कोरोना की दूसरी लहर के बीच म्यूकर माइकोसिस के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। आम बोलचाल में इसे ब्‍लैक फंगस के तौर पर जाना जाता है। ब्लैक फंगस एक फंगल इंफेक्‍शन है लेकिन अचानक इसके मामले अचानक से क्‍यों बढ़ने लगे, इस इंफेक्‍शन के शुरुआती लक्षण क्या हैं, इसका इलाज कितना मुश्किल है और यह इंफेक्‍शन किस तरह से फैलता है, ऐसे कुछ सवालों के जवाब के लिए इंड‍ियास्‍पेंड ने 'संजय गांधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज' के न्‍यूरो ईएनटी स्‍पेशलिस्‍ट डॉ. अमित केसरी से बात की। डॉ. अमित केसरी ने BJ मेडिकल कॉलेज, अहमदाबाद से एमबीबीएस, एमएस किया है। डॉ. अमित SGPGI में पिछले 11 वर्षों से काम कर रहे हैं। उन्होंने अमेरिका और मलेशिया जैसे देशों में फेलोशिप भी की है।


सम्पादित अंश:

सवाल: म्यूकर माइकोसिस क्‍या है?

डॉ. केसरी: म्यूकर माइकोसिस एक तरह का फंगस है, हिन्दी में हम इसे फफूंद कहते हैं। तीन तरह के इंफेक्शन होते हैं, पहला बैक्‍टीरियल, दूसरा वायरल और तीसरा फंगल इंफेक्‍शन। यह फंगल इंफेक्‍शन स्वस्थ व्यक्ति में नहीं होता है। यह तब होता है जब आपकी इम्यूनिटी कम हो, शुगर ज्यादा हो और साथ में किसी भी कारण से आपको काफी लंबे वक्त से स्टेरॉयड दिया गया हो। कोरोना से पहले भी यह इंफेक्शन होता था, लेकिन ऐसे मामलों की संख्या बहुत कम होती थी।

सवाल: कोरोना संक्रमण के बीच म्यूकर माइकोसिस के मामले क्‍यों बढ़े हैं?

डॉ. केसरी: कोरोना में इम्‍यूनिटी डाउन होती है। दूसरा कारण है कि कोरोना के इलाज के दौरान स्टेरॉयड दिया जाता है। इस फंगस को बढ़ने के लिए शुगर चाहिए और फ्री आयरन में यह अच्छा बढ़ता है। इस वक्त इसे ग्रोथ मीडियम अच्छा मिल गया है। अगर किसी को पहले से डायबिटीज है और शुगर कंट्रोल नहीं किया गया, साथ ही किसी ने स्टेरॉयड ज्यादा लिया है तो ऐसे मरीजों में यह बढ़ रहा है। ये नाक के रास्ते शरीर में जाता है। यह वातावरण में हर जगह मौजूद है।

सवाल: जो लोग अस्पताल में एडमिट हो रहे हैं उनमें यह मामले ज्यादा देखने को मिल रहे, ऐसा क्यों है?

डॉ. केसरी: दरअसल जो अस्पताल में भर्ती हो रहे हैं उन्हें ऑक्सीजन की जरूरत भी पड़ रही है। ऐसे में उन्हें ऑक्सीजन के साथ स्टेरॉयड भी देना पड़ता है। दूसरा यह कि अगर उस वक्त शुगर कंट्रोल नहीं किया तो दिक्कत हो रही है। कुछ ऐसे भी मरीज हैं जो होम आइसोलेशन में थे, लेकिन उनकी संख्या कम है। यह कह सकते हैं कि 70 से 80% मरीज अस्पताल में एडमिट होने वाले हैं।

सवाल: म्यूकर माइकोसिस से बचाव तरीके क्या हैं?

डॉ. केसरी: शुगर कंट्रोल में रखा जाए और स्टेरॉयड का इस्तेमाल जब बहुत जरूरी हो तब किया जाए। नाक में नॉर्मल सलाइन के ड्रॉप डाल सकते हैं। नाक में सूखापन न रहे। मास्क लगाना भी एक उपाय है।

सवाल: म्यूकर माइकोसिस कितनी तेजी से फैलता है?

डॉ. केसरी: म्यूकर माइकोसिस के चार स्‍टेज होते हैं। पहले तो नाक में आता है, फिर साइनस में जाता है फिर आंख में और उसके बाद दिमाग में। अगर हम इसे नाक और साइनस के स्टेज में ही पकड़ लें तो इसका बेहतर इलाज हो सकता है। नाक बंद हो जाना, नाक से खून आना, चेहरे पर सूजन, आंखों में सूजन, आंख की रोशनी कम होना, जबड़े में कालापन दिखना, दांत ढीला हो जाना, यह सब इसके प्राथमिक लक्षण हैं। ऐसा किसी मरीज को है तो उसे जल्‍द से जल्‍द डॉक्टर के पास जाना चाहिए। क्योंकि जितना जल्दी इसकी पहचान होगी उतना बेहतर इलाज मिल सकता है। वहीं, जब बीमारी आंख में काफी अंदर तक चली गई या वहां से दिमाग में चली गई तो यह बीमारी गंभीर हो सकती है और मरीज की जान भी जा सकती है।


सवाल: म्यूकर माइकोसिस के इलाज के बाद क्‍या फिर से यह हो सकता है?

डॉ. केसरी: इस बीमारी का इलाज एंटी फंगल थेरेपी है। सर्जरी का काम यह है कि जो ट‍िशू मर चुका है उसको निकाल दिया जाए ताकि एंटीफंगल दवाइयां अच्‍छे से काम कर सकें। एंटी फंगल दवाइयां खून के मार्फत जाती हैं, ऐसे में अगर सर्जरी न की जाए तो जहां डेड ट‍िशू होगा वहां तक दवाइयां नहीं पहुंचेगी। ऑपरेशन के बाद कोई दिक्कत होने के चांस नहीं होता।

सवाल: म्यूकर माइकोसिस के इलाज में एम्फोटेरिसिन बी इंजेक्‍शन का क्‍या महत्‍व है?

डॉ. केसरी: एंटी फंगल थेरेपी 15 दिन की होती है। इस दौरान मरीज को एम्फोटेरिसिन बी इंजेक्‍शन दिया जाता है। इसके न होने पर पोसाकोनाजोल और साबोकोनाजोल दी जाती है, लेकिन यह सेकंड लाइन ड्रग है। फस्‍ट लाइन ड्रग एम्फोटेरिसिन बी है।

सवाल: डायबिटीज न होने पर भी क्‍या म्यूकर माइकोसिस हो सकता है?

डॉ. केसरी: हमें अब तक 90% ऐसे मरीज मिले हैं जिन्हें डायबिटीज था या फिर हाल ही में स्टेरॉयड लिया गया हो। स्टेरॉयड का एक साइड इफेक्ट है कि यह शरीर में शुगर लेवल को बढ़ाता है। ऐसा कम ही होता है कि किसी को शुगर न हो और स्टेरॉयड न लिया हो फिर भी उसे म्यूकर माइकोसिस हो जाए।

सवाल: जब स्टेरॉयड के इस्तेमाल से म्यूकर माइकोसिस होने का खतरा है तो क्या इसका इस्तेमाल कम करना चाहिए?

डॉ. केसरी: स्टेरॉयड काम करती है और इससे मरीज को आराम मिलता है, लेकिन इसके साइड इफेक्ट भी हैं जिस पर ज्‍यादा ध्‍यान नहीं दिया गया। पहली लहर में भी इसका इस्तेमाल हुआ था, लेकिन कम हुआ था क्योंकि उस वक्त ऑक्सीजन की कमी के मामले कम थे। अब लोग जाने अनजाने में स्टेरॉयड लेते रहे और अब यह मामले आ रहे हैं।

सवाल: लोगों के बीच म्यूकर माइकोसिस को लेकर काफी डर है, आप इसे कैसे देखते हैं?

डॉ. केसरी: यह डर काफी हद तक मीडिया का भी बनाया हुआ है। कोरोना के अगर हजार मरीज होंगे तो उसमें से कोई एक म्यूकर माइकोसिस का मरीज होगा। इसमें से भी अगर हम शुगर और स्टेरॉयड लेने वालों को चिन्हित कर लें तो इसपर हम काबू कर लेंगे। क्योंकि बीमारी का पता जितना जल्दी होगा उतना अच्छा होगा।

पहली लहर में भी कुछ राज्यों में म्यूकर के मामले थे, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्‍ली में कुछ मामले थे। दूसरी लहर में पूरे भारत में मामले बढ़े हैं। क्योंकि दूसरी लहर में काफी लोगों ने स्टेरॉयड लिया है। भारत में डायबिटीज के मरीज भी बहुत ज्यादा हैं। कोविड के भारतीय वेरिएंट का भी इसमें रोल है।

सवाल: क्‍या म्यूकर माइकोसिस कोरोना की तरह छूने से फैलता है? लोगों के बीच इसे लेकर काफी चर्चा है।

डॉ. केसरी: यह फंगस हर जगह है। हम 15 साल से इसका इलाज कर रहे हैं, कभी भी किसी रिश्तेदार को नहीं हुआ। यह न परिवार में किसी को हुआ। पहले तो रिश्तेदार साथ में रहकर सेवा भी करते थे, यह तब भी एक से दूसरे को नहीं हुआ।

सवाल: म्यूकर माइकोसिस कितना चिंता का विषय है?

डॉ. केसरी: अगर चौथे चरण में मरीज हमारे पास आता है तो यह चिंता का विषय है। अगर पहले या दूसरे चरण में आ जाए तो इसका इलाज किया जा सकता है। दूसरा यह कि दवाइयों की कमी भी एक परेशानी की वजह है। यह दवाइयां बहुत कम मात्रा में बनाई जाती थीं। अचानक से इसकी डिमांड बढ़ गई है और उस हिसाब से सप्लाई नहीं है तो असर हुआ है। अब सरकार ने कंपनियों को कहा है, आने वाले वक्त में दवाइयां बढ़ जाएंगी। यही एक दो चुनौतियां हैं जो हमें देखनी पड़ रही हैं।

सवाल: एक डॉक्टर होने के नाते यह कितना मुश्किल है?

डॉ. केसरी: यह मेंटली ड्रेनिंग है। क्योंकि कोविड के बाद मरीज ठीक होता है और उसे यह बीमारी हो जाती है। इसके अलग-अलग लेवल पर इलाज होते हैं और यह इलाज लंबा चलता है। हमें भी अफसोस होता है कि अगर हम मरीज के लिए कुछ नहीं कर पाते। अगर इसकी समय रहते पहचान हो जाए तो इलाज बेहतर होगा। यह परिवार के लिए मुश्किल होता है, हम डॉक्टर के लिए भी थोड़ा मुश्किल है।

सवाल: क्‍या इसका इलाज दूसरी बीमारियों के मुकाबले महंगा है?

डॉ. केसरी: एंटी फंगल दवाइयां थोड़ी महंगी हैं। क्योंकि वो इतनी मात्रा में कभी इस्तेमाल नहीं होती थीं। थेरेपी लंबी होती तो महंगी होती है। कोई भी इलाज लंबा होगा तो उसका असर मरीज और परिवार पर आर्थिक रूप से पड़ेगा। प्राइवेट में इलाज करा रहे लोगों के लिए यह ज्यादा महंगा है, सरकारी अस्पतालों में सरकार की ओर से दवाइयां दी जा रही हैं तो राहत है।

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