मुंबई: महिला आरक्षण विधेयक के अनुसार लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित की गई हैं। लेकिन 18वीं लोकसभा के लिए चुने गए सांसदों में मह‍िलाओं की भागीदारी

महज 13% हैं। 543 निर्वाचित सांसदों में महिलाओं की संख्‍या 73 है जो 17वीं लोकसभा में चुनी गई 78 महिलाओं की तुलना में कम है।

निर्वाचित प्रतिनिधियों में लैंगिक अंतर उम्मीदवारों के बीच असमानता से शुरू होता है। चुनाव के लिए खड़े 8,337 उम्मीदवारों में महिलाएं 797 ही थीं। हालांकि 2019 में महिला उम्मीदवारों की कुल संख्या 720 की तुलना में 10% ज्‍यादा है। लेकिन कुल उम्मीदवारों में उनकी हिस्सेदारी बहुत कम बढ़ी है। 2019 में 9% से 2024 में 9.5% हो गई। इन 797 महिलाओं में से 9% ने जीत हासिल की।

महिला आरक्षण विधेयक 19 सितंबर 2023 को लोकसभा में पेश किया गया। इस विधेयक का उद्देश्य लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करना है। इस विधेयक के पारित होने के बाद पहली जनगणना के बाद आरक्षण प्रभावी हो जाएगा। पिछली जनगणना 2011 में हुई थी। 2021 की जनगणना में अब तीन साल की देरी हो गई है। जब भी अगली जनगणना होगी, उसके परिणामों के आधार पर महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने के लिए परिसीमन किया जाएगा जिसमें आरक्षण 15 साल तक चलेगा।

विधेयक में निर्दिष्ट किया गया है कि प्रत्येक परिसीमन के बाद आरक्षित सीटों को रोटेशन द्वारा आवंटित किया जाएगा जो लगभग हर 10 साल में होने की उम्मीद है, क्योंकि 2026 के बाद प्रत्येक जनगणना के बाद परिसीमन अनिवार्य है।

पंचायती राज मंत्रालय के एक अध्ययन (2008) ने पंचायत स्तर पर निर्वाचन क्षेत्रों के रोटेशन को बंद करने की सिफारिश की जिसमें कहा गया कि लगभग 85% महिलाएं पहली बार प्रतिनिधि थीं और केवल 15% ही अपनी सीटों के अनारक्षित होने के कारण फिर से चुनाव जीत सकीं।

राष्ट्रीय दलों के उम्मीदवारों में मह‍िलाएं केवल 12 फीसदी

वर्ष 2024 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों में 16% महिलाएं और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उम्मीदवारों में 13% महिलाएं थीं। आम आदमी पार्टी ने कोई महिला उम्मीदवार नहीं उतारा। भाजपा की 69 महिला उम्मीदवारों में से 31 ने जीत दर्ज की। कांग्रेस के 41 महिला उम्मीदवार थीं जिनमें से 13 ने जीत दर्ज की। अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस ने 12 महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जिनमें से 10 ने जीत दर्ज की।

राष्ट्रीय दलों/बड़ी राज्य पार्टियों में महिला उम्मीदवारों का प्रतिशत

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, मुंबई में एडवांस्ड सेंटर फॉर विमेन स्टडीज की पूर्व प्रोफेसर विभूति पटेल कहती हैं, "ज्‍यादातर मुख्यधारा की पार्टियां महिलाओं को टिकट नहीं देती हैं। यहां तक कि उन महिलाओं को भी दरकिनार कर देती हैं जिन्होंने पार्टी को 40-50 साल समर्पित किए हैं।"

"जब टिकट दिए भी जाते हैं तो अक्सर ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों के लिए होते हैं जहाँ जीतना मुश्किल होता है, जहाँ विपक्ष बहुत मजबूत होता है।" "कई बार वोट काटने के मकसद से भी मह‍िलाओं को ट‍िकट दिये जाते हैं। उन्हें ऐसे काम सौंपे जाते हैं जिन्हें कोई भी पुरुष करने को तैयार नहीं होते।” पटेल ने आगे कहा।

वे बताती हैं कि महिलाओं को अक्सर पार्टी के भीतर एक पैदल सैनिक की भूमिका में रखा जाता है। “वे रैलियां आयोजित करती हैं। भोजन और पानी उपलब्ध कराती हैं। समुदायों को सूचित करती हैं और लोगों को संगठित करती हैं। लेकिन उन्हें शायद ही कभी पर्याप्त शक्ति या नेतृत्व की भूमिकाएं दी जाती हैं।”

राष्ट्रीय दलों में भाजपा और कांग्रेस में 13% महिला सांसद हैं। भाजपा में महिला सांसदों की संख्या 17वीं लोकसभा से कम हुई जब पार्टी में 42 महिला सांसद थीं, जबकि कांग्रेस में यह संख्या बढ़ी है, जिसमें सात महिला सांसद थीं।

797 महिला उम्मीदवारों में से 276 (35%) ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा, फिर भी उनमें से एक भी नहीं जीती।

पार्टीवार महिला सांसद 2019 बनाम 2024

बड़े राज्यों में से किसी ने भी 33% महिला सांसदों को हासिल नहीं किया

नई लोकसभा में पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश से महिला सांसदों का प्रतिनिधित्व सबसे ज्‍यादा है। बड़े राज्यों में से केरल ने एक भी महिला को नहीं चुना जहां 20 सीटें हैं। उत्तर प्रदेश, गुजरात और ओडिशा में महिला सांसदों की संख्या में कमी आई है। लेकिन मध्य प्रदेश और बिहार में बढ़ोतरी हुई।

महाराष्ट्र ने कुल मिलाकर सबसे अधिक महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जबकि दिल्ली और तेलंगाना में प्रति निर्वाचन क्षेत्र में सबसे अधिक महिला उम्मीदवार थीं। दिल्ली में 24 महिलाओं ने सात निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव लड़ा और तेलंगाना में 50 महिलाओं ने 17 निर्वाचन क्षेत्रों में भाग लिया।

2024 में राज्यवार महिला सांसदों का प्रतिशत

131 आरक्षित सीटों में से 18 पर महिलाओं ने जीत दर्ज की

अनुसूचित जाति (एससी) समुदायों के लिए आरक्षित 84 सीटों में से 13% पर महिलाओं ने जीत दर्ज की है जबकि अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित 47 सीटों में से 15% पर महिलाओं ने जीत दर्ज की। 17वीं लोकसभा में एसटी के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में एक चौथाई से अधिक सांसद महिलाएं थीं। एससी आरक्षित सीटों और सामान्य सीटों में महिलाओं की हिस्सेदारी 13% थी।

वर्ष 2024 के चुनावों के दौरान सामान्य और एसटी, दोनों निर्वाचन क्षेत्रों की तुलना में एससी निर्वाचन क्षेत्रों में महिला उम्मीदवारों का अनुपात अधिक था। औसतन प्रति निर्वाचन क्षेत्र चुनाव लड़ने वाली महिलाओं की संख्या एससी निर्वाचन क्षेत्रों में 1.6 थी, जबकि एसटी और सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में यह 1.4 थी।

पटेल ने इस बात पर प्रकाश डाला कि हाशिए के समुदायों की महिलाओं को अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। “यदि वे दलित या युवा संगठनों का हिस्सा हैं तो उन्हें कम से कम कुछ समर्थन और सुरक्षा मिलती है।”

“स्थानीय निकायों में महिलाओं के साथ काम करने का हमारा अनुभव बताता है कि जब कमज़ोर या हाशिए पर पड़े वर्गों की महिलाएँ चुनाव लड़ने और सफल होने का साहस करती हैं, तो वे रोल मॉडल बन जाती हैं, जो बहुत सशक्त बनाता है। महिलाओं को अवसर प्रदान करने से स्वाभाविक रूप से क्षमता निर्माण होता है। जमीनी स्तर पर आकांक्षाएँ हैं, लेकिन राजनीतिक आकाओं के कारण महिलाओं को अक्सर अवसरों की कमी होती है।”

2019 में इंडियास्पेंड ने पांच भाग की सीरीज के दौरान पाया क‍ि कैसे पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण ने तमिलनाडु में ग्रामीण शासन की सूरत बदल दी। शर्मिला देवी जिन्होंने कुछ ऐसा किया जो आधी सदी में कोई भी पुरुष नहीं कर सका। उन्होंने अपने गांव के जल संकट को हल किया। अपनी व्यक्तिगत गरीबी के बावजूद, दलित पंचायत अध्यक्ष और दिहाड़ी मजदूर रजनीकांधम अपनी पंचायत में सार्वजनिक कार्यों के लिए अतिरिक्त धन की पैरवी करती हैं।

दलित मुथुकन्नी को कार्यालय से बाहर कर दिया गया। राष्ट्रीय ध्वज फहराने से रोक दिया गया। धमकाया गया। गाली दी गई और सड़कों पर बदनाम किया गया। लेकिन उन्‍होंने कॉरपोरेट सोशल रिस्‍पॉन्न्‍सबिलटि फंड से एक शानदार नया पंचायत कार्यालय बनाया। इसके ने केवल उनके समुदाय की गरिमा को बढ़ाया बल्‍कि उनके प्रयासों से सामाजिक चेतना भी बढ़ी।

पंचायत अध्यक्ष मेनका और लीलावती की हत्या तब की गई जब उन्होंने तमिलनाडु के भूमि और टैंकर माफिया को चुनौती दी। अन्य महिला अध्यक्ष राजनीतिक गुंडों और उनके हमलों से बमुश्किल बची हैं। लेकिन इनमें से बहुत कम प्रशासक मुख्यधारा की राजनीति, विधानसभा या संसद तक पहुंच पाईं क्योंकि पार्टी संरचनाओं पर उच्च जाति के पुरुषों का वर्चस्व है और लैंगिक भेदभाव गहराई से जड़ जमाए हुए हैं। हमने अपनी र‍िपार्ट में भी यह पाया।

पटेल के अनुसार, संस्कृति में बदलाव लाने के लिए महिला आरक्षण महत्वपूर्ण है। “संसद में महिलाओं की न्यूनतम संख्या सुनिश्चित करती है कि उनकी आवाज सुनी जाए। महिलाएं अनुशासनात्मक कार्रवाई की मांग करने, अभद्र भाषा का प्रतिकार करने और लैंगिक भेदभाव और स्त्री-द्वेष को संबोधित करने और धन-बाहुबल, माफिया शक्ति के विरुद्ध वैकल्पिक बल का गठन करने के लिए एकजुट हो सकती हैं। वे केवल विविधता के लिए मौजूद नहीं हैं।”