नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश के अमेठी ज़िले की रहने वाली विद्या कौशल (22) ने छह महीने का ब्यूटीशियन का कोर्स किया और फिर अपने गृह नगर जगदीशपुर में 'She' नाम से अपना सलून शुरु किया। विद्या ने पिछले साल ही स्नातक की डिग्री हासिल की है। उनका परिवार चाहता था कि वो शिक्षक बने लेकिन उन्होंने एक उद्यमी बनना तय किया।

सलून शुरु करने के लिए विद्या ने 50,000 रुपए का निवेश किया। गांधी परिवार के असर वाला जगदीशपुर कभी औद्योगिक क्षेत्र हुआ करता था। लेकिन पिछले एक दशक में यहां फ़ैक्ट्रियां बंद हुर्ई हैं और रोज़गार के अवसर कम होते गए हैं लेकिन मार्च 2020 में शुरू हुआ विद्या का ब्यूटी पार्लर ठीक ठाक चल रहा था।

दो हफ्ते बाद, देश में कोविड-19 से निपटने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन घोषित हो गया। सख्त सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों के साथ, सौंदर्य का व्यवसाय अस्थिर हो गया। 'She' को बंद होना पड़ा। अनलॉक के साथ ही एक बार फिर जुलाई में पार्लर खुल गया, लेकिन कुछ ही ग्राहक आते हैं, विद्या ने कहा, हालांकि वह पार्लर में स्वच्छता और शारीरिक दूरी का ख़्याल रखती हैं।

"अगर दिन अच्छा हो तो पांच ग्राहक आ जाते हैं; ज़्यादातर दिन इससे कम ग्राहक ही आते है। लोग वास्तव में डरे हुए हैं। मुझे महीनों तक नुकसान हुआ है और अगर मैं कीमतें बढ़ाती हूं, तो ग्राहक भुगतान करने से इनकार करते हैं। अकेले पार्लर चलाना भी मुश्किल है," विद्या ने कहा। उन्होंने उम्मीद जताई कि शादियों इस सीज़न से उनका काम थोड़ा बढ़ेगा।

हमने लखनऊ, इलाहाबाद, सीतापुर और अमेठी सहित उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में अपनी रिपोर्टिंग में पाया कि महिलाओं में सिर्फ़ उद्यमी ही नहीं हैं जो संघर्ष कर रहे हैं। शहरों में निर्माण स्थलों, कॉल सेंटरों, हस्तशिल्प, खुदरा इकाइयों और घरेलू मदद के रूप में काम करने वाली महिलाओं की नौकरियां चली गई हैं। गांवों में, सार्वजनिक रोज़गार योजनाओं में महिलाओं की भागीदारी कम हुई है। शहरों से लौटे पुरुषों ने उनकी जगह ले ली है।

महिलाओं के रोज़गार पर लॉकडाउन के प्रभाव पर प्रारंभिक शोध से वही पता चलता है जो शरुआती ख़बरों से पता चला था। रोज़गार में गिरावट लिंग-तटस्थ नहीं है। "रोज़गार में पहले से मौजूद पुरुषों और महिलाओं के बीच बड़े अंतराल को देखते हुए, महिलाओं की तुलना में पुरुषों ने ज़्यादा रोज़गार खोया है। हालांकि, लॉकडाउन से पहले, पुरुषों की तुलना में महिलाओं के नियोजित होने की संभावना लगभग 20% कम थी, अशोका यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर, अश्विनी देशपांडे की रिपोर्ट में कहा गया। उन्होंने सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़ों की पड़ताल की थी।

तीन-भागों की इस श्रृंखला में, इंडियास्पेंड देश में रोज़गार और आजीविका पर कोविड-19 संकट के प्रभाव की जांच कर रहा है। पहले भाग में, हमने उन श्रमिकों के बारे में बताया जो दक्षिणी राजस्थान के गांवों में वापस आ गए थे। दूसरे भाग में, हमने ओडिशा के प्रवासी श्रमिकों की सूरत और अन्य प्रवासी स्थलों की वापसी की बात की। इस तीसरे और समापन भाग में, हम बताएंगे उत्तर प्रदेश के श्रमबल, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं का जीवन कैसे महामारी से प्रभावित हुआ है।

महामारी से पहले भी, भारत के श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों से कम थी, जैसा कि इंडियास्पेंड ने अपनी श्रृंखला Women@Work में बताया है। भारत में यह दर केवल 24% है जो दक्षिण एशिया में सबसे कम है, आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के अनुसार।

महिला रोज़गार के मामले में सबसे कम दर वाले राज्य बिहार (2.8%), उत्तर प्रदेश (9.4%), असम (9.8%) थे, सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण (2017-18) के राज्यवार विश्लेषण के अनुसार ।


मंदी से प्रभावित महिलाओं के व्यवसाय

आंकड़े बताते हैं कि विद्या कौशल और उन जैसी महिलाओं के व्यवसाय को इस संकट से भारी नुकसान हुआ है।

देश के सौंदर्य उद्योग के प्रतिनिधियों, ज्यादातर सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (एमएसएमई), ने लॉकडाउन के दौरान एमएसएमई मंत्री नितिन गडकरी से सरकारी सहायता की मांग की थी। उन्होंने बताया कि इस श्रेणी के व्यवसायों में 70 लाख लोगों की नौकरियां पर तलवार लटकी थी। इन व्यवसायों में हर तीन में से दो कर्मचारी महिला या प्रवासी श्रमिक हैं।

महामारी संकट में सबसे अधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्र - रेस्तरां, खुदरा, सौंदर्य, पर्यटन, शिक्षा, घरेलू काम, और युवा और बुजुर्गों के लिए देखभाल - में महिलाओं की भागीदारी ज़्यादा है, आजीविका पर काम करने वाले संगठन Labournet की चेयरपर्सन, गायत्री वासुदेवन ने कहा।

अपने परिवार की बचत से अपना व्यवसाय शुरू करने वाली विद्या को सरकार से किसी भी तरह की मदद की उम्मीद नहीं है। "मेरे आसपास के सभी व्यवसाय बर्बाद हो गए हैं और हमें अपने दम पर कुछ करना होगा," उन्होंने कहा।

73% महिला उद्यमी लॉकडाउन और महामारी से प्रभावित हुई हैं, 21% की आमदनी लगभग बंद हो चुकी है, मैनेजमेंट कंसलटेंट कंपनी, बैन एंड कंपनी की एक रिपोर्ट में कहा गया है। सर्वे में शामिल 35% महिलाओं ने आमदनी में महत्वपूर्ण गिरावट (25% -75%) की सूचना दी। रिपोर्ट में कहा गया है कि लॉकडाउन के दौरान अतिरिक्त घरेलू काम का बोझ बढ़ने की वजह से महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक प्रभावित हुई हैं।


शिल्प इकाइयां बंद

लॉकडाउन और आर्थिक मंदी ने लैंगिक असमानताओं को बढ़ा दिया है, कई रिपोर्टों में (यहां, यहां और यहां) यह बताया गया है। महिलाओं ने नौकरी और आजीविका खो दी है, जबकि उन पर घरेलू काम का बोझ भी बढ़ा है।

भारत में महिलाओं को मिलने वाले काम कम विकास, कम उत्पादकता वाले क्षेत्रों में सीमित हैं, मुख्य रूप से कृषि आधारित या घर पर ही अनौपचारिक काम। अनुमान है कि लखनऊ में 250,000 चिकनकारी और ज़रदोज़ी श्रमिक हैं - ऐसे शिल्पकार जिन्हें कढ़ाई में कौशल की आवश्यकता होती है। इन शिल्पकारों में से अधिकांश महिलाएं हैं, और लॉकडाउन के दौरान मांग घटने के साथ, अधिकांश ने नौकरी और कमाई खो दी है।

"लॉकडाउन के बाद से काम पूरी तरह से रुक गया है। ये महिलाएं अपने परिवार की मदद करती हैं, लेकिन वे गायब हैं," उत्तर प्रदेश की एक एक्टिविस्ट और एक एनजीओ नेशनल अलायंस ऑफ़ पीपुल्स मूवमेंट की संयोजक, अरुंधति ध्रुव ने कहा।

विशेषज्ञों ने कहा कि 2018-19 में भारत के श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी आज़ादी के बाद से सबसे कम हुई है - 18.6% - आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार, महामारी का भारत में महिला रोज़गार पर गंभीर परिणाम पड़ सकता है, विशेषज्ञों ने कहा।

"जहां तक ​​महामारी के सामाजिक-आर्थिक असर का संबंध है, महिलाएं सबसे ज़्यादा प्रभावित हुई हैं," टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ के एडवांस्ड सेंटर फ़ॉर वुमेन स्टडीज़ की पूर्व प्रोफ़ेसर, विभूति पटेल ने कहा। "यह सिर्फ बढ़े हुए देखभाल के काम के कारण नहीं है, यह हकदारी के कारण भी है - जब भी बेरोज़गारी की दर अधिक होती है, तो पुरुषों को प्राथमिकता मिलती है [नौकरियों के लिए] क्योंकि उन्हें कमाने वाला और महिलाओं को गृहिणी के रूप में देखा जाता है। आर्थिक समृद्धि के समय में, महिलाओं को अंत में काम पर रखा जाता है, और एक संकट के दौरान उन्हें पहले निकाल दिया जाता है।"


पुरुषों को तरजीह

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में, जहां महिलाओं पर सामाजिक और सांस्कृतिक प्रतिबंध हैं, वर्तमान संकट के प्रभाव और भी अधिक लिंग-विषम हैं, विशेषज्ञों ने कहा। 2017-18 में, शहरी क्षेत्रों में केवल 8.2% और ग्रामीण क्षेत्रों में 9.7% महिलाएं राज्य के श्रमबल में थीं।

इस साल मई में, उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत महिलाओं के रोज़गार के मुद्दे को हल करने के उपायों की घोषणा की। इनमें से एक योजना राज्य की सभी 58,000 ग्राम पंचायतों में बैंकों और महिला ग्राहकों के बीच संबंधों के रूप में कार्य करने के लिए 'बैंकिंग कॉरेस्पॉन्डेंट सखी'नियुक्त करने की थी। अन्य परियोजनाओं में मास्क बनाने, व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों के निर्माण और स्कूल की वर्दी की सिलाई शामिल थे।

"उत्तर प्रदेश, श्रम में महिलाओं की भागीदारी के मामले सबसे ख़राब प्रदर्शन करने वाले राज्यों में से एक रहा है। हमारे पास संख्या नहीं है, लेकिन हमें लगता है कि लॉकडाउन के बाद से भारी गिरावट आई है," नेशनल अलायंस ऑफ़ पीपुल्स मूवमेंट की अरुंधति ने कहा।

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार सृजन योजना (मनरेगा) में महिलाओं की भागीदारी पर लॉकडाउन का क्या असर पड़ा, इस अनौपचारिक मूल्यांकन के लिए अरुंधति ने सीतापुर, हरदोई और उन्नाव ज़िलों का दौरा किया। उन्होंने पाया कि इस योजना के तहत काम करने वाली महिलाओं की जगह उनके पति, प्रवासी कामगारों ने ले ली थी, जो लॉकडाउन के दौरान लाखों की संख्या में शहरों से लौटे थे। "जैसे ही पुरुष नौकरियों के लिए जाते हैं, महिलाओं के लिए दरवाज़े बंद हो जाते हैं," उन्होंने कहा।

उत्तर प्रदेश में 21 लाख से अधिक प्रवासी श्रमिकों की घर वापसी के साथ, इस वर्ष मनरेगा के तहत काम की अभूतपूर्व मांग थी। जून में रिपोर्ट किए गए राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार, इस योजना के तहत रोज़गार देने वाले राज्यों की सूची में यूपी सबसे ऊपर है - 57 लाख श्रमिक। राजधानी लखनऊ के ठीक बाद सीतापुर ज़िले से सबसे अधिक संख्या - 191,000 थी।

मनरेगा का ज़्यादातर काम पुरुषों को मिलता है, सीतापुर ज़िले में महिलाओं के अधिकारों और आजीविका के मुद्दे पर काम कर रहे संगठन, संगतिन किसान मज़दूर संगठन की ऋचा सिंह ने कहा। "महिलाओं के लिए 33% आरक्षण के प्रावधान के बावजूद, हमारे ज़िले में मनरेगा में महिला श्रमिकों का अनुपात देश में सबसे कम 5% था। अब इसमें सुधार हुआ है और यह 20% के करीब है। महिलाओं के लिए इस क्षेत्र में काम करना आसान नहीं है," उन्होंने कहा।

2006 में, जब देश में यह योजना शुरू की गई थी, तब सीतापुर ज़िले की 46 वर्षीय रामबेटी पहली महिला थीं जिन्होंने अपने गांव में मनरेगा के तहत काम की मांग की थी। उनके गांव, अलीपुर से अधिकांश परिवार काम के लिए शहरों की ओर पलायन करने लगे थे, लेकिन वे अपने पति और चार बच्चों के साथ वहीं रहीं। परिवार ने अपनी सात बीघा ज़मीन पर खेती करके और मनरेगा के काम से गुज़ारा किया। रामबेटी को मनरेगा के तहत एक महीने में औसतन 10 से 12 दिन का काम मिलता है। जब दिवाली से कुछ दिन पहले इंडियास्पेंड ने उनसे संपर्क किया, तो वह अपने गांव के बाहर एक मनरेगा साइट पर काम कर रही थीं।

"एक बार जब आप शहर चले जाते हैं, तो गांव में काम करना आसान नहीं होता है। आपको पंचायत के साथ काम करने के अपने अधिकार के लिए लड़ना होता है। आपको लंबी दूरी तक चलना होता है और सूरज तपिश में खड़े होकर कठिन श्रम करना होता है," रामबेटी ने कहा, जो संगतिन किसान मज़दूर संगठन के हिस्से के रूप में मनरेगा में काम करने के लिए अपने गांव की महिलाओं को जुटाती हैं।

रामबेटी ने जो महिलाएं जुटाई हैं, उनमें से एक सुनीता देवी हैं, जो जुलाई में जयपुर से अलीपुर लौटी थीं, जब उनके पति ने एक निजी कंपनी में अपनी नौकरी गंवा दी थी। उसके 10, सात और दो साल की उम्र के तीन बच्चे हैं, और यह पहली बार है जब उन्होंने कोई ऐसा काम किया है जिसके उन्हें पैसे मिले हैं। "मुझे खुदाई करना और कीचड़ में काम करने में बहुत मुश्किल आई, लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। हमारे बच्चों को शिक्षा की ज़रूरत है और मेरे पति को उनकी नौकरी वापस नहीं मिली है," उन्होंने कहा। परिवार के पास दो बीघा ज़मीन है, जिस पर वे गेहूं और मूंगफली की खेती करते हैं। "वहां पर्याप्त पानी नहीं है क्योंकि मिट्टी सूखी है और उपज कम है। यह काफ़ी नहीं है," उन्होंने कहा।


सब-कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाली महिलाओं की आमदनी घटी

भारत में जो महिलाएं घर से काम करती हैं उन्हें काफ़ी कम मेहनताना मिलता है, अदृश्य, मगर वो घरेलू और वैश्विक सप्लाई चेन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

भारत की श्रम श्रृंखला में वे सबसे निचले पायदान पर हैं, जैसा कि इंडियास्पेंड की इस रिपोर्ट में कहा गया है। उदाहरण के लिए कपड़ा और वस्त्र उद्योग में उन्हें हर पीस के हिसाब से भुगतान किया जाता है। घर से होने वाले अन्य कामों में पापड़ और अगरबत्तियां बनाना और बीड़ी बनाना शामिल है। भारत में 3.7 करोड़ से अधिक श्रमिक हैं जो घरों से काम करते हैं, इनमें से अधिकांश महिलाएं हैं। महामारी से पहले एक दिन में औसतन 40 से 50 रुपए कमाने वाली ये महिलाएं हाशिये पर चली गई हैं।

मार्च और जुलाई के बीच अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करने वाली 15 लाख महिलाओं की यूनियन, सेल्फ़-एम्पलाइड वीमेन एसोसिएशन ने जो आंकलन किया उसके अनुसार जो महिलाएं हस्तशिल्प, सर्विस और वित्तीय क्षेत्रों में काम करती हैं उनकी आमदनी कम हो गई है क्योंकि या तो वो उद्यम पूरी तरह से बंद हो चुके हैं या फिर उन्होंने अपने कर्मचारियों की संख्या घटाकर 50% से कम कर दी है। "अनौपचारिक महिला श्रमिकों की सहायता में सामूहों की भूमिका पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। जो इन सामूहों से जुड़े थे, इस संकट में उन्हें एक सहारा मिला," सेवा संगठन की सीनियर कोऑर्डिनेटर, सलोनी मुरलीधर हिरियुर ने कहा।

रानी केवल आठ साल की थीं जब उन्होंने ज़रदोज़ी का काम सीखा और अपने परिवार की मदद करनी शुरू की। इस साल उन्होंने 15 साल में पहली बार अपनी सुई का इस्तेमाल नहीं किया।

"मैं सात घंटे काम करती थी और मुझे 150 रुपए मिलते थे। मेरी आंखें खराब हो गई हैं क्योंकि काम बहुत जटिल है, मैं अब शायद ही ये काम कर सकूं," रानी ने बताया। रानी को उम्मीद है कि अगले साल बाजार ठी हो जाएगा और वह एक कार्यशाला खोल सकेगी।

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