एकल महिलाएं हर हाल में क्यों करना चाहती हैं काम?
नई दिल्ली: कोलकाता की रहने वाली 36 वर्षीय रुचिता काजरिया की शादी नहीं हुई है। वह याद करते हुए बताती हैं कि उन्हें हमेशा से लगता था कि उन्हें नौकरी करनी होगी। उनकी दो बड़ी बहनों ने स्कूल समाप्त होने के बाद ही नौकरी करना शुरु कर दिया था। वह कहती हैं, “मेरे पिता शुरु से ही स्पष्ट थे कि अगर हमें आगे पढ़ाई करनी है तो इसका इंतजाम खुद ही करना होगा। ऐसा नहीं था कि वे हमारा खर्च वहन नहीं कर सकते थे, बल्कि उन्होंने कहा कि लड़कियों के रूप में वे हमें आर्थिक रूप से स्वतंत्र देखना चाहते हैं।”
इसलिए 18 वर्ष की उम्र में काजरिया ने 3,500 रुपये प्रति माह के वेतन पर एक अखबार के लिए काम करना शुरु किया, जो कि उसके कॉलेज की फीस, आने-जाने और कभी-कभी फिल्म टिकट के लिए पर्याप्त था।
आमतौर पर भारतीय परिवार कॉलेज जाने वाली लड़कियों पर नोकरी करने पर जोर नहीं देता है। अगर कोई लड़की ऐसा करती है तो उस पर परिवार की नजरें चढ़ जाती है और उनके काम पर प्रतिबंध लगाया जाता है, जैसा कि इंडियास्पेन्ड द्वारा चल रहे एक राष्ट्रव्यापी अध्ययन में पता चला है।
आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार, भारत की महिला कार्यबल भागीदारी दक्षिण एशिया में सबसे कम है, सिर्फ 24 फीसदी। अप्रैल 2017 विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2011 के दशक में, यानी पिछली जनगणना के वर्ष में 19.6 मिलियन महिलाएं श्रम मानचित्र से बाहर हो गईं थीं।
कार्यबल छोड़ने वाली महिलाओं की सामान्य प्रवृत्ति में एकल महिलाएं अपवाद हैं। तलाकशुदा या कभी न विवाहित, विधवा या त्यागी गई गांवों या शहरों में रहने वाली महिलाएं और एकल महिलाओं से खुद और अपने बच्चों के लालन-पालन के लिए खर्च की उम्मीद की जाती है।
वर्तमान में, भारत के इतिहास में एकल महिलाओं की संख्या सबसे ज्यादा है।
जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, एकल महिलाओं ( विधवाएं, कभी न विवाहित, तलाकशुदा, परित्यक्तता ) की संख्या में 39 फीसदी की वृद्धि हुई है। ये आंकड़े 2001 में 51.2 मिलियन महिलाओं से बढ़ कर 2011 में 71.4 मिलियन हुए हैं।
हालांकि हर कोई गणना के साथ सहमत नहीं है, क्योंकि जनगणना की 'कभी शादी नहीं हुई' की श्रेणी में 18 वर्ष और उससे अधिक उम्र की वे सभी महिलाएं जो विवाहित नहीं हैं, उन्हें शामिल किया जाता है।
“लेकिन निश्चित रूप से, उनमें से अधिकतर शादी करेंगे, 18 से 30 वर्ष के बीच यहां तक कि 34 तक," भारत में एकल महिलाओं के लिए एक नेटवर्क एकल नारी शक्ति संघठन (एनएनएसएस) की संस्थापक गिनी श्रीवास्तव का यही मानना है। हालांकि अभी भारत में 50 मिलियन से अधिक एकल महिलाएं हैं।
भारत में एकल महिलाएं: बढ़ती संख्याएं
इसके अलावा, पुरुषों की तुलना में विधवा, अलग रहने वाली और तलाकशुदा महिलाओं की संख्या तीन गुना ज्यादा है । 13.9 मिलियन पुरुषों की तुलना में 46.5 मिलियन महिलाएं।
मिसाल के तौर पर, 1991 से 1994 के बीच एकत्र किए गए आंकड़ों का उपयोग करते हुए ‘हार्वर्ड केनेडी स्कूल’ के मार्था अल्टर चेन द्वारा किए गए शोध के मुताबिक, भारत में सभी महिलाओं में से 8 फीसदी विधवाएं थीं, जबकि 2.5 फीसदी पुरुष विधुर थे। चेन का मानना है कि पुरुष विधुर के विपरीत, भारत की विधवाओं में से केवल 9 फीसदी का ही पुनर्विवाह होता है, जबकि पुरुष फिर से शादी करने की संभावना रखते हैं।
एकल होने की भारतीय स्थिति
भारत में महिलाओं के लिए एकल होना एक विशिष्ट स्थिति और समस्या है।
नेश्नल फोरम फॉर सिंगल वुमन राइट से जुड़ी से कार्यकर्ता पारुल चौधरी कहती हैं, "एकल महिलाओं के लिए, मुख्य मुद्दा जीवित रहने में सक्षम होना और गरिमा के साथ जीवित रहने में सक्षम होना है।"
यह फोरम अब तक 12 राज्यों में उपस्थिति दर्ज करा चुका है और एकल महिलाओं के लिए एक राष्ट्रीय मंच है।
एकल महिलाओं को बस अपने सिर पर एक छत या उनके बच्चों के स्कूल के लिए किसी ( माता-पिता, भाइयों और बहनों ) के अनुग्रह पर जीना पड़ता है। चौधरी कहती हैं, " एकल महिलाएं सबसे ज्यादा यह चाहती हैं कि वह यह महसूस कर पाए कि उनका अपने जीवन पर नियंत्रण है।”
चौधरी कहती हैं, उनमें से कई अकुशल हैं कड़ी मेहनत करती हैं, लकिन अच्छा भुगतान नहीं मिलता है। कम आमदनीवाली एकल महिलाओं के लिए घर पर रहना कोई विकल्प नहीं है। उन्हें बाहर जाना है और कमाई करना है, तब तक जब तक उम्र इजाजत देती है। "
अर्थशास्त्री जयती घोष कहती हैं, "अपने विवाह के टूटने के बाद काम करने वाली महिलाओं का अनुपात तेजी से बढ़ता है। विवाह समाप्त होने के कारणों पर ध्यान दिए बिना महिलाएं श्रम बाजार तक पहुंचती हैं। घोष ने कहा कि एक समूह में, एकल महिलाओं की श्रमदर में भागीदारी औसत से काफी ऊपर है।"
मार्च 2017 के पेपर, ‘द इकोनोमिक एफेक्ट्स ऑफ मैरेज डिजोल्यूशन ऑन वुमन’, में यति घोष और नीती रंजन लिखती हैं, "भारत में सार्वजनिक नीति सामान्य रूप से विवाह के टूटने का अनुभव करने वाली महिलाओं और युवा लड़कियों को उनके मूल अधिकार प्रदान नहीं कर पाती है और नीति में उनकी आर्थिक सुरक्षा या उनकी सामाजिक स्थिरता का कोई पक्ष नहीं दिखता।”
‘भारत मानव विकास सर्वेक्षण’ (आईएचडीएस) द्वारा एकत्रित आंकड़ों का उपयोग करके और 2005 में विवाहित लेकिन 2011 तक तलाकशुदा, अलग हुई या त्यागी गई महिलाओं के साथ तुलना करके घोष और रंजन ने पाया कि इन महिलाओं का कार्यबल में भागीदारी बढ़ी है, 2005 में लगभग 26 फीसदी से 2011 में 47 फीसदी से अधिक हुआ है।
विवाह के टूटने के बाद महिलाओं की श्रमिक भागीदारी
इस वर्ष के शुरुआत में प्रकाशित किताब, स्टेटस सिंगल: द ट्रूथ एबाउट बींग सिंगल वुमन इन इंडिया की लेखक, श्रीमोई पीयु कुंडू कहती हैं, “अपवाद के बिना, मेरी पुस्तक के लिए साक्षात्कार की गई एकल महिलाओं में से सभी काम करती थीं।”
मध्यम और ऊपरी मध्यम वर्ग की कई महिलाओं ने कुंडू से बातचीत के दौरान कहा कि एक समय पर वे "क्रेडिट कार्ड पत्नियां" थीं। उनके पास वित्तीय सुरक्षा थी और उनकी ससुराल वालों की पारिवारिक संपत्ति तक पहुंच भी। लेकिन जब विवाह पति की मृत्यु, तलाक या त्याग के माध्यम से समाप्त हो जाता है तो तो पत्नियों को अपने और अपने बच्चों का समर्थन करने के लिए श्रम क्षेत्र में वापस धकेल दिया जाता है।
कुंडू कहती हैं, "आर्थिक सशक्तिकरण इस देश में एक महिला के रूप में जीवित रहने की कुंजी है।"
विधवाओं की दुख भरी दास्तान
झारखंड के गिरिडीह जिले के सिंघर्डी गांव में कई अन्य लड़कियों की तरह, लीलावती देवी जब 14 वर्ष की थी, तब शादी हुई थी। वह साल 1991 का था। उनका पहला बच्चा (लड़का) शादी के तीन साल बाद पैदा हुआ था। और दूसरा बच्चा केवल एक महीने का था, जब उनके पति की “बुखार से” मृत्यु हुई थी।
लीलावती केवल आठवीं कक्षा तक पढ़ी हैं। एक दिहाड़ी मजदूर के रुप में उनके पति ऐसा कुछ नहीं छोड़ गए थे, जिससे उनका घर चल सके। न कोई बचत थी और कहीं जाने की कोई जगह भी नहीं थी। लीलावती कहती हैं, "मेरी मां ने कहा कि मैं उसके साथ रह सकती हूं, लेकिन वह खुद विधवा और मैं अपने बच्चों के साथ उन पर बोझ बन गई थी। मैं अपने बच्चों के साथ खुद को मारना चाहती थी।"
लीलावती के पास एकमात्र अवसर शारीरिक श्रम था, या तो उन्हें यह करना था या फिर भूख से जान देना था।
अपनी 12 वीं कक्षा पूरी करने के तुरंत बाद, शांथला मृतुंजय ने बैंगलोर में अपने रूढ़िवादी समुदाय में विवाह किया था। तब वह सिर्फ 18 वर्ष की थी। 28 वर्ष की उम्र तक उसके दो बच्चे थे, आठ वर्ष की एक लड़की और एक लड़का जो छह वर्ष का था। 10 वीं शादी की सालगिरह के चार महीने बाद, उसके पति की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी।
43 वर्षीय मृतुंजय कहती हैं, "मेरे पास कोई शिक्षा नहीं थी, कोई काम का अनुभव नहीं था और कोई कौशल नहीं था, ऐसा कुछ भी नहीं था, जो मुझे नौकरी के लिए योग्य बनाए।" इसके अलावा, उनके पति के उपर ढेर सार व्यवसायिक ऋण था, जिसका भुगतान उन्हें करना पड़ा था।
एक दोस्त के एक दोस्त ने उसे नौकरी के लिए साक्षात्कार देने में मदद की, लेकिन, जैसा कि उन्होंने बताया, "मुझे यह भी नहीं पता था कि मुझे साक्षात्कार के लिए कैसे तैयार होना चाहिए।" उन्हें नौकरी नहीं मिली।
आखिर में जब उन्होंने आईटी भर्ती फर्म के साथ भर्ती कार्यकारी के रूप में नौकरी प्राप्त की, तो मृतुंजय ने कहा,” मुझे तेजी से सीखना है” । एक साल के भीतर उन्हें बेहतर वेतन के साथ टीम लीडर के रुप में पदोन्नत किया गया था। तब उन्हें पता चला कि उनके पिता को कैंसर है। पिता को उनकी जरुरत थी इसलिए उन्होंने नौकरी छोड़ दी।
जब वह काम पर वापस आ गई, तो इस बार उन्होंने अपना व्यवसाय शुरू किया, बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाना और वयस्कों के बीच कौशल और व्यक्तित्व विकास का काम शुरु किया।
मृतुंजय पहले ही अपने ससुराल के घर से बाहर निकल चुकी थी और माता-पिता के साथ रह रही थी। वह कहती हैं. “यह ऐसा निर्णय था जिसका समर्थन उनके दोनों माता-पिता और सास-ससुर द्वारा किया गया था। उनके ससुराल वाले बच्चों की शिक्षा के लिए आर्थिक मदद करते रहे। बहू के साथ उनके रिश्ते अच्छे थे और कई बार उन्होंने उसे दूसरी शादी करने का सुझाव दिया। लेकिन मृतुंजय से प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया।
मृतुंजय बताती हैं, "मेरी आर्थिक रूप से देखभाल की जा रही थी। मेरे माता-पिता और ससुराल वालों ने मुझे अपने पति के ऋण का भुगतान करने में मदद की। लेकिन मेरी अन्य जरूरतें थीं। मैं चाहती थी कि मेरे बच्चे अच्छे कपड़े पहनें, मॉल में जाएं। मैं छुट्टी पर उन्हें घूमाने या एक डिनर के लिए बाहर जाने में सक्षम होना चाहती थी। मैं इन खर्चों के लिए किसी से आर्थिक मदद नहीं चाहती थी। "
मृतुंजय कहती हैं, " मेरी कमाई मेरी गरिमा का टिकट है।"
हिमाचल प्रदेश के सोलन में निर्मल चंदेल की शादी को केवल चार साल हुए थे जब उनके पति की दिल के दौरे के कारण मृत्यु हुई थी। वह 24 साल की थी। उनकी कोई संतान नहीं थी। भारत की अधिकांश अन्य विधवाओं के विपरीत ससुराल वाले वित्तीय सहायता के लिए तैयार थे। लेकिन वह आर्थिक समर्थन एक शर्त के साथ उन तक आया था। कहा गया कि “ वह सफेद कपड़े पहनें, घर के अंदर रहें और त्यौहारों और शादियों जैसे अनुष्ठानों में भाग लेने की अपेक्षा न करें।”
एक साल तक, चंदेल ( अब 53 ) ने उस तरह से जीवन गुजारा जैसा उनके ससुरालवालों ने उम्मीद की थी। लेकिन उन्हें लगता था कि उन्हें कुछ करना चाहिए। लेकिन ससुराल वालों ने कहा कि उनके परिवार में विधवाओं का काम करना स्वीकार्य नहीं है। वे उनकी वित्तीय जरूरतों का ध्यान रखेंगे।
हालांकि उसे पैसे की जरूरत नहीं थी, फिर भी उसने एक गैर सरकारी संगठन के लेखा विभाग में महीने में 560 रुपये के वेतन पर नौकरी ली। चंदेल कहती हैं, "मैं उनसे अलग रहना चाहती थी। कम से कम इस नौकरी ने मुझे बाहर निकलने में मदद की। "
अगले 16 सालों तक, चंदेल एनजीओ के साथ काम करती रही। बाद में उनकी तनखाह एक महीने में 7,000 रुपये तक हो गई। वह कहती हैं, "मैं एकल हूं। मुझ पर कोई निर्भर नहीं है। लेकिन मुझे पता है कि मैं कमजोर हूं। अगर मैं बीमार पड़ती हूं तो मेरी देखभाल कौन करेगा? मेरे मेडिकल बिल कौन देगा? "
चांदेल कहती हैं, “सभी विधवाएं कमजोर हैं। यदि वे युवा हैं, तो वे अपने बच्चों की शिक्षा और अन्य खर्चों के बारे में चिंता करती हैं। परिवारों के भीतर यौन शोषण आम है। बुजुर्ग विधवाओं की चिंता है कि सेवानिवृत्ति के बाद और बुढ़ापे में उनकी देखभाल कौन करेगा। और हर कोई घर खोजने के बारे में चिंतित है।
एक अकेली महिला को इज्जत तभी मिलती है जब उसके पास जमीन हो और उसके नाम पर एक घर हो।"
अपना एक कमरा
एकल महिलाओं के संघर्ष पर एक घंटे की डाक्यूमेंटरी फिल्म की कहानी, उसके निर्माता शिखा माकन की व्यक्तिगत कहानी थी।
2004 में, माकन एक फिल्म निर्माता बनने के लिए दिल्ली से मुंबई आई। मकान ने कहा, "मैं तब अकेली थी और मुझे नहीं पता था कि रहने के लिए जगह खोजना कितना मुश्किल होगा।" कोई भी अकेली महिलाओं को किराए पर घर नहीं देना चाहता था।
माकन कहती हैं, "काम करने के लिए बाहर से आने वाली महिलाओं की ये स्थिति पितृसत्तात्मक व्यवस्था में बहुत चिंताजनक है। उसकी या तो अपने पिता के साथ या उसके पति के साथ ही रहने की उम्मीद लोग करते हैं। एक महिला जो रोज़गार की तलाश में अपने पिता का घर छोड़ देती है, उस पर सबका ध्यान खूब रहता है। "
माकन एक रात को याद करती हैं जब वह विशेष रूप से देर तक काम करने के बाद घर लौटी थीं । उन्होंने टैक्सी में साथ आ रहे एक पुरुष सहकर्मी से अनुरोध किया था कि वह उसे अपने सामने के दरवाजे पर छोड़ दे, क्योंकि वह बहुत सुरक्षित महसूस नहीं कर रही थी-"मुझे आश्चर्य हुआ कि, सुरक्षा गार्ड ने सोसाइटी के अध्यक्ष को बुलाया जो 3 बजे पहुंचे और मुझे किसी प्रकार का रैकेट चलाने का आरोप लगाया।"
हालांकि, माकन अपनी बात पर अड़ी रहीं। काफी वाद-विवाद हुआ। कुछ दिनों बाद, किसी ने लिफ्ट पर उनका फोन नंबर लिख दिया। उनके पास कई फोन आने शुरु हो गए। लेकिन फोन पर कोई बात नहीं करता। आधी रात को उसके घर के दरवाजे की घंटी बजती। लेकिन जब दरवाजा खोलते तो बाहर कोई नहीं होता। उन्होंने सोचा कि " आगे बढ़ना ही आसान है। कई तरह से मुंबई को सुरक्षा के लिए बेंचमार्क माना जाता है, लेकिन मैंने सोचा कि अगर यह मेरे साथ हो सकता है, तो इस शहर और अन्य शहरों में अन्य एकल महिलाओं के लिए यह कैसा होता होगा?" इस तरह ‘बैचलर गर्ल्स’ का जन्म हुआ था।”
कई अकेली महिलाओं के लिए, छोटे शहरों और माता-पिता को छोड़कर मुंबई, दिल्ली या बैंगलोर में नौकरी करना और वित्तीय आजादी की तलाश करना खुद के लिए एक क्रांतिकारी कदम है।
यहां तक कि बड़े शहरों में भी सुरक्षा गार्ड और पड़ोसियों द्वारा अकेली महिलाओं की निगरानी की जाती हैं। कुछ सवाल आम हैं-“ क्या फ्लैट में कोई आदमी है क्या आप आप ऊंची आवाज में गाना बजा रही थी? आप घर कब आती हैं?”
हर महिला इस तरह की परिस्थिति का सामना नहीं कर सकती है। माकन बताती हैं, “ एक महिला मुंबई में आई थी, जो टेलीविजन धारावाहिकों में अभिनेत्री के रूप में काम की तलाश में थी। वो पीजी से अपने अपार्टमेंट में आ गई थी। लेकिन हर जगह उपदेश देने वाले व्याख्यान ने उनके लिए स्थिति बद्तर बना दी थी। सिर्फ इसलिए कि वह एक अभिनेत्री थी। आखिरकार उसने काम छोड़ दिया और बड़ौदा वापस चली गई।”
माकन कहती हैं, "आप काम पर खुद को स्थापित करने के लिए पहले से ही इतनी सारी लड़ाई लड़ रहे हैं। जब आप घर आते हैं, तो आपको महसूस करना होगा कि आप एक सुरक्षित जगह पर हैं, लेकिन आप सिर्फ लड़ाई नहीं लड़ सकते हैं।"
अब जब मकान विवाहित है, तो उसे सुरक्षा गार्ड उन्हें 'मैडम' पुकारता है। माकन हंसते हुए कहती हैं, "पति के टैग होने से कितना फर्क पड़ता है!"
एकल लेकिन अकेली नहीं
गिन्नी श्रीवास्तव अपने पति से टोरंटो विश्वविद्यालय में मिली थीं, जहां वे दोनों 1970 के दशक में पढ़ रही थे। शादी के तीन महीने बाद, वे भारत चले आए, तब से यही उनका घर रहा है।
अस्सी के दशक में, जब श्रीवास्तव पहली बार महिलाओं के आंदोलन में शामिल हुई, तो बड़े मुद्दे बलात्कार और दहेज थे। वह कहती हैं, “महिलाओं के आंदोलन ने नीचे के स्तर से विधवाओं और एकल महिलाओं को आगे लाने के लिए कुछ भी विशेष नहीं किया था। और आज भी उनके बारे में बहुत कुछ करने की जरूरत है।"
श्रीवास्तव कहती हैं, “वर्ष 2000 में एकल नारी शक्ति संघठन (इएनएसएस) का गठन ‘उत्प्रेरक संदेश’ था, जिसका कल्याणकारी दृष्टिकोण नहीं था। आज भी संगठन की मुख्य चुनौतियां: आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान को बढ़ावा देना बना हुआ है। और इसका सबसे महत्वपूर्ण संदेश किसी को अकेले महसूस नहीं करने देने की है। हम एकल महिलाओं के लिए एक वैकल्पिक परिवार हैं। "
महिलाओं के लिए राष्ट्रीय नीति के मसौदे में एकल महिलाओं के लिए एक अलग सेक्शन शामिल करने के लिए एनएनएसएस ने केंद्र सरकार के साथ बातचीत की है।
इएनएसएस का प्रयास है कि एकल महिलाएं आपसी सहायता समूहों के साथ अपने अधिकारों तक पहुंचने में एक-दूसरे का समर्थन करने के लिए व्यवस्थित हों। बयान में कहा गया है, "एकल महिला समाज को बदल सकती है अगर उनकी क्षमता को तराशी जाती है।"
श्रीवास्तव कहती हैं, " हमारा समाज अकेली औरत को बताता है कि वे कमज़ोर हैं, लेकिन हम सबूत हैं कि हम कमजोर नहीं हैं।"
भारतीय महिलाएं श्रमबल से बाहर क्यों हो जाती हैं, इसके कारणों पर देश भर में चल रही हमारी पड़ताल का यह दसवां लेख है।
पहले के लेख आप यहां पढ़ सकते हैं:-
Part 1:क्यों भारतीय कार्यस्थलों में कम हो रही है महिलाओं की संख्या –
Part 2:नौकरी पर महिलाएं : हरियाणा की एक फैक्टरी में उम्मीद के साथ परंपरा का टकराव
Part 3: घरेलू कामों के दवाब से महिलाओं के लिए बाहर काम करना मुश्किल, मगर अब बदल रही है स्थिति
Part 4:भारत की शिक्षित महिलाएं ज्यादा छोड़ रही हैं नौकरियां
Part 5:हिमाचल प्रदेश की महिलाएं क्यों करती हैं काम: एक जैम फैक्टरी के पास है इसका जवाब
Part 6:भारत में जज से लेकर श्रमिकों तक यौन उत्पीड़न का दंश
Part 8: थोड़ी सी मदद से ही बिहार की गरीब महिलाएं बदल रही हैं अपनी जिंदगी
(भंडारे पत्रकार हैं, दिल्ली में रहती हैं और अक्सर भारत के लैंगिक मुद्दों पर लिखती हैं।)
यह आलेख मूलत: अंग्रेजी में 23 जून, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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