नई दिल्ली: हिमालय, जिसके नाम का अर्थ संस्कृत भाषा में "बर्फ का निवास" है। अब उसकी गोद में बर्फ की चादरें सिकुड़ती जा रही हैं जिससे हजारों फुट की ऊंचाई पर झीलों का दायरा भी फैलने लगा है।

"हमारे गांव में पहले खूब बर्फ गिरा करती थी लेकिन अब सालों से मैंने बर्फ का एक टुकड़ा नहीं देखा। आखिरी बार यहां 20 वर्ष पहले यही करीब 2004 या 2005 में बर्फ गिरी थी। तब इतनी बर्फ गिरती थी कि आसपास सफेद ही सफेद चादर दिखाई देती थी लेकिन अब पहले जैसा पहाड़ नहीं रहा। अब यहां गर्मी भी ऐसी पड़ती है जैसी आपके यहां (दिल्ली) के बारे में सुनते हैं।" यह कहना है 80 वर्षीय वैष्णवी देवी का, जो उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के पांखू गांव में रहती हैं। वैष्णवी देवी के साथ साथ उनका पूरा गांव पिछले 20 साल से बर्फ गिरने का इंतजार कर रहा है। साल में कम से कम पांच से छह बार आसमान से गिरती बर्फ की फुहारों और जमीन पर लंबी-चौड़ी सफेद चादर का अनुभव रखने वाले इस गांव में अब बर्फ नहीं पड़ती।

डुंगरा गांव का दृश्य, जहां कोरोना काल में गिरी बर्फ, अब सूपड़ा साफ, स्त्रोत- अलका बरबेले

यह हालात सिर्फ उत्तराखंड के कुमाऊं ही नहीं, बल्कि गढ़वाल बेल्ट में भी देखने को मिल रहे हैं। पौड़ी जिले के कल्जीखाल ब्लॉक स्थित डुंगरा गांव निवासी आशीष सिंह ने इंडियास्पेंड हिंदी से बातचीत में कहा कि उन्होंने आखिरी बार कोरोना काल (2021) में अपने गांव में बर्फ गिरते देखा। इससे पहले और बाद में अब तक ऐसा दृश्य दिखाई नहीं दिया है। उन्होंने इंडियास्पेंड के साथ अपने घर की तस्वीर साझा करते हुए कहा कि जब उनके यहां बर्फ गिरी तब उनके घर के आसपास का दृश्य एक दम अलग था। उनके पिता बताते हैं कि कई साल पहले तक ऐसे दृश्य अक्सर उनके गांव में देखने को मिलते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है। आशीष अक्सर गांव के आसपास घूमते हैं थे लेकिन यह सिर्फ कुछ समय के लिए संभव है क्योंकि अधिकांश समय यहां भी दिल्ली या फिर अन्य मैदानी क्षेत्रों की तरह गर्मी का सिलसिला काफी अधिक रहता है।

वैज्ञानिक भी हैरान, पूरी हिमालय रेंज प्रभावित

कम होती बर्फ की यह है लाइव तस्वीरें, स्त्रोत- एनसीपीओआर

पांखू या डुंगरा वालों के पास इस प्राकृतिक बदलावों का कोई ठोस कारण नहीं है। भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के राष्ट्रीय अंटार्कटिक और महासागर अनुसंधान केंद्र (एनसीपीओआर) की ओर से डॉ. भानु प्रताप हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों का अध्ययन कर रहे हैं। साल 2016 में भारत सरकार ने हिमालय में जलवायु परिवर्तन पर अध्ययन करने के लिए हिमांश नाम का अनुसंधान स्टेशन स्थापित किया जो हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति घाटी के चंद्रा बेसिन के सूत्री ढाका में है और इसकी ऊंचाई 4,080 मीटर है।

डॉ. भानु प्रताप एक उदाहरण देते हुए बताते हैं, "हम जब भी जलवायु परिवर्तन की बात करते हैं तो पिछले 10 या 15 साल के आंकड़ों से मौजूदा तस्वीर की तुलना करते हैं लेकिन मैं आपको एक साल के भीतर आए बदलाव के बारे में बताता हूं जिसने सभी को हैरानी में डाला है। यहां सूत्री ढाका ग्लेशियर पर छह जून 2023 को हमने बर्फ की गहराई को मापा जो 145 सेंटीमीटर के आसपास थी। इसके बाद हम एक वर्ष तक इंतजार करते रहे और इसी साल आठ जून 2024 को जब हम वापस उसी स्थान पर पहुंचे तो हमें गहराई सिर्फ 60 सेंटीमीटर मिली। यानी एक साल में एक ही स्थान पर बर्फ में 85 सेंटीमीटर तक की कमी आई है जो अब तक का सबसे हैरानी भरा डाटा मिला है।"

जलवायु परिवर्तन पर अध्ययन के लिए स्थापित हिमांश अनुसंधान, स्त्रोत- अलका बरबेले

हिमालय में बदलाव की इन तस्वीरों के बारे में साल 2020 में भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम-एमओईएस) पुणे के वरिष्ठ वैज्ञानिक टीपी साबिन ने अपने अध्ययन में कहा है कि बीसवीं सदी के दौरान हिमालय और तिब्बती पठार में काफी गर्मी देखी गई है। गर्मी का यह रुझान खास तौर पर हिंदू कुश हिमालय (HKH) पर साफ दिखाई दे रहा है जो उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों के बाहर स्थायी बर्फ कवर का सबसे बड़ा क्षेत्र है।

1951 से 2018 तक हिंद कुश और भारतीय भूमि पर औसत वार्षिक औसत तापमान समय श्रृंखला (पांच-वर्षीय औसत)

उन्होंने भविष्य के जलवायु अनुमानों के आधार पर पूर्वानुमान लगाया है कि 21वीं सदी के अंत तक इन क्षेत्रों में 2.6 से 4.6 डिग्री सेल्सियस तक की सीमा में तापमान बढ़ सकता है। इसके कारण बर्फबारी में भारी कमी आएगी। यहां वार्षिक औसत सतह-वायु तापमान में 1951 से 2014 के दौरान प्रति दशक लगभग 0.2 डिग्री सेल्सियस की दर के साथ वृद्धि हुई है जो सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन का एक प्रभाव है। इसके अलावा तिब्बती पठार की उच्च ऊंचाई में प्रति दशक 0.5 डिग्री सेल्सियस तक अधिक गर्मी का अनुभव हुआ है, जिसे आमतौर पर ऊंचाई-निर्भर वार्मिंग (EDW) के रूप में जाना जाता है।

इसलिए 13 साल में 33.7% झीलों का विस्तार

आईआईटी बॉम्बे के साथ एनसीपीओआर की टीम चंद्रा बेसिन में हिमनदी चंद्रन झील और समुद्र टापू झील में सर्वे करते हुए, स्त्रोत- अलका बरबेले

एक रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय क्षेत्र में हिमनद झीलों और अन्य जल निकायों के क्षेत्रफल में 2011 से 2024 तक 10.81% की वृद्धि देखी गई, जो हिमनद झील विस्फोट बाढ़ (जीएलओएफ) के बढ़ते खतरे का संकेत है।

इसकी पुष्टि पिछले सप्ताह जारी केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) की रिपोर्ट में हुआ है जिसके अनुसार सतह क्षेत्र के 33.7% विस्तार के साथ, भारत में झीलों में और भी अधिक वृद्धि देखी गई है। साल 2011 से 2024 के बीच हिमनदी झीलों का क्षेत्रफल 1,962 से बढ़कर 2,623 हेक्टेयर तक पहुंचा है। जिन राज्यों में यह बदलाव देखा गया है उनमें लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश शामिल हैं। यहां सबसे ज्यादा विस्तार देखा गया है जो सीधे तौर पर हिमानी झील विस्फोट बाढ़ (जीएलओएफ) के बढ़ते खतरे की ओर इशारा कर रहा है। इसी रिपोर्ट में कहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय क्षेत्र में हिमनद झीलों और अन्य जल निकायों का कुल क्षेत्रफल 10.81% की वृद्धि के साथ 2011 में 5,33,401 हेक्टेयर से बढ़कर सितंबर 2024 में 5,91,108 हेक्टेयर हो गया।

हिमालय राज्यों की सरकारी तस्वीर देखें तो मैदानी जिलों तक सीमित उत्तराखंड की सिंचित खेती इस साल बर्फ के साथ साथ बारिश के लिए भी तरस रही है। यहां इस साल सितंबर के बाद न के बराबर बारिश हुई है। राज्य मौसम विभाग ने एक अक्टूबर से 24 नवंबर के बीच उत्तराखंड में 90 फीसदी तक कम बारिश होने की जानकारी दी है। इसी तरह हिमाचल प्रदेश में सामान्य से 98 फीसदी और जम्मू-कश्मीर में 68 फीसदी तक बारिश कम हुई है। हिमाचल प्रदेश में 123 साल बाद तीसरी बार सूखा जैसी नौबत देखने को मिल रही है।

भारत में सिर्फ हिमालय पर ही असर क्यों?

चंद्रा बेसिन पर पिघलते ग्लेशियर के बीच बनी झील, स्त्रोत- अलका बरबेले

दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन पर हो रहे शोधों का विश्लेषण कर उसके नतीजे प्रकाशित करने वाली संस्था जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) के अनुसार, 2023 का साल पिछले करीब एक लाख साल में सबसे गर्म रहा। यहां तक कि जून 2023 से मार्च 2024 तक लगातार आठ महीने में तापमान रिकॉर्ड स्तर पर बढ़ता रहा। विश्व का औसत तापमान इस दौरान सामान्य से 0.2 डिग्री सेंटीग्रेड अधिक था जो की बहुत ही असामान्य है।

पृथ्वी मंत्रालय के प्रो. अवनीश ने इंडियास्पेंड हिंदी से कहा, "हम अक्सर जलवायु परिवर्तन का नाम सुनते हैं लेकिन बहुत कम लोग इसके बारे में सही जानकारी रखते हैं। जलवायु का मतलब क्षेत्र विशेष में लंबे समय तक के औसत मौसम से होता है। मसलन, भारत में मौटे तौर पर सर्दी, गर्मी और बारिश का वक्त तय है। जब इसका चक्र बदल जाए, गर्मी, सर्दी या बारिश बहुत ज्यादा होने लगे, यह तय समय से पहले आए या देरी से आए, इसका वक्त छोटा या बड़ा हो जाए... इस तरह के बदलाव को जलवायु परिवर्तन (Climate Change) कहते हैं।"

शोधकर्ता हर्षित ने अपनी डॉक्यूमेंटरी में इस तरह धरती के बढ़ते ताप को दिखाया।

उन्होंने बताया, "यह ग्रीन हाउस इफेक्ट की वजह से होता है जिसका मतलब सूर्य की ऊर्जा को ग्रहण कर धरती खुद को गरम रख रही है। पृथ्वी के चारों ओर ग्रीन हाउस गैसों की एक परत है। यही परत सूर्य की अधिकतम ऊर्जा को सोख लेती है और धरती को गर्म रखती है। इसमें Co2, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड समेत अन्य गैसैं, धूल के कण, जलवाष्प हैं। इनमें प्रमुखता Co2 की है। वि​भिन्न शोधों से पता चलता है कि वातावरण में गैसों की मात्रा उसकी नियत सीमा से बहुत ज्यादा बढ़ गई है जिसके लिए अंधाधुंध औद्योगिकीकरण भी जिम्मेदार है। इसने वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों, उनमें भी सबसे ज्यादा Co2 की मात्रा बढ़ाई है। नतीजतन गैसों की परत मोटी होती जा रही है। यह परत ज्यादा विकिरण को सोखकर धरती का तापमान बढ़ा रही है। यही प्रक्रिया ग्लोबल वार्मिंग है, जिसका नतीजा जलवायु परिवर्तन के तौर है।"

1951 से 2023 के बीच इस तरह तेज हुआ धरती का गर्म होना, स्त्रोत : ह​र्षित रौतेला

जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक आपदाओं को लेकर उत्तराखंड की हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल युनिवर्सिटी के प्रो. एमपीएस बिष्ट का कहना है, "आपदाओं में मानव क्षति लगातार बढ़ रही है। देहरादून में हमने एक सर्वे किया जिसमें पता चला कि 125 झुग्गी बस्तियां नदियों में बसी हुई हैं। ऐसे में नदी कहां जाएगी। जब बहाव आता है तो हम इसे चरम घटना मानने लगते हैं। जबकि ऊपर से पानी सामान्य तरीके से अपने रास्ते आ रहा है लेकिन वहां ब​स्तियां होने से इंसानों को काफी क्षति हो रही है जिसकी वजह से हम इसे कुछ और ही मान रहे हैं।"

बर्फ के पिघलने और झीलों के विस्तार पर उन्होंने कहा, "हजारों फुट की ऊंचाईयों पर बन रहीं झीलों और उनके विस्तार का सबसे बड़ा असर यह है कि जब उन झीलों में पानी क्षमता से अधिक पहुंचेगा तो वह भार सहन नहीं कर पाएगा और पानी वहां से नीचे आएगा। 2013 में केदारनाथ की घटना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है और अभी भी ऐसी घटनाएं पहाड़ों पर हो रही हैं। इसलिए हिमालय इस समस्या से प्रभावित कतार में आगे खड़ा है, क्योंकि यहां हजारों छोटे बड़े ग्लेशियर हैं।"

नंगी आंखों से भी दिखता है असर

हिमालय में स्वचालित जल स्तर रिकॉर्डर तकनीक, स्त्रोत- अलका बरबेले

एनसीपीओआर के वैज्ञानिक दल का कहना है कि भीषण गर्मी, बारिश, सूखा या बाढ़ जैसी आपदा के जरिए हम जलवायु परिवर्तन पर चर्चा करते हैं लेकिन हिमालय में बर्फ के पिघलने और उनसे बनने वाली झीलों को देख इसका पता जरूर लगा सकते हैं। साधारण भाषा में कहें तो कोई भी व्यक्ति नग्न आंखों से यहां जलवायु परिवर्तन और धरती का ताप बढ़ने का लिंक देख सकता है। जहां पहले लंबे-चौड़े ग्लेशियर हुआ करते थे, अब यहां दूर दूर तक बर्फ का निशान तक नहीं है।

इस तरह की ओर जानकारी इकट्ठा करने के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने हिमालय क्षेत्र में कुछ नया प्रयोग भी किया है। हिमालय में स्वचालित जल स्तर रिकॉर्डर तकनीक को तैनात किया है जो ग्लेशियर से पिघलने वाले पानी का सही आकलन कर रहा है। इसके लिए एनसीपीओआर ने पश्चिमी हिमालय के चंद्रा बेसिन को केंद्र बिंदु बनाया है। जहां कुल 205 ग्लेशियर हैं जिनमें से छह ग्लेशियर सूत्री ढाका, बटाल, बड़ा शिग्री, समुद्र टापू, गेपांग गथ और कुंजुम में वैज्ञानिक दल तैनात हैं। भाप चालित बर्फ ड्रिल तकनीक का भी प्रयोग किया है। इससे ग्लेशियर द्रव्यमान संतुलन को बेहतर ढंग से समझने में मदद करेगी।

3KM और 500 मीटर पीछे ​खिसका पिंडारी ग्लेशियर

हिमालय में हजारों ग्लेशियर हैं लेकिन उत्तराखंड का पिंडारी ग्लेशियर काफी चर्चित है क्योंकि यहां पहुंचना दूसरे दूसरे ग्लेशियर की तुलना में थोड़ा आसान है। करीब 160 वर्ष पहले पिंडारी ग्लेशियर समुद्र तल से करीब 3500 मीटर की ऊंचाई पर था जो अब 2024 में 4000 मीटर तक पहुंच चुका है। तब से लेकर अब तक यह करीब तीन किलोमीटर पीछे ​खिसका है। उत्तराखंड के राज्य वन्यजीव परिषद के सदस्य और पद्मश्री अनूप साह (75) बताते हैं कि 60 साल पहले 1964 में पहली बार वे पिंडारी ग्लेशियर की यात्रा पर गए, तब कपकोट से 115 किलोमीटर की पैदल यात्रा तय की लेकिन अब खाती तक वाहन जाते हैं और केवल 31 किलोमीटर ही चलना पड़ता है। वह अभी तक 11 बार पिंडारी जा चुके हैं और पिंडारी को धीरे धीरे पानी में तब्दील होने के एक साक्षी वह भी हैं जिसमें उन्होंने आधा किलोमीटर तक ग्लेशियर पीछे जाने का अनुभव किया है।


ह​र्षित रौतेला कहते हैं कि पिंडारी अकेला उदाहरण नहीं है। हिमालय में ऐसा शायद कोई ग्लेशियर मिले जो पिछले 150 वर्ष में पिघल कर पीछे न हटा हो। बढ़ते तापमान की वजह से बारिश भी ऊंचे क्षेत्रों की ओर ​​खिसक रही है जहां आमतौर पर बर्फ गिरा करती थी। आईआईटी इंदौर के डॉ. फारूक आलम का हवाला देते हुए वह बताते हैं कि बारिश अपने साथ ज्यादा काइनेटिक एनर्जी लेकर आती है जो बर्फ को तेजी से पिघलती है। ग्लेशियर, एक बर्फ की नदी जैसा होता है जो घाटी पर अपने ही भार के कारण नीचे की ओर बहुत धीरे धीरे ​खिसकती है। ग्लेशियर जब उस सीमा तक नीचे आ जाता है जहां औसत तापमान शून्य डिग्री सेल्सियस के ऊपर चला जाए तो पानी बर्फ के रूप में नहीं रह सकता। यहां पर ग्ले​शियर समाप्त हो जाता है और इसे टर्मिनस प्वाइंट कहा जाता है। जलवायु परिवर्तन के अलावा हवा में बढ़ते प्रदूषण के कण सूक्ष्म कण भी बढ़ रहे हैं। यह ब्लैक कार्बन एरोसेल हिमालय की बर्फ पर बैठकर वह ऊर्जा भी सोख रहे हैं जो टकरा कर लौट जानी चाहिए थी। इससे बर्फ और तेजी से पिघल रही है जिसे स्नो डार्कनिंग इफेक्ट कहते हैं।