भोपालः जनवरी की दोपहर में भोपाल में अपने पड़ोसी के घर के बाहर बैठे मान सिंह परिहार, 74, गुस्से में हैं। उन्हें पिछले कुछ दिनों से बुखार और शरीर में दर्द है। उन्होंने पिछले दिसंबर में पूरी जानकारी के बिना कोविड-19 वैक्सीन ट्रायल में हिस्सा लिया था। उन्हें लगता है कि टीका लगाए जाने के कारण उन्हें इन परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।

इंडियास्पेंड के साथ इस बातचीत से पहले तक उन्हें यह ध्यान नहीं आया था कि उन्हें उस हॉस्पिटल को फ़ोन करना चाहिए, जहां उन्हें इंजेक्शन लगाया गया था। क्लिनिकल ट्रायल के प्रायोजकों और जाँचकर्ताओं को हिस्सा लेने वाले लोगों के स्वास्थ्य की निगरानी और उसका रिकॉर्ड रखना होता है। इसके बाद परिहार ने अपने बेटे से हॉस्पिटल को फ़ोन करने के लिए कहा, लेकिन उनके बेटे के फ़ोन में बैलेंस नहीं था । परिहार के बेटे की टीबी के कारण कुछ महीनों पहले नौकरी छूट गई थी और उसके बाद से उसके फोन में बैलेंस नहीं है। फोन करने के लिए पैसे नहीं होने के कारण, परिहार वैक्सीन ट्रायल के बाद अपनी खराब सेहत को लेकर डॉक्टर से संपर्क नहीं कर सकते थे। उन्होंने बताया कि उन्हें किसी ने फ़ोन भी नहीं किया है।

"दिसंबर में इस इलाके में एक ट्रक आया था और लाउडस्पीकर पर घोषणा की गई थी कि जो भी व्यक्ति कोविड-19 वैक्सीन और इसे लगवाने के लिए 750 रुपये चाहता है, वह पास के पीपल्स हॉस्पिटल में जाकर इसे लगवा सकता है। मुझे पैसे की जरूरत थी," परिहार ने बताया. इंडियास्पेंड ने उत्तर भोपाल में गरीब नगर और ओरिया बस्ती में लगभग एक दर्जन लोगों से बात की और उन सभी ने ऐसी ही जानकारी दी।


परिहार कोवैक्सीन की बात कर रहे रहे थे, जिसे भारत में रेस्ट्रिक्टेड इमरजेंसी अप्रूवल दिया गया है, इसका अभी तक क्लिनिकल ट्रायल चल रहा है। देश में बनी इस वैक्सीन को एक प्राइवेट कंपनी, भारत बायोटेक और एक सरकारी एजेंसी इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने मिलकर विकसित किया है।

ट्रायल में गड़बड़ियों की ख़बरें मिलने के बाद, इस रिपोर्टर ने भोपाल के कम आमदनी वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की ओर से लगाए गए आरोपों की जांच के लिए इन क्षेत्रों का दौरा किया। बहुत से लोगों ने कहा कि उन्हें यह नहीं पता था कि वे एक क्लिनिकल ट्रायल का हिस्सा हैं और उन्हें लगा कि उन्हें वास्तविक कोविड-19 वैक्सीन दी गई थी। अधिकतर लोगों के लिए इसमें शामिल होने का कारण पैसा था। इनमें से कई ने बताया कि वे अनपढ़ हैं और उन फॉर्म को नहीं पढ़ सकते थे जिन पर उन्होंने हस्ताक्षर किए थे।

इन लोगों का यह भी आरोप है कि उन्हें दुष्प्रभावों की आशंका या मृत्यु या दिव्यांग होने जैसे गंभीर परिणामों के लिए मुआवजा मिल सकने की जानकारी नहीं दी गई थी। हालांकि, भारत बायोटेक ने एक प्रेस रिलीज जारी कर दावा किया है कि जिन प्रतिकूल प्रभावों की रिपोर्ट मिली है उन्हें उपयुक्त तरीके से रिकॉर्ड किया गया है। इसमें यह भी कहा गया है कि ट्रायल में शामिल बहुत से लोगों के पास मोबाइल फोन नहीं थे जिस पर उनके स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में पूछा जा सकता। कंपनी ने बताया है कि उनसे किसी अन्य जरिए से भी संपर्क नहीं किया गया।

बीमारी और मृत्यु

7 जनवरी को, भारत बायोटेक ने क्लिनिकल ट्रायल के महत्वपूर्ण तीसरे चरण में सभी 26 साइट्स के लिए 25,800 वॉलंटियर्स को सफलतापूर्वक नियुक्त करने की घोषणा की थी। ट्रायल के पहले दो चरणों में लगभग 800 लोग शामिल थे।

भोपाल में कोवैक्सीन का ट्रायल पीपल्स यूनिवर्सिटी में किया जा रहा है, जो गरीब नगर और ओरिया बस्ती के निकट है जहां सैंकड़ों कम आमदनी वाले परिवार --इनमें से कई 1984 की भोपाल गैस त्रासदी में बच गए थे – रहते हैं। इन इलाकों में रहने वालों ने इंडियास्पेंड को बताया कि महामारी के कारण पूरे वर्ष स्कूलों में छात्र नहीं गए और बहुत से पुरुषों के पास पिछले पूरे वर्ष रोज़गार या आमदनी नहीं थी ।

भोपाल के एक अन्य हिस्से में, वैजंती, जो एकल नाम का इस्तेमाल करती हैं, रो रही हैं और बहुत से टेलीविजन कैमरा और रिपोर्टर उनके एक कमरे के किराए के घर में मौजूद हैं। उनके पति दीपक मरावी की कोविड-19 ट्रायल में हिस्सा लेने के नौ दिन बाद मृत्यु हो गई थी। उन्हें जनवरी में पोस्ट-मार्टम रिपोर्ट मिली थी, जिसमें बताया गया था कि उनकी मृत्यु "संदिग्ध तौर पर जहर देने" से हुई होगी।

वैजंती ने 9 जनवरी को इंडियास्पेंड को बताया, "वैक्सीन से मेरे पति को जहर दिया गया था।" उन्होंने कहा था कि वैक्सीन ट्रायल टीम से किसी ने भी मृत्यु की जांच के लिए उनके परिवार से संपर्क नहीं किया है।

भारत बायोटेक ने 9 जनवरी को प्रेस को दिए एक बयान में मरावी के क्लिनिकल ट्रायल में शामिल होने की पुष्टि की है। इसमें कहा गया है कि एक शुरुआती समीक्षा में यह संकेत मिला है कि "मृत्यु का संबंध स्टडी में दी गई डोज से नहीं है"। इसकी "विस्तृत जांच की गई है" और पाया गया है कि "मृत्यु वैक्सीन या प्लसिबो से संबंधित नहीं है।" कंपनी ने बताया कि वह "इसकी पुष्टि नहीं कर सकती कि वॉलंटियर को स्टडी वैक्सीन दी गई थी या एक प्लसिबो क्योंकि स्टडी ब्लाइंडेड (डोज के प्रकार की जानकारी नहीं होना) थी।"

मरावी और परिहार ने भारत बायोटेक के क्लिनिकल ट्रायल के लिए अपने परिवारों को सूचना दिए बिना हस्ताक्षर किए थे, परिवारों को उनके बीमार पड़ने के बाद ही इसका पता चला था। मरावी की पत्नी वैजंती और परिहार दोनों ने कहा कि उन्हें उस कंसेंट फॉर्म (सहमति पत्र) की कॉपी नहीं मिली है जिस पर साइन किए गए थे।

"हॉस्पिटल में उस दिन वैक्सीन लगवाने का इंतजार कर रहे सैंकड़ों लोग थे। प्रत्येक व्यक्ति मेरी तरह निर्धन था। मुझे वहां कोई भी अमीर व्यक्ति इंजेक्शन लगवाते नहीं दिखा था," परिहार ने बताया। अब, वह दूसरी बार इंजेक्शन लगवाने वापस नहीं जाना चाहते, जो इस महीने लगना है।


कंपनी के दावे बनाम लोगों के अनुभव

भोपाल में ट्रायल में शामिल हुए कई लोगों ने इंडियास्पेंड को बताया कि उन्होंने सोचा था कि उन्हें वास्तविक वैक्सीन दी जा रही है और उन्हें यह नहीं पता था कि उन्होंने एक क्लिनिकल ट्रायल के लिए हस्ताक्षर किए थे। ट्रायल में शामिल हुए गरीब नगर से निवासी, राम सिंह अहीरवाल ने बताया, "मैं अनपढ़ हूं और मैं उन दस्तावेज़ों को नहीं पढ़ सका था जो उन्होंने दिखाए थे... लेकिन मैंने उन पर हस्ताक्षर किए थे।" अन्यों ने भी इसी तरह की जानकारी दी।

उनका यह भी आरोप था कि उन्हें संभावित दुष्प्रभावों के बारे में चेतावनी नहीं दी गई और ट्रायल के बाद बीमार पड़ने पर उनकी शिकायतों पर ध्यान नहीं दिया गया।

देश में क्लिनिकल ट्रायल के नियमों में कहा गया है कि क्लिनिकल ट्रायल में शामिल होने वाले लोगों को इसके बारे में जानकारी देकर उनकी सहमति ली जानी चाहिए, जिसमें उन लोगों के लिए एक अलग प्रक्रिया शामिल है जो पढ़ या लिख नहीं सकते या वे 'जो कमजोर विषय' हो सकते हैं। जो लोग पढ़ या लिख नहीं सकते उनके लिए, जानकारी देकर सहमति लेने और दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करने की पूरी प्रक्रिया के दौरान 'एक निष्पक्ष' गवाह मौजूद होना चाहिए। नियमों में यह भी स्पष्ट किया गया है कि 'कमजोर विषयों' के शामिल होने पर जानकारी वाली सहमति प्रक्रिया की ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग होनी चाहिए।

पीपल्स यूनिवर्सिटी के डीन ए. के दीक्षित ने बताया, "कमरे में वीडियोग्राफर था जिसने जानकारी वाली सहमति की ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग की थी।" लेकिन इंडियास्पेंड को कई लोगों ने बताया कि उन्हें ट्रायल में कोई ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग नहीं दिखी थी। "मैंने किसी को भी पूरी प्रक्रिया का ऑडियो या वीडियो रिकॉर्ड करते नहीं देखा," अहीरवाल ने कहा।

भारत बायोटेक के बयान और मरावी की मृत्यु से इनमें से बहुत से मुद्दों पर लापरवाही दिखी है। बयान में कहा गया है कि ट्रायल में हिस्सा लेने वालों पर फैसला शामिल करने के तय मापदंड के आधार पर किया गया था और ट्रायल में शामिल करने से पहले हिस्सा लेने वालों के स्वास्थ्य का आकलन हुआ था।

इसमें यह भी बताया गया है कि सभी प्रतिकूल घटनाओं और गंभीर प्रतिकूल प्रभावों, जैसे जिनसे मृत्यु या दिव्यांगता हो सकती है, की रिपोर्ट एथिक्स कमेटी और सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन को भारतीय कानून के अनुसार दी गई थी। इसमें दावा किया गया है कि उनके प्रोटोकॉल के अनुसार, हिस्सा लेने वाले सभी लोगों से टेस्ट और चेक-अप के लिए संपर्क किया जा रहा है।

लेकिन परिहार जैसे बहुत से लोगों के पास स्वास्थ्य के जुड़ी अपनी मुश्किलों की शिकायत करने के लिए हॉस्पिटल से संपर्क करने का पैसा नहीं है, और अन्यों के पास ऐसा करने के लिए मोबाइल फोन नहीं है।

ट्रायल में हिस्सा लेने वालों को प्रति डोज़ 750 रुपये का भुगतान करने के बारे में, कंपनी ने कहा कि देश की गुड क्लिनिकल प्रैक्टिस गाइडलाइंस में इसकी अनुमति है। इस राशि का फैसला उन संस्थानों में एथिक्स कमेटियां करती हैं जहां ट्रायल किए जा रहे हैं।

गाइडलाइंस में कहा गया है कि भुगतान "इतना अधिक" नहीं होना चाहिए जिससे लोगों को ट्रायल में "उनकी बेहतर समझ (लालच)" के खिलाफ हिस्सा लेने के लिए मजबूर होना पड़े। भारत बायोटेक ने इस पर कहा कि 750 रुपये का भुगतान "एक लालच" नहीं था।

हालांकि, इंडियास्पेंड ने जिन लोगों से बात की उनमें से कई ने कहा कि उनके लिए 750 रुपये दो दिन की दिहाड़ी के बराबर थे, और परिहार जैसे लोगों को इंजेक्शन लगवाने के लिए पैसा एक पर्याप्त कारण लगा था।

इंडियास्पेंड ने भोपाल में कोवैक्सीन क्लिनिकल ट्रायल में शामिल हुए लोगों की ओर से लगाए गए आरोपों पर भारत बायोटेक और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) को प्रश्न भेजे हैं। उनके उत्तर मिलने पर इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा।

समान ट्रायल, अलग शहर

मुंबई में, 22 वर्षीय रौनक, जिनका एकल नाम है, ने दिसंबर 2020 में सायन हॉस्पिटल में भारत बायोटेक के फेज 3 ट्रायल में हिस्सा लिया था। भोपाल में गड़बड़ी जैसी स्थिति के विपरीत, उन्होंने इंडियास्पेंड को जनवरी में फोन पर बताया कि उनका अनुभव अच्छा रहा था। एक बड़े शहर में कॉलेज छात्र, रौनक की सामाजिक-आर्थिक स्थिति भोपाल के निम्नवर्गीय इलाकों में रहने वालों से काफी अलग है।

भोपाल में किए गए ट्रायल के तरीके से अलग, मुंबई में, रौनक ने बताया कि सायन हॉस्पिटल में ट्रायल कर रहे लोगों ने यह समझाने में कम से कम 10 मिनट लगाए थे कि प्रक्रिया किस तरह होगी। रौनक से प्रश्न पूछने और अपने संदेह को दूर करने का मौका दिया गया था। हालांकि, भोपाल में कई लोगों के मामले की तरह, रौनक ने भी सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करने से पहले उसे पूरी तरह नहीं पढ़ा था। हालांकि, उन्हें इस सहमति की एक कॉपी घर ले जाने के लिए दी गई थी।

भोपाल में हिस्सा लेने वालों की तरह, उन्हें भी ट्रायल में हिस्सा लेने के लिए कुछ राशि (1,500 रुपये) दिए गए थे। हालांकि, यह भोपाल से कुछ अलग था, जहां हिस्सा लेने वालों ने आरोप लगाया है कि उन्हें नामांकन के लिए एक लालच के तौर पर राशि के बारे में पहले बताया गया था।

भोपाल गैस त्रासदी में बचे लोगों के साथ कार्य करने वाली रचना ढींगरा ने कहा, "मुझे शक है कि भारत बायोटेक या कोई अन्य एजेंसी एक बड़े शहर के समृद्ध हिस्से में ट्रकों और लाउडस्पीकरों के साथ जाएगी और लोगों को 750 रुपये [प्रति विजिट] की पेशकश और यह दावा करेगी कि यह वैक्सीन के लिए है।"

'क्लिनिकल ट्रायल मोड'

देश में क्लिनिकल ट्रायल पर ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 और न्यू ड्रग्स एंड क्लिनिकल ट्रायल्स रूल्स, 2019 के तहत नियंत्रण किया जाता है।

देश के ड्रग कंट्रोलर ने 3 जनवरी को एक प्रेस बयान जारी कर भारत में बनी दो कोविड-19 वैक्सीन के लिए सीमित आपात अनुमति दी थी, लेकिन इसमें कहा गया था कि भारत बायोटेक की कोवैक्सीन को "क्लिनिकल ट्रायल मोड" में लगाया जाएगा। भारतीय कानून में "क्लिनिकल ट्रायल मोड" में वैक्सीन लगाने के कोई प्रावधान नहीं हैं।

दो दिन बाद, आईसीएमआर के प्रमुख ने स्पष्ट किया था कि "क्लिनिकल ट्रायल मोड" का मतलब है कि इन दोनों वैक्सीन को लगवाने वाले लोगों को सहमति देने और उनका फॉलो-अप किए जाने की जरूरत होगी। उन्होंने यह नहीं कहा था कि क्या ट्रायल में हिस्सा लेने वालों को किन्हीं गंभीर प्रतिकूल दुष्प्रभावों के लिए मुआवजा मिलेगा, हालांकि, देश में इसे लेकर सख्त नियम हैं।

मुआवज़े का फैसला एक फ़ॉर्मूला के आधार पर किया जाता है जिसमें हिस्सा लेने वाले की आयु, अन्य बीमारियाँ होना और बीमारियों की अवधि, जन्म से कमी होना और क्या ट्रायल से हुए गंभीर प्रतिकूल दुष्प्रभाव को ठीक किया जा सकता है, जैसे तथ्यों पर ध्यान दिया जाता है। मृत्यु के लिए मुआवज़े की शुरुआत 8 लाख रुपये ($10,902) से होती है।

विदेश में, ट्रायल में हिस्सा लेने वालों की मृत्यु या उनमें अन्य प्रतिकूल प्रभावों की रिपोर्टों पर कोविड-19 वैक्सीन के कुछ बड़े क्लिनिकल ट्रायल को रोक दिया गया है।

पिछले वर्ष एस्ट्राजेनेका ने अपने अंतिम-चरण के ट्रायल को हिस्सा लेने वाले एक व्यक्ति में प्रतिकूल प्रभाव होने की रिपोर्ट मिलने के बाद रोक दिया था। अक्टूबर में, जॉन्सन एंड जॉन्सन ने अपने क्लिनिकल ट्रायल को तब तक के लिए रोक दिया था जब तक विशेषज्ञों का एक पैनल उनके ट्रायल में हिस्सा लेने वाले एक व्यक्ति को एक बीमारी होने की जांच पूरी करता है। जनवरी में नॉर्वे की सरकार ने भी फ़ाइज़र की कोविड-19 वैक्सीन लगवाने वाले दो लोगों की मृत्यु की एक जांच शुरू की है।

भारत में, ड्रग कंट्रोलर ने सीरम इंस्टीट्यूट को एस्ट्राजेनेका/ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी की वैक्सीन के लिए ट्रायल में शामिल होने वाले लोगों की नियुक्ति रोकने को कहा था। यह निर्देश ब्रिटेन में इस वैक्सीन के ट्रायल में एक व्यक्ति में प्रतिकूल प्रभाव होने की रिपोर्ट मिलने के बाद दिया गया था।

भारत वैक्सीन की कोवैक्सीन के विपरीत, कोविड-19 वैक्सीन को लेकर दौड़ में आगे चल रहे बहुत से संस्थानों ने अपने क्लिनिकल प्रोटोकॉल और सहमति पत्रों का सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध कराया है। (मॉडर्ना, एस्ट्राजेनेका/ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, जैनसेन, फाइजर, नोवोवैक्स, कैनसाइनो के लिए क्लिनिकल प्रोटोकॉल और मॉडर्ना, एस्ट्राजेनेका/ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, जैनसेन के लिए सहमति पत्रों को देखें)।

(यह खबर इंडियास्पेंड में प्रकाशित की गई खबर का हिंदी अनुवाद है।)

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