दरभंगाः 66 साल के रामखिलावन सहनी दशकों से मखाना की खेती करते आ रहे हैं। उनके पास 20 बीघा जमीन है जो किराये और अध-बंटाई पर ली हुई है। इस काम में उनका पूरा परिवार उनका साथ देता है।

यह जमीन उनके पास सालों से है और इसके लिए उन्हें 10 हजार रुपये प्रति बीघे की दर से किराया देना होता है, जो आज के समय में बाजार दर से काफी कम है। उन्होंने कहा, "अगर कोई नया किसान आज किसी का खेत, मखाना की खेती के लिए लेता है तो उसे 15 से 20 हजार रुपये तक किराया देना पड़ सकता है।" उसके अलावा खेतों की देखभाल के लिए हमेशा दो आदमियों की जरूरत होती है और फसल लगाने के समय यह संख्या 10 से 12 पहुंच जाती है।

वैसे तो मखाना, पानी में उगने वाली एक लचीली फसल है जिस पर मौसम परिवर्तन का ज्यादा असर नहीं पड़ता है। लेकिन लगातार बढ़ती गर्मी मखाना किसानों के लिए एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है।

इस साल जून के महीने में दरभंगा में 13 दिन तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर रहा, जिसमें से छह दिन तो तापमान 42 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। मई में आठ दिन तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से ऊपर रहा। ये आंकड़े साफ तौर पर दर्शाते हैं कि बढ़ती गर्मी मखाना की खेती के लिए एक गंभीर समस्या बन गई है।

मखाना की खेती का प्रबंधन और जलवायु परिवर्तन की चुनौती

मखाना अपने गुणों के कारण सुपर फूड माना जाता है। इसमें प्रोटीन, फाइबर, कार्बोहाइड्रेट, विटामिन और मिनरल्स भरपूर मात्रा में होते हैं। फरवरी में मखाना के पौधे को लगाया जाता है, दो महीने बाद इसमें फूल निकलने लगते हैं। फूलों से फल बनते हैं और ये फल खुद ही गलकर पानी की सतह पर आ जाते हैं। 10-15 दिन बाद ये फल मिट्टी में डूब जाते हैं और फिर मखाना का बीज बनना शुरू होता है। बीज बनने में तीन से चार महीने का समय लगता है।

मखाना अनुसंधान केंद्र, दरभंगा के प्रधान वैज्ञानिक एवं अध्यक्ष डॉ आईएस सिंह ने इंडियास्पेंड हिंदी से बातचीत में कहा, “खेत में मखाना की खेती किसानों के लिए अधिक फायदेमंद है, तालाब में जहां वे 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर फसल ले पाते हैं, वहीं खेत में वे 25 से 30 क्विंटल तक की फसल तैयार हो जाती है। लेकिन, खेत में घास आने की समस्या किसानों के लिए चुनौती बनी हुई है। घास के कारण पैदावार कम हो सकती है। इसके लिए किसानों को कुछ खास उपाय बताए जा रहे हैं।” सिंह ने आगे कहा, किसानों को सलाह दी जाती है कि जब वे खेत तैयार करने के लिए गीली जुताई करें, तो उसी समय घास मारने वाली कुछ दवा उसमें डाल दें। गीली जुताई तीन से चार बार अच्छी तरह से करनी होगी, इससे घास की समस्या कम सामने आएगी। इसके अलावा गर्मी के मौसम में पहले ही खेत की थोड़ी जुताई कर देने से घास जड़ से निकल जाती है।

जलवायु परिवर्तन के मखाना की खेती पर पड़ने वाले प्रभाव से जुड़े सवाल पर डॉ आईएस सिंह कहते हैं, “यह पानी में उपजने वाला पौधा है और पानी में होने वाली फसल पर जलवायु परिवर्तन का सबसे कम असर होता है। यह क्लाइमेट रेजिलिएंट (जलवायु लचीलापन) फसल है.” उन्होंने आगे कहा, नम भूमि में कार्बन स्टॉक ज्यादा होता है। क्योंकि मखाना की जड़ें पानी के अंदर होती हैं, इसलिए जमीन की सतह पर होने वाली फसलों की तुलना में इस पर तेज गर्मी का असर कम होता है। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन का असर मखाना की खेती पर भी पड़ने लगा है।

डॉ. सिंह ने मखाना की बढ़ती कीमतों का कारण समझाते हुए कहा, पिछले साल (2022) बहुत ज्यादा गर्मी पड़ी थी। तापमान 42 डिग्री से अधिक था, जो मखाना की खेती के लिए सही नहीं है। तेज गर्मी से मखाने के पत्ते सूखने लगे। कम पानी वाले खेतों में तो पौधे ही सूख गए। फल नहीं लगे और उनका विकास नहीं हुआ। इससे उत्पादन कम हो गया और कीमतें बढ़ गईं।

डॉ. आईएस सिंह ने बताया कि तालाबों में होने वाली मखाना की खेती पर ज्यादा तापमान या तेज गर्मी का उतना असर नहीं पड़ा। सिर्फ़ मेटाबोलिक रेट कम हुआ है। कुल मिलाकर वेटलैंड वाली मखाना फसल पर तेज गर्मी का कम असर दिखा।

बिहार बागवानी मिशन के दरभंगा में तैनात सहायक निदेशक नीरज झा के मुताबिक, मखाने की खेती के लिए जलवायु परिवर्तन एक बड़ी चुनौती है। 40 डिग्री से अधिक तापमान इसके लिए बिल्कुल अच्छा नहीं है। हर तीन-चार साल में एक बार मखाना की फसल पर ड्राई स्पेल (सूखे का दौर) आ जाता है, जिससे किसानों को नुकसान होता है। ऐसा सामान्यतः जून, जुलाई व अगस्त की महीने में देखने को मिलता है। उन्होंने कहा, “इस समस्या का समाधान निकालने के लिए किसानों को बोरिंग से सिंचाई करने और पानी का छिड़काव करने के तरीके बताए जाते हैं। साथ ही, नई तकनीकों और प्रौद्योगिकी के बारे में किसानों को जागरूक किया जाता है।”

डॉ. सिंह ने कहा कि किसानों को अधिक गर्मी से फसलों को बचाने के लिए कुछ खास उपाय बताए गए हैं। अगर डेढ़ फीट पानी में मखाना की खेती हो रही है तो पानी का स्तर बनाए रखना जरूरी है। गर्मी ज्यादा पड़ने पर, खासकर 12 बजे के बाद पौधों पर पानी का छिड़काव (स्प्रे) करें। इससे गर्मी का असर कम हो सकता है। ध्यान रहे कि कीटनाशकों का छिड़काव शाम के समय किया जाता है।

रामखिलावन सहनी के मुताबिक, मखाने की कीमतों में उतार- चढ़ाव आता रहता है। 2021-22 में मखाना का बाजार भाव अच्छा नहीं था, लेकिन 2023 में थोड़ा ठीक रहा। सहनी मखाना की खेती कर उसे गोटा (समूचा) बेच देते हैं। जिसे बाद में प्रोसेस किया जाता है और उससे दाना या लावा तैयार किया जाता है। सहनी जिस जमीन पर मखाना की खेती करते हैं, वह निचला भूभाग हैं जो चौर, झील या वेटलैंड जैसा है जिससे गर्मियों में भी यहां पानी का सही स्तर बना रहता है।

नई पीढ़ी अपना रही है खेती के नये तरीके

रामखिलावन सहनी के पुत्र राजकुमार सहनी ने बताया कि उनके पिता अभी भी मुख्य रूप से झील या चौर (निचला भूभाग जहां पानी का जमाव होता है) में ही मखाना की खेती कर रहे हैं। लेकिन अब वह धीरे-धीरे खेत प्रणाली की तरफ जाने का प्रयास कर रहे हैं। राजकुमार कहते “तालाब, झील या चौर की तुलना में खेत में मखाना का उत्पादन अधिक होता है और उसके दाने भी बड़े होते हैं।” राजकुमार खुद नौकरी करते हैं, इसलिए वे मखाना की खेती में अपने पिता की पूरी तरह से मदद नहीं कर पाते हैं। वहीं उनके पिता बुजुर्ग होने की वजह से पारंपरिक तरीकों पर अधिक निर्भर हैं।

हालांकि अब अधिक उत्पादन हासिल करने के लिए मखाना की खेती में नये तरीकों को अपनाया जा रहा है। नई पीढ़ी अब मखाना की वैज्ञानिक खेती की ओर बढ़ रही है और पुराने किसान भी धीमी गति से ही सही उस बदलाव को अपना रहे हैं।

दरभंगा जिले के एक मखाना किसान रामखिलावन सहनी, अब भी प्रमुख रूप से परंपरगत पद्धति से मखाना की खेती करते हैं। फोटो - राहुल सिंह/इंडियास्पेंड हिंदी

दरभंगा शहर के सुंदरपुर सहनी टोला के रहने वाले 35 वर्षीय राजेश सहनी एक मखाना किसान और कारोबारी हैं। उन्होंने न सिर्फ मखाना की खेती में आधुनिक तकनीकों का इस्तेमाल किया है, बल्कि अपने कारोबार को और भी व्यापक बनाने के लिए सरकार की योजनाओं का भी लाभ उठाया है। राजेश सहनी ने "मखानो" नाम से अपने उत्पाद का एक ब्रांड बनाया है, जो एक्सपोर्ट क्वालिटी का मखाना तैयार करता है।

राजेश ने इंडियास्पेंड हिंदी से बात करते हुए कहा, “मखाना किसान अब तालाबों से खेतों की तरफ शिफ्ट हो रहे हैं। पहले एक हेक्टेयर जमीन में 15 क्विंटल तक मखाना होता था, लेकिन अब 20 से 25 क्विंटल या इससे ज्यादा भी पैदावार हो रही है।” राजेश इसके पीछे की वजह बताते हैं, "तालाब में पानी 10 से 15 फीट तक रहता है, इससे पौधे के जड़, पत्ते आदि बढ़ने में ज्यादा पोषक तत्व खर्च हो जाते हैं। खेत में दो से ढाई फीट पानी में ही मखाना की खेती हो जाती है, इससे पौधे की जड़ छोटी रहती है, पत्ता जल्दी आ जाता है, फल जल्दी तैयार हो जाते हैं और उत्पादकता बढ़ जाती है।" राजेश के अनुसार, मिथिलांचल (दरभंगा और मधुबनी जिला) में किसान तेजी से तालाब से खेत की ओर जा रहे हैं और इसमें मखाना अनुसंधान केंद्र, दरभंगा का बड़ा योगदान है। केंद्र समय-समय पर किसानों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करता है। राजेश ने 2022 में मखाना अनुसंधान केंद्र से प्रशिक्षण लिया था और उसके बाद से वह खेत की ओर शिफ्ट कर गए।

बिहार बागवानी मिशन के दरभंगा में पदस्थापित असिस्टेंट डायरेक्टर नीरज कुमार झा की माने तो, मिथिलांचल में अभी आधे किसान ही तालाबों से खेतों में मखाना की खेती करने के लिए शिफ्ट हुए हैं। कोसी क्षेत्र में यह अनुपात ज्यादा है।


मखाना तैयार करने की चुनौतियां और बिचौलियों की भूमिका

दरभंगा के जाले स्थित कृषि विज्ञान केंद्र के अध्यक्ष डॉ दिव्यांशु शेखर कहते हैं कि तेज धूप व अत्यधिक गर्मी मखाना की फसल को नुकसान पहुंचाती है। अगर मखाना के खेत में पानी कम रहेगा तो वह गर्म हो जाएगा और उसका बढा तापमान फसल को नुकसान पहुंचाएगा। तेज धूप पत्तों को भी नुकसान पहुंचाती है। इसलिए किसानों को पानी का स्तर बनाए रखने की सलाह दी जाती है।

डॉ शेखर मखाना का लावा तैयार करने और इसके मार्केटिंग व कारोबार से जुड़ी दूसरी चुनौतियों को रेखांकित करते हैं। उनके मुताबिक, भले ही मखाना की मांग में अभी काफी उछाल आ गया है, बाहर से लोग इसके व्यापार के लिए संपर्क कर रहे हों, लेकिन अभी उस अनुपात में तकनीक और अन्य सुविधाएं नहीं बढी हैं। डॉ. शेखर बताते हैं कि मखाना के जड़ से लेकर पत्ते और फल तक में कांटे होते हैं, इसलिए खेत से उसे निकालना मुश्किल होता है। इस काम में कुशल लोगों की कमी है। जब मखाना के बीज पक कर तालाब में नीचे गिर जाते हैं तो उन्हें निकालने के लिए भी कुशल लोग नहीं मिल पाते हैं। एक किलो बीज निकालने के लिए 35 से 40 रुपये की मजदूरी देनी पड़ती है, जबकि एक किलो मखाना बीज से 300 से 400 ग्राम मखाना ही निकलता है।

मखाने के पौधे पर निकला फूल। मखाने का फूल कमल के फूल जैसा दिखता है और यह कमल की प्रजाति के करीब माना जाता है। फोटो - राहुल सिंह/इंडियास्पेंड हिंदी

वह बताते हैं, बीजों की ग्रेडिंग करने के बाद उन्हें छानकर साफ किया जाता है। फिर चार अलग-अलग चूल्हे पर अलग-अलग तापमान में उनकी रोस्टिंग की जाती है, जिससे लावा तैयार होता है। हल्के होने की वजह से ये ज्यादा जगह घेरते हैं और परिवहन लागत बढ़ जाती है। जिससे कीमतें भी बढ जाती हैं। उनके मुताबिक, मखाना तैयार करने का मैनुअल तरीका ही अभी अधिक फायदेमंद है।

कृषि विज्ञान केंद्र, पूर्णिया की वैज्ञानिक डॉ संगीता मेहता भी मानती हैं कि मखाना का लावा तैयार करने का मशीनरी सिस्टम अभी बहुत कारगर नहीं है। इसके किसानों को इसकी सही कीमतें नहीं मिल पा रही हैं और बिचौलिया इसका फायदा उठा रहे हैं। मखाना की खेती में मल्लाह जाति के लोग अधिक सक्षम होते हैं, क्योंकि उन्हें पानी में काम करने का अनुभव होता है।

मखाना उत्पादन में बिहार का योगदान

भारत दुनिया का लगभग 90 प्रतिशत मखाना उत्पादित करता है और इस उत्पादन में बिहार का योगदान 85 प्रतिशत से भी अधिक है। बिहार के 38 जिलों में से छह जिले "एक जिला, एक उत्पाद" (ओडीओपी) योजना के तहत मखाना की खेती के लिए चिह्नित किए गए हैं। ये जिले हैं - दरभंगा, मधुबनी, सहरसा, सुपौल, अररिया और कटिहार। ओडीओपी योजना के तहत इन जिलों के किसानों को इनपुट खरीद, सामान्य सेवाओं का लाभ लेने और उत्पादों के विपणन के लिए ज्यादा सुविधाएं मिलती हैं। हालांकि, मिथिलांचल और कोसी-सीमांचल के 10 जिलों में मखाना की खेती होती है और उन जिलों के किसान बिहार सरकार द्वारा संचालित मखाना विकास योजना का लाभ लेने के पात्र हैं। ये 10 जिले हैं - कटिहार, पूर्णिया, मधुबनी, किशनगंज, सुपौल, अररिया, मधेपुरा, सहरसा, दरभंगा और खगड़िया। वर्ष 2022 में मिथिला मखाना को जीआई टैग भी मिला है।

बिहार में मखाना की खेती तेजी से बढ़ रही है। वित्त वर्ष 2012-13 में मखाना का रकबा 13,000 हेक्टेयर था, जो वर्ष 2021-22 में बढ़कर 35,224 हेक्टेयर हो गया। यह 171 प्रतिशत की वृद्धि है। इस दौरान मखाना के उत्पादन में भी 152 प्रतिशत की वृद्धि हुई। 2012-13 में 9,360 टन मखाना का उत्पादन हुआ था, जो 2021-22 में बढ़कर 23,656 टन हो गया। इसी दौरान मखाना के बीज का उत्पादन भी 56,389 टन हो गया।

आइसीएआर-आरसीइआर रिसर्च सेंटर फॉर मखाना (मखाना अनुसंधान केंद्र), दरभंगा और भोला पासवान शास्त्री कृषि महाविद्यालय, पूर्णिया मखाना की खेती पर शोध करने वाले दो प्रमुख संस्थान राज्य में हैं।

भारत के बाद चीन और जापान मखाना के प्रमुख उत्पादक हैं। चीन के हैनान और ताइवान द्वीपों में इसका उत्पादन होता है, जहां इसका दवाओं में इस्तेमाल किया जाता है। मखाना को सुपरफुड के रूप में प्रचारित किए जाने से भारत और दुनिया भर में इसकी मांग तेजी से बढ़ी है।

दरभंगा स्थित राष्ट्रीय मखाना अनुसंधान केंद्र। यह केंद्र मखाना की खेती पर शोध करने वाला देश का एक प्रमुख संस्थान है। फोटो - राहुल सिंह/इंडियास्पेंड हिंदी

भारत में बिहार का पड़ोसी राज्य उत्तप्रदेश मखाना की खेती को प्रोत्साहन दे रहा है। इस साल गोरखपुर, कुशीनगर और महराजगंज जिले में 33 हेक्टेयर क्षेत्र में मखाना की खेती का लक्ष्य रखा गया है। बिहार के मखाना उत्पादन के मुख्य केंद्र मिथिलांचल के समान उत्तरप्रदेश के पूर्वांचल की जलवायु होने की वजह से उत्तरप्रदेश सरकार ने इसकी खेती को प्रोत्साहित करने का निर्णय लिया है।

वित्त वर्ष 2021-22 में बिहार में मखाना का उत्पादन

जिला

क्षेत्र (हेक्टेयर में)

कुल बीज उत्पादन (टन में)

दरभंगा

4389

7421.4

मधुबनी

4160

7280.7

सीतामढी

145

277.4

पूर्णिया

5549

11652.9

कटिहार

6043

11759

सहरसा

44435267

सुपौल

5463

5182.8

मधेपुरा

2461

2907.39

अररिया

1427

2639.95

किशनगंज

1143

2000.25

कुल

35224

56388.79

स्रोत: राष्ट्रीय मखाना अनुसंधान केंद्र, दरभंगा

मखाना की प्रोसेसिंग, व्यापार और सरकारी सहायता

डॉ आइएस सिंह बताते हैं कि मखाना अनुसंधान केंद्र किसानों को मखाना की प्रोसेसिंग और मार्केटिंग में भी मदद करता है। उन्होंने कहा, “सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी में काफी रिसर्च हुआ, वहां काफी मशीन बनी है, मसलन बीज को भुनने वाली, उसको गर्म करने वाली, लावा को ग्रेडिंग करने वाली आदि। अब हम मखाना अनुसंधान केंद्र, दरभंगा में एक वर्कशॉप और इन्फार्मेशन सेंटर बनाने जा रहे हैं, जहां किसानों को इससे संबंधित जानकारियां दी जाएंगी।”

डॉ. आईएस सिंह बताते हैं कि जो किसान मखाना का बिजनेस करना चाहते हैं, वे अपनी प्रोसेसिंग यूनिट का पूरा सेटअप लगा सकते हैं। किसानों को यह भी बताया जाता है कि मशीनें कहां से खरीदें। मखाना के अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए एचएस कोड दिलवाने की कोशिश भी की जा रही है। किसानों को बताया जाता है कि इसको कारगो तक कैसे पहुंचाया जाए, इंपोर्ट और एक्सपोर्ट कोड के बारे में भी जानकारी दी जाती है।

अगर मखाना को एचएस कोड मिल जाता है तो इसके व्यापार के लिए यह फायदेमंद रहेगा। एचएस कोड मिलने से यह पता चलेगा कि कितनी मात्रा में मखाना देश से बाहर गया है।

वहीं, बिहार सरकार अपने बागवानी मिशन के तहत मखाना की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए मखाना विकास योजना चला रही है। बिहार बागवानी मिशन के असिस्टेंट डायरेक्टर नीरज कुमार झा के अनुसार, मखाना का रकबा बढ़ाने के लिए मखाना उत्पादक जिले में हर साल 200 हेक्टेयर नई भूमि पर मखाना की खेती शुरू करने का लक्ष्य रखा गया है। इससे हर साल नई संख्या में किसान जुड़ते हैं। इस योजना में मखाना की खेती के लिए 75 प्रतिशत तक की सब्सिडी दी जाती है और किसान को बेहतर क्वालिटी वाले बीज उपलब्ध कराए जाते हैं। मखाना गोदाम बनाने के लिए भी 75 प्रतिशत तक की सब्सिडी दी जाती है।

नीरज झा बताते हैं कि मखाना विकास योजना का लाभ तभी मिलता है जब किसान खेत में मखाना की खेती करते हैं, तालाब में खेती करने पर इस योजना का लाभ नहीं मिलता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि इस योजना का उद्देश्य मखाना की खेती में वैज्ञानिक पद्धतियों को अपनाकर उत्पादन बढ़ाना है। खेत में मखाना की खेती से 18 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन प्राप्त होता है, जबकि तालाब में यह 12 से 13 क्विंटल तक ही रहता है।

उन्होंने कहा, खेत में उगाए जाने वाले मखाना की गुणवत्ता भी बेहतर होती है। खेत में हर साल बीज डालना और फसल लेना होता है, जबकि तालाब विधि में एक बार बीज डालने के बाद किसान तीन से चार साल तक फसल ले सकते हैं।