,64,033 से 1,70,924) हो गई - जो 56 वर्षों में दर्ज की गई सबसे अधिक दर है।

मनोवैज्ञानिक नेहा आनंद ने इंडियास्पेंड हिंदी से बात करते हुए कहा, युवाओं में मौत का सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है और ये स्थिति तब आती है जब व्यक्ति एकदम निराश हो जाता है। एक स्थिति ऐसी भी आती है जब इंसान के सोचने समझने की सारी शक्ति खत्म हो जाती है। ये आधे घण्टे का समय होता है, अगर इसमें परिवार का कोई सदस्य या दोस्त मदद कर दे, तो आत्महत्या को रोका जा सकता है।

नेहा आनंद का मानना है कि मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे पर टीवी, सोशल मीडिया आदि माध्यमों पर बात की जानी चाहिए। इससे सोच को बदला जा सकेगा और बताया जा सकेगा कि तनाव, डिप्रेशन और एंग्जायटी कोई पागलपन नहीं है। ये भी बाकी बीमारी की तरह एक सामान्य बीमारी है जिसके लिए डॉक्टर के पास जाना जरूरी है।

मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों पर सरकार के बजट में कोई बदलाव नहीं

नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2023 रिपोर्ट के अनुसार, राष्ट्रीय स्तर पर मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के लिए फंड में कोई बदलाव नहीं किया गया है। हालांकि वर्ष 2020-21 में इन कार्यक्रमों के लिए 40 करोड़ का बजट रखा गया था, लेकिन सिर्फ 20.46 करोड़ रुपये ही खर्च किए गए। 2021-22 में 40 करोड़ के बजट में से 26.41 करोड़ रुपये खर्च हुए। और 2022-23 में भी 40 करोड़ का ही बजट रखा गया। बजट की समीक्षा के दौरान अक्सर आवंटित रकम का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पाने की बात सामने आती है। मानसिक स्वास्थ्य को लेकर बढ़ती चर्चाओं और उनसे जुड़ी सेवाओं की जरूरतों के बाद भी बजट का इस्तेमाल न हो पाना निराशाजनक है।

सरकार की पहल: मानसिक कार्यक्रमों से जागरूकता लाने का प्रयास

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि मानसिक बीमारियों को दूर करने के लिए भारत सरकार ने देश के 738 जिलों में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत कई काम किए हैं। इस कार्यक्रम के तहत स्कूल, कॉलेज, कार्यस्थलों में तनाव प्रबंधन, आत्महत्या को रोकने के लिए जागरूकता कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। अप्रैल 2023 से मार्च 2024 के दौरान जिलों में मानसिक स्वास्थ्य ओपीडी में लगभग 94,95,530 मरीजों ने सेवा ली। वहीं जिला अस्पतालों में मानसिक रोग की वजह से भर्ती मरीजों की संख्या 3,19,065 थी।

मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए सरकार ने कई कदम उठाए हैं। आत्महत्या को रोकने के लिए सरकार ने किरण हेल्पलाइन शुरू की। इसके अलावा, बेहतर परामर्श और देखभाल सेवाओं तक पहुंच को बढ़ाने के लिए 10 अक्टूबर, 2022 को "राष्ट्रीय टेली मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम" शुरू किया है। चार दिसंबर 2023 तक 34 राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों ने 46 टेली मानस सेल स्थापित किए हैं और मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं शुरू की हैं। इन मानस केंद्रों के जरिए अक्टूबर 2022 से 31 मार्च 2024 तक 8.07 लाख से ज्यादा फोन कॉल आए, जिन पर काउंसलर्स ने लोगों के सवालों के जवाब दिए। इसके अलावा राष्ट्रीय किशोर स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत देशभर में एडोलसेंट फ्रेंडली हेल्थ क्लीनिक (एएफएचसी) और किशोर शिक्षा कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।

मनोवैज्ञानिक नेहा आंनद के मुताबिक, आजकल हर इंसान किसी ना किसी तनाव और डिसऑर्डर का शिकार है। ऐसा नहीं है कि गांव में लोग डॉक्टर के पास आते नहीं हैं लेकिन पहले वो बाबा और झाडफूंक का सहारा लेते हैं। जब केस बिगड़ जाता हैँ, तब वे हम तक पहुंचते हैँ। इसलिए जरूरी है कि मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम गांव-गांव में चलाए जाएं ताकि लोग जागरूक हो सकें। नेहा आनंद का मानना है कि मानसिक स्वास्थ्य भी एक महामारी की तरह है, इसलिए समय रहते जागरूक होना बहुत जरूरी है।