डिजिटल हेल्थ के दौर में भी क्यों टल रहा है इलाज? तावीज़ से अस्पताल तक एक चुनौती भरी कहानी
सरकार डिजिटल हेल्थ मिशन और आयुष्मान भारत के ज़रिये हर नागरिक तक इलाज पहुँचाने का ख़्वाब देख रही है। लेकिन हक़ीक़त ये है कि इलाज सिर्फ तकनीक से नहीं, यक़ीन से भी चलता है। कई लोग आज भी तावीज़, झाड़फूंक और बिना जांच के दवाओं पर भरोसा करते हुए इलाज को टालते रहते हैं लेकिन बीमारी नहीं टलती।

एमआरआई कराने आयी गायत्री देवी, अपने पैरों में बंधे तावीज़ दिखाते हुए
भोपाल: “मैंने थक कर हार मान ली थी कि अब आराम नहीं होगा। फिर किसी ने ‘पीर बाबा’ के बारे में बताया, जो तावीज़ देते हैं और बीमारी चली जाती है। तीन दिन तक लंबी क़तार में लग कर तावीज़ लिया और जैसे सच में चमत्कार हो गया। पैर बिलकुल पहले जैसा ठीक हो गया डॉक्टरों को दिखा कर हज़ारों रूपए ख़र्च करने पर भी जो फ़ायदा नहीं हुआ था, वो एक तावीज़ ने कर दिया था.” ये कहना है इलाज के लिए अस्पताल आयी गायत्री देवी का। वे बताती हैं कि उनके ससुराल में खेती-किसानी होती है, इसीलिए शादी के बाद से ही खेतों में ख़ूब काम किया है। घर के सारे काम भी उन्हीं के ज़िम्मे थे। वक़्त के साथ उनके एक पैर में दर्द रहने लगा जो बढ़ता गया। उन्हें लगा थकावट होगी या भारी सामान उठाने की वजह से हो रहा होगा। डॉक्टर को दिखाने पर मालूम हुआ कि कमर की नस दब रही है, जिससे पैर में तकलीफ़ है। तीन बार एमआरआई हुई, दवाई ली, लेकिन आराम नहीं मिला। इलाज में पैसे भी बहुत लग रहे थे। किसी रिश्तेदार की सलाह पर होशंगाबाद से भोपाल एमआरआई के लिए आई थीं।
झाड़फूंक और पारंपरिक इलाज की तरफ झुकाव सिर्फ किसी एक समुदाय तक सीमित नहीं है, यही तस्वीर देश के कई इलाक़ों में दोहराई जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, ग्रामीण भारत की 65 फ़ीसदी आबादी अपनी प्राथमिक स्वास्थ्य ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों का उपयोग करती है।
सरकार योजनाएँ तो बनाती है, लेकिन सवाल ये है कि क्या ये लोगों की ज़िंदगी तक वाक़ई पहुँच पाती हैं?
सरकारी वादे और डिजिटल हेल्थ का सपना
‘आयुष्मान भारत योजना’ और ‘डिजिटल हेल्थ मिशन’ जैसी योजनाएं स्वास्थ्य सेवाओं को आम लोगों तक पहुँचाने का वादा करती हैं। टेलीमेडिसिन, ई-प्रिस्क्रिप्शन और आभा आईडी जैसे डिजिटल टूल्स— जहाँ टेलीमेडिसिन मरीज़ और डॉक्टर के बीच दूर से इलाज का ज़रिया है, ई-प्रिस्क्रिप्शन से दवाइयाँ डिजिटल रूप से दी जाती हैं और आभा आईडी एक ऐसा हेल्थ अकाउंट है, जिसमें हर मरीज़ के इलाज से जुड़ी जानकारी जुड़ी रहती है। भोपाल के बाहरी इलाक़े में बने प्राइवेट अस्पताल में काम करने वाले डॉक्टर मुबीन कहते हैं, “इन डिजिटल हेल्थ टूल्स को स्वास्थ्य क्रांति की तरह पेश करते हुए सरकार दावा करती है कि इससे हाशिए पर खड़े लोगों तक इलाज पहुँचेगा, ये काफ़ी पॉज़िटिव है लेकिन इन कोशिशों के बावजूद ज़मीन पर एक तबक़ा ऐसा है, जो न इन टूल्स का इस्तेमाल नहीं कर पाता है और न ही इन पर भरोसा करता है।” “इसके बरअक्स, ये लोग तावीज़, झाड़फूंक या बिना डायग्नोसिस के सेल्फ-मेडिकेशन को प्राथमिकता देते हैं, जो आगे जा कर ख़तरनाक साबित होता है। कई बार सामाजिक भ्रांतियां, शिक्षा की कमी और जागरूकता का अभाव भी इसकी वजह बनते हैं। नतीजा यह होता है कि जब तक ये लोग डॉक्टर तक पहुँचते हैं, तब तक बीमारी या तो गंभीर या लाइलाज हो चुकी होती है,” डॉक्टर मुबीन अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताते हैं ।भारत में 2013 से 2020 तक स्वास्थ्य पर ख़र्च का पैटर्न। सोर्स: एनएचए एनुअल रिपोर्ट 2022-2023
पीआईबी के मुताबिक़, जून 2024 तक देश में आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (AB-PMJAY) के अंतर्गत 34.7 करोड़ से अधिक आयुष्मान कार्ड बनाए जा चुके हैं।
गायत्री बताती हैं कि उनकी ये राहत ज़्यादा दिन नहीं चली क्योंकि एक दिन वो सीढ़ियों से गिर गयी और दर्द दूसरे पैर में शुरू हो गया। इस बार वो डॉक्टर के पास जाने के बजाए ‘पीर बाबा’ के पास ही पहुँचीं जहाँ 1100 रूपये दे कर फिर से तावीज़ बनवाया लेकिन असर नहीं हुआ। उनकी तकलीफ़ जस की तस रही। लोगों का कहना था कि एक पैर का दर्द दूसरे पैर में उतर गया है। चलना फिरना भी मुहाल हो गया था। ऊपर से सास-ससुर और घर के कामों ने ज़िंदगी को बुरी तरह जकड़ लिया था। वे बताती हैं, “यहाँ आने से पहले नागपुर में तीन बार एमआरआई करवा चुकी हूँ, इलाज के लिए इधर-उधर परेशान होने के बाद हमीदिया अस्पताल आई। किसी ने बताया था कि यहाँ बड़ी जाँचें भी होती हैं और आयुष्मान कार्ड से फ्री इलाज भी हो जाता है। बहुत उम्मीद से यहाँ आयी थी लेकिन एमआरआई के लिए 4600 का परचा कटवाना पड़ा। मुफ़्त जाँच के लिए हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ता। सुबह 9 बजे आई थी, अब रात के 7 बज गए हैं। मशीन कई बार खराब हो चुकी है। कब तक इंतिज़ार करते रहें। वैसे ही बाहर से आयें हैं, अगर जाँच नहीं हुई तो कहीं रुकने का ठिकाना करना पड़ेगा।”
हमीदिया अस्पताल के एमआरआई सेंटर के बाहर चिपका हुआ एक नोटिस
डिजिटल हेल्थ मिशन और आभा आईडी
आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन’ यानी ABDM, इसी कोशिश का नाम है, जिसका मक़सद हर शहरी और ग्रामीण शख़्स को एक ऐसी व्यवस्था से जोड़ना है, जहाँ इलाज के हर कागज़, डॉक्टर की सलाह और अस्पताल की जानकारी डिजिटल हो और हर नागरिक का एक लम्बा और लगातार अपडेट होने वाला हेल्थ रिकॉर्ड बन सके। इस मिशन में कई ज़रूरी रजिस्ट्रियां शामिल हैं, जैसे आयुष्मान भारत हेल्थ अकाउंट (ABHA), हेल्थ प्रोफेशनल रजिस्टर (HPR), हेल्थ फैसिलिटी रजिस्टर (HFR), और दवा से जुड़ी जानकारी की रजिस्टर (ड्रग रजिस्टर)।
आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन (ABDM) से जुड़े अलग-अलग हिस्सों के आँकड़े. सोर्स: एबीडीएम वेबसाइट
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के मुताबिक़, 6 फरवरी 2025 तक, कुल 73 करोड़ 98 लाख 9 हज़ार 607 ABHA नंबर बनाए जा चुके हैं। 3 लाख 63 हज़ार 520 स्वास्थ्य सुविधाएं HFR पर रजिस्टर हुई हैं और 5 लाख 64 हज़ार 851 हेल्थ प्रोफेशनल्स HPR में शामिल हुए हैं। 1 लाख 59 हज़ार 20 स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जो ABDM वाले सॉफ़्टवेयर का इस्तेमाल कर रहे हैं। अब तक लगभग 49 करोड़ 6 लाख हेल्थ रिकॉर्ड ABHA से जोड़े जा चुके हैं।
ये 73 करोड़ से ज़्यादा ABHA नंबर देश के 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 786 ज़िलों में बनाए गए हैं। यानी यह योजना गाँवों को मिला कर पूरे देश में लागू हो चुकी है। इसी तरह, जो 1.59 लाख स्वास्थ्य केंद्र ABDM-सक्षम सॉफ़्टवेयर चला रहे हैं, वे भी पूरे देश के इन्हीं राज्यों और ज़िलों से हैं।
मध्यप्रदेश में 2 जून 2025 तक कुल आभा अकाउंट (आयुष्मान भारत हेल्थ अकाउंट (आभा) एक नंबर होता है जिसके ज़रिये किसी भी व्यक्ति के सभी मेडिकल रिकॉर्ड को जोड़ा जाता है। इसका मक़सद एक डिजिटल हेल्थ सिस्टम बनाना है जहाँ इलाज से जुड़ी सारी जानकारी एक जगह मौजूद हो। कोई भी व्यक्ति मुफ्त में यह आभा आईडी बनवा सकता है।) सोर्स: एबीडीएम वेबसाइट
ये मिशन बीमारी के इलाज से ज़्यादा सेहत पर ध्यान देने पर ज़ोर देता है। एक सरकारी नीति से शुरू होकर ये मिशन डिजिटल हेल्थ कार्ड, यानी आभा आईडी, टेलीमेडिसिन और डिजिटल रिकॉर्ड्स जैसे कई साधन लेकर आया है। आसान भाषा में कहें तो, अगर ये ठीक से चले, तो गायत्री जैसी महिलाएं बार-बार एमआरआई कराने के लिए हज़ारों रुपए खर्च करने को मजबूर नहीं होंगी। अगर उनका इलाज एक अस्पताल में शुरू हुआ, तो दूसरे अस्पताल को भी उनकी पूरी फाइल एक क्लिक में मिल सकती है। उन्हें बार-बार अपनी कहानी नहीं दोहरानी पड़ेगी। लेकिन इस डिजिटल सिस्टम तक पहुँचना हर किसी के लिए आसान नहीं है। बहुत से लोग तो अब तक ये भी नहीं जानते कि आभा आईडी होता क्या है।
मरीज़ के इलाज का सफर चित्र में दिखाया गया है। सोर्स: एनएचए एनुअल रिपोर्ट 2022-2023
सेल्फ़ मेडिकेशन और इलाज में देरी
कितने घरों में कम से कम एक आदमी ऐसा है, जिसके पास इलाज के लिए कोई सरकारी या प्राइवेट स्कीम या बीमा है (प्रतिशत में) सोर्स : एनएचएफ़एस 5
फिज़िशियन और काउंसलर (MD , डॉ. मुबीन बताते हैं कि, “ग्रामीण और दूरदराज़ इलाकों से आने वाले मरीज़ अक्सर तब अस्पताल पहुँचते हैं, जब उनकी हालत गंभीर हो चुकी होती है। उन्हें अपनी बीमारी की गंभीरता का अंदाज़ा ही नहीं होता। जोड़ों का दर्द, स्पाइन पेन या बुख़ार होने पर लोग पेनकिलर लेकर काम चलाते हैं। खांसी होने पर खुद दवा लेते हैं, और जब वह न्यूमोनाइटिस में बदल जाती है, तभी हमारे पास पहुँचते हैं।”
ये डॉक्टर भोपाल में आयुष्मान भारत से जुड़े एक प्राइवेट अस्पताल में कार्यरत हैं। उनका कहना है कि उनके मरीज़ों में अक्सर कुपोषण होता है या वे पहले ग़लत इलाज से गुज़र चुके होते हैं। डॉ. मुबीन बताते हैं, “पेरीफेरी के लोग अपने काम में इतने व्यस्त रहते हैं कि स्वास्थ्य को प्राथमिकता ही नहीं देते। उन्हें लगता है कि धूप, मेहनत या लू की वजह से जिस्म में दिक़्क़त हो रही है, जबकि असल में कारण पोषण की कमी या कोई गंभीर बीमारी होती है। कई बार मरीज़ खुद तय कर लेते हैं कि उन्हें क्या बीमारी है, और उसी आधार पर दवा लेने लगते हैं। एक महिला सात दिन से चक्कर आने की शिकायत के बाद पहले एक बाबा के पास गई, फिर खुद ही डायबिटीज़ की दवा लेने लगी क्योंकि उसे लगा कि उसके पिता को यह बीमारी थी तो उसे भी होगी। बाद में पता चला कि उसे हीट स्ट्रोक था।”
स्वास्थ्य सेवाओं के स्त्रोत. सोर्स : एनएचएफ़एस 5
NFHS-5 में 15 से 49 साल की महिलाओं से पूछा गया कि जब वो बीमार होती हैं, तो इलाज करवाने में उन्हें क्या दिक्कतें आती हैं। हर पाँच में से तीन महिलाएं कहती हैं कि उन्हें इलाज करवाने में कम से कम एक परेशानी ज़रूर आती है। क़रीब 21 फ़ीसदी महिलाएं कहती हैं कि उनके पास इलाज के लिए पैसे नहीं होते। 23 फ़ीसदी को लगता है कि अस्पताल बहुत दूर है और 22 फ़ीसदी को आने-जाने की सुविधा नहीं मिलती। 31 फ़ीसदी महिलाओं की चिंता होती है कि अस्पताल में कोई महिला डॉक्टर नहीं है। 39 फ़ीसदी कहती हैं कि अस्पताल में कोई डॉक्टर ही नहीं मिलता और 40 फ़ीसदी बताती हैं कि वहां दवाइयाँ ही मौजूद नहीं होतीं।
इलाज का रास्ता, अस्पताल नहीं आस्था
डिजिटल हेल्थ सिस्टम के अलावा एक और चुनौती है, लोगों की सोच। आज भी बहुत से लोग आधुनिक इलाज के बजाय तावीज़, झाड़फूंक या घरेलू नुस्खों को ही प्राथमिकता देते हैं। इस सोच का असर डॉक्टरों की कोशिशों पर भी पड़ता है।
फ़ीरोज़ा बेग़म भोपाल में रहती हैं। कुछ महीनों पहले उनके पति (62) को स्टेज 4 का कैंसर हो गया। वो बताती हैं, “शुरुआत में मेरे शौहर को बस पेट में हल्का दर्द होता था। हम उन्हें प्राइवेट अस्पताल ले गए तो डॉक्टरों ने कहा कि पेट में छाले हैं और उनमें मवाद भर गया है। कई महीनों तक इलाज चला लेकिन कोई आराम नहीं मिला। डॉक्टरों ने ऑपरेशन तक की बात कह दी थी। हम सब तैयारी में लग गए थे, लेकिन ऑपरेशन से पहले हमने किसी और डॉक्टर को दिखाया तो जाँच में पता चला कि उन्हें स्टेज 4 कैंसर है। हम सब डर गए थे। पहले ही इलाज के लिए घर के ज़ेवर तक बेच दिए थे। फिर किसी ने मुंबई के एक बड़े डॉक्टर का नाम बताया, जहाँ का अपॉइंटमेंट बड़ी मुश्किल से मिला। बेटा उन्हें लेकर आठ दिन वहाँ रुका लेकिन कोई उम्मीद नहीं मिली। डॉक्टरों ने कहा कि ऑपरेशन बहुत जोखिम भरा है, इसलिए वापस आ गए।”
वो आगे बताती हैं कि इसी दौरान किसी ने गुजरात के एक पीर बाबा के बारे में बताया, जो दुआ पढ़ कर पानी देते हैं। “पहली बार पीर साहब से वीडियो कॉल पर बात हुई। उन्होंने कुछ दुआएँ और टोटके बताए। बेटा गुजरात जाकर वह दम वाला पानी लेकर आया। अब हम उसी पानी को इलाज की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। शौहर की हालत पहले से बहुत बेहतर लगती है। डॉक्टरों ने तो हमें डरा दिया था, लेकिन हमें लगता है कि ऊपर वाले ने पीर साहब के ज़रिये ही राहत दी।”
अपोलो हॉस्पिटल की ‘हेल्थ ऑफ द नेशन’ रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत में कैंसर के मामले तेज़ी से बढ़ रहे हैं। साल 2020 में जहाँ कैंसर के क़रीब 13.9 लाख मामले थे, वहीं 2025 तक बढ़कर 15.7 लाख तक पहुँचने की उम्मीद है। यानी सिर्फ़ पाँच साल में कैंसर के मामलों में 13 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हो रही है। इसके साथ-साथ कैंसर से होने वाला कुल बोझ, जिसे 'डिसएबिलिटी एडजस्टेड लाइफ इयर्स' (DALYs) के ज़रिए मापा जाता है, 2021 में 2.7 करोड़ था, जो 2025 तक बढ़कर क़रीब 3 करोड़ होने की संभावना है।
राज्य/केंद्र शासित प्रदेश के हिसाब से 15-49 साल के पुरूष और महिलाओं में कैंसर की जाँच का प्रतिशत. सोर्स : एनएचएफ़एस 5
नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS-5) के मुताबिक़, 15 से 49 साल की उम्र की महिलाओं में से बेहद कम महिलाएं ही कैंसर की जांच करवा रही हैं। सिर्फ़ 1.2% ने सर्वाइकल कैंसर की जांच करवाई है, 0.6% ने ब्रेस्ट कैंसर की और 0.7% ने मुँह के कैंसर की। ये आंकड़े बताते हैं कि देश में कैंसर को लेकर न जांच की आदत बनी है और न ही ज़रूरी जानकारी पहुँची है।
सरकारी अस्पताल में मरीज़ के परिजन
डॉक्टर मुबीन एक बच्चे का मामला भी बताते हैं, जिसे स्टेज 4 बोन कैंसर है। “बच्चे को कोहनी पर ट्यूमर है। हमने बहुत कोशिश की कि उसका हाथ अलग नहीं करना पड़े लेकिन बच्चे की जान बचाने के लिए यही आख़री ऑप्शन है। हमने सर्जरी की तैयारी कर ली लेकिन परिवार अब भी इनकार कर रहा है, उन्हें बच्चे का हाथ बचाना है। हमने उनसे साफ़ कह दिया है कि अगर सर्जरी नहीं की गई, तो बच्चे की जान ख़तरे में है लेकिन परिवार अभी भी हकीम के पास जाना चाहता है। हम उनकी काउंसलिंग में लगे हुए हैं।”
एनएचएफ़एस 5 के मुताबिक़ भारत में 65 फ़ीसदी मौतें नॉन-कम्युनिकेबल डिज़ीज़ यानी ऐसी बीमारियों से होती हैं, जो एक इंसान से दूसरे में नहीं फैलतीं हैं. जैसे डायबिटीज़, ब्लड प्रेशर और मोटापा। इन बीमारियों का ख़तरा तब बढ़ता है, जब शरीर में चर्बी ज़्यादा हो, ब्लड प्रेशर या ब्लड शुगर बढ़ा हो, या खून में कोलेस्ट्रॉल का लेवल ज़्यादा हो।
बीमारी की पहचान डॉक्टर गूगल से
डॉक्टर मुबीन का कहना है कि मरीज़ों को यह समझाना सबसे मुश्किल होता है कि उन्हें सही इलाज की ज़रूरत है। “आजकल लोग गूगल और इंटरनेट पर भरोसा ज़्यादा करते हैं। कुछ तो मानते ही नहीं कि उन्हें कोई बीमारी है और कुछ मान लेते हैं कि उन्हें सब कुछ हो गया है। इस बीच हेल्थ काउंसलर का रोल बहुत अहम हो जाता है। महिलाओं के लिए ये स्थिति और भी मुश्किल है। वे बताते हैं कि कई महिलाएँ अपनी समस्याओं को शर्म के कारण छुपा लेती हैं। “वो न डॉक्टर से बात करती हैं, न परिवार से। हद्द तो तब होती है जब हालात हाथ से निकलने लगते हैं तो वो इंटरनेट से देख कर अपना इलाज शुरू कर देती हैं। कई बार इन्हीं वजह से उनका यूटरस तक निकलवाना पड़ता है।” वे यह भी कहते हैं कि “गूगल का सोर्स सिर्फ एआई है। उसने ना फिजियोलॉजी पढ़ी है, और ना ही एनाटॉमी। आज भी हमें प्रोफेशनल डायग्नोसिस के लिए किताबें खोलनी पड़ती हैं लेकिन लोग सोचते हैं चैटजीपीटी सब बता देगा।”
भोपाल की एक बस्ती में रहने वाली नीलम को दो साल पहले डॉक्टर ने हाइपरटेंशन की दवा दी थी। लेकिन तब से आज तक उन्होंने ना तो ब्लड प्रेशर चेक कराया और ना ही दोबारा किसी डॉक्टर को दिखाया। नीलम (57) भोपाल में ही एक झुग्गी बस्ती में रहती हैं। उनके पति मज़दूरी से घर चलाते हैं। पूछने पर उन्होंने कहा कि हम पास के मेडिकल से हर महीने दवाई ले लेते हैं। सिर घूमने या थकावट ज़्यादा लगने पर एक गोली और खा लेते हैं।
नीलम को इस बात की फ़िक्र नहीं है कि दवा कितने दिन तक असर करेगी या कब तक ये बीमारी यूं ही बनी रहेगी। उन्हें ये भी नहीं पता कि बिना नियमित जांच के हाई ब्लड प्रेशर कभी भी हार्ट अटैक या स्ट्रोक जैसी गंभीर बीमारी की वजह बन सकता है। वे कहती हैं कि सरकारी अस्पताल में बहुत लंबी लाइन लगती है, इसलिए जाना ही नहीं होता।
उम्र और लिंग के आधार पर हाई ब्लड प्रेशर (हाइपरटेंशन) के मामले. सोर्स : एनएचएफ़एस 5
इसी तरह अपनी सास के पैरालिसिस के इलाज के लिए अस्पताल आयी सुरूर बताती हैं कि अचानक से उनकी सास को बोलने में दिक़्क़त हुई और चेहरा टेढ़ा हो गया था। परिवार के लोगों को पैरालिसिस का मामला समझ आ जाने के बावजूद फ़ौरन अस्पताल ले जाने की जगह पहले घर में ही बातचीत करते रहे। वे कहती हैं, “हम लोग सोचते रहे कि कहां ले जाएं। फिर पास के एक क्लीनिक ले गए, जहाँ डॉक्टर ने बीपी नॉर्मल बताया और कुछ दवाएं दे दीं। हम उन्हें घर ले आए लेकिन हालत में सुधार नहीं हुआ, तो किसी ने भोपाल में एक वेद का ज़िक्र किया, जिनका बेटा अब पैरालिसिस का ट्रेडिशनल इलाज करता है। लेकिन दो-तीन दिन बाद भी कोई असर नहीं हुआ, तबीयत बिगड़ती रही तो मजबूरी में हम उन्हें हमीदिया अस्पताल ले गए। यहाँ आते ही डॉक्टरों ने सारी जांच की और फ़ौरन एडमिट किया। तब पता चला कि स्ट्रोक आया था और हमने इलाज में देर कर दी। वक़्त पर अस्पताल ले आते तो इतनी तकलीफ़ नहीं उठाना पड़ती। अब समझ आया है कि इतनी गंभीर बीमारी में अस्पताल जाना चाहिए।”
सरकारी अस्पताल में मरीज़ को स्ट्रेचर पर ले जाती हुई एक महिला
डिजिटल टूल्स और सरकारी योजनाएं तभी असरदार होंगी, जब लोगों को अपनी सेहत को लेकर सही जानकारी और वक़्त पर फ़ैसले लेने की समझ हो। डॉक्टरों का भरोसा तब बनता है, जब इलाज को टालने की जगह लोग वक़्त रहते अस्पताल पहुँचें। तकनीक से रास्ता तो आसान हो सकता है, लेकिन चलना लोगों को ही होगा। इलाज का हक़ तभी पूरा होता है जब जानकारी, यक़ीन और पहुंच, तीनों साथ हों। जब तक हम मेडिकल साइंस पर भरोसा नहीं करेंगे और इलाज को टालते रहेंगे, तब तक हेल्थकेयर सिस्टम का डिजिटलीकरण भी हमें राहत नहीं दिला पाएगा।
इस रिपोर्ट पर हमने सरकार से उनका पक्ष जानना चाहा परन्तु अभी तक वहां से जवाब नहीं मिल पाया। जवाब मिलने पर इस स्टोरी को अपडेट कर दिया जायेगा।
(नोट: इस रिपोर्ट में जिन महिलाओं की कहानियाँ साझा की गई हैं, उनकी पहचान की गोपनीयता बनाए रखने के लिए उनके नाम बदल दिए गए हैं।)