बंधुआ मजदूरों का दर्द: जब तक आरोपियों को सजा नहीं, तब तक पुनर्वास की राशि नहीं
केंद्रीय क्षेत्र योजना में, बंधुआ मजदूरों को छुड़ाने के बाद उनके पुनर्वास की प्रक्रिया को आरोपियों की सजा के साथ जोड़ा गया है। ये एक बड़ी समस्या है, जिसके कारण पीड़ितों को पुनर्वास के लिए सरकारी मदद और अन्य सुविधाएं मिलने में देरी हो रही है।

बिलासपुर और बेंगलुरु: 2022 में उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में एक ईंट भट्ठे से कुछ बंधुआ मजदूरों को छुड़ाया गया, जिसमें छत्तीसगढ के मनोज कुमार अनंत और उनकी पत्नी शकुंतला भी थे। जब सितंबर 2023 में इंडियास्पेंड ने उनसे बातचीत की, तो उन्होंने बताया था कि वे केंद्र सरकार की बंधुआ श्रम पुनर्वास योजना, 2021 के तहत मिलने वाली पुनर्वास सहायता का इंतजार कर रहे हैं। आज दो साल बाद भी उनका इंतजार पूरा नहीं हुआ है। इस साल मार्च में एक दुर्घटना के बाद मनोज के बाएं हाथ में लकवा मार गया और वह अस्पताल के बिस्तर पर अपना समय काट रहे हैं।
उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में ईंट भट्टे से बचाए गए बिलासपुर के सात वयस्क बंधुआ मजदूर। बंधुआ मजदूरों के लिए केंद्र सरकार की पुनर्वास योजना के तहत अभी तक उनका पुनर्वास नहीं किया गया है।
इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ माइग्रेशन एंड डेवलपमेंट (आईआईएमएडी) की वरिष्ठ शोधकर्ता टीना कूरियाकोस जैकब ने कहा, "बचाव के बाद के पहले कुछ हफ्ते छुड़ाए गए बंधुआ मजदूरों के लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं, ताकि वे फिर से बंधुआ मजदूरी के दलदल में न फंसें। श्रम मंत्रालय की 2016 की बंधुआ मजदूरों के लिए पुनर्वास योजना में उन्हें वित्तीय और दूसरी अन्य सहायता दिए जाने के बारे में स्पष्ट रूप उल्लेख किया गया है।"
मनोज का मामला अकेला नहीं है। इंडियास्पेंड की टीम छत्तीसगढ़ के बिलासपुर पहुंची और पाया कि 10 अन्य लोग (सभी राज्य के अनुसूचित जाति सतनामी समुदाय से) अभी भी सहायता का इंतजार कर रहे हैं। इन्हें मनोज और उनकी पत्नी के साथ 2022 में उसी ईंट भट्ठे से छुड़ाया गया था। उन्हें 30,000 रुपये की तत्काल नकद सहायता भी दो साल बाद मिली और इनमें से किसी का भी केंद्रीय क्षेत्र योजना के मुताबिक पुनर्वास नहीं किया गया है। बता दें कि 2021 में इस योजना में नकद आवंटन में संशोधन किया गया था।
तत्काल नकद सहायता के अलावा, योजना के तहत उन्हें बंधुआ मजदूर मुक्ति प्रमाण पत्र (बीएलआरसी) और उनके पुनर्वास के लिए शोषण के स्तर, उम्र और लिंग के आधार पर 1 से 3 लाख रुपये के बीच की राशि मिलनी चाहिए। साथ ही मजदूरों को घर बनाने के लिए जमीन, सस्ते घर, रोजगार, पशुपालन जैसी गैर-आर्थिक मदद भी दी जाती है।
हालांकि 11 पीड़ितों को, जिला अधिकारी या सब-डिविजनल मजिस्ट्रेट द्वारा जारी किए गए प्रमाणपत्र मार्च 2022 में दे दिए गए थे, लेकिन 30,000 रुपये की तत्काल सहायता राशि उन्हें जुलाई 2024 के आस-पास मिली।
मनोज ने बताया, "मैं इलाज और उससे जुड़ी जरूरतों के कारण एक लाख रुपये से ज्यादा के कर्ज में हूं।" बिलासपुर में अस्पताल में भर्ती होने के बाद वह एक हफ्ते में 25,000 रुपये खर्च कर चुके हैं, हालांकि कुछ इलाज आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत कवर किया गया है। वह कहते हैं, "हमें 30,000 रुपये मिलने के बाद से कोई पैसा नहीं मिला। और मेरे पास राशन कार्ड भी नहीं है।" बकाया राशि मिलने में देरी के सवाल पर बिलासपुर श्रम विभाग के अधिकारियों ने इंडियास्पेंड को बताया कि बकाया राशि केवल आरोपियों को दोषी ठहराए जाने के बाद ही दी जा सकती है क्योंकि पूरी पुनर्वास राशि पुनर्वास योजना के अनुसार दोषसिद्धि से जुड़ी है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह उन कारणों में से एक है जिसकी वजह से बंधुआ मजदूरों का पुनर्वास अटका हुआ है।
वॉक फ्री के ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स 2023 के अनुसार, भारत में आधुनिक गुलामी में कम से कम 1.1 करोड़ लोग फंसे हैं, यह संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है। आधुनिक गुलामी का एक रूप ‘बंधुआ मजदूरी’ भारत में 1976 के बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम (बीएलएसए) के लागू होने के बाद से लगभग पांच दशकों से अवैध है।
इंडियास्पेंड ने पहले रिपोर्ट की थी कि अगर इसी दर से काम होता रहा, तो केंद्र सरकार 2030 तक 1.84 करोड़ बंधुआ मजदूरों को बचाने और पुनर्वासित करने के अपने लक्ष्य से 98% पीछे रह जाएगी। सरकार के फरवरी 2025 के आंकड़ों के अनुसार, 1978 से अब तक 297,038 बंधुआ मजदूरों को बचाया गया है, जिस पर 106.3 करोड़ करोड़ रुपये खर्च हुए हैं।
कुशीनगर की यातनाः कमरे में कैद, पिटाई और अपमान
सड़क पर उड़ती धूल और गाड़ियों का शोर सुबह की गर्मी को और अहसनीय बना रहा था। मनोज के साथ बचाए गए बाकी लोग बिलासपुर के कलेक्ट्रेट से 10 किलोमीटर दूर, सिलपहरी की सतनामी कॉलोनी में एक मजदूर के घर पर इकट्ठा हुए थे।
28 वर्षीय ज्योति मनहर पुनर्वास के लिए मिलने वाली राशि को लेकर चिंतित है। नौवीं कक्षा तक पढ़ी ज्योति उन आठ लोगों में से एक थीं जिन्हें मनोज के साथ बचाया गया था और मुक्ति प्रमाण पत्र दिए गए थे। बाकी मजदूरों की तरह, ज्योति ने भी कर्ज लेकर एक छोटा सा घर बनाया, जो उनकी अपनी जमीन पर नहीं है। यहां के कई मजदूरों के घर बिना प्लास्टर के हैं और वहां पानी जैसी जरूरी सुविधाएं तक नहीं हैं।
मनोज कुमार अनंत (43) को मार्च में एक दुर्घटना के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था। उनका बायां हाथ लकवाग्रस्त है। 2022 में बंधुआ मजदूरी से बाहर निकालने जाने के बाद से, उन्हें और उनके साथ के अन्य लोगों का अभी तक सरकारी योजना के अनुसार पुनर्वास नहीं किया गया है। 2022 में, बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराने से पहले यूपी के कुशीनगर में ईंट भट्टे पर काम करती हुई मनोज की पत्नी शकुंतला बाई (39)।
कुशीनगर में हुई घटना से पहले, पीड़ितों और उनके परिवार वाले उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कई हिस्सों में मजदूरी कर चुके थे। उन्हें 1,000 ईंट बनाने के लिए लगभग 600-700 रुपये मिलते, जो छह महीने काम करने के बाद दिए जाते थे। साप्ताहिक आधार पर एक परिवार- यानी पति और पत्नी- को उनकी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए लगभग 1,500 रुपये दिए जाते और फिर 6 महीने के बाद मिलने वाली पूरी तनख्वाह में से इन पैसों को काट लिया जाता था। घटना के समय कुशीनगर के ईंट भट्ठे पर करीब 20 लोग अपने छोटे बच्चों के साथ वहां काम कर रहे थे।
सरकार द्वारा राशन कार्ड पोर्टेबिलिटी के वादे के बावजूद, कई लोग अपने कार्य स्थलों पर अपने कार्ड का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। यह योजना राज्य के अंदर और राज्य के बाहर प्रवासी मजदूरों को भोजन प्राप्त करने में मदद के लिए चलाई गई है। सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन की दिसंबर 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार, 1,012 मौसमी प्रवासी ईंट श्रमिक परिवारों के बीच किए गए सर्वे से पता चला कि राजस्थान और गुजरात में 71% उत्तरदाताओं को इस योजना के बारे में जानकारी थी। उसके बावजूद सिर्फ 50% ने इसका उपयोग करने का प्रयास किया और उनमें से सिर्फ 59% को ही राशन मिल पाया। अक्सर मौसमी प्रवासी ईंट भट्ठा श्रमिकों के बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं।
अपने घर के बाहर अपने पति के साथ खड़ी ज्योति मनहर। हरप्रसाद मनहार (36), अपनी पत्नी (33) प्रागा बाई के साथ। इन दोनों को सिलपहाड़ी में ईंट भट्टे से छुड़ाया गया था।
ईंट भट्ठों पर काम का पैसा न मिल पाना हमेशा से एक चिंता का विषय रहा है, लेकिन कुशीनगर का अनुभव मजदूरों के लिए और भी डरावना था।
उनकी मुसीबत तब शुरू हुई जब महिला ठेकेदार (जो मजदूरों की एक रिश्तेदार थी), 2021 के आखिर में ईंट भट्ठे के मालिक से मजदूरी के लिए मिले 5 लाख रुपये लेकर भाग गई। मजदूरों ने बताया कि जैसा आमतौर पर होता है, हमने दिवाली के बाद काम शुरू किया था। काम करते हुए तकरीबन दो महीने ही हुए थे कि तभी ये सब हो गया। मालिक को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि ठेकेदार ने उन्हें धोखा दिया है। उसने कहा कि अब 1000 ईंटों के बदले करीब 300 रुपये ही मजदूरी दी जाएगी, जो तय हुई दर से आधी से भी कम थी।
ज्योति ने कहा, "हमने भागने की कोशिश की, लेकिन हमें पकड़कर कमरे में बंद कर दिया गया।" बीच-बीच में छत्तीसगढ़ी में बोलते हुए, वह अपने कैद के दिनों को याद करके सिहर उठती थीं। उन्होंने बिनोद कुमार से शादी के बाद ईंट भट्ठों में काम करना शुरू किया था। पीड़ितों ने बताया कि बच्चों समेत करीब 20 लोगों को लगभग दो हफ्ते तक एक कमरे में बंद रखा गया। सुबह उन्हें काम करने या शौच के लिए खेत में जाने की इजाजत थी। महिला मजदूरों के मुताबिक, जब वे शौच के लिए खेतों में जाती, तो चौकीदार उनका पीछा करते, ताकि वो भाग न सकें। ये बहुत अपमानजनक था।
ज्योति ने कहा, "अब हमें राज्य से बाहर जाकर फिर से ईंट भट्टों में काम करने में डर लगता है।" वह याद करते हुए बताती हैं, "हम भाग न जाएं, इस डर से उन्होंने हमारे फोन ले लिए। हम उसी बंद कमरे में खाते और वहीं पेशाब भी करते थे।" उनकी भाभी ईश्वरी बाई गर्भवती थीं और इस घटना से कुछ दिनों पहले ही उन्होंने कुशीनगर में अपनी बेटी को जन्म दिया था। ईश्वरी कभी स्कूल नहीं गई। उन्होंने बचपन से अपने माता-पिता के साथ ईंट भट्ठों में काम किया है। उन्होंने बताया कि मालिक और उसके भतीजे उनके साथ गाली-गलौच करते और यहां तक कि उन्हें पीटने की धमकी भी दी गई। ईश्वरी बाई ने कहा, "मैंने दिसंबर में बेटी को जन्म दिया। मुझे दवा के लिए 4,000 रुपये दिए गए। यह एक भयानक अनुभव था।" उनकी बेटी के पास अभी तक जन्म प्रमाण पत्र नहीं है।
ईश्वरी की सास अमृत बाई भी छुड़ाए गए बंधुआ मजदूरों में से एक थीं। उन्होंने शिकायती लहजे में कहा, "छत्तीसगढ़ में कम से कम हम लोगों को जानते तो हैं। यूपी में तो पूरी व्यवस्था उनकी [मालिक की] ही है।"
दो हफ्तों के बाद, उन्हें अपने घरों में जाने की इजाजत मिली। लेकिन उन पर कड़ी निगरानी रखी गई और कम वेतन दिया गया। मालिक द्वारा मार-पिटाई करना आम था। इसी के चलते मनोज की एक उंगली भी टूट गई। सौभाग्य से, मनोज ने एक छोटा मोबाइल फोन अपने पास छिपाकर रखा हुआ था और मौका देखकर उन्होंने एनजीओ व अधिकारियों से संपर्क किया। इसके लगभग एक महीने बाद उन्हें कैद से छुड़ाया गया। किसी भी मजदूर को ईंट भट्ठे में काम करने की मजदूरी नहीं मिली थी।
मनोज ने कहा, "कुल मिलाकर, हमें ट्रेन के टिकट, खाने-पीने, वगैरह के लिए 25,000 रुपये [डीएम/जिला अधिकारियों द्वारा] दिए गए और बिलासपुर वापस जाने को कहा गया।" ये पैसे ईंट भट्ठे के मालिक अनिल सिंह से लिए गए थे। यह "तत्काल सहायता राशि" नहीं थी। जैसा कि हमने बताया, वो राशि हमें दो साल से ज्यादा समय बाद मिली। इंडियास्पेंड ने उस दौरान अपनी रिपोर्ट में बताया था कि लौटने के बाद, पीड़ितों ने पुनर्वास के लिए मिलने वाली मदद के लिए जिला अधिकारियों से कई बार मुलाकात की थी।
बिलासपुर श्रम विभाग के मुताबिक, 11 मजदूरों (सात महिलाओं और चार पुरुषों) के मुक्ति प्रमाण पत्र जमा कर दिए गए थे। बकाया पैसे तभी मिलेंगे जब केस में सजा हो जाएगी। मनोज ने दावा किया कि एक सामाजिक कार्यकर्ता ने उन्हें एक साल पहले बताया था कि आरोपी को सजा हो गई है। इंडियास्पेंड इसकी पुष्टि नहीं कर पाया है। वहीं बिलासपुर श्रम विभाग का कहना है कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं है।
इंडियास्पेंड ने कुशीनगर जिला कलेक्टर के कार्यालय को मामले की स्थिति और संबंधित जानकारी, जिसमें तत्काल नकद सहायता में देरी भी शामिल है, के बारे में लिखा और उनसे संपर्क किया है। ईमेल में उत्तर प्रदेश श्रम विभाग और मुख्य सचिव को भी इसकी कॉपी भेजी गई है। उनकी प्रतिक्रिया मिलने के बाद हम स्टोरी को अपडेट कर देंगे।
बिलासपुर में सहायक श्रम आयुक्त ज्योति शर्मा ने कहा, "देरी संबंधित मामले के दोषी को सजा न होने के कारण होती है।" वह आगे कहती है, "हम अपडेट के लिए संबंधित जिले के साथ मामलों के बारे में जानकारी लेते रहते हैं। 2022 से कुशीनगर को चार या पांच रिमाइंडर भेजे जा चुके हैं।"
श्रम विभाग द्वारा साझा की गई जानकारी के अनुसार, 2000 से 2023 के बीच बिलासपुर जिले में 2,200 से अधिक बंधुआ मजदूरों की सूचना मिली है। 2023 तक सात सालों में 27 मामले सामने आए, जिनमें 402 बंधुआ मजदूर थे। इनमें से से केवल दो मामलों में दोषी को सजा मिल पाई है।
केंद्रीय योजना के तहत, संवेदनशील जिलों में हर तीन साल में बंधुआ मजदूरों की पहचान के लिए सर्वे कराने के लिए 4.5 लाख रुपये मिलते हैं और बंधुआ मजदूरी को खत्म करने के लिए हर साल पांच आकलन अध्ययन भी किए जाते हैं। श्रम विभाग ने बताया कि तीन साल पहले एक अध्ययन हुआ था, लेकिन बिलासपुर में किसी भी बंधुआ मजदूर की पहचान नहीं हो पाई।
नाबालिग निखिल और निहाल धीरज भी कुशीनगर के ईंट भट्ठे से बचाए गए लोगों में शामिल थे। वो अपने बड़े भाई और मां ममता के साथ वहां काम के लिए गए थे। उनके बड़े भाई कुणाल को तो मुक्ति प्रमाण पत्र मिल गया, लेकिन निखिल और निहाल अभी भी खाली हाथ हैं।
निखिल धीरज (17) अपनी मां ममता के साथ। उनकी मां और बड़े भाई को मुक्ति प्रमाण पत्र मिला गया, लेकिन उन्हें ये प्रमाण पत्र नहीं मिला है। ईश्वरी बाई (28) अपनी बेटी, पति दीपक कुमार (32) और सास अमृत बाई (48) के साथ। उनकी बेटी का जन्म कुशीनगर में उन्हें ईंट भट्टे से छुड़ाए जाने से पहले हुआ था।
17 साल के निखिल ने बताया "मैं भी बड़ों लोगों के साथ काम करता था और रोजाना तकरीबन 400 ईंटें बनाता था।" निखिल दसवीं फेल हैं। जहां उसके दोस्त पढ़ाई कर रहे हैं, वहीं वह काम पर जाने के लिए मजबूर है। उसने कहा, "पढ़ाई तो अतिरिक्त खर्चा है। काम करके मैं घर वालों की मदद कर सकता हूं।" उसके मुताबिक, बंधुआ मजदूरी से बचाए जाने के बाद से किसी भी सरकारी अधिकारी ने उससे बात नहीं की है। फिलहाल वह अन्य लोगों की तरह पास की कोयला खदानों और फैक्ट्रियों में काम की तलाश में है, जहां उसे रोजाना 300-350 रुपये मजदूरी मिल सकती है।
राष्ट्रीय बंधुआ मजदूर उन्मूलन अभियान समिति की संयोजक निर्मल गोराना ने बताया, "बंधुआ मजदूरी प्रणाली (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 में उम्र का कोई उल्लेख नहीं है। वे [अधिकारी] उन्हें बंधुआ की बजाय बाल श्रमिक समझ लेते हैं।" वह आगे कहती हैं, "अगर बच्चे बंधुआ मजदूरों में शामिल हैं तो कई प्रावधान लागू होते हैं जिसका मतलब है श्रम विभाग के लिए अधिक काम।" यह समिति तस्करी किए गए बंधुआ मजदूरों की पहचान, बचाव और पुनर्वास के लिए एक राष्ट्रीय स्तर का नेटवर्क है।
लगभग चार दशक पहले, 1982 में श्रम मंत्रालय ने बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास के लिए 15 घटकों के साथ एक रूपरेखा तैयार की थी, जिसमें न्यूनतम वेतन लागू करना, घर देना, मनोवैज्ञानिक मदद मुहैया कराना, कौशल सिखाना, रहने की जगह और खेती की जमीन देना, स्वास्थ्य और साफ-सफाई का ध्यान रखना, बच्चों की शिक्षा जैसी बातें शामिल थीं। उस समय, एक बंधुआ मजदूर को छुड़ाने पर सरकार 4,000 रुपये देती थी और योजना आयोग ने 1980-85 के दौरान इस काम के लिए 25 लाख रुपये खर्च किए थे।
सजा से जुड़ा पुनर्वास एक बड़ी बाधा
बंधुआ मजदूरों की पहचान और बचाव और मुकदमा चलाने के लिए बनी मानक संचालन प्रक्रिया कहती है कि बंधुआ मजदूरी के मामलों में, भले ही एफआईआर दर्ज न की गई हो, बचाव या पहचान के 24 घंटे के अंदर ही समरी ट्रायल शुरू हो जाना चाहिए और मामला तीन महीने के अंदर पूरा हो जाना चाहिए। जिला अधिकारियों द्वारा की गई शुरुआती जांच यह पता लगाने के लिए होती है कि क्या कोई बंधुआ मजदूरी में फंसा हुआ है, जबकि समरी ट्रायल में आरोपी नियोक्ता को दोषी ठहराने के लिए सबूत ढूंढा जाता है।
एक बार जिला या उप-विभागीय मजिस्ट्रेट द्वारा मुक्ति का प्रमाणपत्र जारी कर दिया जाता है, तो यह मान लिया जाता है कि बंधुआ मजदूरी का अपराध हुआ है और अब यह साबित करने का बोझ आरोपी नियोक्ता पर आ जाता है कि ऐसा नहीं हुआ था।
मद्रास हाई कोर्ट कानूनी सेवा कमेटी के पैनल अधिवक्ता डेविड सुंदर सिंहने तमिलनाडु में बंधुआ मजदूरी के कई मामलों पर काम किया है। वह कहते हैं, "बंधुआ मजदूरी को खत्म करने के तीन पहलू हैं: बचाना, मुकदमा और पुनर्वास। पुनर्वास केंद्र सरकार की योजना के तहत आता है, जबकि बंधुआ मजदूरी जैसे मामले राज्य के अधीन हैं। यह योजना केवल एक मार्गदर्शन दस्तावेज है।"
लेकिन समरी ट्रायल का तरीका राज्यों में अलग-अलग होता है।
बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम की धारा 21 के अनुसार, राज्य सरकारें कार्यकारी मजिस्ट्रेटों को अपराधों की सुनवाई के लिए प्रथम या द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्तियां प्रदान कर सकता है। इसका मतलब है कि जिले के बड़े अधिकारियों को उन न्यायिक कार्यों को करने की अनुमति दी जा सकती है जिसके लिए उन्हें प्रशिक्षित नहीं किया गया है। यह संविधान के अनुच्छेद 50 का भी उल्लंघन है, जो न्यायपालिका को कार्यपालिका के कार्यों से अलग करता है।
आईआईएमएडी की जैकब ने कहा कि भले ही श्रम मंत्रालय की योजना और एसओपी में उल्लेख किया गया हो कि जिलाधिकारी समरी ट्रायल कर सकते हैं, लेकिन यह जानना जरूरी है कि ऐसी सुनवाई का नतीजा क्या रहा और क्या जिलाधिकारियों को इसके लिए प्रशिक्षित किया गया था!
दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी. मुरुगेसन ने 2018 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की बंधुआ मजदूरी पर लिखी गई एक पुस्तिका में जोर देते हुए लिखा था कि समरी ट्रायल की प्रक्रिया में कुछ चिंताएं हैं। मुरुगेसन ने लिखा, "यह एकमात्र ऐसा कानून है जिसमें एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट को प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट की तरह समरी ट्रायल करने का अधिकार दिया गया है। लेकिन देश में जिला मजिस्ट्रेटों या उनके अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा बहुत कम समरी ट्रायल हुए हैं, क्योंकि उन्हें समरी ट्रायल करने की प्रक्रिया के बारे में जानकारी नहीं है।"
मद्रास उच्च न्यायालय ने इस धारा को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि राज्य में राजस्व प्रभागीय अधिकारियों के पास अधिनियम के तहत मुकदमे चलाने के लिए न्यायिक मजिस्ट्रेट की तरह शक्तियां नहीं होंगी।
वर्तमान में, केंद्र सरकार समर्थित पुनर्वास योजना कहती है कि जिन मामलों में समरी ट्रायल पूरा नहीं हुआ है, लेकिन डीएम और एसडीएम ने प्रथम दृष्टया निष्कर्ष निकाला है और बंधुआ मजदूरी का सबूत है, तो नकद सहायता का प्रस्ताव दोषसिद्धि के विवरण की कमी के कारण रोका नहीं जाएगा। लेकिन, नकद सहायता का अंतिम वितरण बंधुआ मजदूरी के सबूत और न्यायिक प्रक्रिया के अनुसार अन्य कानूनी परिणामों के बाद ही किया जाएगा।
गोरना ने कहा, "बचाए गए बंधुआ मजदूर, खासकर दूसरे राज्यों से आए मजदूर, आमतौर पर नहीं जानते कि वे केस जीत गए हैं या नहीं... पूरी मुआवजा राशि केवल दोषी ठहराए जाने के बाद ही दी जाती है। पुनर्वास को इससे जोड़ा गया है, जो एक समस्या है।" उन्होंने आगे कहा, "लेकिन मुआवजे के मामले में जिलाधिकारी के पास विवेकाधिकार होता है। और वे 30,000 रुपये की तत्काल नकद सहायता से ज्यादा की राशि भी मंजूर कर सकते हैं।"
मद्रास उच्च न्यायालय कानूनी सेवा समिति के सिंह ने कहा कि पुनर्वास को दोषसिद्धि से जोड़ना "एक उल्लंघन है क्योंकि अगर नियोक्ता को बरी किया जाता है, तो यह अभियोजन पक्ष की विफलता है। पीड़ितों को इसके लिए सजा नहीं दी जा सकती है।"
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी इस बात पर जोर दिया है कि सजा से पुनर्वास में देरी होती है। 2021 के एक परामर्श में कहा गया था कि आपराधिक मामलों में सजा पर पुनर्वास की "निर्भरता को अलग" करने की कोशिश की जानी चाहिए। परामर्श में कहा गया था, "बंधुआ मजदूर को मुक्त करने के बाद, उसे मुआवजा दिया जाना चाहिए और पुनर्वासित किया जाना चाहिए।"
आईआईएमएडी की जैकब के मुताबिक, जिला प्रशासन को प्रशिक्षित और संवेदनशील बनाने पर जोर देना होगा। साथ ही रिपोर्टिंग, फंड के इस्तेमाल और पारदर्शिता में सुधार की जरूरत है। उन्होंने आगे कहा, "राज्यों को बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास पर खर्च हुए पैसे वापस पाने के लिए मुक्ति के प्रमाणपत्र केंद्र सरकार को भेजने होते हैं, लेकिन हमें नहीं पता कि कितने राज्य बिना डिजिटल सिस्टम के मैन्युअली ऐसा कर पाते हैं।"
मार्च 2025 की लोकसभा श्रम, वस्त्र और कौशल विकास संबंधी स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार, श्रम मंत्रालय ने कहा कि समरी ट्रायल या दोषसिद्धि की स्थिति, उन्हें राज्यों से "केवल अंतिम पुनर्वास सहायता प्राप्त करने के लिए प्रस्ताव प्रस्तुत करते समय" बताई जाती है। अगर कुछ ही दोषसिद्धियां हैं, जो केंद्र सरकार को भेजे जाने वाले अंतिम प्रस्तावों के लिए जरूरी हैं, तो यह संभावना नहीं है कि समरी ट्रायल के नतीजों पर कोई जानकारी या डेटा मौजूद हो।
सहायक श्रम आयुक्त शर्मा ने बताया कि मनोज और अन्य के मामले में अभी तक सजा के बारे में कोई जानकारी नहीं है। "जब अदालत नियोक्ता या इस मामले में ईंट भट्ठा मालिक को दोषी ठहराती है और हमें इसकी आधिकारिक सूचना मिलती है, तो हम [योजना के तहत] केंद्र सरकार को एक प्रस्ताव भेजेंगे और उचित राशि ट्रांसफर कर दी जाएगी।"
इंडिया स्पेंड ने कुशीनगर की श्रम आयुक्त अलंकृता उपाध्याय से बात की। उन्होंने कहा कि वह इस मामले की स्थिति की जांच करेंगी। अधिक जानकारी मिलने पर हम इस स्टोरी को अपडेट करेंगे।
डेटा का मुद्दा
जब इंडियास्पेंड ने अक्टूबर 2023 में बंधुआ मजदूरों के बचाव और पुनर्वास की दर पर रिपोर्ट की, तो सरकार ने कहा था कि उसने 1978 से 315,302 लोगों को रिहा किया है और उनमें से 94% (296,305) का पुनर्वास किया गया है। मार्च 2025 की स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार, 1978 से अब तक 297,038 बंधुआ मजदूरों को बचाया गया है। श्रम मंत्रालय के एक अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि संख्या (18,264) में अंतर 'बचाए गए' और 'पुनर्वासित' शब्दों के इस्तेमाल में अंतर के कारण हो सकता है। हालांकि उन्होंने इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं दी।
बंधुआ मजदूरों को बचाने की गति उस गति से धीमी रही है जिससे 2030 तक 1.84 करोड़ बंधुआ मजदूरों को बचाया जा सकता है। इसका एक कारण यह था कि केंद्र सरकार ने कहा कि यह योजना मांग पर आधारित है और लक्ष्य निर्धारित नहीं किया जा सकता है। पिछले वर्षों की तरह, मंत्रालय ने 2025 की रिपोर्ट में भी दोहराया कि यह योजना "मांग पर आधारित है, जहां राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को उनकी वित्तीय मांग प्राप्त होने पर धन मुहैया कराया जाता है।"
बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास के लिए केंद्रीय क्षेत्र योजना का बजट और व्यय
31 जनवरी, 2025 तक, पुनर्वास योजना के लिए आवंटित 6 करोड़ रुपये में से केवल 6% ही इस्तेमाल किए गए और 2024-25 में 246 मजदूरों का पुनर्वास किया गया था। इन सभी के बारे में राजस्थान और तमिलनाडु से रिपोर्ट मिली थी, जिनमें से तमिलनाडु में 196 बंधुआ मजदूरों का पुनर्वास किया गया।
लेकिन श्रम और रोजगार मंत्रालय की 2024-25 की वार्षिक रिपोर्ट की माने, तो अप्रैल से दिसंबर 2024 के बीच, इस योजना के केवल तीन लाभार्थी थे, जिन्हें कुल 60,000 रुपये दिए गए। इसी तरह 2022-23 की वार्षिक रिपोर्ट से पता चला है कि अप्रैल से नवंबर 2022 के बीच कोई लाभार्थी नहीं था, जो लोकसभा की स्थायी समिति की रिपोर्ट का खंडन करता है, जिसमें दिखाया गया है कि उस वित्तीय वर्ष के दौरान 673 बंधुआ मजदूरों का पुनर्वास किया गया था।
2025 की स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार, 246 बंधुआ मजदूरों के लिए राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों के प्रस्ताव वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए बकाया मजदूरों के लिए तत्काल नकद सहायता के भुगतान से संबंधित थे। इसमें यह भी कहा गया कि तमिलनाडु और राजस्थान द्वारा दोषसिद्धि और समरी ट्रायल की जानकारी नहीं दी गई थी। 246 मजदूरों के लिए जारी की गई 30,000 रुपये की तत्काल नकद सहायता के लिए, कुल राशि 73.8 लाख रुपये होनी चाहिए, जबकि रिपोर्ट में 35 लाख रुपये का उल्लेख किया गया है।
श्रम मंत्रालय के एक अधिकारी ने अपनी पहचान जाहिर न करने की शर्त पर बताया कि राज्य 2021 योजना संशोधनों से पहले के प्रस्तावों सहित विभिन्न वर्षों के प्रस्ताव एक साथ भेजते हैं, जिसका अर्थ है कि तत्काल नकद सहायता 30,000 रुपये के बजाय 20,000 रुपये होगी। डेटा को फंड वितरण के वर्ष के लिए दर्ज किया जाता है। यही कारण है कि वार्षिक रिपोर्ट में डेटा अलग-अलग है और पुनर्वास और बचाव को एक ही अर्थ की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। 2 जून को मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, उन्होंने 2024-25 में 67.4 लाख रुपये खर्च किए थे।
स्थायी समिति ने 2024-25 तक के तीन वर्षों में बंधुआ मजदूरी में "लगातार कमी" को "उत्साहजनक" पाया, लेकिन इस समस्या के उन्मूलन के बावजूद इसकी मौजूदगी पर चिंता व्यक्त की। इसने राज्यों से आग्रह किया कि वे सख्त सजाओं, त्वरित अदालतों और श्रमिकों में बेहतर जागरूकता के जरिए बंधुआ मजदूरी का मुकाबला करें। इसने सुरक्षित पुनर्वास गृहों/केंद्रों, परामर्श और भावनात्मक समर्थन, तत्काल चिकित्सा सहायता, मुफ्त कानूनी सहायता के माध्यम से बेहतर पुनर्वास प्रदान करने और बचाए गए बच्चों को औपचारिक शिक्षा और वित्तीय सहायता तक पहुंच प्रदान करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया।
2020 में, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों में बीएलएसए के तहत 2,837 पीड़ितों की सूचना दी गई थी। इनमें से 43% एससी/एसटी थे। अगले वर्ष पीड़ितों की संख्या घटकर 667 हो गई, जबकि 2022 तक यह 140% बढ़कर 1,600 हो गई, जिसमें 86% एससी/एसटी थे। सभी पीड़ितों में से तीन चौथाई से अधिक यूपी में रिपोर्ट किए गए थे। पुनर्वास के संबंध में संसदीय समिति द्वारा रिपोर्ट किए गए आंकड़ों की तुलना में एनसीआरबी में बीएलएसए डेटा बहुत अधिक है।
जैकोब ने कहा कि बंधुआ मजदूरी की रिपोर्टिंग श्रम मंत्रालय और गृह मंत्रालय दोनों द्वारा की जाती है, जो मामले और रिपोर्टिंग के तरीके पर निर्भर करता है। उन्होंने कहा, “अगर यह बंधुआ श्रम प्रणाली उन्मूलन से जुड़ी शिकायत है, तो जिलाधिकारी बिना एफआईआर के भी समरी ट्रायल कर सकते हैं। अगर पुलिस एफआईआर दर्ज करती है, तो राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो में इसकी रिपोर्ट की जाती है। बीएलएसए के तहत समरी ट्रायल की प्रक्रिया और रिपोर्टिंग को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है।”
शुरू में, श्रम मंत्रालय ने बंधुआ मजदूरी पर एक राष्ट्रीय पोर्टल बनाने का प्रस्ताव दिया था। लेकिन दिसंबर 2024 की संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार, मंत्रालय ने बाद में कहा कि यह पोर्टल बाल श्रम, बंधुआ मजदूरी और महिला श्रम के लिए एक व्यापक, एकीकृत पोर्टल होगा और इसे एक साल में चालू कर दिया जाएगा। उसी रिपोर्ट में पुनर्वास योजना में "दस्तावेजों और उपयोगिता प्रमाणपत्रों की प्राप्ति न होने" के कारण बड़ी मात्रा में बिना खर्च की गई राशि का भी उल्लेख किया गया था। समिति ने मंत्रालय से "फंड को सही तरीके से इस्तेमाल के लिए अपनी निगरानी और समन्वय तंत्र को मजबूत करने और जितना हो सके, आवंटित फंड की वापसी को कम करने" के लिए कहा।
इंडिया स्पेंड ने पुनर्वास में देरी, बिना खर्च किए गए फंड, डेटा में अंतर और योजना की निगरानी पर टिप्पणी के लिए श्रम मंत्रालय को लिखा है। जवाब मिलने पर हम इस स्टोरी को अपडेट करेंगे।
उधर अस्पताल के बढ़ते खर्च से चिंतित मनोज की मांग है कि उन्हें पूरी पुनर्वास राशि, जमीन और गरीबी रेखा से नीचे का राशन कार्ड दिया जाए।