देहरादून: उत्तरकाशी की हर्षिल घाटी के सुखी गांव के सेब बागवान मोहन सिंह अपने नोट्स पलटते हैं। इनमें साल दर साल उनके क्षेत्र की बर्फ़बारी का रिकॉर्ड दर्ज है। बर्फ उनके बगीचों की सेहत और परिवार की आमदनी के लिए बेहद जरूरी है। 'यह आंकड़े सरकारी फाइलों में नहीं मिलेंगे,' वह कहते हैं, 'लेकिन ये हमारी जिंदगी की सच्चाई बताते हैं। मौसम की अनिश्चितता हमें हर साल एक नई चुनौती में डाल रही है।'

अपने नोट्स देखकर वह बताते हैं कि 12 दिसंबर 2023 और 17 जनवरी 2024 को सिर्फ 2-2 इंच बर्फ़ गिरी थी, जो नाकाफी थी, “इससे तो मिट्टी भी गीली नहीं होती। इसके बाद 31 जनवरी से 5 फरवरी तक अच्छी बर्फ़ गिरी। फिर 19 फरवरी से 4 मार्च तक रुक-रुक कर बर्फ गिरती रही। लेकिन फरवरी में दिन लंबे होने लगते हैं और तापमान बढ़ जाता है। इससे बर्फ जल्दी पिघलती है और पहाड़ की ढलानों से बह जाती है। मिट्टी में समा नहीं पाती। यही बर्फ़ दिसंबर-जनवरी में गिरी होती तो धरती और बगीचे दोनों को ज्यादा फायदा होता”।

मोहन सिंह के अनुसार, समय पर बर्फ़ न गिरने से उनकी फसल और आजीविका दोनों प्रभावित हो रही है, “दिसंबर-जनवरी में समय से बर्फ गिरती है तो उसका हमें फायदा मिलता है। इससे सेब के लिए जरूरी चिलिंग आवर्स (ठंड का समय) मिल जाते हैं और बीमारियां या फंगस खत्म हो जाते हैं। चिलिंग आवर्स नहीं मिलने पर फल की गुणवत्ता प्रभावित होती है और वे आकार में छोटे रह जाते हैं। इनके जल्दी टूटने की आशंका बढ़ जाती है। गुणवत्ता कम होने पर इनकी कीमत भी अच्छी नहीं मिलती”।

सूखी सर्दियां, जलते जंगल

मोहन सिंह के इस साल के नोट्स की पुष्टि मौसम विभाग के आंकड़ों से भी होती है। जनवरी 2024 में उत्तराखंड में सामान्य से 99 फीसदी तक कम बारिश हुई।

साल 2024 उत्तराखंड के लोगों के लिए बदलते मौसम और उससे पैदा हुई चुनौतियों से जूझते हुए बीता। पर्वतीय क्षेत्रों में बढ़ता तापमान,समय पर बारिश-बर्फबारी न होना, बढ़ती तीव्र मौसमी घटनाएं, ये बदलता मौसम न सिर्फ लोगों के आम जन-जीवन को प्रभावित कर रहा है बल्कि आजीविका पर भी असर डाल रहा है।

देहरादून मौसम विज्ञान केंद्र में मौसम विज्ञानी रोहित थपलियाल कहते हैं, “मानसून पूर्व और मानसून के बाद मौसम में उतार-चढ़ाव अधिक देखने को मिला है। इस दौरान तापमान काफी अधिक रहा और बारिश बेहद कम हुई। जनवरी में बर्फ़ कम गिरी। मई-जून के महीने में प्री-मानसून बारिश नहीं होने से तापमान अधिक रहा। जबकि अक्टूबर-नवंबर और दिसंबर (21तारीख तक) में सामान्य से 90 फीसदी तक कम बारिश-बर्फ़बारी मिली है”।

मौसम विभाग के मुताबिक इस साल राज्य में कुछ जगहों पर अब तक का सर्वाधिक तापमान रिकॉर्ड किया गया। पंतनगर में 30 मई को 42.4 डिग्री, 31 मई को देहरादून में 43.2 डिग्री, जौलीग्रांट में इसी दिन 43.6 डिग्री और रुड़की में 17 जून को 44.0 डिग्री सेल्सियस अब तक रिकॉर्ड ऊंचा तापमान रहा।

विश्व मौसम विज्ञान संगठन के मुताबिक साल 2024 सभी पिछले रिकॉर्ड तोड़ते हुए अबतक का सबसे गर्म वर्ष बनने की दिशा में है। वहीं, समुद्री तापमान बढ़ने, अंटार्कटिक की समुद्री बर्फ़ रिकॉर्ड दूसरे निचले स्तर पर रहने और ग्लेशियरों के पिघलने के साथ पिछला दशक, आधिकारिक तौर पर, अब तक का सबसे गर्म दशक रहा है। तीव्र मौसमी घटनाएं भारी आर्थिक और मानवीय क्षति की वजह बन रही हैं।

इस साल की शुरुआत बर्फ़बारी से नहीं बल्कि जंगल की आग की सूचनाओं से हुई। जिस समय बागवान बर्फ़ का इंतज़ार कर रहे थे, तापमान बढ़ने से राज्य के जंगल धधकने लगे थे। सर्दियों से सुलग रही जंगल की आग गर्मियां आते-आते जानलेवा हो गई। 13 मई को अल्मोड़ा जिले के बिनसर वन्यजीव अभ्यारण में भीषण आग लगी थी। सूचना मिलते ही मौके पर पहुंची वन विभाग की टीम वनाग्नि की चपेट में आ गई। 4 वन कर्मियों ने मौके पर ही दम तोड़ दिया जबकि बुरी तरह झुलसे 4 अन्य वन कर्मियों में से दो की अस्पताल में इलाज के दौरान मौत हो गई।

खतरा बढ़ गया जब ये आग जंगल से सटे गांवों और खेतों तक पहुंचने लगी। 5 मई को पौड़ी में थापली गांव में खेतों की ओर बढ़ रही जंगल की आग से अपने घास के ढेर को बचाने पहुंची 65 वर्षीय महिला की झुलसकर मौत हो गई।

साल 2024 में उत्तराखंड के लगभग 1,772 हेक्टेयर वनक्षेत्र में आग लगी। यह क्षेत्र नैनीताल शहर के क्षेत्रफल से लगभग डेढ़ गुना बड़ा है।

बागवान मोहन सिंह के दर्ज किए हुए आंकड़े मौसम का हालिया उतार-चढ़ाव दर्शाते हैं लेकिन वन विभाग दीर्घकालिक डेटा पर यकीन करता है। प्रमुख वन संरक्षक धनंजय मोहन कहते हैं, “यह सही है कि इस साल उत्तराखंड के जंगलों में भीषण आग लगी। अक्सर ये देखा जाता है कि जब मौसम में थोड़ा भी बदलाव होता है, तो उसे तुरंत जलवायु परिवर्तन से जोड़ दिया जाता है। इस साल की शुरुआत में एक लंबा अंतराल बिना बारिश का तकरीबन सूखा रहा, जिसके कारण भीषण वनाग्नि की घटनाएं हुईं। हालांकि, मुझे नहीं लगता कि इस ड्राई स्पेल का कारण जलवायु परिवर्तन था, और न ही मैं यह मानता हूँ कि जंगलों में लगने वाली आग को सीधे जलवायु परिवर्तन से जोड़ा जाना चाहिए। ऐसे संबंधों को स्थापित करने के लिए दीर्घकालिक अध्ययन आवश्यक है”।



वनाग्नि के लिहाज से ये साल बेहद घातक साबित हुआ। भारतीय वन सर्वेक्षण के मुताबिक साल 2023-24 फायर सीजन (1 नवंबर से 31 अक्टूबर तक) उत्तराखंड में देश में सबसे ज्यादा 20 हजार से अधिक फायर अलर्ट जारी किए गए। फरवरी से अप्रैल के बीच राज्य में वनाग्नि की घटनाएं पिछले वर्ष की तुलना में लगभग दोगुनी रही। जबकि नैनीताल में पांच गुना अधिक। मई-जून तक भी जंगल धधकते रहे।

उत्तराखंड वन विभाग के मुताबिक इस साल वनाग्नि की घटनाओं में, अब तक का सबसे अधिक, 12 लोगों ने जान गंवाई। इनमें 6 वनकर्मी भी शामिल रहे।

जंगल की आग पर काबू पाने के लिए स्थानीय लोगों के साथ वन विभाग की मदद के लिए एसडीआरएफ, एनडीआरएफ समेत वायुसेना ने मोर्चा संभाला। मिग विमानों ने जलते जंगल पर पानी उड़ेला। लेकिन ये आग मानसून की बौछारों के साथ ही थमी।

संवेदनशील हिमालयी राज्य एक प्राकृतिक चुनौती से बाहर निकला तो दूसरी चुनौती शुरू हो गई। मानसून ने जंगल की बेकाबू आग को शांत किया लेकिन पहाड़ों का दरकना शुरू हो गया।

पहाड़ों पर तापमान बढ़ने का असर बारिश के पैटर्न पर भी पड़ रहा है। हर्षिल (लगभग 2745 मीटर ऊँचाई पर स्थित) के बागवान मोहन सिंह के अनुसार, 'पहले यहाँ फुहारों के साथ बर्फबारी होती थी, लेकिन पिछले 15-20 वर्षों में बारिश ज्यादा होने लगी है। अब उत्तरकाशी जहां पहले फुहारों की तरह बारिश होती थी अब यहाँ पर भी देहरादून जैसी मूसलाधार बारिश हो रही है, जो कुछ घंटों में ही हमारे घरों के लिए ख़तरा बन सकती है।' इस साल मानसून में ऐसी कई घटनाएं दर्ज हुईं।

केदारनाथ में तेज़ बारिश के बाद सड़कें और पुलों के टूटने से बड़ी संख्या में फंसे यात्रियों को निकालने के लिए एसडीआरएफ, एनडीआरएफ समेत सेना ने कमान संभाली।

केदारनाथ की आपदा-2024

31 जुलाई के लिए राज्य के कई हिस्सों में भारी बारिश का अलर्ट जारी किया गया था। 24 घंटे में सामान्य से 145% अधिक बारिश हुई। मौसम विभाग के मुताबिक केदारनाथ के पास सोनप्रयाग में एक घंटे में करीब 30 मिमी बारिश दर्ज हुई। संवेदनशील पहाड़ों पर इतनी बारिश भी घरों-गांवों के लिए खतरा पैदा कर सकती है। केदारनाथ में एक बार फिर साल 2013 की आपदा के जख्म ताजा हो गए।

अचानक आई तेज़ बारिश से केदारनाथ यात्रा मार्ग पर लिंछौली से भीमबली के बीच, पुलों और सड़कों के टूटने, दुकानें बहने और मंदाकिनी नदी का जलस्तर बढ़ने से बादल फटने जैसी हालात पैदा हो गए। जिस समय ये बारिश हुई धाम में हजारों की संख्या में तीर्थयात्री थे। लेकिन इनकी ठीक-ठीक संख्या कहीं दर्ज नहीं थी। गौरीकुंड से भीमबली के बीच और रामबाड़ा से लेकर केदारनाथ के बीच टूटे रास्तों में बड़ी संख्या में घोड़े-खच्चर फंस गए। केदारनाथ धाम जाने का पैदल मार्ग पूरी तरह बह गया।

भारी बारिश के बीच धाम में फंसे लोगों को बाहर निकालने के लिए शुरू किए गए रेस्क्यू अभियान के साथ ही यात्रियों की संख्या भी दिन-ब-दिन बढ़ती रही। कुछ सौ यात्रियों के अनुमान के साथ शुरू किया गया रेस्क्यू ऑपरेशन 10 हजार से अधिक लोगों को सुरक्षित निकालने के साथ खत्म हुआ। एक बार फिर सेना को कमान संभाली पड़ी। इस आपदा में 12 मौत, 3 घायल और 20 लोगों के लापता होने की आधिकारिक सूचना दर्ज की गई।

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ इस साल के मानसून में प्राकृतिक आपदाओं के चलते 15 जून से 14 सितंबर के बीच 76 मौतें, 37 घायल और 23 लोग लापता हुए। इस दौरान करीब 1700 घरों को नुकसान पहुंचा और करीब 100 घर पूरी तरह ढह गए।

देहरादून स्थित संस्था सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्युनिटीज (एसडीसी) फाउंडेशन ने “उत्तराखंड आपदा एवं दुर्घटना विश्लेषण पहल (यूडीएएआई)” यानी ‘उदय’ शुरू की है। इसके तहत हर महीने राज्य में प्राकृतिक आपदाओं और दुर्घटनाओं को ब्योरा दिया जाता है।

एसडीसी के संस्थापक अनूप नौटियाल कहते हैं, “ जलवायु परिवर्तन को एक राजनीतिक मुद्दा बनाने की जरूरत है प्राकृतिक आपदा के चलते राज्य में हो रहे नुकसान का कोई आकलन नहीं किया जा रहा”। वह उदाहरण देते हैं, “वर्ष 2023 मानसून में पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में बाढ़-बारिश के चलते तकरीबन 12 हजार करोड़ के नुकसान का आकलन किया गया, जबकि इतना ही बजट उत्तराखंड की चारधाम परियोजना का है। यानी एक मानसून में इतनी ताकत है कि वो आपके करोड़ों रुपए के प्रोजेक्ट को निगल सकती है। इसके बावजूद नेता और नीति निर्माता जलवायु परिवर्तन की अनदेखी कर रहे हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के पास अकेले 29 विभागों का जिम्मा है। जिसमें से एक पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन विभाग भी है”।

वर्ष 2013 में केदारनाथ आपदा और राज्य की चारधाम परियोजना से संबंधित सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई समिति के अध्यक्ष रह चुके डॉ रवि चोपड़ा कहते हैं “जलवायु परिवर्तन को सरकार अपनी कमजोरियों को छिपाने का बहाना बनाती है और इससे निपटने की तैयारी बड़े अजीब ढंग से कर रही है”।

वह हिमालयी क्षेत्र में बढ़ती ग्लेशियर झीलों और उनके टूटने के खतरों का उदाहरण देते हैं, “ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ़्लड (GLOF) की संभावना बढ़ रही है। जब इस खतरे को पहचाना जा चुका है, तो भविष्य में घाटियों को सुरक्षित करने के लिए तत्काल कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे। टिहरी में खातलिंग ग्लेशियर में बन रही झील से भिलंगना घाटी पर खतरा बढ़ रहा है तो हमें इसके लिए आज से ही तैयारी करनी चाहिए। झील के अध्ययन और एक घंटे पहले चेतावनी देने वाले “अर्ली वार्निंग सिस्टम” से हम क्या सुरक्षा करेंगे। घाटी के गांववालों से बातचीत शुरू करनी चाहिए। अगर उन्हें विस्थापित करने की जरूरत है तो इस पर काम शुरू हो जाने चाहिए। हम इंतज़ार क्यों कर रहे हैं”।

इस साल सितंबर में रुपकुंड झील भूस्खलन के मलबे से पट गई और आकार में सिमटी नज़र आई।

बदलते मौसम के नए प्रतीक

इस साल मानसून के दौरान राज्य में कुछ चौंकाने वाली घटनाएं दर्ज हुईं। जिन्हें जलवायु परिवर्तन और बदलते मौसम के स्पष्ट प्रतीक के तौर पर देखा गया।

अगस्त के तीसरे हफ्ते में पिथौरागढ़ में धारचूला विकासखंड के व्यास घाटी में समुद्र तल से करीब 5,900 मीटर ऊंचाई पर स्थित ओम पर्वत पर बर्फ़ से बनी ऊं की आकृति हट गई। स्थानीय लोगों ने इसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर साझा की। घाटी के लोगों के मुताबिक पहली बार ओम पर्वत को बिना बर्फ़ का देखा। हालांकि तकरीबन एक हफ्ते बाद बर्फ़बारी के साथ पर्वत की चोटियां फिर बर्फ से ढक गईं। इस घटना को हिमालयी ग्लेशियर पर बढ़ते ग्लोबल वॉर्मिंग के संकट के तौर पर देखा गया।

लगातार बारिश के बीच 27 अगस्त की रात उत्तरकाशी में वरुणावत पर्वत से भूस्खलन शुरू हुआ और इसकी घाटी में बसे आवासीय क्षेत्र को रातोंरात खाली कराया गया। करीब 20 साल पहले सितंबर के महीने में वरुणावत अचानक धंसने लगा था। जिसमें 360 से ज्यादा इमारतें पूरी या आंशिक तौर पर क्षतिग्रस्त हुई थी। वरुणावत की तलहटी में बसे उत्तरकाशी के लोगों को एक बार फिर संकट का आभास होने लगा।

सितंबर में भूस्खलन के मलबे से पटी और आकार में सिकुड़ी रूपकुंड झील की तस्वीरें सामने आईं। चमोली में मां नंदा देवी लोकजात यात्रा पर गए श्रद्धालुओं के जत्थे ने मलबे और पत्थरों से सिकुड़ी रूपकुंड झील के बदलाव को देखा और इसकी सूचना दी।

जलवायु परिवर्तन के असर का अध्ययन जरूरी

भू-वैज्ञानिक और उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के कार्यकारी निदेशक पद से इस वर्ष ही इस्तीफा देने वाले डॉ पीयूष रौतेला कहते हैं “जहाँ-जहाँ पहाड़ों को काटकर सड़कें चौड़ी की गई हैं, पहाड़ अस्थिर हो गए हैं और भारी बारिश के दौरान इनमें भूस्खलन की संभावना बढ़ गई है। "उत्तराखंड में ज़्यादातर भूस्खलन सड़कों के किनारे ही होते हैं। पाँच साल पहले चमोली और रुद्रप्रयाग में हुए एक अध्ययन में पाया गया था कि 90% भूस्खलन सड़क किनारे ही हुए थे"

उनका कहना है “सरकार को जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन करने के लिए गंभीर अध्ययन करने की जरूरत है। ठोस नीतियां बनाने के लिए हमारे पास पर्याप्त और विश्वसनीय डेटा नहीं है। बेहतर डेटा होने से हम कॉस्ट-बेनिफिट एनालिसिस कर पाएंगे और लोगों की आजीविका और फसलों पर पड़ रहे प्रभाव का आकलन कर सकेंगे”।


मानसून के बाद फिर सूखा

मानसूनी बारिश दरकते पहाड़ों, धंसते गांवों और मलबे से पटी सड़कों को पीछे छोड़ गई। ये राहत अब चिंता में बदलने लगी है।

अक्टूबर और नवंबर सूखे बीते। मौसम विभाग के मुताबिक 1 अक्टूबर से 17 दिसंबर तक राज्य में सामान्य से 90 फीसदी कम बारिश हुई। वर्षा पर निर्भर रहने वाली पहाड़ की खेती, किसान और बागवान-बर्फ़बारी की टकटकी लगाए बैठे हैं। ये समय गेहूं समेत रबी की फसल की बुवाई का है। राज्य की करीब 70% आबादी आजीविका के लिए खेती पर ही निर्भर है।