'ग्रीन स्टेट' की हकीकत: आखिर हिमाचल की नदियाँ डंपिंग ज़ोन और जंगल गार्बेज हब क्यों बनते जा रहे हैं?
हिमाचल सरकार की ‘ग्रीन स्टेट’ छवि के उलट, प्रदेश में शहरों से लेकर दूरस्थ पंचायतों तक ठोस कचरा प्रबंधन की बुनियादी व्यवस्था ही नदारद है। परिणामस्वरूप राज्य में नदियों के किनारे और जंगलों में कचरा खुले में फेंका जा रहा है, जिससे प्रदेश एक गंभीर पर्यावरणीय संकट की ओर बढ़ रहा है।

सांगटी-सन्होग पंचायत द्वारा जारी जंगल में कूड़ा-कचरा न फैंकने हेतु जारी सूचना। पंचायत का कार्य काल समाप्त होने को आ गया है, लेकिन बोर्ड वहीं चल रहा है। फोटो - सुरिन्द्र कुमार।
शिमला, चम्बा (हिमाचल प्रदेश) : लगभग पांच साल पहले, जब शिमला जिला की संगटी पंचायत अस्तित्व में नहीं थी, तब यह इलाका नेरी-सेरी ग्राम पंचायत के अंतर्गत एक वॉर्ड हुआ करता था। उस समय पूरे इलाके में कचरा निस्तारण की कोई ठोस व्यवस्था नहीं थी। सड़क किनारे कुछ जर्जर गार्बेज स्टोरेज केज ज़रूर थे, जिनमें अस्थायी रूप से कचरा जमा किया जाता था, लेकिन कूड़ा वाहन के पहुँचने तक अक्सर यह कचरा बंदरों द्वारा जंगलों में फैला दिया जाता था और यह समस्या आज भी जस की तस बनी हुई हैं।
स्थानीय निवासी बिशन चंदेल (78) ने इंडियास्पेंड हिंदी को बताते है कि 2020 के पंचायत चुनावों से पूर्व सांगटी को पंचायत का दर्जा तो मिलने के पश्चात भी पूरे क्षेत्र में ठोस कचरे का फैलाव लगातार चिंता का विषय बनता जा रहा है। नई पंचायत सांगटी-सन्होग के सांगटी बार्ड में आज भी दिन प्रतिदिन फैलते कचरे के चलते जंगल और सड़क के इर्द-गिर्द की नालियां और आस-पास के गड्ढे प्लास्टिक व अन्य कचरे से भरे हुए नजर आते हैं।
यूँ तो जिला प्रशासन की ओर से प्रत्येक तीसरे दिन कूड़ा उठाने के लिए गाड़ी भेजी जा रही है लेकिन बड़ी संख्या में लोग अभी भी जंगलों और सड़क के किनारे ही कूड़ा फेंक रहे हैं, जिससे वन क्षेत्र सहित संपूर्ण इलाका प्रभावित हो रहा है।
सांगटी के क्षेत्र में कई जगहों पर पंचायत द्वारा लगाए गए बोर्डों पर साफ लिखा है कि 'सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान' के तहत गाँव में कूड़ा-कचरा तथा प्लास्टिक को इधर-उधर फेंकना सख्त मना है। आदेश की अवहेलना करने वालों के विरुद्ध हिमाचल प्रदेश पंचायती राज अधिनियम की धारा 12, 13 तथा 15 के तहत कार्रवाई की जा सकती है और अधिकतम 1000 रुपये तक जुर्माना लगाया जा सकता है। लेकिन हालात चेतावनी के विपरीत और चिंताजनक है। आज तक यह संभव नहीं हो पाया है कि पंचायत द्वारा किसी को जुर्माना किया गया हो।
सांगटी-सन्होग पंचायत बने चार साल हो गए, लेकिन जंगल में अब भी नेरी सेरी पंचायत की चेतावनी गूंज रही है – जब चार साल में बोर्ड तक नहीं बदला गया। फोटो - सुरिन्द्र कुमार।
सांगटी में किराए के मकान में रहने वाले रवि चौहान (28 साल) हर सुबह की तरह अपनी क्लास के लिए विश्वविद्यालय की ओर कमरे से निकलते हैं। यह रास्ता वह लगभग दो सालों से तय करते आ रहे है। उन्होंने बताया कि कभी वे सड़क मार्ग से, तो कभी जंगल की पगडंडियों से यूनिवर्सिटी जाते हैं। शांति और हरियाली के लिए जाने वाले इस इलाके में अब जगह-जगह फैला कचरा आंखों में चुभता है।
रवि चौहान बताते हैं, हर तरफ प्लास्टिक और सॉलिड वेस्ट बिखरा पड़ा है। देवदार के पेड़ों के बीच पक्षियों की चहचहाहट सुनने की बजाय अब प्लास्टिक के रैपरों की खड़खड़ाहट ही सुनाई देती है। समझ नहीं आता कि जब हर तीसरे दिन कचरा उठाने की गाड़ी आती है, तो जंगल में इतना कचरा कैसे पहुंच जाता है?
कृषि सहकारी कर्मचारी प्रशिक्षण संस्थान (ACSTI), सांगटी के समीप जंगल में फैला प्लास्टिक कचरा। फोटो - सुरिन्द्र कुमार।
सांगटी पंचायत प्रधान राहुल कश्यप से जब पूरे मामले के बारे में पूछा गया तो उन्होंने इंडियास्पेंड हिन्दी से बातचीत के दौरान बताया कि जंगलों में फैल रहे कचरे की समस्या को लेकर हमने पहले भी आवाज उठाई थी। निगरानी के लिए कैमरे भी इंस्टॉल करवाए गए थे, लेकिन दुर्भाग्यवश बंदरों ने उन कैमरों को तोड़ दिया और वायरिंग को भी नुकसान पहुंचाया है।
उन्होंने आगे बताया कि अब हम एक बार पुनः डोर-टू-डोर कचरा संग्रहण व्यवस्था शुरू करने की दिशा में काम कर रहे हैं। बातचीत अंतिम चरण में है और संभावना है कि अगले एक महीने के भीतर यह कलेक्शन शुरू हो जाएगी।
हमें उम्मीद है कि जब लोगों को घर-घर से कचरा उठाने की सुविधा मिलेगी, तो जंगलों, नालों और सड़क किनारे फेंके जा रहे कचरे में निश्चित रूप से कमी आएगी। पंचायत इस विषय को गंभीरता से ले रही है और समाधान के लिए कड़े प्रयास कर रही है, पंचायत प्रधान ने कहा।
नई दिल्ली में 'पर्यावरण - 2025' राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन अवसर पर देश की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु ने अपने वक्तव्य में कहा कि, “आने वाली पीढ़ियों को स्वच्छ पर्यावरण की विरासत देना हमारा नैतिक दायित्व है। उन्होंने कहा कि इसके लिए केवल नीतियाँ ही नहीं, बल्कि हर नागरिक की पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता आवश्यक है। राष्ट्रपति ने भारतीय विकास परंपरा का हवाला देते हुए कहा कि "विकास की भारतीय विरासत का आधार पोषण है, शोषण नहीं; संरक्षण है, उन्मूलन नहीं।”
स्थानीय लोगों की प्रतिक्रियाएं
स्थानीय निवासी युगल ठाकुर (40) बताते हैं कि हम तो तय वक्त पर सड़क तक जाकर गाड़ी में अपना कचरा डालते हैं, लेकिन बहुत से लोग अभी भी जंगलों और नालों में ही फेंकते हैं। अब सिस्टम की तरफ से गाड़ी चलवा दी गई है, तो लगता है उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी मान ली है। अधिकारी शायद ये सोचकर निश्चिंत हो गए हैं कि वाहन जा रहा है, बस इतना काफी है। लेकिन हकीकत ये है कि जब तक ज़मीनी स्तर पर निगरानी और लोगों में जागरूकता नहीं आएगी, बदलाव मुश्किल है।
स्थानीय निवासी बिशन चंदेल (78) ने बताया, “सांगटी में अधिकतर छात्र हिमाचल विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रहे हैं या नौकरी की तैयारियां कर रहे हैं। ये छात्र सुबह जल्दी लाइब्रेरी या क्लास जाने की जल्दबाज़ी में कचरा गाड़ी का इंतज़ार नहीं कर पाते और कचरे से भरे बैग जंगल, नाले और सड़क में फेंक देते हैं। इससे जंगल में गंदगी फैल रही है और आग लगने का खतरा बना रहता है। कई बार हमने स्वयं यह कचरा इकट्ठा कर गाड़ी में डलवाया है।”
उन्होंने कहा, "प्रशासन को इस पूरे क्षेत्र में निगरानी बढ़ानी चाहिए, मुख्य जगहों पर सीसीटीवी कैमरे लगाने चाहिए और जिन मकान मालिकों के सिर्फ किरायेदार यहां रहते हैं, वे खुद नहीं रहते उन्हें चेतावनी दी जानी चाहिए कि कचरा जंगल में फेंकना अपराध माना जाएगा, वे अपने किरायेदारों को आगाह कर दें।"
चंदेल ने सुझाव दिया, “डोर-टू-डोर कलेक्शन तत्काल शुरू किया जाना चाहिए या सड़क किनारे गार्बेज स्टोर बनाए जाएं, जहां छात्र सुबह जल्दी कचरे से भरे बैग रख सकें। बाद में सफाई कर्मचारी उन्हें उठाकर गाड़ी में डाल दें। इसके अलावा, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वालों पर चालान और जुर्माना लगाया जाना चाहिए। पंचायतों को भी जुर्माना वसूलने का अधिकार मिलना चाहिए।”
हिमाचल प्रदेश खादी बोर्ड कार्यालय (क्लीवलैंड), शिमला के पास स्थित कचरा स्टोरेज केज, जहाँ स्थानीय लोग अस्थायी रूप से कचरा जमा करते हैं, जिसे बाद में कचरा वाहन द्वारा उठा लिया जाता है। हालांकि, ये क्षेत्र शिमला एमसी के अंतर्गत आता है। फोटो - सुरिन्द्र कुमार।
सांगटी में रहने वाले जेपी नरयाल (75) ने डंडियिस्पेंड हिन्दी को बताया कि, कुछ समय पहले डोर-टू-डोर कचरा कलेक्शन ठीक चलता था, लेकिन अब उसे बंद करके यह नया तरीका शुरू किया गया है। कचरा उठाने वाली गाड़ी तीन दिन में आती है, फिर भी कुछ लोग अपने कचरे को बैग में भरकर जंगलों या सड़क से दूर जगहों पर फेंक देते हैं। इस वजह से कचरे की समस्या कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है।
9 जून को इस विषय से संबंधित जानकारी और समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करने हेतु नगर निगम शिमला को औपचारिक रूप से ईमेल किया गया था। इस पर प्रतिक्रिया स्वरूप 23 जून को नगर निगम की ओर से फोन कॉल आया, जिसमें अधिकारी ने पूरे प्रकरण की जानकारी ली। हालांकि, उन्होंने स्पष्ट किया कि सांगटी पंचायत नगर निगम शिमला के प्रशासनिक दायरे से बाहर आती है, फिर भी उन्होंने यह आश्वासन दिया कि वे मामले को प्राथमिकता से देखते हुए संबंधित संस्थाओं और प्रशासन से इस संबंध में बातचीत करेंगे, ताकि यथासंभव हल निकाला जा सके।
संघर्ष जारी है: कानून सख्त, अमल सुस्त
बीते दिसंबर, जब दुनिया के 170 से अधिक देश प्लास्टिक प्रदूषण पर एक अंतरराष्ट्रीय कानूनी समझौते की दिशा में बुसान (दक्षिण कोरिया) में जुटे थे, उसी दौरान हिमाचल प्रदेश के जंगलों, गलियों और नदियों में कचरे के ढेर बढ़ते जा रहे थे। सालों से हिमाचल प्रदेश 'प्लास्टिक वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स, 2016 के अंतर्गत सॉलिड वेस्ट और प्लास्टिक कचरे के ख़िलाफ़ एक सतत संघर्ष कर रहा है।
हालांकि, यह संघर्ष कोई तात्कालिक पहल नहीं, बल्कि एक अरसे से चली आ रही जिम्मेदारी और जद्दोजहद की कहानी है। काग़ज़ों में हिमाचल प्रदेश उन गिने-चुने राज्यों में शामिल है, जहां सिर्फ प्लास्टिक कैरी बैग्स पर पूर्ण प्रतिबंध है। जिसे कानूनी धार HP Non-biodegradable Garbage (Control) Act, 1995 के माध्यम से प्राप्त है।
सांगटी-I में कचरे से भरा गड्डा। फोटो - सुरिन्द्र कुमार।
चूंकि, 2 अक्टूबर 2009 को प्रदेश में तत्कालीन सरकार ने गैर-बायोडिग्रेडेबल सामग्री से बने सभी प्रकार के पॉलिथीन बैग के उत्पादन, भंडारण, उपयोग, बिक्री और वितरण पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था। इसके बावजूद, राज्य के बाहर से आने वाली प्लास्टिक पैकिंग सामग्री कचरे के उत्पादन का एक बड़ा कारण बनी रही है। राज्य में रंगीन पॉलिथीन बैग, जो रिसाइकल्ड प्लास्टिक से बनाए जाते थे, के उपयोग पर सबसे पहले 1 जनवरी 1999 को प्रतिबंध लगाया गया था। इसके बाद 2004 में लागू राज्य के गैर-बायोडिग्रेडेबल कचरा (नियंत्रण) नियमों की धारा 7(एच) के तहत 70 माइक्रोन से कम मोटाई और 18x12 से छोटे पॉलिथीन बैग पर भी रोक लगाई गई थी।
एचपीयू शिमला में हिंदी की पढ़ाई कर रहे योगेश (25) ने इस संबंध में इंडिया स्पेंड को अदम गोंडवी जी की दो पंक्तियों में बताया कि ‘तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आँकड़ें झूठे हैं ये दावा किताबी है।’ उन्होंने कहा अफ़सोस की बात है कि पर्यावरण प्रेम की जो तस्वीर कागजों और घोषणाओं में रंगी जाती है, वास्तव में वे ज़मीन पर उतनी ही बदरंग हो होती है।
हिमाचल प्रदेश सरकार ने हिमाचल प्रदेश गैर-बायोडिग्रेडेबल कचरा (नियंत्रण) अधिनियम, 1995 के तहत 28 मार्च 2025 को अधिसूचना जारी कर राज्य की सभी टैक्सियों, बसों और निजी परिवहन वाहनों में "कूड़ा पात्र" (Garbage Bin) लगाना अनिवार्य कर दिया है। आदेश के अनुसार, कूड़ा पात्र न लगाने पर ₹10,000 और एकल उपयोग प्लास्टिक या गैर-बायोडिग्रेडेबल कचरा फेंकने पर ₹1500 का जुर्माना तय किया गया है। हालांकि, यह पहल राज्य की हिमाचल पथ परिवहन निगम की बसों में शुरू हो चुकी है।
हिमाचल पथ परिवहन निगम (HRTC) की बसों में अब कूड़ेदान लगाए जा रहे हैं, ताकि सफर के दौरान स्वच्छता बनी रहे। हालांकि शिमला में चलने वाली निजी बसों में अब तक ऐसी व्यवस्था देखने को नहीं मिली है। फोटो - सुरिन्द्र कुमार।
इसके अलावा राज्य सरकार ने 31 मई, 2025 को कैबिनेट बैठक में 'डिपॉज़िट रिफंड स्कीम-2025' शुरू करने का निर्णय लिया। जिसका का उद्देश्य नॉन-बायोडिग्रेडेबल कचरे के प्रभावी प्रबंधन को बढ़ावा देना है। इसके तहत उपभोक्ता को उत्पाद की कीमत के साथ एक अतिरिक्त रिफंड योग्य राशि चुकानी होगी, जो खाली उत्पाद लौटाने पर वापस की जाएगी। यह पहल कांच की बोतलों, प्लास्टिक कंटेनरों, एल्युमिनियम डिब्बों और मल्टी-लेयर पैकेजिंग जैसी सामग्रियों पर लागू होगी।
सांगटी पंचायत में कचरे को बंदरों द्वारा कहीं भी फैलाया जा रहा है। फोटो - सुरिन्द्र कुमार।
जहाँ नदियाँ डंपिंग ज़ोन और जंगल प्लास्टिक के भंडार में तब्दील हो रहे हैं, उसके बीच मुख्यमंत्री सुखविन्द्र सिंह ‘सुक्खू’ ने विश्व पर्यावरण दिवस पर राज्य को 31 मार्च 2026 तक 'ग्रीन एनर्जी स्टेट' घोषित करने की प्रतिबद्धता दोहराई। उन्होंने ‘सिंगल-यूज़ प्लास्टिक चालान मोबाइल ऐप’ लॉन्च किया। एक ऐसा डिजिटल प्लैटफॉर्म जो प्लास्टिक के अवैध उपयोग पर क़ानूनी शिकंजा कसा जाएगा। बशर्ते ज़मीनी अमल उसी गंभीरता से हो, जिसकी दरकार प्रदेश की बिगड़ती पर्यावरणीय तस्वीर को है।
जब भारतीय संविधान का अनुच्छेद 48 क यह सुनिश्चित करता है कि राज्य पर्यावरण और जैव विविधता की रक्षा के लिए प्रयास करेगा। ऐसे में यह सवाल और भी संजीदा हो जाता है कि हिमाचल प्रदेश जैसे संवेदनशील पर्वतीय राज्य में कचरा प्रबंधन बार-बार विफल क्यों हो रहा है? ऐसी स्थिति में यहां राज्य की भूमिका एक संरक्षक की नहीं, बल्कि एक मूक दर्शक की प्रतीत हो रही है।
ज़िला प्रशासन की प्रतिक्रिया
सांगटी - II मिडिल सांगटी में जंगलों में फैंका जा रहा है, कचरा। फोटो - सुरिन्द्र कुमार।
ADC शिमला अभिषेक वर्मा ने बताया कि सांगटी का ऐसा मामला पहली बार उनके संज्ञान में आया है कि वहां सड़क और जंगल के बीच ज्यादा मात्रा में कचरा फैल रहा है। उन्होंने कहा कि इस संबंध में प्रशासन उचित संज्ञान लेकर आवश्यक कार्रवाई करेगा और संबंधित पंचायत से भी बात की जाएगी।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि हिमाचल प्रदेश पंचायती राज अधिनियम, 1994 के तहत पंचायतों को ऐसे मामलों में अपने स्तर पर कार्रवाई करने के पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं।
दिसंबर 2024 में नगर परिषद चंबा के कुरांह स्थित कूड़ा संयंत्र में हुई आगजनी की घटना में कचरा छंटाई के लिए लगाई गई करोड़ों रुपये की मशीनें जलकर राख हो गईं। संयंत्र में भारी मात्रा में जमा कचरा चारों ओर फैल चुका था, जिससे उठे ज़हरीले धुएं ने आसपास के इलाकों को अपनी चपेट में ले लिया था।
इसके बाद स्थानीय लोगों ने बताया कि कचरा निस्तारण की वैकल्पिक व्यवस्था न होने के चलते नगर परिषद ने खुले आसमान के नीचे ही कचरा फेंकना शुरू कर दिया। सबसे चिंताजनक बात यह रही कि रावी नदी का किनारा अस्थायी डंपिंग ज़ोन में तब्दील कर दिया गया, और यह सब खुद नगर परिषद की देखरेख में हो रहा था।
बाथरी (चम्बा) में सड़क किनारे दीवार से नीचे गिराया गया कचरा। फोटो - सिद्धार्थ बकारिया।
चम्बा जैसा ऐतिहासिक पर्वतीय छोटा और दूरस्थ क्षेत्र भी लगभग 9.4 टन प्रति वर्ष प्लास्टिक कचरे का उत्पादन करता है। जिसे साबित होता है कि स्थिति सबसे चिंताजनक और भयावह है। यहां नगर परिषद और आसपास की 12 पंचायतों में कोई अधिकृत डंपिंग साइट तक मौजूद नहीं है। परिणामस्वरूप, कूड़े को खुले में रावी नदी के किनारे फेंक दिया जा रहा है।
डलहौज़ी के स्थानीय निवासी सिद्धार्थ बक़ारिया ने गहरी चिंता जताते हुए बताया कि क्षेत्र में कचरा प्रबंधन को लेकर प्रशासन की भूमिका महज़ औपचारिकताओं तक सीमित है। सड़कों और सार्वजनिक स्थलों पर खुले में फेंका जा रहा कचरा ना केवल स्थानीय पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहा है, बल्कि चम्बा जैसे सुंदर और अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल की छवि को भी धूमिल कर रहा है। न तो स्थानीय लोगों को कचरा प्रबंधन के प्रति जागरूक किया जा रहा है और न ही इसके ठोस निस्तारण के लिए कोई प्रभावी व्यवस्था की गई है। यह एक बेहद चिंताजनक स्थिति है, कल्पना कीजिए, जब देश-विदेश से आने वाले सैलानी इस दुर्दशा को देखते होंगे, तो उनके अनुभव और इस जगह की छाप पर इसका क्या असर पड़ता होगा।
अपर उपायुक्त चम्बा अमित मैहरा द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार जिले के भनौता, बनीखेत, सलूणी और तीसा जैसे क्षेत्रों में कचरा निस्तारण के लिए डंपिंग साइट्स विकसित की जा चुकी हैं, जबकि कुछ अन्य स्थानों पर निर्माण कार्य प्रगति पर है। उनका दावा है कि प्रशासन द्वारा जिले में ठोस कचरा प्रबंधन की दिशा में चरणबद्ध ढंग से आधारभूत ढांचा खड़ा किया जा रहा है।
स्थित कूड़ा संयंत्र में लगी आग के बाद उठता ज़हरीला धुआं, जो आसपास के क्षेत्रों में फैल गया। फोटो - भुवनेश सिंह।
जिला चम्बा के स्थानीय निवासी मनूप शर्मा (40) ने बताया कि सवाल अब नीति का नहीं, निष्पादन की
नीयत का है। जब यहां प्रोपर डंपिंग साईट तक नहीं है तो क्या इन नियमों की मौजूदगी भर से चम्बा की गलियां एकदम साफ हो जाएंगी, क्या लोगों ने नदियों के किनारे या हर कहीं कूड़े को जलाना बंद कर दिया या कोई पॉलिसी बनाने मात्र से हमारे पहाड़ साफ़ हो जाएंगे? प्रशासन सोया है, सरकार का ध्यान नहीं है, नगर निगम अपने में मस्त हैं। एनजीटी आदेश पारित किए जा रही है। ऐसे में चम्बा कभी चमक नहीं पाएगा। कभी भी नहीं।
मैहला पंचायत के उप-प्रधान भुवनेश सिंह (47) ने कुरांह क्लस्टर की दुर्दशा पर गहरी चिंता जताते हुए कहा कि यह स्थान मूलतः एक गौशाला था, जिसकी पहचान के लिए बाकायदा एक बोर्ड भी लगाया गया था। लेकिन नगर परिषद ने धीरे-धीरे और चुपचाप इस स्थान को शहर का कचरा फेंकने का केंद्र बना दिया, और टाईम के साथ यहाँ कचरे का अंधाधुंध ढ़ेर लगने लगा और इसे बिना स्थानीय जनसमूह की राय के एक डंपिंग ज़ोन का रूप दे दिया गया।
कुरांह डंपिंग साईट के नज़दीक रावी नदी के किनारे अधजला कचरा। फोटो - भुवनेश सिंह।
उन्होंने बताया कि यह डंपिंग ज़ोन रावी नदी के ठीक ऊपर स्थित है, और कुछ वर्षों में यहाँ कूड़े के ढेर साल दर साल बढ़ते चले गए। स्थिति तब और भी गंभीर हो गई जब किसी शरारती तत्व ने इस कचरे में आग लगा दी, जिससे लगातार कई हफ्तों तक धुआं फैलता रहा। यह धुआं लगभग 10 किलोमीटर के क्षेत्र में फैल गया, जिससे आसपास के लोगों के स्वास्थ्य और आवागमन पर प्रतिकूल असर पड़ा।
भुवनेश सिंह ने बताया कि उन्होंने इस मामले को लेकर कई बार उपायुक्त चंबा को शिकायतें की, तत्कालीन उपायुक्त ने यहां कचरा फैंकवाना बंद करवाया और यहां एक चिल्ड्रन पार्क बनाने की बात कही थी। लेकिन उनके बाद प्रशासनिक स्तर पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। अंततः उन्होंने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (NGT) में इस मामले को दर्ज कराया, जिसके पश्चात प्रशासन को कड़ी फटकार लगी। हालांकि आज भी कचरे के बोरे यहीं पड़े हैं लेकिन नगर परिषद से यह खाली नहीं हो पाया है।
नगर परिषद चम्बा द्वारा कुरांह साईट को खाली करने हेतु भेजी गई लेबर। लेकिन आज तक यह खाली नहीं हो पाई है। फोटो - भुवनेश सिंह।
भुवनेश सिंह ने इंडियास्पेंड को बताया कि चम्बा नगर परिषद द्वारा ठोस कचरे को बिना छंटाई अवैध रूप से जलाने और जला हुआ कचरा सीधे रावी नदी में डालने की शिकायतों पर राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने गंभीर चिंता जताई थी। याचिकाकर्ताओं जिसमें वे स्वयं भी शामिल थे, उन्होंने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और उपायुक्त को सूचित किया था, लेकिन प्रभावी कार्रवाई में देरी रही।
एनजीटी ने ठोस कचरा प्रबंधन नियम, 2016 के उल्लंघन को स्वीकार करते हुए नगर परिषद के खिलाफ जुर्माने की सिफारिश की। जिसके चलते प्रशासन ने ठेकेदार नियुक्त कर वैज्ञानिक निपटान की पहल शुरू की थी, लेकिन कचरा नदी में फेंका जाना और आग लगने की घटनाएं जारी हैं। इस मामले ने चम्बा सहित पूरे प्रदेश में ठोस कचरा प्रबंधन में व्यापक और गम्भीर खामियों को उजागर किया था।
अपर उपायुक्त चम्बा ने डंडियास्पेंड हिन्दी से कॉल पर बातचीत के दौरान बताया कि रावी नदी के किनारे नगर परिषद की गाड़ियों द्वारा फेंके गए कचरे के मामले में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा ‘ज़रूर’ संबंधित निकाय जुर्माना लगाया होगा! उन्होंने कहा कि ठोस कचरा निस्तारण को लेकर जिला प्रशासन पूरी तरह सतर्क और प्रतिबद्ध है। वर्तमान में घरों से एकत्रित कचरे को स्रोत पर अलग किया जा रहा है और इसके बाद उसे सीमेंट प्लांट्स तक भेजा जा रहा है। कुरांह स्थित डंपिंग साइट के संबंध में उन्होंने स्पष्ट किया कि यह साईट पूर्व में जल चुकी थी, और अब तक 'Redeemed' (चालू) नहीं हो पाई है।
अन्य राज्यों व केंद्र शासित प्रदेश सहित हिमाचल प्रदेश में Hazardous Waste की स्थिति, 2023-24
हिमाचल प्रदेश ने वर्ष 2023–24 में सबसे अधिक 52,931 टन खतरनाक कचरा उत्पन्न किया, जो छोटे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे ज्यादा है। राज्य में कुल 2,068 इकाइयाँ (Hazardous Waste Generating Units) खतरनाक कचरा उत्पन्न कर रही हैं। यह आंकड़ा गोवा (39,589 टन) और केरल (41,011 टन) जैसे राज्यों से भी अधिक है।
प्रदेश में सोशल मीडिया वायरल पोस्ट के बाद हो रहा है, प्रशासन सक्रिय
जिला कुल्लू के ग्राहण रोड (कसोल) में घने देवदार के जंगलों के बीच प्लास्टिक, रैपर, बोतलें और खाने-पीने के पैकेटों का अंबार फैला हुआ है। फोटो - सोशल मीडिया।
कसोल की हरी-भरी घाटियों के बीच जब जंगल के भीतर प्लास्टिक और कचरे का पहाड़ सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, तो हिमाचल की चमकती पर्यटन छवि के पीछे छुपी बदबूदार सच्चाई सामने आ गई। पार्वती घाटी के इस लोकप्रिय पर्यटन स्थल में सालों से लंबित पड़े सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट प्लांट की फाइलें धूल फांकती रहीं, और जंगलों में गड्ढे खोदकर कचरा दबाने का ‘अघोषित सिस्टम’ पनपता गया।
जब मीडिया रिपोर्ट की जांच में यह खुलासा हुआ, तब जाकर सरकार हरकत में आई और ग्रामीण विकास विभाग ने हड़बड़ी में 30 लाख रुपये का टेंडर जारी किया। एक ऐसे संयंत्र के लिए, जो दो महीनों में बनकर तैयार होना है। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने वीडियो में दिखे अवैध डंपिंग स्थल को लेकर ठेकेदार को नोटिस थमाया और जुर्माने की कार्रवाई शुरू की, जबकि उपायुक्त ने सफाई दी कि वह ‘आधिकारिक डंपिंग साइट’ नहीं थी।
इस पूरे घटनाक्रम ने वन्यजीव अभयारण्य क्षेत्र में जमीन के उपयोग और पर्यावरणीय शर्तों के गंभीर उल्लंघन को उजागर किया है। सरकार ने फॉरेस्ट (कंज़र्वेशन) एक्ट, 1980 के तहत कसोल में 0.1982 हेक्टेयर वन भूमि पर कचरा प्रबंधन संयंत्र स्थापित करने की मंजूरी (स्टेज 1) दी थी, लेकिन इसके साथ कई कड़े शर्तें रखी गई थी, जैसे कि क्षतिपूर्ति वनीकरण (CA) और नेट प्रेज़ेंट वैल्यू (NPV) की राशि का भुगतान, जिला कलेक्टर द्वारा जारी फॉरेस्ट राइट्स एक्ट (FRA) का प्रमाणपत्र, और यह शर्त रखी गई थी कि उस वन मंडल में कोई और लंबित प्रस्ताव नहीं है।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, कुल्लू नगर परिषद की कार्यप्रणाली पर उस वक्त सवाल उठे जब एक वीडियो में सरवरी क्षेत्र के मटीरियल रिकवरी फैसिलिटी से रात के अंधेरे में जेसीबी मशीन द्वारा कचरा सरवरी नदी में गिराते देखा गया। यह वही ज़िला है जहां मई 2023 में मनाली नगर परिषद पर ₹4.6 करोड़ का जुर्माना लगाया गया था, क्योंकि रंगड़ी स्थित संयंत्र से अनुपचारित कचरा सीधे ब्यास नदी में बहाया गया था। बावजूद इसके, ज़मीनी हालात बताते हैं कि स्थानीय निकायों ने अब तक कोई सबक नहीं लिया है।
बावजूद इसके हाल ही में 11, जून को जब किन्नौर जिले में नदी किनारे कचरा वाहन से फेंकने की वीडियो सोशल मीडिया पर सामने आईं, तो उपायुक्त किन्नौर ने ट्वीट कर प्रतिक्रिया दी। किन्नौर ज़िले की टेलंगी पंचायत के अंतर्गत सत्तलुज नदी किनारे लगभग 5 किलो अजैविक कचरा फेंकने के मामले में जिला प्रशासन ने 'H.P. Non-Biodegradable Garbage (Control) Act, 1995' के तहत ₹10,000 का जुर्माना लगाया है।
हिमाचल प्रदेश में डंपसाइट्स की वर्तमान स्थिति।
स्वच्छ भारत मिशन अर्बन 2.0 डैशबोर्ड (25 मार्च 2025 तक) के अनुसार, हिमाचल प्रदेश में कुल 10 डंप साइट्स हैं। राज्य में 5.2 लाख टन लिगेसी वेस्ट में से 3.1 लाख टन कचरे का निस्तारण किया जा चुका है, जबकि 2.1 लाख टन कचरे का निस्तारण बाकी है। कुल 21 एकड़ क्षेत्र में यह कचरा फैला हुआ है, जिसमें से अब तक 13 एकड़ क्षेत्र को पुनः प्राप्त कर लिया गया है और 8 एकड़ क्षेत्र की सफाई अभी बाकी है।
स्वच्छ भारत मिशन 2.0 (SBM 2.0) की शुरुआत वर्ष 2021 में की गई थी, जिसका मुख्य उद्देश्य देशभर में फैले पुराने कचरे (legacy waste) का वर्ष 2026 तक पूर्ण निस्तारण करना है। जिसके अंतर्गत "लक्ष्य ज़ीरो डंपसाइट" अभियान चलाया गया, जिसका मकसद लगभग 6,000 हेक्टेयर शहरी भूमि पर फैली कचरा साइट्स को साफ़ कर पुनः उपयोग योग्य बनाना है।
हिमाचल प्रदेश ने 2022-23 में 14,000 टन से अधिक प्लास्टिक कचरा उत्पन्न किया, और वह उन 15 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों में शामिल है जहाँ 2018-19 की तुलना में प्लास्टिक कचरे में 50% से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई है।
देश के कई हिस्सों में अब भी प्लास्टिक कचरे का उत्पादन चिंताजनक स्तर पर है, जो स्वच्छ भारत मिशन जैसे अभियानों की सफलता के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। हिमाचल प्रदेश ने वर्ष 2022-23 में कुल 14,094 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न किया। यह आंकड़ा भले ही बड़े राज्यों की तुलना में कम हो, लेकिन एक पहाड़ी राज्य के रूप में यह मात्रा चिंताजनक है, और दर्शाती है कि यदि जल्द प्रभावी अपशिष्ट प्रबंधन रणनीतियाँ नहीं अपनाई गईं, तो यह संकट और गंभीर सकता है।
आईआईटी मंडी में इंस्पायर फैलो और एनवायरमेंट इंजीनियरिंग विशेषज्ञ आनंद गिरि ने इस विषय पर बहुत ही गहनता से बताया कि, हिमाचल प्रदेश में सामने आ रहा कचरा प्रबंधन संकट केवल एक प्रशासनिक विफलता नहीं है - बल्कि यह एक गहरे प्रणालीगत मुद्दे को दर्शाता है, जहाँ पर्यावरणीय स्थिरता को दरकिनार कर दिया गया है। पहाड़ी पारिस्थितिकी तंत्र अपनी नाजुक भू-आकृति, सीमित पहुँच और मानव बस्तियों और प्राकृतिक जल निकायों के बीच निकटता के कारण अद्वितीय रूप से कमज़ोर हैं। जब प्लास्टिक और मिश्रित कचरे को नदी के किनारे या जंगल के किनारे फेंका जाता है - जैसा कि राज्य के कई हिस्सों में देखा गया है - तो यह मिट्टी और जलस्रोतों को दीर्घकालिक रूप से प्रभावित करता है, प्रदूषित करता है।
कई नदियों में पहले से ही माइक्रोप्लास्टिक पाए गए हैं, जो न केवल जलीय जैव विविधता के लिए बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए भी खतरा पैदा कर रहे हैं, क्योंकि कई समुदाय अभी भी अनुपचारित नदी के पानी पर निर्भर हैं। वहीं दूसरी ओर कचरे को खुले में जलाना, जिसे अक्सर गांवों और छोटे शहरों में निपटान के शॉर्टकट के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, डाइऑक्सिन और फ्यूरान जारी करता है - जो श्वसन संबंधी बीमारियों और कैंसर से जुड़े हैं।
हिमाचल प्रदेश को तत्काल विकेंद्रीकृत, समुदाय -आधारित अपशिष्ट प्रबंधन मॉडल की ओर बढ़ने की आवश्यकता है जो स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियों और जैवविविधता के प्रति संवेदनशील हो। सेंट्रलाइज्ड वेस्ट-टू-एनर्जी प्लांट्स जैसे मॉडल पर्वतीय क्षेत्रों में अक्सर अव्यवहारिक होते हैं, कारण हैं परिवहन की दिक्कतें। इसके बजाय छोटे-छोटे क्लस्टरों में मटेरियल रिकवरी फैसिलिटीज़ पंचायत स्तर पर कंपोस्टिंग और रिसायक्लिंग को बढ़ावा देना चाहिए।
पंचायतों को अधिकार मिले पर संसाधन नहीं - मैहला पंचायत की केस स्टडी
यूं तो हिमाचल प्रदेश पंचायती राज अधिनियम, 1994 द्वारा ग्राम पंचायतों को कई महत्वपूर्ण अधिकार सौंपे गए हैं, ताकि वे गांव के भीतर विकास और स्वच्छता जैसे मुद्दों पर निर्णय ले सकें। लेकिन सवाल यह है - क्या इन अधिकारों के साथ उन्हें उचित समय पर ज़रूरी संसाधन, बजट और तकनीकी सहयोग भी मिल रहा है?
हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले में स्थित "मैहला ब्लॉक" एक प्रशासनिक क्षेत्र है, जिसके अंतर्गत लगभग 47 ग्राम पंचायतें आती हैं, जिसमें से मैहला पंचायत भी एक है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इनमें से किसी भी पंचायत में ठोस कचरा निस्तारण के लिए ठोस और व्यवस्थित व्यवस्था देखने को नहीं मिलती है। चाहे सड़क किनारे स्थित पंचायतें हों या दुर्गम पहाड़ियों में लगभग हर जगह स्थिति समान है।
इस विषय पर जब कुछ लोगों से बात की गई तो उन्होंने खुलकर बताते हुए कहा कि यहां कचरे को या तो खुले में जलाया जाता था। हालांकि ये लोग इस बात से अनजान थे कि पर्यावरण पर इसका कितना गंभीर प्रभाव पड़ता है। ऐसी परिस्थितियां प्रदेश में स्वच्छ भारत मिशन जैसी योजनाओं की ज़मीनी हकीकत को सामने लाती है।
कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय की छात्राओं व स्टाफ के साथ भुवनेश सिंह मैहला में कचरा जमा करते हुए। फोटो - भुवनेश सिंह।
मैहला पंचायत के उप प्रधान भुवनेश सिंह ने बताया कि जवाबदेही तो हमसे मांगी जाती है, पर इसके लिए समय पर संसाधन कोई नहीं देता। उनके द्वारा स्वयं की गई पहल के बारे बताते हुए उन्होंने कहा, कि पंचायत स्तर पर उन्होंने कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय मैहला के शिक्षकों और छात्रों के सहयोग से एक ग्रुप बनाया, जो साफ सफाई के साथ हर रविवार को घर-घर जाकर लोगों को स्वच्छता और सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट के प्रति जागरूक करता है। इस पहल में ग्रामीण समुदाय विशेषकर स्कूली बच्चों और अध्यापकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
हिमाचल प्रदेश आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 के अनुसार वर्तमान समय में राज्य में कुल 3,615 ग्राम पंचायतें हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 243-जी के तहत पंचायती राज संस्थाओं को सशक्त बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। लेकिन ज़मीनी स्तर पर कई पंचायतें सफाईकर्मी, वाहन, कूड़ा निस्तारण केंद्र और तकनीकी मार्गदर्शन के लिए जूझ रही हैं।
भुवनेश सिंह, ने इंडियास्पेंड हिन्दी से कहा कि मैहला ब्लॉक के ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या के साथ-साथ कचरे की मात्रा विशेषकर सॉलिड वेस्ट और ई-वेस्ट लगातार बढ़ रही है। जिसे वे एक जगह इकट्ठा कर जला देते हैं। यदि सरकार और प्रशासन ने समय रहते इस दिशा में ठोस नीति नहीं बनाई, तो आने वाले समय में यह एक गंभीर पर्यावरणीय संकट का कारण बन सकता है।
ग्रामीण क्षेत्रों की दुर्दशा का जिक्र करते हुए जितेन्द्र पठानिया (47) ने कहा कि नगर परिषद सीमा के भीतर आने वाले क्षेत्रों में कचरा प्रबंधन अपेक्षाकृत बेहतर हो भी सकता है, लेकिन इसके विपरीत दूर-दराज़ के गांवों में कचरा निष्पादन की स्थिति दिन प्रतिदिन अत्यंत खराब हो रही है। प्लास्टिक, ई-वेस्ट और घरेलू कचरा खुले में इकट्ठा कर आग लगा दी जाती है, जिससे पर्यावरण को गंभीर खतरा उत्पन्न होता है।
आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार वित्त वर्ष 2020–21 से लागू 15वें वित्त आयोग के तहत वित्त वर्ष 2024–25 के लिए राज्य को ₹352 करोड़ की राशि स्वीकृत की गई है। इसमें से ₹229.19 करोड़ भारत सरकार द्वारा जारी कर ग्राम पंचायतों तक पहुँचाई जा चुकी है।
राज्य वित्त आयोग ने पंचायत कर्मचारियों और निर्वाचित प्रतिनिधियों के मानदेय/वेतन/मजदूरी के लिए ₹448.08 करोड़ की राशि जारी की है, जो तीनों स्तरीय पंचायती व्यवस्था के लिए बेहद अहम है।
राज्य सरकार ने पंचायती ढांचे को मजबूत करने की दिशा में पंचायत घरों के निर्माण और उन्नयन के लिए योजनाबद्ध तरीके से बजट आवंटित किया है। वित्त वर्ष 2024–25 के दौरान कुल ₹39.32 करोड़ की राशि जारी की गई है। इसमें से ₹13.49 करोड़ की राशि 115 नवगठित ग्राम पंचायतों के भवन निर्माण के लिए स्वीकृत की गई है, जबकि ₹25.83 करोड़ का प्रावधान 166 पुराने पंचायत घरों की मरम्मत और उन्नयन हेतु किया गया है। इसके अतिरिक्त ₹2.72 करोड़ की राशि ज़िला परिषद भवनों के निर्माण और ₹1.06 करोड़ पंचायत समिति कार्यालयों के उन्नयन के लिए जारी की गई है।
वित्तीय प्रावधानों के बावजूद कई पंचायतें आज भी सुनियोजित कचरा प्रबंधन, सफाई व्यवस्था और भवनों की मरम्मत के लिए संघर्ष कर रही हैं। स्थानीय निवासी जितेंद्र पठानियां कहते हैं, साफ़-सफाई के नाम पर पंचायत के पास न आदमी है, न गाड़ी। इसके अलावा उन्होंने आगे कहा कि "प्रधानी तो वैसे भी जनता के भरोसे ही चलती है, फिर वही जनता की नाराज़गी कौन ले?”
ग्रामीण क्षेत्रों में ठोस कचरा प्रबंधन और स्वच्छता के लिए मॉडल 'बाई-लॉ' जारी
22, मई 2025 को ग्रामीण विकास विभाग के प्रवक्ता द्वारा जारी जानकारी के अनुसार, "प्रदेश सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में ठोस कचरा प्रबंधन और स्वच्छता सेवाओं को सुदृढ़ करने के उद्देश्य से हिमाचल प्रदेश पंचायत राज अधिनियम, 1994 की धारा 188 के तहत 'ठोस कचरा प्रबंधन एवं स्वच्छता के मॉडल 'बाइ-लॉ-2025' जारी किए हैं। सभी ग्राम पंचायतों को इन्हें छह माह की अवधि में अपनाने के निर्देश दिए गए हैं।"
जानकारी के मुताबिक, इन बाई-लॉ में स्रोत पर कचरे के उचित पृथक्करण, घर-घर से कचरा संग्रहण, उल्लंघनों पर दंड और प्रत्येक घर तथा संस्थान से उपयोगकर्ता शुल्क की वसूली जैसे प्रावधान शामिल हैं।
इस प्रणाली को आर्थिक रूप से टिकाऊ बनाने के लिए ग्राम पंचायतों को स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार सेवा शुल्क और दंड निर्धारित करने की छूट दी गई है। इससे प्राप्त राशि का उपयोग दैनिक कचरा संग्रहण के लिए मानव संसाधन की नियुक्ति और स्वच्छता अवसंरचना के संचालन एवं रखरखाव में किया जाएगा, जानकारी में आगे बताया।
जानकारी के अनुसार, इन बाइ-लॉ के प्रभावी क्रियान्वयन से राज्य सरकार द्वारा ठोस कचरा प्रबंधन के लिए प्रदान की जा रही वित्तीय सहायता का समुचित उपयोग सुनिश्चित होगा और ग्रामीण समुदायों में नियमित एवं जवाबदेह स्वच्छता सेवाओं की मांग और उपलब्धता दोनों को बल मिलेगा।
जिनेवा, INC-5.2: एक उम्मीद
जब स्थानीय व्यवस्था नाकाम लगती है, उम्मीद की एक खिड़की अंतरराष्ट्रीय स्तर से खुलती है। इस वर्ष अगस्त में, संयुक्त राष्ट्र की इंटरगवर्नमेंटल नेगोशिएटिंग कमेटी पांचवें सत्र (INC-5.2) का दूसरा भाग 5 से 14 अगस्त 2025 तक स्विटजरलैंड के जिनेवा में पैलेस डेस नेशंस में आयोजित किया जाएगा। जिसका उद्देश्य एक वैश्विक, कानूनी रूप से प्लास्टिक प्रदूषण को समाप्त करने के लिए सभी देशों को बाध्य करना है।
यह सम्मेलन केवल महासागरों की चिंता नहीं कर रहा है, बल्कि हिमालय के सुदूर इलाकों, जैसे चंबा, कुल्लू, किन्नौर और लाहौल स्पीति की घाटियों, के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है। पहाड़ों में सॉलिड वेस्ट और प्लास्टिक का असर धीमा ज़रूर है, लेकिन विनाशकारी है। मिट्टी की उर्वरता, वन्य जीवन, और पेयजल स्रोत, सभी पर यह संकट गहराता जा रहा है।