मुंबई और नागपुर: देश में बाघों की आबादी पिछले पांच दशकों में बढ़ी है, लेकिन इसके लिए जनजातीय समुदाय को एक बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। इंडियास्पेंड ने तमिलनाडु व महाराष्ट्र में बाघ अभ्यारण्यों के दौरे और विभिन्न स्रोतों से मिले आंकड़ों से पाया कि उन्हें न सिर्फ अपने पारंपरिक घरों को छोड़कर दूसरी जगहों पर जाकर बसना पड़ा, बल्कि उनमें से आज भी कई लोग मुआवजे की पूरी रकम पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और उन्हें बुनियादी सुविधाएं तक नहीं मिल पाई हैं

साल 2023 में भारत में बाघ संरक्षण के 50 वर्ष पूरे हो गए। तत्कालीन सरकार ने देश भर में बाघ अभयारण्य स्थापित करने के लिए 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर लॉन्च किया था। इस योजना में शुरू में नौ रिजर्व बनाए गए थे, जो आज बढ़कर 53 हो गए हैं। जुलाई 2023 की एक सरकारी प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक "यह परियोजना 75,796 किमी 2 में फैले 53 रिजर्व के साथ एक उल्लेखनीय उपलब्धि के रूप में आगे बढ़ी है। ये देश के भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 2.3% है।"

अप्रैल 2023 में, सरकार ने एक नई बाघ जनगणना जारी की जिसमें अनुमान लगाया गया कि देश में कम से कम 3,167 बाघ रहते हैं। बाद में, जुलाई में कैमरा और नॉन-कैमरा ट्रैप्ड अनुमानों का इस्तेमाल करके इस संख्या में बदलाव कर इसे 3,925 कर दिया गया। 2019 में 2,967 बाघ होने का अनुमान लगाया गया था।

दूसरी ओर, 2013 के लोकसभा संदर्भ नोट के मुताबिक, अनुमान है कि 2007 तक लगभग 50 सालों में 600,000 वनवासी वन्यजीव अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों के कारण अपने घरों से विस्थापित किए गए हैं।

दिसंबर 2017 में, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने संसद को बताया कि राज्य राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य घोषित करने का काम राज्य का है, इसलिए मंत्रालय के पास उनके कारण बेदखल किए गए लोगों की संख्या नहीं है। हालांकि, मंत्रालय ने राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) से मिली जानकारी का हवाला देते हुए कहा, "बाघ अभयारण्यों की घोषणा के लिए किसी भी व्यक्ति को बेदखल नहीं किया गया है"। भले ही बेदखल न किया गया हो लेकिन इनकी वजह से लोगों का विस्थापन आम बात है।

यह विस्थापन तब हुआ, जब देश ने वनों और पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाने वाली खनन जैसी विकास परियोजनाएं शुरू की और इन क्षेत्रों की जैव विविधता को खतरे में डालने वाले कानून बनाए।

तमिलनाडु में क्या हुआ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अप्रैल 2023 में बाघ जनगणना रिपोर्ट लॉन्च करते समय, कर्नाटक और तमिलनाडु में दो बाघ अभयारण्यों का दौरा किया था। इन दोनों राज्य में 10 बाघ अभयारण्य हैं। मुदुमलाई बाघ अभयारण्य में भी प्रधानमंत्री गए थे। यह वो जगह है जहां राज्य ने 2015 में कोर एरिया से सात गांवों के विस्थापन की योजना तैयार की थी। हालांकि स्वदेशी समुदायों ने इस कदम का विरोध किया था।

उनके विरोध के बावजूद, 2016 और 2017 के बीच, तमिलनाडु वन विभाग ने पुनर्वास के पहले चरण में बेन्नई में रहने वाले लोगों को कोर जोन से बाहर कर दिया गया। ये अलग बात है कि सितंबर 2019 तक, राज्य के अधिकारियों ने उस समय विस्थापित किए गए 93 आदिवासी परिवारों को अभी तक मुआवजा नहीं दिया है। प्रभावित ग्रामीणों ने जमीन मालिकों और बिचौलियों के हाथों धोखाधड़ी का भी आरोप लगाया।

तमिलनाडु ट्राइबल पीपल्स एसोसिएशन (टीएनटीपीए) ने दिसंबर 2023 में जनजातीय मामलों के मंत्रालय को भेजे गए एक पत्र में कहा था कि 681 परिवारों में से 573 को विस्थापित कर दिया गया है, लेकिन 108 परिवारों ने "कई अलग-अलग कारणों से" विस्थापन को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। पत्र में विस्थापन प्रक्रिया में कई अनियमितताओं की बात भी उठाई थी। इसमें कहा गया था कि जिन लोगों को यहां से दूसरी जगह रहने के लिए भेजा गया है उन्हें बुनियादी सुविधाएं तक नहीं मिली है और वे किराए के घरों में रह रहे हैं।

एक शोधकर्ता सी.आर. बिजॉय ने कहा, “विस्थापन और मुआवजे के साथ और भी कई मुद्दे रहे हैं। जो लोग पलायन कर गए हैं वे भी खुश नहीं हैं, कुछ मुआवजा नहीं चाहते हैं, जबकि कुछ को अपर्याप्त या कम मुआवजा मिला है।” बिजॉय ने इस क्षेत्र के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन पर भी बड़े पैमाने पर काम किया है।

उन्होंने कहा, यह साफ नहीं है कि विस्थापन के लिए कितना पैसा दिया गया है। वह कहते हैं, “विस्थापन प्रक्रिया चार चरणों में होनी थी। ऐसी अफवाह थी कि इसके लिए 200 करोड़ रुपये जारी किए गए थे। हालांकि हमें इस बात की जानकारी नहीं है कि इसके लिए सही मायने में कितने पैसे जारी किए गए। जिन अधिकारियों को विस्थापन की निगरानी करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, उन्होंने ही इन्हें लूट लिया। कुछ मामलों में लोगों ने एफआईआर दर्ज कराई है। लेकिन उन्हें एफ़आईआर नंबर नहीं मिले।” दरअसल, पुलिस ने कथित तौर पर इन धोखाधड़ी गतिविधियों के लिए अधिकारियों पर मामला दर्ज किया है।

पिछले साल टीएनटीपीए के आंदोलन के बाद, जिला कलेक्टर ने एफआईआर नंबर देने का आश्वासन दिया था और स्ट्रीट लाइट की जरूरतों जैसी चीजों के बारे में भी बात की। बिजॉय ने कहा, “ज्यादातर चीजों के लिए वह यही कहते रहे कि फिलहाल कोई बजट नहीं है और लोकसभा चुनाव के बाद ही वह कुछ कर पाएंगे।”

बाघ अंदर, लोग बाहर

मुदुमलाई में जो हुआ वह देश भर के बाघ अभयारण्यों, राष्ट्रीय उद्यानों में और उसके आसपास जो हो रहा है उसकी एक बानगी है। प्रधानमंत्री ने प्रोजेक्ट टाइगर के दौरान, 1973 में बांदीपुर में बने बाघ अभयारण्य का भी दौरा किया था। इसकी स्थापना के बाद से राज्य ने यहां से कम से कम 417 परिवारों को विस्थापित किया है। 1993 में उद्यान में रहने वाले 65 परिवारों को जबरदस्ती उनके घरों से बेदखल कर दिया गया था।

एनटीसीए डेटा से पता चलता है कि 2017 तक, राज्य सरकारों ने "स्वैच्छिक गांव पुनर्वास" के लिए 751 गांवों और 50 टाइगर रिजर्व में मुख्य या महत्वपूर्ण बाघ आवासों में 56,247 परिवारों की पहचान की थी। आंकड़ों से पता चलता है कि इनमें से 173 गांवों के 12,327 परिवारों को विस्थापित या उनका पुनर्वास किया गया।

विशेषज्ञों का कहना है कि लोगों को अपने पारंपरिक घरों से दूर दूसरी जगह जाकर बसने में शायद ही कुछ ‘स्वैच्छिक’ हो। एलियो कहते हैं, "मैंने जिस वायनाड वन्यजीव अभयारण्य का दौरा किया था, उससे तो मुझे यही लगा कि लोगों को कभी भी उनके अधिकारों के बारे में पूरी जानकारी नहीं दी गई और न ही वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) की मूल भावना के बारे में बताया गया।" एलोनोरा फैनारी, स्पेन के बार्सिलोना के ऑटोनोमस यूनिवर्सिटी के पर्यावरण विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान में संरक्षण अध्ययन में डॉक्टरेट शोधकर्ता हैं। वह कहते हैं, "वहां रहने वाले लोगों से जुड़े मुद्दों को जाने बिना मानव-पशु संघर्ष को हल करने की आड़ में उन्हें वहां से हटाने के लिए मजबूर किया गया था।"

फैनारी ने पर्यावरणीय संघर्षों के वैश्विक डेटाबेस ईजे एटलस में भी काम किया है। उन्होंने कहा कि वनवासियों के साथ ज्यादा बातचीत नहीं की गई और पुनर्वास के मुद्दों से पैदा होने वाले संघर्षों को कम करने के लिए खुछ ज्यादा उपाय नहीं किए गए। इसमें सही जगह पर पुनर्वास न होना, बेहद कम या फिर बिलकुल भी पुनर्वास न किया जाना और आजीविका के अवसर की कमी आदि शामिल है। फैनारी ने कहा, इसके अलावा, स्थानीय लोगों ने नागरहोल बाघ अभयारण्य जैसे बाघ अभयारण्यों में वन अधिकारियों द्वारा किए जा रहे उत्पीड़न और उन्हें हाशिए पर धकेले जाने की परेशानी भी बताई। उन्हें सड़क और बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं की भी कमी का भी सामना करना पड़ा है, जबकि पर्यटकों के लिए ये सुविधाएं आसानी से उपलब्ध थीं।

फैनारी बताते हैं, " स्वैच्छिक पलायन, सुनने में काफी अच्छा लगता है लेकिन ये अक्सर तब होता है जब वर्षों के संघर्ष और उत्पीड़न से थके हुए लोगों के सामने इसे एक विकल्प की तरह रखा जाता है और उन्हे मजबूरी में उसे चुनना पड़ता है। दुर्भाग्य से, ज्यादातर मामलों में आदिवासी समुदायों के जीवन के लिए ये फायदे का सौदा साबित नहीं हुआ है।"

इंडियास्पेंड ने MoEFCC, भारत सरकार में वन महानिरीक्षक रमेश पांडे से संपर्क किया और उनसे स्वैच्छिक पुनर्वास और जनजातियों के अधिकारों और भारत की वन्यजीव संरक्षण नीति के बारे में पूछा। उनकी प्रतिक्रिया मिलने पर हम स्टोरी को अपडेट कर देंगे।

आवास संबंधी मुद्दों पर काम करने वाले हाउसिंग

एंड लैंड राइट्स नेटवर्क (एचएलआरएन), संगठन ने 2021 की अपनी एक रिपोर्ट में बताया कि टाइगर रिजर्व और उसके आसपास के 110,000 लोगों को बेदखली का खतरा झेलना पड़ रहा है। इन आंकड़ों में 273 गांवों के वो लोग भी शामिल हैं जो 28 टाइगर रिजर्व के अंदर कोर एरिया में रहते हैं।

संरक्षित क्षेत्रों का दोहन

भले ही मूल जनजातियों को उनकी जगह छोड़ने के लिए मजबूर किया गया हो, लेकिन पर्यटन पर बढ़ते जोर के चलते संरक्षित क्षेत्रों में निर्माण कार्य तेजी से किए जा रहे हैं। साथ ही सामुदायिक जगहों पर अतिक्रमण भी बढ़ गया है।

2022 में, MoEFCC ने 401 परियोजनाओं को सैद्धांतिक मंजूरी दी थी। इसके साथ ही ऐसी 517 परियोजनाओं को भी मंजूरी दी गई, जिनमें वन भूमि के डायवर्जन की जरूरत थी। इनमें से कई घने वन क्षेत्रों में थीं। अगस्त 2023 में, MoEFCC ने संसद को बताया कि उसने पिछले पांच सालों में संरक्षित क्षेत्रों के आसपास इको-सेंसिटिव जोन में 53 प्रस्तावित परियोजनाओं में से 40 को मंजूरी दे दी है।

सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2023 में अपने जून 2022 के आदेश को संशोधित करते इको-सेंसटिव जोन के अंदर विकास और निर्माण कार्यों पर पूर्ण प्रतिबंध हटा दिया है। पहले के आदेश में कहा गया था कि हर राष्ट्रीय उद्यान और वन्यजीव अभयारण्य की सीमा से कम से कम 1 किलोमीटर का इको-सेंसिटिव ज़ोन (ESZ) होना चाहिए।

इन मौजूदा और आगामी प्रस्तावों से और अधिक लोगों के विस्थापन का खतरा है। इसके अलावा इन परियोजनाओं के चलते भौगोलिक स्थिति के साथ-साथ भूमि उपयोग भी बदल रहा है। यहां रहने वाले लोगों का कहना है कि संरक्षित क्षेत्रों के अंदर घने जंगलों को घास के मैदानों में बदला जा रहा है और प्रजातियों का संतुलन बिगड़ रहा है। उदाहरण के लिए, कुछ पार्कों में हिरणों को आकर्षित करने के लिए खास तरह की वनस्पतियां लगाई जाती हैं, ताकि बाघों का शिकार करने के लिए ज्यादा परेशान न होना पड़े।

एनटीसीए की रिपोर्ट यह भी स्वीकार करती है कि इन क्षेत्रों में खनन से जुड़ी गतिविधियों से वनस्पतियों और जीवों को नुकसान पहुंच रहा है।

ताडोबा अंधारी टाइगर रिजर्व- बाघों को देखने की 'गारंटी'

जब हमने अक्टूबर 2023 में महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में ताडोबा अंधारी टाइगर रिजर्व का दौरा किया था, तो पर्यटकों की वहां खूब आवाजाही थी। इस रिपोर्टर ने टाइगर रिजर्व में बोर्ड देखे, जिसमें लिखा था “ताडोबा भारत के "प्रमुख" बाघ अभयारण्यों में से एक है” और साथ ही उनमें पर्यटकों को बाघों को देखने की 'गारंटी' दी गई थी। लगभग 1,727 वर्ग किमी में फैले रिजर्व में छह एंट्री गेट हैं। प्रत्येक गेट पर सुबह और शाम बाघों के देखे जाने की संख्या लिखी हुई है।

रिजर्व में काम करने वाले एक कार्यकर्ता ने नाम न छापने की शर्त पर हमें बताया, "पिछले कुछ सालों में रिजर्व में बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है। एक बाघ को अपने खुद के एक इलाके की जरूरत होती है।"

वन्यजीव विशेषज्ञ बताते हैं कि एक वयस्क नर बाघ को 60-100 वर्ग किमी के बीच की सीमा की जरूरत होती है। कार्यकर्ता ने कहा, "हालांकि उनकी संख्या में वृद्धि हुई है, लेकिन जिस जमीन पर वे रहते हैं वह उतनी ही बनी हुई है। उसमें कोई इजाफा नहीं हुआ है। इससे पारिस्थितिक क्षेत्र में असंतुलन पैदा हो गया है, जहां कुछ जानवर अधिक संख्या में हैं, जबकि अन्य को नजरअंदाज कर दिया गया है।"

ताडोबा अंधारी टाइगर रिजर्व महाराष्ट्र का सबसे पुराना और सबसे बड़ा राष्ट्रीय उद्यान है। पार्क के बफर जोन में लगभग 79 गांव बसे हैं, जिनकी आबादी 94,000 है। कोर एरिया में पहले छह गांव थे- कोलसा, बोटेजारी, जामनी, नवेगांव, पलसगांव और रंटालोदी। यहां 992 परिवार रहा करते थे, जिन्हें 2007 और 2014 के बीच यहां से हटाकर किसी दूसरी जगह ले जाकर बसा दिया गया।

पुनर्वास की यह प्रक्रिया 2006 में शुरू हुई। और सबसे पहले जिस गांव का पुनर्वास किया गया वह बोटेजारी था, जिसमें 140 परिवार रहा करते थे। पास के गांव कोलसा से भी 48 परिवारों का पुनर्वास किया गया था। कथित तौर पर इस कदम को "मॉडल पुनर्वास" माना गया।

हालांकि, इस पुनर्वास से जुड़ी कई समस्याएं थी। ताडोबा अंधारी टाइगर रिजर्व के निवासी शंकर भरदे ने इंडियास्पेंड को बताया “बोटेजारी में जो हुआ वह पुनर्वास नहीं था। यह वास्तव में विस्थापन था। मैंने हाल ही में क्षेत्र का दौरा किया और देखा कि उनके पास बिजली या पानी जैसी कोई बुनियादी सुविधाएं नहीं थीं। उन्हें बंजर जमीनें दे दी गई हैं। किसी को 8 लाख रुपये दिए गए तो किसी को 10 लाख रुपये।'

मौजूदा समय में घने जंगल में बने कोर एरिया में कई इको-रिजॉर्ट नजर आने लगे हैं।

महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में ताडोबा अंधारी टाइगर रिजर्व के कोर एरिया के पास बने इको रिजॉर्ट की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इमेज क्रेडिट : सुष्मिता

प्रतिपूरक वनीकरण और संरक्षित क्षेत्र

भारत में 30 करोड़ से ज्यादा लोग अपनी आजीविका के लिए वनों पर निर्भर हैं। इसके अलावा, लगभग 43 लाख लोग जंगलों में और उसके आसपास रहते हैं जिन्हें अब संरक्षित क्षेत्र (प्रोटेक्टेड एरिया) कहा जाता है।

संरक्षित क्षेत्रों के बढ़ने के बावजूद, भारत की प्रमुख प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण (कैम्पा) के तहत गतिविधियों ने राज्यों में इन मूल जनजातियों को संकट में डाल दिया है। दरअसल वन विभाग समुदाय के स्वामित्व वाली और आम जमीन पर बाड़ लगा रहा है। यह वही जमीन है जिस पर लोग अपनी आजीविका के लिए निर्भर हैं।

14 फरवरी, 2021 को केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने एक ट्वीट में कहा कि राष्ट्रीय प्रतिपूरक वनीकरण कोष प्रबंधन और योजना प्राधिकरण ने 30 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए 6,000 करोड़ रुपये के लक्ष्य के मुकाबले 7,133.25 करोड़ रुपये की वार्षिक परिचालन योजनाओं को मंजूरी दी है। उन्होंने कहा कि इससे उस वर्ष जनवरी तक 4 करोड़ 38 लाख दिनों का रोजगार सृजन हुआ है। लेकिन उन्होंने स्वीकृत परियोजनाओं की प्रकृति और इससे मिलने वाले रोजगार का उल्लेख नहीं किया था।

इंडियास्पेंड ने MoEFCC, भारत सरकार में वन महानिरीक्षक रमेश पांडे से संपर्क किया और स्वीकृत परियोजनाओं और नौकरियों के बारे में पूछा। और साथ ही दी गई तारीख से संबंधित डेटा का भी जानकारी मांगी। उनका जवाब मिलने पर हम इस स्टोरी को अपडेट करेंगे।

कैम्पा फंड को वन डायवर्जन के कारण जैव विविधता में होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए जाना जाता है। इसका इस्तेमाल एनटीसी द्वारा चलाए जा रहे पुनर्वास कार्यक्रमों के लिए भी किया गया है, जैसा कि 2021 में कर्नाटक में नागरहोल बाघ अभयारण्य के मामले में किया गया था। 2015 के एक सरकारी दस्तावेज के मुताबिक, राष्ट्रीय कैम्पा सलाहकार परिषद (एनसीएसी) की मंजूरी के बाद कैम्पा फंड पर सालाना 1 करोड़ रुपये तक का ब्याज, संरक्षित क्षेत्रों से लोगों के विस्थापन पर पांच साल तक इस्तेमाल किया जा सकता है।

ऑल इंडिया फोरम ऑफ फॉरेस्ट मूवमेंट से जुड़े कार्यकर्ता और शोधकर्ता सौमित्रो घोष ने कहा, “संरक्षित क्षेत्र नेटवर्क को बढ़ाने के लिए तथाकथित कैम्पा फंड का इस्तेमाल करना दरअसल जंगलों पर सरकारी नियंत्रण रखने का ही एक तरीका है। मौजूदा समय में चल रही वन नीति पहले की तरह उपनिवेशवाद को बढ़ावा देती है।' उन्होंने संरक्षित क्षेत्रों में काफी रिसर्च किया है। वह कहते हैं, "कैम्पा फंड ‘खूनी पैसा’ है, जो दूसरों के जीवन को दांव पर लगाकर प्राप्त किया गया है- यह वनों की कटाई, विस्थापन, बहिष्कार और निष्कर्षण की कीमत से आया है।

घोष कहते हैं, ''जब इस पैसे का इस्तेमाल दिखावटी संरक्षण के लिए किया जाता है, तो स्थिति पारिस्थितिक और नैतिक रूप से और भी उलझ जाती है” वह आगे कहते हैं, “पारिस्थितिक रूप से- आप किसी इलाके के एक हिस्से को नष्ट नहीं कर सकते हैं और पुलिस और पैसे के जरिए दूसरे हिस्से की रक्षा नहीं कर सकते हैं। नैतिक रूप से- कैम्पा के जरिए संरक्षण क्षेत्रों को फंड सिर्फ अन्याय को बढ़ाता है। इसे उपनिवेशवाद और मुनाफाखोरी और लूट से अलग करके नहीं देखा जा सकता है।” दरअसल विस्थापन, बहिष्कार और शोषण के जरिए जंगलों का अधिग्रहण किया जाता है और फिर कैम्पा फंड का इस्तेमाल करके इन क्षेत्रों का "संरक्षण" किया जाता है।

विशेष बाघ सुरक्षा बल के लिए फंडिंग

पिछले कुछ सालों में मध्य भारत के पेंच, ताडोबा-अंधारी और मेलघाट जैसे टाइगर रिजर्व के लिए फंडिंग बढ़ी है। सुरक्षा बल तो मजबूत हुआ है, लेकिन इसकी वजह से लोग और अधिक हाशिए पर चले गए हैं। ताडोबा अंधारी बाघ अभयारण्य के निवासी शंकर भारदे ने कहा, “पिछले कुछ सालों में, संरक्षित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में सुरक्षा बलों का डर बढ़ गया है। इनके पास हथियार होते हैं और जब लोग वन उपज खरीदने जाते हैं तो उन्हें अपनी जान को इनसे खतरा होता है।” उदाहरण के लिए, काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में वन रेंजरों को कथित तौर पर शिकारियों पर गोली चलाने का अधिकार है। इसे लेकर आदिवासियों का आरोप है कि इसके चलते कई निर्दोष लोग मारे गए हैं।

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री अश्विनी कुमार चौबे द्वारा संसद में दिया गया एक बयान

ताडोबा अंधारी में वडाला तुकुम और सामुदायिक वन अधिकार

भद्रावती तालुका और वडाला पंचायत में ताडोबा अंधारी टाइगर रिजर्व के बफर जोन में चार गांवों -सीतारमनपेठ, (56 परिवार) कोंडेगांव (121 परिवार), देवदा (87 परिवार), मुधोली (483 परिवार) को सामुदायिक वन अधिकार (सीएफआर) प्राप्त हुआ है। इन गांवों में गोंड आदिवासी रहते हैं। गांवों को पीले झंडों से मार्क किया गया है, जो गोंडों द्वारा अपने अधिकारों की पुष्टि का प्रतीक है। रिजर्व के कुछ गांवों के लोगों को एफआरए के बारे में जानकारी नहीं है, वडाला तुकुम के निवासियों को लंबे संघर्ष के बाद अधिकार मिला है। लोग साप्ताहिक हाटों या बाजारों में इसे लेकर चर्चा करते हैं।

आदिवासी नेता बिरसा मुंडा की एक मूर्ति और पीले झंडे। यह ताडोबा अंधारी टाइगर रिजर्व के बफर जोन के गांवों में गोंड के दावों का प्रतीक है। इमेज क्रेडिट : सुष्मिता

भारदे संरक्षण के मुद्दों पर काम करने वाले महाराष्ट्र स्थित संगठन, पर्यावरण मित्र से जुड़े हैं। वह कहते हैं, “सबसे पहले मैं निस्तार अधिकारों (जो उपज इकट्ठा करने, चराने आदि का अधिकार है) पर काम कर रहा था। धीरे-धीरे मैंने 2012 से सीएफआर अधिकारों (एफआरए के तहत, जिसमें निस्तार अधिकारों के अलावा कई अन्य अधिकार शामिल हैं, जैसे कि उपज पर अधिकार, सामान्य भूमि जैसे अनुष्ठान के लिए या पीने का पानी इकट्ठा करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भूमि आदि) पर काम करना शुरू कर दिया।'' भारदे ने आगे कहा, “2012 में, एक बड़ी जात्रा (रैली) का आयोजन किया गया था। जैसे-जैसे वन अधिकारों, विशेषकर सीएफआर के लिए संघर्ष उग्र होता गया, महाराष्ट्र वन विभाग ने स्थानीय देवताओं के मंदिरों, जंगलों आदि में प्रवेश पर प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया।

वह कहते हैं, "लोगों ने विरोध किया और पूछा कि उन्हें जंगल और रिजर्व के अंदर जाने से क्यों रोका जा रहा है। इसलिए खासतौर पर सीएफआर दाखिल करने से संबंधित मुख्य प्रक्रियाएं 2012 तक ही शुरू हो पाई थीं। 5 जनवरी, 2013 में दावों का पहला सेट दायर किया गया था। अब तक, 19 गांवों ने सीएफआर के लिए आवेदन किया है।''

2018 और 2022 के बीच हाथी और बाघ के इंसानों पर हमलों के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, मानव-पशु संघर्षों में तेजी से वृद्धि हुई है, इसकी एक बड़ी वजह "किले के संरक्षण मॉडल" को माना जा रहा है। इस मॉडल में जानवरों के लिए पार्क बनाए जाते हैं, लेकिन उनमें लोगों को आने की इजाजत नहीं होती है।

ताडोबा में ग्रामीणों ने कहा कि पहले से ही घास के मैदानों की कमी थी, जिससे बाघों के शिकार हिरणों की आबादी का जीवित रहना मुश्किल हो गया था। बाघ संरक्षण पर जोर को देखते हुए उनकी संख्या में वृद्धि हुई है। ग्रामीणों का कहना है कि बाघ के शिकार की कमी के साथ-साथ, बाघ इंसानों पर हमला कर सकते हैं।

विस्थापन और बेदखली की कीमत

एक अध्ययन जिसका शीर्षक है "अधिकार आधारित संरक्षण: पृथ्वी की जैविक और सांस्कृतिक विविधता के संरक्षण का मार्ग?" जैव विविधता की रक्षा के लिए क्या कीमत चुकानी पड़ती है- इस पर अमेरिका स्थित राइट्स एंड रिसोर्सेज इंटरनेशनल (आरआरआई) द्वारा किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के साथ मूल निवासियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों को जोड़ने में बेदखल करने की तुलना में कम खर्च होता है।

यह अनुमान लगाया गया है कि दुनिया भर में असुरक्षित महत्वपूर्ण जैव विविधता संरक्षण क्षेत्रों में रहने वाले 1.2-1.5 बिलियन लोगों को पुनर्वास करने और विस्थापित करने की लागत 4-5 ट्रिलियन डॉलर के बीच है। इसकी तुलना में स्थानीय जनजातियों के स्वामित्व अधिकारों को मान्यता देने की अनुमानित लागत 1% से भी कम है।

इंडियास्पेंड ने इस पर सरकार की राय जानने के लिए केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्री अर्जुन मुंडा से संपर्क किया था। उनकी प्रतिक्रिया मिलने पर लेख को अपडेट किया जाएगा।

वन अधिकार अधिनियम के अनुसार, संरक्षित क्षेत्रों के भीतर भी सामुदायिक वन अधिकारों का निपटान महत्वपूर्ण है। अधिनियम वनवासियों के अधिकारों को परिभाषित करता है और कहता है कि किसी भी प्रकार के पुनर्वास पर लिखित रूप में और ग्राम सभा की सहमति होनी चाहिए।

आरआरआई रिपोर्ट में कहा गया है, “जैव विविधता संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण क्षेत्र अक्सर आईपी (आदिवासी लोगों), एलसी (स्थानीय समुदायों), और एडी (एफ्रो वंशज) की भूमि पर होते हैं। इसलिए इन समुदायों के भूमि अधिकारों को मान्यता देना महत्वपूर्ण है। ताकि संरक्षण लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके और उन्हें और अधिक हशिए पर न धकेला जाए। अधिकार-मान्यता प्रक्रियाओं का लाखों लोगों के लिए सामूहिक रूप से न्याय भी सुनिश्चित करना चाहिए।

कल्पवृक्ष और ईजे एटलस के एक स्टडी और इंटरैक्टिव मैप का शीर्षक है-"लूज़िंग ग्राउंड: कैसे भारत के संरक्षण प्रयास स्थानीय समुदायों को खतरे में डाल रहे हैं।" इसमें आदिवासी और वन में रहने वाले समुदायों और वन्यजीव संरक्षण बलों और वन विभाग के बीच संघर्ष के 25 उदाहरण दिए गए हैं।

भारत के संरक्षण मॉडल की आलोचना करते हुए, ऑल इंडिया फोरम ऑफ फॉरेस्ट मूवमेंट के घोष कहते हैं, “संरक्षित क्षेत्रों के तथाकथित नेटवर्क का निर्माण दोषपूर्ण है और आज के संदर्भ में यह एक बेकार अवधारणा है। ये ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें उन समुदायों को शामिल नहीं किया गया है जो किसी भी पारिस्थितिक परिदृश्य का आंतरिक हिस्सा हैं और संरक्षण में उनकी बड़ी जिम्मेदारी होनी चाहिए। वह आगे कहते हैं, "यह तरीका काम नहीं करता क्योंकि यह केवल नियमों और सजा के जरिए संरक्षण पर जोर देता है। ऐसा कर भले ही कुछ जगहों को किले की तरह सुरक्षित कर लिया जाए, लेकिन असल में प्रकृति का संरक्षण नहीं हो पाता है।"