मुंबई: दुनिया ने अभी-अभी 2024 को अब तक का सबसे गर्म साल रिकार्ड किया है। ग्लोबल वार्मिंग के सबूत सामने हैं। गर्म होती धरती पर बदलती जलवायु परिस्थितियां भारत के मछली पालन क्षेत्र को कैसे प्रभावित करेंगी? जलवायु परिवर्तन के कारण मछुआरों, मछली पालन क्षेत्र से जुड़े श्रमिकों और हजारों करोड़ के उद्योग में पूरी आपूर्ति श्रृंखला को कैसे प्रभावित करेंगे?

रिसर्च से पता चलता है कि आने वाले दशकों में कुछ खास किस्म की मछलियां कम हो सकती हैं और देश के कुछ हिस्सों में मछली पकड़ना दूसरे क्षेत्रों की तुलना में जलवायु परिवर्तन से अधिक प्रभावित हो सकता है। भारत यह कैसे सुनिश्चित कर सकता है कि समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र ठीक बना रहे और मत्स्य पालन क्षेत्र भी फलता-फूलता रहे ताकि महत्वपूर्ण भोजन, पोषण और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएं मिलती रहें? हालांकि अनिश्चितता है, लेकिन हमने वर्तमान रुझानों, भविष्य के अनुमानों और संभावित जलवायु प्रभावों को देखकर एक तस्वीर बनाई है।

भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मछली उत्पादक देश है, जो वैश्विक मछली उत्पादन में लगभग 8% का योगदान देता है। देश में विभिन्न संभावित मत्स्य पालन और जलीय कृषि संसाधन हैं, जैसे जलाशय (3.2 मिलियन हेक्टेयर), बाढ़ के मैदान की आर्द्रभूमि (5.64 लाख हेक्टेयर), तालाब और टैंक (2.4 मिलियन हेक्टेयर), खारा पानी (1.2 मिलियन हेक्टेयर), लवणीय/क्षारीय प्रभावित क्षेत्र (2.47 लाख हेक्टेयर), नदियां और नहरें (1.95 लाख किमी), और एक तटरेखा (8,118 किमी), जिसमें 22.31 मिलियन टन अनुमानित मछली उत्पादन क्षमता है।

भारत में मछली का उत्पादन 2013-14 में 9.6 मिलियन टन था, जो 2022-23 में बढ़कर 17.5 मिलियन टन हो गया। इस क्षेत्र में सालाना 9% की दर से वृद्धि हुई, जो कृषि और संबद्ध क्षेत्रों में सबसे अधिक है।

2017 का एक रिसर्च पेपर बताता है कि भारत में समुद्र के किनारे 3,288 मछली पकड़ने वाले गांव और 1,511 समुद्री फिश लैंडिंग सेंटर हैं। पार्ट टाइम, फुल टाइम और मत्स्य पालन पर पूरी तरह निर्भर मछुआरों की आबादी लगभग 40 लाख है। भारत के तटीय मुख्य भूमि पर औसतन हर 2 किलोमीटर पर एक मछली पकड़ने वाला गांव और हर 4.3 किलोमीटर पर एक मछली उतारने का केंद्र (फिश लैंडिंग सेंटर) है।

फिलहाल, भारत सरकार के पास मत्स्य पालन क्षेत्र के लिए कई योजनाएं हैं, जिनमें मत्स्य पालन के एकीकृत विकास और प्रबंधन के लिए एक केंद्र प्रायोजित योजना ‘ब्लू रिवॉल्यूशन’, रियायती दरों पर फाइनेंस मुहैया कराने के लिए 'फिशरीज एंड एक्वाकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फंड', मछुआरों और मछली किसानों के लिए ‘किसान क्रेडिट कार्ड’ याोजना है। साथ ही क्षेत्र की पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाए बिना, सभी लोगों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने और समावेशी विकास के लिए ‘प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना’ भी है। इन सभी योजनाओं का कुल बजट हजारों करोड़ रुपये का है।

इंडियास्पेंड ने केंद्रीय मत्स्य पालन मंत्रालय से लिखित में पूछा है कि भारत ने जलवायु परिवर्तन से अपने मत्स्य पालन क्षेत्र की सुरक्षा के लिए क्या कदम उठाए हैं। इसका जवाब मिलने पर लेख को अपडेट कर दिया जाएगा।

जलवायु परिवर्तन मत्स्य पालन को कैसे प्रभावित करता है?

जलवायु परिवर्तन की वजह से समुद्र और तटों के आस-पास के वातावरण में ऐसे कई बदलाव आ रहे हैं, जिस पर मछलियां और दूसरे समुद्री जीव निर्भर करते हैं। इसका सीधा असर मत्स्य पालन पर पड़ रहा है। महासागर अधिक अम्लीय होते जा रहे हैं, जिससे घोंघे, सीप और मूंगे जैसे जीवों के लिए अपने खोल और कंकाल बनाना मुश्किल हो रहा है। ये जीव कई दूसरी मछलियों के लिए ज़रूरी भोजन और रहने की जगह होते हैं।

समुद्र विज्ञान के पैटर्न और समुद्री धाराओं में भी बदलाव नजर आ रहा है- पूरी दुनिया में, महासागरीय धाराएं समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, ये गर्मी को एक जगह से दूसरी जगह ले जाती हैं, मौसम को नियंत्रित रखती हैं और समुद्र में जरूरी पोषक तत्वों को फैलाती हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण यह चक्र बुरी तरह से बदल सकता है।

बढ़ते तापमान का मतलब है कि कुछ प्रजातियां ठंडे पानी की तलाश में या तो ध्रुवों की ओर या गहरे पानी में चली जाएंगी। उदाहरण के लिए, इंडियन मैकेरल (रैस्ट्रेलिगर कनागुर्टा) ज्यादा ठंडी जगहों और गहरे पानी की ओर जा रही है। यह मछली पूरे देश में सबसे ज्यादा पकड़ी जाने वाली मछली है और 2023 में पकड़ी गई सभी समुद्री मछलियों का लगभग 10% हिस्सा इसी का था। भले ही इंडियन मैकेरल एक ऐसी मछली है जो आसानी से नए माहौल में ढल जाती है,कई जगहों पर मिल जाती है और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सहने में सक्षम है, लेकिन इसकी बहुत ज्यादा आर्थिक कीमत होने के कारण इसे सबसे ज्यादा पकड़ा जाता है, जिससे यह खतरे में आ सकती है। दक्षिण-पश्चिमी भारतीय तट पर भविष्य में मछली पकड़ने को लेकर किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि मौजूदा जलवायु परिवर्तन के अनुमानों के अनुसार, 2020 से 2100 की अवधि में इंडियन मैकेरल की संभावित पकड़ कम हो जाएगी।

एक और उदाहरण देखें, तो समुद्र के तापमान में बदलाव मछली प्रजातियों के अंडे देने के (स्पॉनिंग) समय और अवधि को भी प्रभावित कर सकता है। अध्ययनों से पता चला है कि थ्रेडफिन ब्रीम (नेमिप्टेरस जैपोनिकस) अपने स्पॉनिंग सीजन को उन महीनों में बदल देती है जब समुद्र का तापमान उनके लिए ठीक होता है। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र का तापमान बढ़ रहा है, इससे उनका स्पॉनिंग पैटर्न और प्रजनन की क्षमता बदल सकती है और बदले में, मछुआरों की उन्हें पकड़ने की क्षमता पर भी असर पड़ेगा।

इंडियन ऑयल सार्डिन (सार्डिनेला लॉन्गिसेप्स) पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की संवेदनशीलता (कितना खतरा है) का विश्लेषण करने पर पाया गया कि यह मछली भारत के उत्तर-पूर्वी, उत्तर-पश्चिमी और दक्षिण-पूर्वी क्षेत्रों में मध्यम या ज्यादा खतरे में है, जबकि दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र में कम खतरा है क्योंकि वहां का पानी मछलियों के लिए काफी अच्छा (उत्पादक) है।

बॉम्बे डक (हार्पोडन नेहेरियस) भारत के उत्तरी तटीय जल, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी दोनों में पाई जाती है। यह मछली इन क्षेत्रों में छोटे स्तर पर मछली पकड़ने वाले लोगों, खासकर सबसे गरीब आबादी के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। रिसर्च से पता चला है कि बॉम्बे डक में नए माहौल में ढलने की क्षमता कम है और यह जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। उत्तर-पूर्वी भारत में जलवायु परिवर्तन और मछली पकड़ने के तरीकों के संभावित असर पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि अगर सब कुछ अभी जैसा ही चलता रहा तो बॉम्बे डक की पकड़ कम हो जाएगी।

सेंट्रल मरीन फिशरीज रिसर्च इंस्टीट्यूट (CMFRI) के डायरेक्टर ग्रिन्सन जॉर्ज ने अपने संस्थान द्वारा पिछले कई सालों से देखे गए बदलाव के बारे में बताया।

जॉर्ज ने कहा, "अगर हम पुराने आंकड़ों को लम्बे समय तक देखें, तो हमें पता चलता है कि समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की बनावट और काम करने के तरीके में बदलाव आ रहा है।" वह आगे कहते हैं, "हमारी 90% मछली की आबादी स्वस्थ है, जिसका मतलब है कि अभी उन्हें टिकाऊ तरीके से पकड़ा जा रहा है। हम जो देख रहे हैं, वह संरचना और कार्य में बदलाव है। कुछ प्रजातियां जो भारत की शीर्ष 10 मछली प्रजातियों में भी नहीं थीं, वे उभर रही हैं और कुछ रैंक में नीचे खिसक रही हैं या अब टॉप 10 की लिस्ट में नहीं हैं। उदाहरण के लिए, भारतीय तेल सार्डिन सबसे अधिक पकड़ी जाने वाली प्रजाति हुआ करती थी, लेकिन अब यह टॉप 10 में भी नहीं है।"

2017 के एक रिसर्च पेपर ने चेतावनी देते हुए कहा था, अगर जलवायु परिवर्तन के असर को कम नहीं किया गया, तो इससे तटीय मत्स्य पालन के उत्पादन और मूल्य में कमी आ सकती है, और मछली पकड़ने के काम से होने वाली आर्थिक आमदनी भी गिर सकती है।

पेपर में आगे कहा गया था, "इन बदलावों का असर न केवल देश के मछली व्यापार पर पड़ेगा, बल्कि उससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि यह उस देश की खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करेगा जहां मछली जानवरों से मिलने वाले प्रोटीन का एक मुख्य स्रोत है।"


छोटे और बड़े मछुआरों पर असर

जलवायु परिवर्तन का असर छोटे और बड़े मछुआरों पर पहले से ही पड़ रहा है। बढ़ते चक्रवात, समुद्री गर्मी की लहरों का असर, तटीय कटाव का असर, समुद्र का जलस्तर बढ़ना, संचालन की बढ़ती लागत, सुरक्षा उपायों, बीमा और बाजारों की कमी, ये सभी भारत में सरकारी योजनाओं के बावजूद इस क्षेत्र को प्रभावित कर रहे हैं। इसके अलावा मौसम की अनिश्चितता भी है, जो भविष्य में और बढ़ेगी क्योंकि जलवायु परिवर्तन हर गुजरते मौसम को और अप्रत्याशित बनाता जा रहा है।

नेशनल फिशवर्कर्स फोरम के महासचिव ओलेंसियो सिमोस भी इस आकलन से सहमत हैं।

सिमोस ने कहा, "समुद्र का तापमान बढ़ रहा है। जब गर्मी होती है, तो मछलियां दूसरी जगह चली जाती हैं। हमने पहले ही कई मछली प्रजातियों को विलुप्त होते देखा है। एक समय गोवा में टाइगर प्रॉन और सार्डिन इतनी ज्यादा मात्रा में मिलती थीं कि उनका इस्तेमाल नारियल के पेड़ों के लिए खाद के तौर पर भी किया जाता था। अब टाइगर प्रॉन बहुत महंगे हो गए हैं और गोवा के बाजारों में सार्डिन मिलना मुश्किल हो गया है।"

सिमोस ने आगे कहा, "यह नुकसान समुदाय और उपभोक्ताओं दोनों के लिए है। पहले, हम एक बार में 100 टोकरी मछलियां पकड़ते थे। आज, हम 10 टोकरी पकड़ रहे हैं, लेकिन लागत लगभग उतनी ही है। बेशक, ज्यादा मछली पकड़ना भी एक कारण है, लेकिन चक्रवात बढ़ रहे हैं और मछुआरों के लिए हर दूसरे दिन खराब मौसम की चेतावनी होती है, जिससे मछली पकड़ने के दिन कम हो जाते हैं।"

सिमोज ने कहा कि मछुआरों, उनकी रोजी-रोटी और समुद्री संसाधनों की सुरक्षा के लिए वन अधिकार अधिनियम की तरह एक मत्स्य अधिकार अधिनियम बनाने की भी जरूरत है।

अगर भारत अपने मत्स्य पालन क्षेत्र को जलवायु परिवर्तन के असर से बचाने लायक बनाना चाहता है, तो एक तरीका मत्स्य प्रबंधन में सुधार करना हो सकता है। रिसर्च बताते हैं कि एक अच्छा मत्स्य प्रबंधन जलवायु परिवर्तन के कई नकारात्मक प्रभावों को कम कर सकता है। प्रभावी मत्स्य प्रबंधन करने के कुछ तरीके यहां दिए गए हैं:

वैज्ञानिकों के मुताबिक, "समुद्र की सतह का तापमान बढ़ने से आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण कई मछलियां ठंडे पानी की तलाश में दूसरी जगहों की ओर पलायन कर रही हैं, जिससे मछलियों के वितरण में बदलाव आ रहा है और मछली पकड़ने की क्षमता प्रभावित हो रही है।" साथ ही, बढ़ता हुआ तापमान भूमि के अंदर के जलाशयों में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा को कम कर रहा है। इसकी वजह से पानी में रहने वाले जीव कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली के कारण बीमारियों के शिकार हो सकते हैं।


महत्वपूर्ण समुद्री और तटीय पारिस्थितिक तंत्रों की रक्षा करें और उन्हें बहाल करें: स्वस्थ समुद्री और तटीय पारिस्थितिक तंत्र मछलियों को भोजन करने और प्रजनन के लिए आवास मुहैया कराते हैं और तटीय समुदायों को तटीय कटाव, तूफानी लहरों, बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं से बचाते हैं।


मजबूत मत्स्य पालन और पारिस्थितिकी तंत्र निगरानी लागू करना: महासागरीय और तटीय पारिस्थितिक तंत्रों के साथ-साथ प्रजातियों और मछली की आबादी के स्वास्थ्य पर बारीकी से नजर रखने से, निर्णयकर्ता जलवायु प्रभावों को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं और सोच-समझकर इससे निपटने के फैसले ले सकते हैं।


भविष्य के लिए पहले से योजना बनाना: मत्स्य पालन की सुविधाजनक योजनाएं बनाने से इस काम से जुड़े लोगों को यह पहचानने में मदद मिल सकती है कि वे अपनी खास ज़रूरतों, प्राथमिकताओं और स्थितियों के आधार पर क्या कदम उठा सकते हैं, और ऐसी नीतियों और उपायों की वकालत कर सकते हैं जो उन्हें जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का सामना करने में मदद कर सकें।


बदलते मौसम और पारिस्थितिकी तंत्र को ध्यान में रखते हुए मत्स्य प्रबंधन को लागू करना: एक अनुकूली और पारिस्थितिकी तंत्र -आधारित मत्स्य प्रबंधन प्रणाली मत्स्य पालन के सामाजिक और पारिस्थितिक आयामों पर विचार करती है, प्रजातियों, आवासों और पर्यावरणीय परिवर्तनों के बीच परस्पर संबंध को स्वीकार करती है। यह नजरिया स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखता है, उन्हें जलवायु-संबंधी दबावों का सामना करने में सक्षम बनाता है, और निर्णयकर्ताओं को तेजी से पर्यावरणीय बदलावों के अनुकूल होने की अनुमति देता है, जिससे लंबे समय तक मछली पालन को बढ़ावा मिलता है।


सबको साथ लेकर पारदर्शी निर्णय लेना: मत्स्य सह-प्रबंधन से मछुआरों, सरकारों और इससे जुड़े अन्य लोगों को मिलकर फैसले लेने का अधिकार मिलता है और इसके कई पर्यावरणीय और सामाजिक फायदे हैं। मिलकर काम करने को बढ़ावा देकर, सह-प्रबंधन मत्स्य पालन की अनुकूलन क्षमता को बढ़ा सकता है, निष्पक्ष निर्णय लेने को बढ़ावा दे सकता है। भले ही, जलवायु में कितना भी बदलाव आए, लंबे समय तक मत्स्य पालन चलते रहने का समर्थन करता है।

(इंडियास्पेंड की इंटर्न पूजा डैश ने इस रिपोर्ट में योगदान दिया है।)