कम फंड, कोई वेतन नहीं, तमिलनाडु के महिला नेता कैसे हैं सफल ?
तमिलनाडु के शिवगंगाई जिले के नचंगुलम पंचायत की दलित अध्यक्ष राजनिकंदम के पास कोई संपत्ति नहीं है। राज्य उसे एक महीने में सिर्फ 1000 रुपये की राशि देती है, और वह अक्सर पंचायत काम के लिए जिला कलेक्टर तक पहुंचने के लिए अपनी जेब से खर्च करती है। कोई निश्चित आय न होने से दलित और आदिवासी महिला अध्यक्ष का काम प्रभावित होता है, क्योंकि वे अपने वेतन और रोजगार की कीमत पर पूर्णकालिक संवैधानिक भूमिका निभाती हैं।
नचांगुलम पंचायत, शिवगंगाई जिला (तमिलनाडु): यह वेतन के बिना पूर्णकालिक नौकरी करने जैसा क्यों है? खासकर यदि आप एक दलित या आदिवासी महिला हैं और आपकी दैनिक कमाई से परिवार को सहारा मिलता है। दक्षिणी तमिलनाडु के शिवगंगाई जिले में नचंगुलम की दिहाड़ी मजदूर और ग्राम पंचायत के प्रमुख राजनिकंधम से पूछिए। उनके पति भी दिहाड़ी मजदूरी करते हैं और उनके तीन बच्चे हैं, जिनमें से एक विकलांग है।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एमजीएनआरईएए) जैसी राज्य संचालित और गारंटी वाली ग्रामीण रोजगार योजना ऐसे गरीब परिवारों के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन एक पंचायत प्रमुख के रूप में, राजनिकंधम को इससे लाभ नहीं मिल रहा है।
वह कहती हैं, "मैं एक पद धारण करती हूं, मेरे पास शक्ति और प्रतिष्ठा है लेकिन कोई आय नहीं है। मुझे पंचायत से कोई वेतन नहीं मिलता है और मैं मनरेगा के तहत मजदूरी का काम नहीं कर सकती, क्योंकि मैं पंचायत अध्यक्ष हूं। मेरे पास तीन बकरियां हैं, जो मुझे एक सरकारी योजना के तहत मिलीं हैं।"
तमिलनाडु में, पंचायत के अध्यक्ष ( निर्वाचित पूर्णकालिक संवैधानिक भूमिका ) को किसी भी वेतन का भुगतान नहीं किया जाता है। भारत में ऐसे अन्य राज्य हैं, जो अपने ग्रामीण निर्वाचित प्रतिनिधियों को वेतन नहीं देते हैं और वे राज्य हैं महाराष्ट्र, गुजरात और ओडिशा।
तमिलनाडु में पंचायत अध्यक्षों को यात्रा खर्च के लिए 1,000 रुपये का एक मानदेय दिया जाता है और एक महीने में दो बार एक बैठक में भाग लेने के लिए अतिरिक्त 100 रुपये का भुगतान किया जाता है।
राज्य के विधानसभा (विधायक) के सदस्य की कमाई के साथ इसकी तुलना कर के देखें तो हाल में 100 फीसदी वृद्धि के बाद, उसे 1.05 लाख रुपये का मूल मासिक वेतन प्राप्त होता है और इसके अलावा कई तरह भत्ते और पेंशन दिए जाते हैं। 2012 में, पिछली बार तमिलनाडु ने पंचायत के अधिकारियों के लिए मानदेय को संशोधित किया था । तब यह 300 रुपये से बढ़ाकर 1,000 रुपये कर दिया गया था और बैठक शुल्क 50 रुपये से बढ़ाकर 100 रुपये किया गया था।
सिर्फ 1,000 रुपये ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिस (बीडीओ) में अनिवार्य साप्ताहिक बैठक या विकास परियोजनाओं के लिए अतिरिक्त धन की मांग के लिए जिला कलेक्टरेट तक नियमित जाने और विभिन्न सरकारी योजनाओं के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए पंचायत प्रमुख के खर्चों को कवर करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
हमारी श्रृंखला के पहले भाग में हमने देखा कि तमिलनाडु की महिला पंचायत नेताओं ने ग्रामीण शासन का चेहरा बदल दिया है। आज दूसरे भाग में, हम विशेष रूप से दलित और आदिवासी महिलाओं के नेताओं द्वारा सामना करने वाली वित्तीय चुनौती की जांच करेंगे । वे अपने घर में गरीबी से जूझते हैं और खराब वित्त पोषित विकास परियोजनाओं के लिए पैसे कैसे आए, इसके लिए लड़ती हैं।
परियोजनाओं के लिए कम बजट की समस्या से पंचायत के पुरुष नेताओं को भी सामना करना पड़ता है, लेकिन हाशिए के समुदायों से आई महिलाओं पर यह समस्या ज्यादा दबाव डालती है। कई कामकाजी महिलाओं की तरह, उन्हें सामाजिक और पारिवारिक दबावों से भी निपटना पड़ता है, क्योंकि वे पंचायत के लिए अतिरिक्त संसाधन लाने के लिए संघर्ष करते हैं। पुरुषों के विपरीत, वे, उच्च अधिकारियों के पुरुष-प्रभुत्व वाले नेटवर्क के साथ धन की पैरवी के लिए लंबे समय तक घर से दूर नहीं रह सकती हैं।
शिवगंगाई जिले के कुरुथंगुड़ी पंचायत (कलैर्यकोविल ब्लॉक) के राजेश्वरी ने कहा, "महिलाओं के लिए, एक दिन का समय निकालना और समय-समय पर जिला कलेक्टर की यात्रा करना मुश्किल होता है। उन्हें अपने परिवार और समाज से बहुत सारे सवालों का जवाब देना पड़ता है। हमें अक्सर पूछा जाता है, 'इतनी बार बाहर जाने और देर से आने की क्या जरूरत है? "
महिला नेताओं को अपने घरों से बाहर होने और यात्रा करने के लिए अपमान और बदनामी का सामना करना पड़ता है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (आईजीएनओयू) के जेंडर डिपार्टमेंट में सहायक प्रोफेसर जी. उमा, जिन्होंने तमिलनाडु के पंचायत शासन में महिलाओं पर शोध किया है, कहती हैं, "इससे पहले, पंचायत काम के लिए देर से बाहर रहने पर महिला नेताओं को 'चरित्रहीन' कहते हुए उनके पोस्टर गांव में लगाए जाते थे। राज्य सरकार द्वारा जिला कलेक्टरों को सख्त आदेश दिए जाने के बाद हालात थोड़ा बेहतर हो गए हैं।"
फिर भी, जब महिलाओं को नियमित वेतनभोगी नौकरी और परिवर्तन करने की शक्ति के बीच चयन करना होता है तो कई महिलाओं ने दूसरा विकल्प चुना है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने पाया है।
तमिलनाडु के धर्मपुरी जिले के आरक्षित जंगलों में सीटिलिंगी पंचायत के अध्यक्ष तेनमोझी ने राज्य के बिजली बोर्ड की ओर से नौकरी की पेशकश को छोड़ना पड़ा, क्योंकि वह एक निर्वाचित प्रतिनिधि के रूप में अपनी संवैधानिक भूमिका को पूरा करना चाहती थी । जब महिलाओं को नियमित वेतनभोगी नौकरी और समाज में परिवर्तन लाने को नेतृतव के बीच चयन करना होता है तो कई महिलाओं ने दूसरा विकल्प चुना है, जैसा कि इंडियास्पेंड ने पाया है।
तेनमोझी, जनजातीय मलयाली समुदाय से हैं और गणित में स्नातक हैं जिनका जिक्र हमने पिछली श्रृंखला में किया था। तेनमझी ने ने तमिलनाडु विद्युत मंडल से नौकरी की पेशकश को अस्वीकार कर दिया था, क्योंकि वे उसी समय अपने पंचायत के अध्यक्ष चुनी गई थी और बदलाव के एजेंडा को निर्धारित करना चाहती थी।
दलित महिला पंचायत अध्यक्ष में 50 फीसदी दिहाड़ी मजदूर
राज्य की ओर से, पंचायत अध्यक्षों को किसी भी तरह के वेतन रोजगार या मनरेगा के तहत रोजगार जैसा कोई भी काम, जिससे सरकारी धन प्राप्त होता है उस पर रोक है।
लेकिन जरा इस बात पर विचार करें कि ऐसी महिलाओं के लिए इसका अर्थ क्या है, जिनका परिवार दैनिक आय पर जीवित है। तमिलनाडु के छह जिलों में महिलाओं की अगुवाई वाली 32 पंचायतों के सर्वेक्षण में हमने पाया कि दलित और आदिवासी महिलाओं के पास लगभग कोई परिसंपत्ति नहीं है और परिवार की आय कम है।
जिन 12 दलित महिलाओं का हमने साक्षात्कार लिया, उनमें से छह दिहाड़ी मजदूर थीं और उनके पास किसी भी तरह की संपत्ति नहीं थी। अन्य छह की स्थिति थोड़ी बेहतर थी, जिनके पास 1-5 एकड़ जमीन थी। तीन आदिवासी महिलाओं में से दो के पास एक कमरे का घर था और उनका जीवन या तो दिहाड़ी मजदूरी या वन में से उत्पाद एकत्र करने पर निर्भर था। इसके विपरीत, प्रमुख जातियों जैसे कि थेवर, गौन्डर्स और वनिनीओं की महिलाओं को 10 एकड़ से 30 एकड़ तक की भूमि का पारिवारिक स्वामित्व था।
निजी नौकरियों में काम करने वालों के लिए, अन्य प्रकार की समस्याएं थीं। अरुंधतियार समुदाय से दलित महिलाओं पंचायत नेताओं, जो कि मुख्य रूप से थेवर और गुंडर्स जैसे प्रमुख जातियों के स्वामित्व वाले खेतों पर दैनिक मजदूरी के काम पर निर्भर थे, उनके लिए अल्प संसाधनों के साथ प्रबंध करने में विशेष रूप से कठिन समस्या थी।
विभिन्न जिलों और ब्लॉक कार्यालयों में आधिकारिक व्यवसाय की यात्रा के लिए अपने दैनिक मजदूरी का काम बंद करने का मतलब है दिन के वेतन का नुकसान, जिसे किसी भी रूप में पंचायत द्वारा मुआवजा नहीं दिया जाता है।
इसके अलावा, आने-जाने वाले सरकारी अधिकारियों को एक पंचायत नेता से नाश्ते की सेवा की उम्मीद होती है। अक्सर, वे उम्मीद करते हैं कि उनके वाहनों में पेट्रोल भरवाया जाए।
इग्नू के शोधकर्ता उमा कहती हैं, "एक विज़िटिंग इंजीनियर, जो सिविल वर्क्स या विज़िटिंग डिप्टी बीडीओ (ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिसर) की योजनाओं पर अनुमानित लागत तैयार करता है, अक्सर यह मांग करता है कि अध्यक्ष उनक ईंधन के लिए भुगतान करें। इन निचले स्तर के नौकरशाहों की सरकार द्वारा निर्धारित ईंधन सीमाएं हैं।"
इंडियास्पेंड ने इन समस्याओं को पहली बार तब देखा जब हमने एक पंचायत का दौरा किया, जहां एक ब्लॉक-स्तर के आधिकारि ने हमारे मना के बावजूद अध्यक्ष से रिफ्रेशमेंट की व्यवस्था पर जोर दिया। इसमें उनकी जेब से 300 रुपए का खर्च हुआ।
डिंडीगुल जिले में, गांधीमित्रा ग्रामीण विश्वविद्यालय के एक व्याख्याता जॉर्ज डिमिट्रोव ने सभी 25 दलित महिला पंचायत अध्यक्षों पर शोधपरक दस्तावेज तैयार किया है। उन्होंने पाया कि अरुणतीय समुदाय की 11 महिलाओं ने प्रमुख जाति के भूमिधारकों के खेतों में दैनिक मजदूरी के रूप में काम किया है। वेतन का अभाव उनकी स्वायत्तता को प्रभावित करता है और उनके नियोक्ताओं की मांगों का विरोध करने के लिए उन्हें मुश्किल स्थिति में ला देता है।
सरोजा कृष्णागिरि जिले में कक्कडसम पंचायत की प्रमुख हैं, लेकिन वास्तव में उनके पति इसे नियंत्रित करते है। उनके लिए, मनरेगा ज्यादा महत्वपूर्ण है। सरोजा कहती हैं, "मैं इस अवधि को जल्द समाप्त करना चाहती हूं ताकि मैं मनरेगा के काम के लिए जा सकूं। मैं इस घर में एक गुलाम की तरह महसूस करती हूं। मनरेगा काम मुझे स्वतंत्रता देता है और महिलाओं के एक समुदाय में जगह देता है, जहां मैं खुलकर बात कर सकती हूं। इस काम ने मुझे कोई वास्तविक शक्ति दिए बिना मेरी स्वतंत्रता को छीन ली है। "
तमिलनाडु के पड़ोसी राज्य, केरल, ने अपने पंचायत नेताओं को 13,200 रुपये का मासिक भुगतान किया, जो देश में सबसे ज्यादा है। तेलंगाना ने हाल ही में वेतन को 5000 रुपये में बदल दिया है, जबकि आंध्र प्रदेश और कर्नाटक ने इसे 3,000 रुपये किया है।
कुछ भारतीय राज्यों में पंचायत अध्यक्षों की आय
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Income Of Panchayat Presidents In Some Indian States | ||
---|---|---|
State | Salary | Honorarium |
Goa | 4000 | |
Maharashtra | 1000 | |
Gujarat | 500 | |
Jharkhand | 1000 | |
Bihar | 2500 | |
West Bengal: | 3000 | |
Odisha | 1000 | |
AP | 3000 | |
Telangana | 5000 | |
Karnataka | 3000 | |
Kerala | 13200 | |
Tamil Nadu | 1000 | |
Haryana: | 3000 | |
HP | 3000 | |
Punjab | 1200 | |
Uttar Pradesh | 3500 |
Source: Data collected from state panchayat raj department websites
बाधाओं के बावजूद कैसे प्रबंधन करती हैं महिलाएं?
जैसा कि हमने इस श्रृंखला के पहले भाग में बताया, उन सेवाओं में निवेश करने के लिए जिन्हें उनके पुरुष पूर्ववर्तियों द्वारा उपेक्षित किया गया था, महिला नेता अपने सौंपे गए कर्तव्यों से अलग कुछ कर रही थीं, जैसे कि पीने के पानी, स्वच्छता, स्ट्रीट लाइट्स, सड़क मरम्मत का काम।
लेकिन जिस प्रकार तमिलनाडु में पंचायत वित्त संरचित होता है अतिरिक्त धन जुटाना मुश्किल है। पंचायत के तीन राजस्व स्रोत हैं:
- पंचायत स्वयं द्वारा एकत्र की गई खुद की राजस्व;
- केन्द्रीय और राज्य वित्त आयोगों द्वारा निर्दिष्ट फार्मूले के आधार पर केन्द्र और राज्य से संसाधित धन;
- राज्य द्वारा दक्षता के लिए एकत्र किए गए करों से निर्दिष्ट किया गया राजस्व, लेकिन पूरी तरह से पंचायतों को सौंप दिया गया।
हमारे विश्लेषण के अनुसार, जिन पर पंचायतों का पूर्ण नियंत्रण है, उनका राजस्व, कुल राजस्व का केवल 10 फीसदी का गठन करता है। ये मुख्य रूप से उन करों से होते हैं जो पंचायत अपने निवासियं से लेते हैं - घर कर, व्यवसाय कर, पानी कर, विज्ञापन कर और कुछ लाइसेंस और फीस।
तमिलनाडु में तीन गांवों के एक सूक्ष्म अध्ययन में, इंस्टीट्यूट ऑफ फाइनेंशियल मैनेजमेंट रिसर्च (आईएफएमआर) ट्रस्ट के आनंद साहस्रनमन ने अनुमान लगाया है कि यह अपना राजस्व आम तौर पर बहुत कम है: यह कुल गांव आय का केवल 0.15 फीसदी से 0.2 फीसदी है।
घर कर की दरें ( अपने राजस्व का सबसे बड़ा स्रोत ) कई वर्षों में संशोधित नहीं किया गया है और संपत्तियों के आकार के बावजूद उन्हें बराबर रखा गया है। यदि पंचायत अपने कर संग्रह को गांव की आय का 2.5 फीसदी तक बढ़ाते हैं , तो उनकी स्वयं की राजस्व 15 गुना बढ़ जाएगी,जैसा कि सहस्रनमन के अध्ययन में बताया गया है।
राज्य सरकार ने घर कर एकत्र करने के लिए मिलान अनुदान भी समाप्त कर दिया है, जो बेहतर कर संग्रह के लिए प्रोत्साहन है।
इस प्रकार, पंचायत सौंपे गए अनुदानों जमा किए गए राजस्व पर निर्भर है जो कुल राजस्व का दो-तिहाई हिस्सा बनाती है।
चौथे राज्य वित्त आयोग (एसएफसी) (2012-2016) की सिफारिशों के आधार पर, राज्य सरकार ने शहरी और ग्रामीण स्थानीय निकायों को 42:58 के अनुपात में अनुदान के रूप में राज्य कर राजस्व का 10 फीसदी दिया है। ग्राम पंचायत को 60 फीसदी सौंपा गया है, जो ग्रामीण प्रशासन की तीन श्रेणियों में सबसे ज्यादा है।
हालांकि, राज्य सरकार ने एसएफसी अनुदान बढ़ा दिया है, 'यूनाइटेड फंड' जिसका उपयोग स्वतंत्र रूप से किया जा सकता है, 1997 में 8 फीसदी से 2012 में 10 फीसदी, लेकिन उन पर नौकरशाही अनुमोदनों की अधिक जटिल व्यवस्था है। उदाहरण के लिए, पंचायतों के एसएफसी अनुदानों का 10 फीसदी अब इंफ्रास्ट्रक्चर गेप फिलिंग फंड के लिए आरक्षित है, जो कि जिला कलेक्टर के प्रत्यक्ष नियंत्रण के अधीन है।
तमिलनाडु सरकार के पंचायतों को आवंटन
तमिलनाडु में हर पंचायत की एक समान एसएफसी अनुदान 3 लाख रुपये (2015 में 14 वीं केंद्रीय वित्त आयोग की बढ़ोतरी के बाद 5 लाख रुपये से घटाकर) और आबादी के आधार पर एक अतिरिक्त अनुदान मिलता है। 2,000 की आबादी वाली पंचायत को 5 लाख से 8 लाख रुपये तक प्राप्त होती है जो एसएफसी के अनुदान से जुटाई जाती है।
यह वित्त व्यवस्था, हालांकि सभी पंचायतों के लिए समान है, महिला नेतृत्व वाले पंचायत को ज्यादा प्रभावित करता है।
बड़े विकास परियोजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश की आवश्यकता होती है, जो कई वर्षों तक लॉबिंग के बाद आती है। तेनमोझी ने, जैसा कि हमने अपनी पिछली श्रृंखला में बताया था, सात गांवों से 5,000 लोगों को जोड़ने वाले पुल का निर्माण करने के लिए 30 करोड़ रुपये की सहायता के लिए केंद्र से दो साल तक पैरवी की थी।
“मुझे हर चीज के लिए संघर्ष करना पड़ा ”
पैरवी के लिए समय, प्रयास और जिला कलेक्टर के अधिकारियों तक पहुंच की जरुरत होती है।
महिलाओं के लिए इन सभी चीजों में निवेश करना कठिन होता है।कुरुथंगुड़ी पंचायत की राजेश्वरी विभिन्न जिलों के लिए धन जुटाने में अपने कौशल के लिए अपने जिले में लोकप्रिय है। लेकिन एक पारेर दलित के लिए, यह कभी बहुत आसानी से नहीं हुआ है। उन्होंने अपनी कहानी इस प्रकार बताई:-
"मुझे सब कुछ के लिए संघर्ष करना पड़ा है- राशन दुकान, स्कूल, पुस्तकालय। इनके निर्माण के लिए हमारे पास कोई धन नहीं था। ज्यादातर बड़ी योजना निधि के साथ-साथ नाबार्ड (नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवेलपमेंट) फंड्स का प्रबंधन पंचायत के सहायक निदेशक द्वारा किया जाता है। हमें धन प्राप्त करने के लिए नियमित रूप से अपना चेहरा दिखाने की आवश्यकता होती थी। पुरुष सीधे उनके पास जाते हैं बैठते हैं और समय बिताते हैं और धन सुनिश्चित करते हैं। हम ऐसा नहीं कर सकते। "
राजेश्वरी अपने परिवार के समर्थन और एक पति जिसकी सरकारी नौकरी है, के कारण यात्रा के लिए समय और खर्च का प्रबंधन करने में सक्षम है। लेकिन यह अन्य दलित और आदिवासी महिला अध्यक्षों की कहानी ऐसी नहीं है।
मेलमारुनगांव पंचायत का मजोरकोड़ी धनसेकर (बाएं) एक प्रमुख जाति से है, और उसके परिवार के पास 15 एकड़ जमीन है। स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत शौचालयों के निर्माण के लिए उन्होंने अपने खुद के एक लाख रुपये खर्च किए हैं। प्रेमा (बीच में) और राजेश्वरी (दाएं) जैसे नेता, कुरथुगुडी और सिलाकपाट्टी पंचायतों के दलित प्रत्याशी को धन के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती हैं। इसके लिए समय, प्रयास और अधिकारियों तक पहुंच - उनके पुरुष समकक्षों के लिए ज्यादा आसान होता है।
शिवगंगाई जिले में सिलाकपाट्टी पंचायत के अध्यक्ष, प्रेमा जैसी स्वयं-रोजगार वाली महिलाएं, जो अपने गांव में एक छोटी सी दुकान चलाती हैं, उनके लिए भी यह काफी कठिन होता है, क्योंकि दुकान बंद करने का अर्थ है व्यापार का नुकसान।
धन के अन्य महत्वपूर्ण स्रोत जैसे विधायक और एमपी फंड और जिला और ब्लॉक पंचायत संघों (स्थानीय प्रशासन के अतिरिक्त स्तर) से धन पुरुष-प्रभुत्व वाले नेटवर्क तक राजनीतिक पहुंच की आवश्यकता है। महिला नेताओं ने कहा, यह विशेष रूप से पहली बार बनी महिला अध्यक्ष के लिए कठिन काम है। हालांकि पंचायत के नेताओं को राजनीतिक दलों से संबद्ध नहीं माना जाता है, लेकिन इस तरह की जुगतें अब आम हैं और अक्सर, फंडिंग का निर्धारण करते हैं।
मंजुला, जो मल्लचंदाराम पंचायत (क्रमिक रूप से कृष्णगिरी जिले में ब्लॉक) की अध्यक्ष हैं, वह 26 करोड़ रुपये के सार्वजनिक कार्यों की मंजूरी पाने में कामयाब रही हैं। इसमें एक नया उच्च विद्यालय भवन, कई सड़कें और एक राशन दुकान शामिल है। यह शायद इसलिए हो पाया क्योंकि उनके पति अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कझगम (एआईएडीएमके) की जिला इकाई के सदस्य हैं।
वह कहती हैं, "विधायकों और जिला और ब्लॉक अध्यक्ष भी पार्टी के वफादार हैं। यहां, यदि आप अन्नाद्रमुक से हैं, तो अधिक धन प्राप्त करने का अधिक मौका है। इसके अलावा विधायक प्रत्येक ब्लॉक के लिए कुछ राशि आवंटित करते हैं, वे केवल कुछ पंचायतों को राशि दे सकते हैं। इसलिए उनका ध्यान केंद्रित करने के के लिए उनके निर्वाचन क्षेत्र में हमें लगातार दिखना पड़ता है। "
मंजुला, जो मल्लचंदाराम पंचायत (क्रमिक रूप से कृष्णगिरी जिले में ब्लॉक) की अध्यक्ष हैं, वह 26 करोड़ रुपये के सार्वजनिक कार्यों की मंजूरी पाने में कामयाब रही हैं। यह शायद इसलिए हो पाया, क्योंकि उनके पति अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कझगम (एआईएडीएमके) की जिला इकाई के सदस्य है। पार्टी के प्रति वफादार रहने वाले नेताओं को विधानसभा और संसद के सदस्यों से आवंटित धन प्राप्त करने की बेहतर संभावनाएं हैं।
शिवगंगाई जिले में मेलमारुनगोर के प्रमुख दल की शक्तिशाली अध्यक्ष, मझरकोड़ी धनसेकर जिनकी खुले में शौच के खिलाफ अभियान को हमने अपनी पिछली श्रृंखला में बताया है, उन्हें स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालयों के निर्माण के लिए अपने 1 लाख रुपये खर्च करने पड़े हैं। प्रमुख मारवार समुदाय के एक सदस्य के रूप में उनके लिए यह आसान था।
उन्होंने कहा, "मैं ऐसा कर सकती हूं क्योंकि हम आर्थिक रूप से बेहतर हैं और मेरे पति ने कोई आपत्ति नहीं की। कई स्त्रियों के पास न तो पैसा है और ना ही आजादी है। आवश्यक बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए हमें अधिक धन की आवश्यकता है। "
ऊपरी जाति के नियोक्ता महिला नेताओं को करते हैं त्रस्त
2006 के बाद से, तमिलनाडु में पंचायतों ने बढ़ते सरकारी नियंत्रण और सिकुड़ते स्वायत्तता के साथ अधिक नौकरशाही देखा है। नियमित रखरखाव के कार्यों के लिए जरूरी धनराशि पर स्वायत्तता, जैसे कि स्ट्रीट लाइट्स की मरम्मत, को कड़ा कर दिया गया है। निचले-स्तर के ब्लॉक अधिकारियों को अब पंचायतों पर अधिक नियंत्रण के लिए नियुक्त किया गया है।
कल्पना सतीश, जिन्होंने महिला पंचायत के अध्यक्षों को प्रशिक्षित किया है और महिला पंचायत अध्यक्षों के साथ काम किया है, कहती हैं, "इससे पहले, बीडीओ केवल अध्यक्षों को सलाह दे रहे था अब डिप्टी बीडीओ के पास अधिक नियंत्रण है। पंचायत अध्यक्ष उनकी अनुमति के बिना चेक पर हस्ताक्षर नहीं कर सकते हैं। यहां तक कि अनछुए धन के लिए, अध्यक्षों को एक प्रस्ताव बनाने और बीडीओ को भेजना होगा और उनकी मंजूरी का इंतजार करना होगा। "
तमिलनाडु के पंचायत नियमों के मुताबिक, इंजीनियरों की मंजूरी के बिना अध्यक्ष पंपों के मरम्मत के लिए 600 रुपये तक और मोटर पंप रखरखाव के लिए 7,500 रुपये खर्च कर सकते हैं। अध्यक्षों को किसी भी तकनीकी मंजूरी के बिना तत्काल सार्वजनिक कार्यों के लिए एक समय में 2,000 रुपये या प्रति वर्ष 5,000 रुपये तक की अनुमति है। महिला नेताओं ने कहा, यह पूरी तरह से अपर्याप्त है।
डिंडीगुल में कोलमबर पंचायत के दलित अध्यक्ष तुलसीमानी (30) पूछती हैं, " पाइपलाइनों, मोटर्स और उनके रखरखाव के साथ हर दिन कुछ समस्या होती है ।क्या 2,000 रुपये पर्याप्त हैं? "
थुलसिमनी अक्सर ऊपरी जाति वाले गौडर पुरुषों से जातिवादी हमलों का शिकार रही हैं, क्योंकि उन्होंने अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठने की हिम्मत की थी।
तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले में कोमबर के दलित अध्यक्ष थुलसिमनी, अक्सर ऊपरी जाति गौंडर पुरुषों से जातिवादी हमलों का शिकार रही हैं। अध्यक्षकों को किसी भी तकनीकी मंजूरी के बिना जरूरी सार्वजनिक कार्यों के लिए एक समय में 2,000 रुपये तक की अनुमति है। 2006 के बाद से, तमिलनाडु में पंचायतों ने बढ़ते सरकारी नियंत्रण और सिकुड़ते स्वायत्तता के साथ अधिक नौकरशाही देखा है। ब्लॉक अधिकारियों को अब पंचायतों पर अधिक नियंत्रण रखने की छूट मिली है।
वह कहती हैं, "जब मोटर पम्प ठीक करने के लिए हमें खासकर ऊपरी जातियों से कॉल आता है, तो हमारे पास अनुमान और अनुमोदन के लिए इंतजार करने का समय नहीं होता है। कभी-कभी हमें क्रेडिट मिल जाता है, लेकिन कई बार हमें लेन-देनदारों के हित में भी उधार लेना पड़ा है।"
इन सभी संरचनात्मक चुनौतियों के बावजूद, महिलाएं बुनियादी सेवाओं से अलग भी अच्छा काम कर रही हैं । इसमें सिस्टम का कोई सहयोग नहीं है, बल्कि यह उनकी जिद की वजह से है।
यह तमिलनाडु में पंचायत की महिला नेताओं पर पांच लेखों के श्रृंखला का दूसरा भाग है। पहला भाग आप यहां पढ़ सकते हैं।
(राव GenderandPolitics की ‘को-क्रिएटर ’ हैं। यह एक ऐसी परियोजना है, जो भारत में सभी स्तरों पर महिला प्रतिनिधित्व और राजनीतिक भागीदारी को ट्रैक करती है।)
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 23 मार्च, 2018 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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