नॉर्थ ईस्ट का पहला मरक्यूरी फ्री हेल्थ सेंटर, जहां टीबी से लेकर सांप काटने तक का इलाज
पूर्वी खासी हिल्स जिले का लैतकोर गांव जो नॉर्थ ईस्ट का पहला मरक्यूरी फ्री हेल्थ सेंटर है। हां मरक्यूरी फ्री का मतलब इस सेंटर पर किसी भी तरह के ऐसे उपकरण का उपयोग नहीं किया जाता है जिसमें मरक्यूरी का प्रयोग हो।
पूर्वी खासी हिल्स। नॉर्थ ईस्ट का नाम आते ही हमारे जहन में पहाड़, हरियाली और प्रकृति सौंदर्य की तस्वीरें आने लगती हैं लेकिन आज हमको नॉर्थ ईस्ट के मेघालय राज्य के एक छोटे से गांव की एक ऐसी कहानी बताएंगे जिसके बारे में शायद ही आपने पहले कभी सुना या देखा हो।
जी हां, हम बात करने जा रहे हैं पूर्वी खासी हिल्स जिले के लैतकोर गांव की जहां नॉर्थ ईस्ट का पहला मरक्यूरी फ्री हेल्थ सेंटर है। मरक्यूरी फ्री, जिसका मतलब है इस सेंटर पर किसी भी तरह के ऐसे उपकरण का उपयोग नहीं किया जाता है जिसमें मरक्यूरी का प्रयोग हो। सुदूर या कहें कि भारत के दुर्गम क्षेत्र में ऐसी कामयाबी होना, बड़ी सफलता है। महज चार हजार की आबादी वाले इस गांव का यह हेल्थ सेंटर सिर्फ मेघालय या नॉर्थ ईस्ट ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए एक आदर्श बना हुआ है क्योंकि मरक्यूरी के साथ साथ इस सेंटर पर सर्प विष रोधी टीका भी उपलब्ध है। साथ ही साथ यहां परिवार नियोजन और क्षय रोग को लेकर भी काफी सजगता के साथ लोगों की निशुल्क जांच की जा रही है।
दरअसल मरक्यूरी यानी पारा मनुष्यों और पारिस्थितिकी तंत्रों के लिए अत्यधिक विषैला होता है और इसे विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी प्रमुख 10 रसायनों या रसायनों के समूहों में से एक के रूप में वर्गीकृत किया है। साल 2010 में भारत सरकार ने पहली बार स्वास्थ्य केंद्रों को मरक्यूरी फ्री बनाने की पहल शुरू की लेकिन 15 वर्ष बाद अभी तक देश के सभी केंद्रों को यह कामयाबी नहीं मिली है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, पारे के संपर्क में आने से तंत्रिका, पाचन और प्रतिरक्षा प्रणाली, फेफड़े और गुर्दे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है, जिसमें बच्चे विशेष रूप से कमजोर होते हैं। तंत्रिका संबंधी लक्षणों में बौद्धिक अक्षमता, दौरे, दृष्टि और श्रवण हानि, विकास में देरी, भाषा संबंधी विकार और स्मृति हानि शामिल हैं।
पर्यावरण में छोड़े जाने पर, मौलिक मरक्यूरी यानी पारा पानी और मिट्टी में मौजूद सूक्ष्मजीवों द्वारा अधिक जैवउपलब्ध मिथाइलमर्करी में परिवर्तित हो सकता है। मिथाइलमर्करी मांसपेशियों के ऊतकों में जमा हो जाता है और जीव में यह जैवसंचय खाद्य श्रृंखला में जैवआवर्धन की ओर ले जाता है। अजन्मे बच्चे और दूध पीते शिशु सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।
आंकड़ों पर नजर डालें तो, 2004 में जारी एक कनाडाई अध्ययन बताता है कि अकेले थर्मामीटर से सालाना 2 टन से अधिक पारा निकलता है। 2011 में भारत में हुआ एक अध्ययन में अनुमान लगाया कि देश में सालाना 8 टन पारा निकलता है, जिसमें से 69% खराब तरीके से डिस्पोज किए गए स्फिग्मोमैनोमीटर और बाकी थर्मामीटर से आता है।
“यह हमारा मरक्यूरी फ्री हेल्थ सेंटर है। हम जानते हैं कि मरक्यूरी हमारे जीवन में कितना विषैला भूमिका निभाता है। इसलिए हम कोई मरक्यूरी से संबंधित उपकरण का इस्तेमाल नहीं करते हैं। अगर एक अस्पताल में मरक्यूरी उपकरण की बात करें तो थर्मामीटर सबसे अच्छा उदाहरण है। पारंपरिक थर्मामीटर में मरक्यूरी होता है जबकि हम डिजिटल थर्मामीटर का इस्तेमाल करते हैं।” लैतकोर पीएचसी की मेडिकल ऑफिसर डॉ. रिस्किला खरमिह बताती हैं।
वे आगे बताती हैं कि परिवर्तन के चलते इस क्षेत्र में भी सर्पदंश के मामले आने लगे हैं। हमारे पास जब भी कोई मरीज आता है तो हम सबसे पहले यह देखते हैं कि काटने वाला सांप विषैला है या नहीं? इसके बाद मरीज को स्थिर कर हम विषरोधी टीका देते हैं। यह इसलिए क्योंकि हम इस टीका की एक भी खुराक फिजुल में खर्च करना नहीं चाहते हैं। इसके लिए हमें पूरा प्रशिक्षण भी प्राप्त है।