भारत में एचआईवी पॉज़िटिव होने का राज़: एक महिला की वो डायरी, जो दवाओं के पीछे छुपी है
समाज में एचआईवी के साथ जी रहे लोगों का एक बड़ा संघर्ष है। बीमारी से लड़ाई के बीच समाज के भेदभाव, आर्थिक तंगी और स्वास्थ सेवाओं से भी लोग संघर्ष करते हैं। यह कहानी एक महिला है, जो मुश्किलों और संघर्षों के बीच, एचआईवी के साथ ज़िंदगी गुज़ार रही है। यह उन असंख्य महिलाओं और पुरुषों की आवाज़ है, जो असमानताओं और चुनौतियों के बावजूद उम्मीद और साहस से ज़िंदगी गुज़ारने की कोशिश कर रहे हैं।

नेशनल एड्स कंट्रोल प्रोग्राम द्वारा मुफ़्त उपलब्ध कराई गयी दवाई दिखाती हुई महिला। जिसे वो अक्सर मज़ाक़ में थायरॉइड की दवाई कहती है।
भोपाल: “हमें एड्स की बीमारी है,” नरगिस बहुत धीमे से बोली। “यहां से आवाज़ें बाहर जाती हैं,” उसने अपनी झुग्गी में टीन से बनी दीवार की तरफ इशारा किया। “एड्स मतलब ऐसी बीमारी जो किसी आदमी या औरत को एक दूसरे से लग जाती है। जैसे कोई आदमी दूसरी औरत से संबंध रखता है। या कोई औरत किसी दूसरे आदमी से संबंध रखती है तब ऐसा हो जाता है। लेकिन हमारी वजह ये नहीं है, इन्फेक्टेड खून और सीरिंज से भी लग सकता है,” महिला अपना बचाव करते हुए शर्म के भाव से बोल कर खामोश हो गयी।
जब हम भोपाल में ही मौजूद उसकी तंग बस्ती पहुँचे तो तमाम महिलाओं की तरह 45 वर्षीय ये महिला भी आम नल से पानी भर रही थी। शुरुआत में, उसे अपनी बीमारी के बारे में बात करने में संकोच था। जब उसने बातचीत के लिए हमें अपने घर में बुलाया तो पानी देने में हिचकिचा रही थी। इंडियास्पेंड के पत्रकार के ढांढस देने पर उसे कुछ हिम्मत हुई और वो खुल पायी। वे कहती हैं, “अगर किसी को मेरी बीमारी का पता चल गया तो समाज तिरस्कार करेगा। लोग हमारे घर का पानी तक नहीं पिएंगे, साथ नहीं खाएंगे। इसी डर से मैंने सबसे छुपा रखा है। डॉक्टर ने समझाया कि खाने-पीने से नहीं फैलती, लेकिन समाज में भेदभाव बहुत है। लोग छुआछूत जैसा व्यवहार करते हैं। मुझे डर है कि मोहल्ले में बात फैल गई तो मेरे शौहर को ताने देंगे, बच्चों को अलग नज़र से देखेंगे। बेटियाँ तो पराया धन होती हैं अगर उसके ससुराल वालों को पता चला, तो उसका आना-जाना तक बंद कर देंगे। सबसे बड़ी बात ये कि मुझे ग़लत समझेंगे। लोगों के बीच तो यही धारणा है,” वे भारी दिल से बोली। इस बातचीत से पहले महिला ने अपनी बेटी को मोहल्ले में ही किसी के घर भेज दिया था।
इंडिया एचआईवी एस्टिमेशन 2023 की रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत में 25 लाख से ज़्यादा लोग एचआईवी के साथ ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं, इसके बावजूद भी देश ने अच्छी प्रगति की है। वयस्कों में एचआईवी की फैलाव पर 0.2 फ़ीसदी दर्ज की गई है और नए वार्षिक एचआईवी संक्रमणों की तादाद क़रीब 66,400 आंकी गई है, जो 2010 से 44 फ़ीसदी की गिरावट को उजागर करती है। यह वैश्विक गिरावट दर 39 फ़ीसदी से भी बेहतर है, जो यह दिखाता है कि भारत की लगातार की जा रही कोशिशें असरदार रही हैं।भारत में एचआईवी के साथ रहने वाले लोगों की अनुमानित संख्या (1981–2023). स्त्रोत: एचआईवी एस्टीमेशन फैक्टशीट 2023 (नाको)
डब्ल्यूएचओ (वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन) के मुताबिक़, “ह्यूमन इम्म्यूनो डेफिशियेंसी वायरस (एचआईवी) एक ऐसा वायरस है, जो शरीर के इम्यून सिस्टम पर हमला करता है। जब ये संक्रमण अपने सबसे गंभीर स्टेज पर पहुंचता है, तो उसे अक्वायर्ड इम्म्यूनो डेफिशियेंसी सिंड्रोम (एड्स) कहा जाता है। एचआईवी शरीर की रक्त कोशिकाओं को कमज़ोर करता है, जिससे इम्यून सिस्टम धीरे-धीरे काम करना बंद कर देता है। इससे टीबी, अलग-अलग तरह के इंफेक्शन और कुछ कैंसर जैसी बीमारियां आसानी से हो सकती हैं।
एमपी वोलन्टरी हैल्थ एसोसिएशन (एमपीवीएचए) के एग्ज़िक्युटिव डायरेक्टर मुकेश कुमार सिन्हा ने इंडियास्पेंड से बात करते हुए कहा कि एचआईवी को लेकर समाज में स्टिग्मा तो है, जो कि वक़्त के साथ कई हद तक डिजॉल्व हुआ है। उन्होंने 20 साल से भी ज़्यादा वक़्त एचआईवी के साथ ज़िंदगी गुज़ार रहे लोगों के साथ काम किया। सिन्हा बताते हैं, “जिस वक़्त हम काम करते थे, तब एग्ग्रेसिव स्टिग्मा हुआ करता था। किसी के बारे में पता लग जाने पर उसे समाज से दूर कर दिया जाता था। उस ज़माने में मिथ्या थी कि एचआईवी पॉज़िटिव लोगों का सर्वाइवल बहुत काम होता है। जब हमने काम किया तब ऑफिशियल सरकारी अनाउंसमेंट 7 साल था। NACO बोलती थी कि ज़्यादातर मामलों में 7 से 8 साल की लाइफ होती है। हमारे केस में सब 15 से 16 साल तक ज़िंदा रहे। ये पहला मिथ हमने ब्रेक किया था।”
प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो की एक रिलीज़ के मुताबिक़, भारत ने 1985 में एचआईवी वायरस की पहचान के लिए सीरो-सर्वेक्षण शुरू किया। शुरुआत में ध्यान एचआईवी मामलों की पहचान, रक्त की सुरक्षा और जागरूकता फैलाने पर था। 1992 में राष्ट्रीय एड्स और यौन संचारित रोग नियंत्रण कार्यक्रम (NACP) शुरू हुआ, जिसने इस लड़ाई को एक संगठित रूप दिया। पिछले 35 साल में यह दुनिया के सबसे बड़े एचआईवी नियंत्रण कार्यक्रमों में से एक बन चुका है। हर चरण में भारत सरकार ने नई रणनीतियाँ अपनाईं। पहले चरण में जागरूकता और रक्त सुरक्षा, दूसरे में रोकथाम और इलाज की शुरुआत, तीसरे में जिला स्तर तक विस्तार, चौथे में कानून और वित्तीय मज़बूती और पाँचवें चरण में डिजिटल सुधार और 2025 तक संक्रमण में 80 फ़ीसदी की कटौती और स्टिग्मा ख़त्म करने का टारगेट रखा गया।भारत में अनुमानित वयस्क एचआईवी व्याप्ति (%) (1981–2023). स्त्रोत: एचआईवी एस्टीमेशन फैक्टशीट 2023 (नाको)
एचआईवी एस्टीमेशन फैक्टशीट 2023 के मुताबिक़, भारत में 15 से 49 साल की उम्र के वयस्कों (महिला और पुरुष दोनों) में एचआईवी की अनुमानित राष्ट्रीय व्याप्ति (प्रचलन) 1981 से 2023 के बीच किस तरह बदली है, इसका समयानुसार रुझान दर्शाया गया है। वयस्कों में एचआईवी का फैलाव 1998 में 0.60 फ़ीसदी थी, जिसके बाद इसमें लगातार गिरावट देखी गई और हाल के वर्षों में यह लगभग स्थिर हो गई है। 2010 में अनुमानित फैलाव 0.32 फ़ीसदी था, जो अगले 13 वर्षों में घटकर 2023 में 0.20 फ़ीसदी रह गया- यह 37 फ़ीसदी की गिरावट है। वयस्क महिलाओं में एचआईवी का फैलाव 2010 में 0.27 फ़ीसदी था, जो 2023 में घटकर 0.19 फ़ीसदी रह गया है। वहीं पुरुषों में यह 2010 में 0.37 फ़ीसदी था, जो 2023 में 0.22 फ़ीसदी हो गया।
भेदभाव और डर के बीच ज़िंदगियां
एचआईवी पॉज़िटिव होने के बावजूद महिला हर रोज़ घर के लिए भारी भरकम पानी की कुप्पी लाती है. फोटो साभार: हुनेज़ा खान
इंडियास्पेंड के साथ बातचीत करते हुए उदास लहजे में नरगिस कहती है, “डॉक्टर तो बहुत प्यार से बात करते हैं, फिर भी मेरे दिल पर मुझे ऐसा बोझ लगता है कि काश पैसा होता तो अपने बच्चों के लिए कुछ कर लेती। मेरी बेटी का रिश्ता कहीं से आएगा तो क्या करूंगी? कल मुझे कुछ हो गया, तो बेटी का क्या होगा। लोगों को किसी के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए। जो खुद हालात से लड़ रहा है, उसे क्या धुत्कारना।” महिला की सिर्फ़ एक ख़्वाहिश थी कि उसकी जवान बेटी का घर बस जाए और दुनिया उसे इज़्ज़त की नज़र से देखे। नरगिस की बेटी 19 साल की है। जो नवीं जमात तक पढ़ी हुई है। वे अब पढ़ाई नहीं करती और माँ के साथ ही घर के काम में हाथ बंटाती है।
भारत में वार्षिक एड्स-से संबंधित अनुमानित मौतों की तादाद (1981–2023). स्त्रोत: एचआईवी एस्टीमेशन फैक्टशीट 2023 (नाको)
एचआईवी के 2023 के अनुमान दर्शाते हैं कि एड्स से होने वाली मौतों में तेज़ी से गिरावट आई है, जो 2003-04 में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण कार्यक्रम (एनएसीपी) के तहत मुफ्त एआरटी कार्यक्रम लागू होने के बाद एआरटी कवरेज के बढ़ने का नतीजा है। 2004 में अनुमानित 2.94 लाख मौतों के शिखर से 2023 में एड्स से होने वाली मौतों में 88 फ़ीसदी की गिरावट आई। 2010 में अनुमानित 1.72 लाख मौतों की तुलना में 2023 में एड्स से संबंधित कुल मृत्यु दर में 79 फ़ीसदी की कमी दर्ज की गई। 15-24 साल के युवाओं और वयस्कों में यह गिरावट क्रमशः 76 फ़ीसदी और क़रीब 79 फ़ीसदी रही। 2010 से बच्चों और वयस्क महिलाओं में एड्स से होने वाली अनुमानित मौतों में गिरावट की दर क्रमशः 89 फ़ीसदी और लगभग 82 फ़ीसदी रही।
मुफ्त आर टी कवरेज क्या हैं भारत में एचआईवी के साथ ज़िंदगी गुज़ार रहे लोगों के लिए एंटीरेट्रोवायरल थेरेपी (ART) का कवरेज सरकार द्वारा मुफ़्त प्रदान किया जाता है। यह सेवा राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (NACO) के अंतर्गत संचालित होती है और देशभर के सरकारी अस्पतालों, मेडिकल कॉलेजों और जिला अस्पतालों में उपलब्ध है।
भारत में 16.06 लाख से ज़्यादा एचआईवी संक्रमित लोगों को आजीवन उच्च गुणवत्ता वाली निःशुल्क एआरटी (एंटीरेट्रोवायरल थेरेपी) दी जा रही है, जिसके लिए देशभर में जून 2023 तक 725 एआरटी केंद्र काम कर रहे थे। वर्ष 2022–2023 के दौरान 12.30 लाख वायरल लोड परीक्षण भी किए गए।
महिला के घर पर इस बारे में पति के सिवा कोई नहीं जानता क्योंकि पति खुद एचआईवी पॉज़िटिव हैं। एक लम्बे वक़्त बाद महिला का ये राज़ उसकी शादीशुदा बेटी पर तब खुला जब वे गंभीर रूप से बीमार हुई। एक महीने अस्पताल में भर्ती रहने के बाद डॉक्टरों ने जांच के लिए पुरानी फाइल या दवाइयों के बारे में पूछा। तब मजबूरी में महिला को अपनी बेटी को बीमारी के बारे में बताना पड़ा।
नरगिस ने एआरटी (एंटीरेट्रोवायरल थेरेपी) दवाइयाँ दिखाते हुए बताया, “मैं 5 साल से इस बीमारी के साथ ज़िंदगी गुज़ार रही हूँ। शुरू में डॉक्टर की सलाह को दरगुज़र करते हुए मैंने दवाई छोड़ दी थी। 2 महीने में ही बिस्तर पकड़ लिया। कोई अस्पताल उस वक़्त मुझे भर्ती करने के लिए भी तैयार नहीं था। तब एहसास हुआ कि ये सही है कि ये दवाई जीवन का आधार है, उसी से शरीर में जान रहती है। अगर एक दिन भी छूट जाए तो रवैया बदल जाता है। गुस्सा, चिड़चिड़ाहट, बच्चों पर चिल्लाती हूँ। कहीं बाहर जाती हूँ तो दवा का टेंशन साथ चलता है। कभी काग़ज़ में लपेट कर ले जाती हूँ, लेकिन टाइम से लेनी ज़रूरी है। कभी देर हो जाए तो शरीर में जलन सी होती है, फिर नींद और दिन दोनों बिगड़ जाते हैं। जब लोग पूछते हैं किस चीज़ की दवाई खाती हो तो मैं उनसे कहती हूँ कि दवाई नहीं ज़िन्दगी है, नहीं खाएंगे तो मर जाएंगे। इस ज़िन्दगी का नाम मैंने थायरॉइड की दवा बना कर रखा है।”
जबसे बड़ी बेटी को अपनी माँ की बीमारी का पता लगा है, वे उसे वक़्त पर दवा लेने के लिए भेजती है। टीन की इस झुग्गी में जो भी सामान मौजूद है, सब उसी का लाया हुआ है। ये एक अस्थायी झुग्गी है। कुछ साल पहले ‘अतिक्रमण हटाओ अभियान’ में प्रशासन द्वारा महिला का घर तोड़ दिया गया था। तभी से वो इस झुग्गी में रहती है। जब शौहर की तबीयत ठीक रहती है तो वो लहसुन के गाड़ी ख़ाली करने चले जाते हैं और। लेकिन अक्सर उनका परिवार दूसरों के भरोसे चलता है, अगर कोई कुछ दे दे तो, जिसमें कई बार मौहल्ले के लोग ये कह कर एतराज़ करते हैं कि इनके शौहर तो काम पर जाते हैं। लेकिन कोई उनकी परेशानी नहीं जानता।
महिला का परिवार और उसका संघर्ष एक उदाहरण है कि कैसे भेदभाव और समाज की मानसिकता के बावजूद लोग अपनी स्थिति से जूझते हैं। एचआईवी के साथ ज़िंदगी गुज़ारने वाले लोग नियमित इलाज से सामान्य जीवन जी सकते हैं, लेकिन समाज के डर और भेदभाव की वजह से उनके लिए यह और भी कठिन हो जाता है।
मध्य प्रदेश स्टेट एट्स कंट्रोल सोसायटी का दफ़्तर
संक्रमण घटा, पर एचआईवी से लड़ाई अब भी अधूरी
डब्ल्यूएचओ के मुताबिक़ एचआईवी संक्रमण का फिलहाल कोई इलाज नहीं है। इसका इलाज एंटीरेट्रोवायरल दवाओं (Antiretroviral Drugs) से किया जाता है, जो शरीर में वायरस को बढ़ने से रोकती हैं। अभी जो एंटीरेट्रोवायरल थेरैपी मौजूद है, वो एचआईवी को पूरी तरह ख़त्म नहीं करती, लेकिन इससे मरीज़ का इम्यून सिस्टम मज़बूत हो जाता है। इससे शरीर दूसरी बीमारियों से लड़ने में सक्षम होता है। एंटीरेट्रोवायरल दवाई हर रोज़, ज़िंदगी भर लेना होती है। ये शरीर में एचआईवी वायरस की मात्रा को बहुत कम कर देती है। इससे लक्षण नहीं दिखते और व्यक्ति सामान्य, स्वस्थ जीवन जी सकता है। जो लोग एचआईवी के साथ ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं और नियमित एआरटी (एंटीरेट्रोवायरल दवाओं को आमतौर पर एआरटी कहा जाता है)ले रहे हैं, जिनके खून में वायरस की मात्रा न के बराबर है, वे अपने यौन साथी को यह वायरस नहीं फैलाते। एचआईवी पॉज़िटिव गर्भवती महिलाओं को जल्द से जल्द एआरटी मिलनी चाहिए और उसे लेना भी चाहिए। इससे माँ की सेहत सुरक्षित रहती है और गर्भ में बच्चे तक एचआईवी पहुँचने या स्तनपान के ज़रिए फैलने का ख़तरा भी कम हो जाता है।
भारत में राज्य/केंद्रशासित प्रदेशवार वयस्क एचआईवी प्रचलन (%) — २०२३. स्त्रोत: एचआईवी एस्टीमेशन फैक्टशीट 2023 ((नाको)
भारत में राज्य/केंद्रशासित प्रदेशवार एचआईवी के साथ जी रहे लोगों (PLHIV) की संख्या (लाख में), 2023. स्त्रोत: एचआईवी एस्टीमेशन फैक्टशीट 2023 (नाको)
मध्य प्रदेश स्टेट एड्स कंट्रोल सोसाइटी के एक अधिकारी ने अनाधिकारिक तौर पर बात करते हुए बताया कि एचआईवी को लेकर कई चुनौतियां अब भी मौजूद हैं। लोग समय रहते न तो सावधानी बरतते हैं और न ही टेस्ट कराते हैं। “वे गंभीर लक्षणों का इंतज़ार करते हैं, जबकि उनके व्यवहार में पहले से जोखिम होते हैं, जैसे असुरक्षित यौन संबंध, एक से ज़्यादा यौन साथी या संक्रमित इंजेक्शन का इस्तेमाल। इसके बावजूद वे जांच से बचते हैं। जबकि हर व्यक्ति अपने फैसलों को अच्छी तरह समझता है। अगर कोई जोखिम उठाया है, तो उसे उसका आकलन करना चाहिए। यह उसकी नैतिक ज़िम्मेदारी है। वायरस के साथ जीने वाले लोग भी सामान्य ज़िंदगी जीते हैं। उनकी भी शारीरिक ज़रूरतें होती हैं। उन्हें कंडोम का इस्तेमाल और सुरक्षित यौन संबंध की सलाह दी जाती है। अगर वे संतान की योजना बना रहे हों, तो एआरटी दवाइयां दी जाती हैं। इससे वायरस दब जाता है और उसका ट्रांसमिशन रुक जाता है। ऐसे मामलों में वायरस “अनडिटेक्टेबल” यानी नॉन-ट्रांसमिटेबल हो जाता है। लेकिन एक बड़ी चुनौती यह भी है कि लोग दवाइयां नियमित रूप से नहीं लेते। इससे शरीर में वायरस बढ़ता है और दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता घटती है। ऐसे मामलों में हम मैपिंग के ज़रिए अलग-अलग वायरस ग्रुप को पहचानते हैं। हालांकि, मरीजों की पहचान को गोपनीय रखना अब भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है।”
एचआईवी के रिस्क फैक्टर होते हैं, संक्रमण का ख़तरा तब बढ़ जाता है, जब लोग असुरक्षित यौन संबंध (बिना कंडोम )बनाते हैं। अगर किसी को पहले से कोई यौन संक्रमण (जैसे सिफलिस, हर्पीस, क्लैमाइडिया, गोनोरिया या बैक्टीरियल वेजिनोसिस) हो, तो भी संक्रमण का ख़तरा ज़्यादा होता है। नशे की हालत में बिना सोच-विचार के यौन संबंध बनाना या ड्रग्स लेते समय संक्रमित इंजेक्शन साझा करना भी बेहद ख़तरनाक होता है। इसके अलावा, असुरक्षित ब्लड ट्रांसफ्यूज़न, दूषित इंजेक्शन से इलाज, बिना स्टरलाइज उपकरणों से मेडिकल प्रक्रिया या स्वास्थ्यकर्मियों को लगने वाली इंजेक्शन भी संक्रमण का कारण बन सकती है।
भारत में वार्षिक नए एचआईवी संक्रमणों की अनुमानित संख्या (1981–2023). स्त्रोत: एचआईवी एस्टीमेशन फैक्टशीट 2023 (नाको)
भारत में 2023 में क़रीब 68.45 हज़ार लोगों में एचआईवी का नया संक्रमण पाया गया। इनमें से क़रीब 59 फ़ीसदी (40.29 हज़ार) संक्रमण पुरुषों में दर्ज किए गए। वयस्क महिलाएं (15 वर्ष से अधिक) कुल नए संक्रमणों का लगभग 40 फ़ीसदी (27.04 हज़ार) हिस्सा थीं। वहीं बच्चों (0–14 वर्ष) में लगभग 3 फ़ीसदी (2.35 हज़ार) नए संक्रमण दर्ज किए गए। युवाओं (15–24 वर्ष) में करीब 16.19 हज़ार लोग 2023 में एचआईवी से नए संक्रमित पाए गए।
आंकड़ों के मुताबिक़, 1995 में संक्रमण के उच्चतम स्तर के बाद नए एचआईवी संक्रमणों में लगातार गिरावट दर्ज की गई। 2010 तक इसमें लगभग 79% की कमी आई और 2023 तक यह गिरावट और बढ़ते हुए 44% तक पहुंच गई। 2010 की तुलना में वयस्क महिलाओं में नए संक्रमण में लगभग 41% और बच्चों में 81% की गिरावट देखी गई।
महिला के घर में रखे पानी के बर्तन
माँ बनने की चाहत और संक्रमण
शालीन स्वभाव की ये महिला चार बच्चों की माँ है। बेटा शादी के बाद परिवार से अलग रहने लगा और बड़ी बेटी भी अपनी ससुराल की हो गई। 19 साल की एक बेटी और उससे छोटा बेटा अभी उनके साथ रहते हैं। एक अरसे तलाक़याफ़्ता रहने के बाद 2015 में महिला की दूसरी शादी हुई थी। वह कहती है, “पहले पति शराब पीते थे और घरेलू हिंसा करते थे। जब बच्चे बहुत छोटे थे तभी तलाक़ लेकर घरों-घर काम करने लगी। मैंने पहले पति के वक़्त नसबंदी करवा ली थी और इन्हें (दूसरे पति को) बता दिया था कि मैं आपको औलाद नहीं दे सकती। लेकिन ससुराल वाले औलाद की ज़िद पर थे, इसलिए ऑपरेशन खुलवा कर दोबारा कोशिश की। शादी के कुछ वक़्त बाद पेट में तेज़ दर्द हुआ। मुझे लगा मामूली तकलीफ़ है, लेकिन जब अस्पताल पहुँचीं तो डॉक्टरों ने बताया कि उन्हें गर्भ ठहरा है और भ्रूण ट्यूब में फँस गया है। मेरी जान बचाने के लिए तत्काल ऑपरेशन करना पड़ा। उस वक़्त मेरे पति ने अस्पताल से ख़ुन लाकर दिया। वहीं, खून संभवत: बीमारी की वजह बना। जब मेरे टांकों में दर्द हुआ तो डॉक्टर के पास पहुंची, जांच में पता लगा कि ये बीमारी है। डॉक्टर ने फोन कर के मुझे मेरे शौहर के साथ बुलाया और बताया कि आपकी बीवी को ये बीमारी है। शायद इन्फेक्टेड सिरिंज से हो गई हो। फिर उन्होंने मेरे शौहर से कहा कि मुमकिन है आपको भी ये बीमारी हुई हो। क्योंकि मियां-बीवी मिलते हैं, तो एक दूसरे से लग जाती है। उनका टेस्ट भी पॉजिटिव निकला।
भारत में ज़िलेवार वार्षिक नए एचआईवी संक्रमण की संख्या, २०२३. स्त्रोत: एचआईवी एस्टीमेशन फैक्टशीट 2023 (नाको)
जीने की ख़्वाहिश के बीच अदृश्य संघर्ष
एचआईवी किसी संक्रमित व्यक्ति के शरीर के तरल पदार्थों से फैलता है, जैसे- ख़ुन, माँ का दूध, वीर्य और योनि स्राव, किस्स करने, गले लगाने और भोजन शेयर करने से एचआईवी नहीं फैलता है लेकिन माँ से बच्चे में फैल सकता है।” एचआईवी रोज़मर्रा के संपर्क से नहीं फैलता, जैसे किस्स करना, गले लगना, हाथ मिलाना या व्यक्तिगत वस्तुएं, खाना या पानी साझा करना। जो लोग एचआईवी के साथ जी रहे हैं और नियमित रूप से एआरटी ले रहे हैं और जिनकी वायरल लोड पता नहीं चलने लायक (undetectable) है, वे अपने यौन साथियों को एचआईवी नहीं फैलाते। इसलिए यह ज़रूरी है कि संक्रमित व्यक्ति को जल्द से जल्द एआरटी मिले और उन्हें दवा लेने में लगातार समर्थन मिले। इससे न सिर्फ उनकी सेहत बेहतर होती है बल्कि वायरस फैलने की संभावना भी खत्म हो जाती है।
जब पहली बार उसे अपनी बीमारी का पता तो महिला स्तब्ध थी। उसने दर्द भरे एहसास के साथ बताया, “हमारे पैरों तले ज़मीन खिसक गयी थी। हमने तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा। फिर ये क्यों हुआ हमारे साथ? हमें जीना है। बच्चों की शादी करना है। इतनी जल्दी नहीं मरना चाहते। मेरे शौहर दवाई नहीं खाते। उनका कहना है कि मौत आना है तो ऐसे ही आ जाएगी। जब मेरा शौहर ही नहीं रहेगा तो मैं किसके सहारे रहूंगी? मुझे तो ऊपर वाले से बस एक दुआ है कि मुझे किसी का मोहताज नहीं बनाए। मैं मर भी जाऊं तो सिर्फ मुझे उठा कर क़ब्रिस्तान ले जाना हो इससे ज्यादा कुछ नहीं.”
अगर एचआईवी संक्रमण का इलाज न हो, तो इससे संक्रमित व्यक्ति को कई गंभीर बीमारियां हो सकती हैं: टीबी (तपेदिक), क्रिप्टोकोकल मेनिंजाइटिस (दिमाग की झिल्ली में संक्रमण), गंभीर बैक्टीरियल संक्रमण, कैंसर जैसे लिम्फोमा और कैपोज़ी सरकोमा। एचआईवी, दूसरी बीमारियों को भी ज़्यादा ख़तरनाक बना देता है, जैसे हेपेटाइटिस सी, हेपेटाइटिस बी और मपॉक्स।
महिला के घर में सूखते हुए कपड़े
महिला को अस्पताल से दवाई लेने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ती है क्योंकि ओटीपी के द्वारा ही परचा बनता है। सुबह 9 बजे से लाइन में लगी इस महिला का उस दिन परचा नहीं बन पाया क्योंकि उसका फ़ोन रिचार्ज नहीं था। ख़ुशक़िस्मती से उसे पुराने पर्चे से दवाई मिल गयी थी। “ग़रीब आदमी क्या करे? मैं भूखी-प्यासी लाइन में लगी रही और नंबर आने पर परचा नहीं बना। मैंने इसकी शिकायत सर से की तो उन्होंने कहा ये सरकारी नियम है, हम कुछ नहीं कर सकते। 10 रुपये बचाने के लिए अस्पताल पैदल जाती हूँ क्योंकि मेरे मियाँ की तबियत ठीक नहीं रहती। 2 हफ्तों में वो कल पहली बार काम करने गए थे। सिर्फ उपर वाला जानता है कि हम घर कैसे चलाते हैं। अस्पताल जाना सुबह से शुरू होता है। पर्चे की लाइन, फिर दवाई की लाइन और फिर डॉक्टर। हर तीन महीने में ख़ून की जांच होती है। इस बार डॉक्टर ने कहा कि रिपोर्ट ठीक नहीं है, अच्छा खाओ। हम घबरा गए। पढ़े-लिखे नहीं हैं, डॉक्टर की बात ही मानते हैं। कहां से खाएं? दूध रोज़ तो आता नहीं, कभी आधा लीटर मिल जाता है। फल तो हम खाने का सोचते ही नहीं है। मन में डर बैठ जाता है कि अब जाने का वक़्त आ गया क्या? फिर सोचती हूँ, जो होगा देखा जाएगा। डॉक्टर कभी कहते हैं, नई जान बन रही है, तो थोड़ा हौसला भी होता है।”
मध्य प्रदेश: प्रमुख महामारी विज्ञान संकेतकों पर ज़िलेवार मानचित्र. स्त्रोत: एचआईवी एस्टीमेशन फैक्टशीट 2023
मुकेश कुमार सिन्हा अपने काम का अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि ग़रीब आदमी से पोषण के लिए फल खाने को कह देना आसान होता है। वे कहते हैं, “हम बताते थे कि पोषण के लिए फल ज़रूरी नहीं। चने के 6-8 दाने रातभर पानी में भिगोकर सुबह गुड़ के साथ खाएं—ये सस्ता और असरदार न्यूट्रिशन है। हमने ड्रम्स्टिक के फूल और साग जैसे सीज़नल फूड्स को प्रमोट किया। हमने बच्चों को चना, गुड़ और कॉपर का पतीला दिया, हर हफ्ते उनका वज़न मापा। न्यूट्रिशन ग्राफ तेजी से बढ़ा। ये रिप्रोडक्टिव और चाइल्ड हेल्थ प्रोग्राम का हिस्सा था, लेकिन ये मॉडल दोहराया नहीं गया। लर्निंग्स संभाली नहीं जातीं, नए लोग आते हैं, तो सब बदल जाता है।”
वे आगे कहते हैं, “पहले लोग पहचान छुपाते थे, स्टिग्मा से डरते थे। लेकिन हमने ट्रेनिंग में एक HIV पॉजिटिव महिला को कोऑर्डिनेटर बनाया—वो साथ खाती-पीती, ट्रेवल करती। उसका अनुभव असली था, लेकिन सरकारी काउंसलर नियुक्ति के नियमों से दिक्कत आई। वो ग्रेजुएट थी, पति की HIV से मौत हुई थी, हमारे लिए वही सबसे उपयुक्त थीं। धीरे-धीरे हमने सेक्स वर्कर्स, ट्रांसपोर्टर्स जैसे फोकस ग्रुप्स के साथ टारगेटेड इंटरवेंशन शुरू किए, तब समझ आया कि सिर्फ हेल्थ नहीं, लाइवलीहुड पर भी काम ज़रूरी है। हमने कई पॉज़िटिव परिवारों को सपोर्ट किया—चाय स्टॉल, ठेला, फल, अंडे, फूल बेचने तक। शर्त थी, हर दिन कमाई का ₹50 न्यूट्रिशन पर खर्च करना। ये मदद बिना पहचान खोले हुई। हमने उन्हें थकाने वाले या नुकसानदेह काम से बचाया, स्किल्स दीं। इंदौर में 100 से ज़्यादा लोग एचआईवी पॉज़िटिव थे, लेकिन आम लोगों की तरह ज़िंदगी गुज़ारने लगे थे। हमने कम्युनिटी सपोर्ट ग्रुप बनाए, ओरिएंटेशन दिए कि एचआईवी भी बाक़ी इंफेक्शन जैसा है, प्रिकॉशन ज़रूरी है।”
(हमने महिला की पहचान मेहफ़ूज़ रखने के लिए बदले हुए नाम का इस्तेमाल किया है। इस रिपोर्ट में उपयोग की गई तस्वीरें संबंधित महिला की अनुमति से ली गई हैं। इस कहानी का उद्देश्य केवल एचआईवी के साथ ज़िंदगी गुज़ार लोगों के जीवन संघर्ष को सामने लाना है। हमने इस रिपोर्ट पर पूरी संवेदनशीलता के साथ काम किया है और हर मुमकिन कोशिश की है कि कोई भी ऐसा शब्द या विवरण न लिखा जाए, जिससे कोई व्यक्ति अपमानित या असहज महसूस करे।)