क्या गंगा जलमार्ग परियोजना को पर्यावरणीय अनुमति की जरूरत है?
देश में घरेलू जलमार्गों को अब पूर्व पर्यावरणीय अनुमति की आवश्यकता नहीं है। विशेषज्ञों का कहना है कि इससे निश्चित रूप से स्थिति में बदलाव होगा, लेकिन साल 2015 में गंगा जलमार्ग परियोजना की पर्यावरणीय अनुमति को लेकर दायर मामले की सुनवाई अब तक 14 बार टल चुकी है।
नई दिल्ली: राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) तथा पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय विगत छह वर्षों से इस बात पर विचार कर रहा है कि क्या सरकार की विश्व बैंक वित्त पोषित जलमार्ग विकास परियोजना को राष्ट्रीय जलमार्ग-1 के लिए पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता है? जुलाई 2014 में गंगा-भागीरथी-हुगली नदी प्रणालियों पर एक परियोजना का ऐलान किया गया था जिसे दिसंबर 2023 तक पूरा किया जाना है। इंडियास्पेंड ने कुछ दस्तावेजों का विश्लेषण किया है जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि 2014 से अब तक एनजीटी ने पर्यावरण मंजूरी संबंधी इस मामले को 14 बार स्थगित किया है।
तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वित्त वर्ष 2014-15 का बजट पेश करते हुए इस परियोजना की घोषणा की थी और कहा था कि इसका उद्देश्य कम से कम 1,500 टन की भार क्षमता वाले पोतों का वाणिज्यिक नौवहन होगा। देश के पर्यावरण की सुरक्षा के लिए काम करने वाले दो प्रमुख संस्थान, एनजीटी और पर्यावरण मंत्रालय साल 2015 से इस बात को लेकर बहस कर रहे हैं कि क्या ऐसी परियोजना को पर्यावरण मंजूरी या किसी वारंट की आवश्यकता है।
आज की तारीख में, घरेलू जलमार्ग उन परियोजनाओं की सूची में शामिल नहीं हैं जिनके लिए पूर्व पर्यावरणीय मंजूरी की आवश्यकता होती है। लेकिन ड्रेजिंग (निकर्षण), जो घरेलू जलमार्गों के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण गतिविधि है, को पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता है।
राष्ट्रीय जलमार्ग अधिनियम, 2016 के अनुसार, 111 प्रमुख नदियों, नहरों, बैकवाटर, खाड़ियों और नदी के मुहानों को राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किया गया है। इस तरह की कई परियोजनाएं मसलन मणिपुर में लोकटक घरेलू जलमार्ग सुधार परियोजना इस प्रक्रिया में शामिल है। एनजीटी के अनुसार, जब देश में ऐसी परियोजनाएं उभर रही हों, तो ये सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या साल 2006 की पर्यावरणीय समाघात निर्धारण अधिसूचना (ईआईए अधिसूचना 2006) के तहत कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रभाव के मूल्यांकन की आवश्यकता है या नहीं? इस प्रकार, गंगा जलमार्ग के मामले में लिया गया निर्णय सभी घरेलू जलमार्ग परियोजनाओं के लिए एक मिसाल बन जाता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि घरेलू जलमार्ग परियोजनाओं को शामिल करने के लिए ईआईए अधिसूचना 2006 में संशोधन किया जाना चाहिए ताकि न केवल पर्यावरण को उसके मूल रूप में बनाए रखा जा सके, बल्कि इसलिए भी कि जलमार्ग परियोजनाएं पर्यावरण और सामाजिक मानकों पर व्यवहारिक हों।
निस्तारण में हो रही बार-बार देरी
समय-समय पर संशोधित ईआईए अधिसूचना 2006 की अनुसूची में उन गतिविधियों या परियोजनाओं के प्रकार को सूचीबद्ध किया गया है जिनके लिए पूर्व पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता होती है। ईआईए रिपोर्ट बनाने के लिए निर्धारित प्रक्रिया के तहत, निर्धारित अवधि में पर्यावरणीय आधारभूत डेटा एकत्र किया जाता है और जहां संभव हो वहां जन सुनवाई की जाती है।
इसके बाद राज्य या केंद्र सरकार के स्तर पर विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति द्वारा इसका मूल्यांकन किया जाता है। पर्यावरण मंत्रालय अपनी विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति की सिफारिश के आधार पर, परियोजना के प्रकार के आधार पर संलग्न विशिष्ट शर्तों के साथ, मंजूरी प्रदान करता है। परियोजना प्रस्तावक तब अनुपालन रिपोर्ट प्रस्तुत करता है, जिसे जनता द्वारा देखा जा सकता है।
मामलों का शीघ्र निस्तारण एनजीटी का एक मुख्य काम होने के बावजूद भी अधिकरण 'भरत झुनझुनवाला और अन्य बनाम भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण और अन्य' की साल 2015 से कर रहा है। यह मामला जलमार्ग विकास परियोजना के लिए पर्यावरण मंजूरी के लिए दायर किया गया था। साल 2018 में एनजीटी ने निर्देश दिया था कि पर्यावरण मंत्रालय इस मुद्दे की जांच के लिए एक समिति का गठन करे।
याचिकाकर्ताओं को पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट तक पहुंचने और अपनी आपत्तियां दर्ज कराने के लिए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाना पड़ा। मामला फिर एनजीटी में चला गया जिसने 10 जनवरी 2020 को पर्यावरण विशेषज्ञों के परामर्श से मंत्रालय को तीन महीने के भीतर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया।
तब से यह मामला 16 बार एनजीटी की प्रिंसिपल बेंच की वाद सूची में आया और 14 बार टाला गया। एनजीटी ने दो बार पर्यावरण मंत्रालय को रिपोर्ट जमा करने के लिए उस आदेश की याद दिलाया जिसकी मंत्रालय ने स्पष्ट रूप से अनदेखी की। ताजा सुनवाई पिछले महीने 12 अप्रैल 2022 को होनी थी लेकिन इसे इसलिए स्थगित कर दिया गया क्योंकि मंत्रालय ने अभी तक अपनी रिपोर्ट जमा ही नहीं की है। अब अगली सुनवाई 4 मई 2022 को होगी।
जलमार्ग विकास परियोजना का पर्यावरणीय प्रभाव
जलमार्ग विकास परियोजना या गंगा-भागीरथी-हुगली नदी प्रणालियों पर राष्ट्रीय जलमार्ग-1 की क्षमता वृद्धि की परियोजना, उत्तर प्रदेश (यूपी), बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल राज्यों में फैली हुई है। इस परियोजना को विश्व बैंक द्वारा तकनीकी और वित्तीय सहायता प्रदान करने के साथ शिपिंग मंत्रालय के तहत भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण द्वारा कुल 4,633.81 करोड़ रुपये की लागत से विकसित किया जा रहा है।
इलाहाबाद से हल्दिया तक नदी प्रणालियों के विस्तार को 1996 में राष्ट्रीय जलमार्ग-1 के रूप में घोषित किया गया था। जलमार्ग विकास परियोजना का इरादा माल ढोने की क्षमता बढ़ाने और वाराणसी से 1,620 किलोमीटर की दूरी पर 1,500 टन व इससे अधिक भार क्षमता वाले जहाजों की आवाजाही को सुगम बनाने का है। यानी इसका विस्तार उत्तर प्रदेश से पश्चिम बंगाल में हल्दिया तक होना है।
परियोजना का लक्ष्य नेविगेशन चैनल में एक ऐसे फेयरवे को विकसित करना है, जिसमें डेढ़ से तीन मीटर की गहराई और 30-45 मीटर तलीय चौड़ाई की अनुमति है। हालांकि, यह दुनिया की सबसे गाददार नदी प्रणालियों में से एक है जिसका अर्थ है कि आवश्यक गहराई और रास्ते की चौड़ाई सुनिश्चित करने के लिए फेयरवे से समय-समय पर कीचड़ को निकालना होगा। ड्रेजिंग और संबंधित कार्यों में नदी के पर्यावरण और नदियों व उसके बाहर रहने वाले लोगों के जीवन तथा आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव डालने की क्षमता है।
इसके अलावा, परियोजना के लिए टर्मिनल, घाट, नेविगेशन लॉक्स, फ्रेट विलेज, जलपोत रखरखाव परिसर आदि के निर्माण की आवश्यकता है।
वन्यजीव संरक्षण ट्रस्ट के पारिस्थितिकीविद् और आईयूसीएन सेटेशियन विशेषज्ञ समूह के सदस्य नचिकेत केलकर कहते हैं, ''ये संभव है, ड्रेजिंग के कारण आर्सेनिक और अन्य जैव-संदूषकों जैसी भारी धातुओं के निकलने से जल प्रदूषण का जोखिम है; ज्यादा ट्रैफिक वाले क्षेत्रों में पोत दुर्घटनाओं की वजह से जहाजों से खतरनाक रिसाव का भी खतरा है; पानी के भीतर मचे शोर और लहरों की गतिविधियों का प्रभाव मछली और गंगा डॉल्फिन जैसी लुप्तप्राय प्रजातियों पर भी पड़ेगा और ड्रेजिंग का प्रभाव मछली के ठिकानों, मोलस्क, क्रस्टेशियन प्रजनन और मछली पकड़ने के क्षेत्र पर भी पड़ेगा।
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में है मामला
नवंबर 2015 में 'भरत झुनझुनवाला और अन्य' द्वारा एनजीटी में दायर एक याचिका में पूर्व पर्यावरण मंजूरी प्राप्त किए बिना गंगा पर राष्ट्रीय जलमार्ग-1 के विकास के लिए निर्माण कार्य पर काफी सवाल उठाए हैं।
आवेदकों ने दिसंबर 2009 में संशोधित ईआईए अधिसूचना 2006 की अनुसूची प्रविष्टि 7(ई) का हवाला दिया गया है। इसके मुताबिक, बंदरगाह, पत्तन, बैक वाटर और तलकर्षण के लिए मंजूरी की आवश्यकता होगी। हालांकि इस बिंदु में आगे यह भी कहा गया है कि मरम्मत के लिए तलकर्षण को इस दायरे से बाहर रखा जाएगा जब पूर्व पर्यावरण मंजूरी प्राप्त की जाएगी और एक पर्यावरण प्रबंधन योजना तैयार की जाएगी।
लगभग तीन साल की चर्चा के बाद, 1 नवंबर, 2018 को एनजीटी ने पर्यावरण मंत्रालय को निर्देश दिया कि वो पड़ताल करे कि क्या विशेषज्ञों के परामर्श से जेएमवीपी के लिए किसी पर्यावरणीय मंजूरी की आवश्यकता है और यह भी जांच करने के लिए कहा कि क्या घरेलू जलमार्ग से संबंधित परियोजनाओं में पर्यावरणीय प्रभाव का आंकलन किया जाना चाहिए। मंत्रालय को इस काम को पूरा करने के लिए तीन सप्ताह का समय दिया गया था।
इसके बाद एनजीटी ने रिपोर्ट की प्रतीक्षा किए बिना मामले का निपटारा कर दिया। आवेदकों को रिपोर्ट प्राप्त करने और किसी भी तरह की आपत्ति दर्ज करने का अवसर नहीं दिया गया। 22 फरवरी, 2019 को आवेदकों ने 2019 की सिविल अपील संख्या 1411 (भरत झुनझुनवाला और अन्य बनाम भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण और अन्य) में उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
सर्वोच्च अदालत ने आवेदकों को पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट पर अपनी आपत्तियों के साथ एनजीटी से संपर्क करने की अनुमति दी और इस तरह मामला वापस एनजीटी में चला गया। लगभग एक साल बाद, 10 जनवरी, 2020 को एनजीटी ने फिर से मंत्रालय को विशेषज्ञों से परामर्श करने और 27 अप्रैल, 2020 तक पहले के आदेश की तर्ज पर ही एक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। दो साल बीत गए, एनजीटी ने दो बार मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट जमा करने की याद दिलाई।
छह साल के विचार-विमर्श के बाद 2 सितंबर, 2021 के आदेश में कहा गया कि एनजीटी को 'सूचित' किया गया था कि ईआईए की आवश्यकता का मुद्दा जल शक्ति मंत्रालय के दायरे में है न कि पर्यावरण मंत्रालय के। हालांकि सबूत के तौर पर कोई आधिकारिक हलफनामा या संवाद नहीं है जो ये जता सके कि ईआईए (पर्यावरण प्रभाव आंकलन) की आवश्यकता पर्यावरण मंत्रालय के दायरे में नहीं है। आदेश में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इस मुद्दे को जल शक्ति मंत्रालय के दायरे में होने के बारे में एनजीटी को किसने सूचित किया। साथ ही 2 सितंबर को हुई वर्चुअल सुनवाई में आवेदकों की सलाह को स्वीकार नहीं किया गया।
अब जबकि एनजीटी और पर्यावरण मंत्रालय इस मसले को लेकर चुप्पी साधे हैं, भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण ने घोषणा की है कि परियोजना दिसंबर 2023 में पूरी की जानी है। पहले से ही, 2018 और 2019 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्रमश: गंगा नदी पर उत्तर प्रदेश के वाराणसी और झारखंड के साहिबगंज में मल्टीमॉडल टर्मिनल का उद्घाटन कर चुके हैं। इसके अलावा नेविगेशन चैनल में पानी की गहराई को बनाए रखने के लिए गंगा के फरक्का-बाढ़ खंड में ड्रेजिंग के लिए अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण 2018 और 2019 में मेसर्स अडानी पोर्ट एंड एसईजेड को तीन ठेके भी दे चुकी है।
मामले के प्रमुख याचिकाकर्ता और भारतीय प्रबंध संस्थान (आईआईएम बेंगलुरु) के पूर्व प्रोफेसर भरत झुनझुनवाला ने इंडियास्पेंड को बताया, "इस मामले पर फैसला न करके, बाय-डिफ़ॉल्ट निर्णय लिया गया है। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद भी पर्यावरणीय अनुमति की सार्थकता का मसला पर कोई निर्णय हो पाया है, जबकि परियोजना पूरी होने वाली है।"
पर्यावरण मंत्रालय का टालमटोल रवैया
विगत सात वर्षों में अंतर्देशीय जलमार्ग परियोजना के लिए पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता के संबंध में पर्यावरण मंत्रालय का रवैया बेहद लचर रहा है।
6 मार्च, 2017 को मंथन अध्ययन केंद्र द्वारा दायर आरटीआई आवेदन पर मंत्रालय के ऑफिशियल मेमोरेंडम से जाहिर होता है कि संशोधित ईआईए अधिसूचना 2006 के तहत जेएमवीपी को पर्यावरणीय अनुमति की आवश्यकता है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि ड्रेजिंग अवयव के रखरखाव को लेकर दी जाने वाली मंजूरी में किसी प्रकार की छूट नहीं दी जा सकती है।
18 मई, 2017 को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति ने मार्च 2017 के मंत्रालय के ऑफिशियल मेमोरेंडम का समर्थन किया। समिति इसको लेकर स्पष्ट थी कि सभी अंतर्देशीय जलमार्ग परियोजनाओं को पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता होती है और केंद्रीय स्तर पर मूल्यांकन के साथ जलमार्ग परियोजनाओं को ए श्रेणी के रूप में शामिल करने के लिए ईआईए अधिसूचना में संशोधन किया जाना चाहिए।
यह प्रासंगिक भी है क्योंकि मंत्रालय का ईआईए अधिसूचना मसौदा 2020 सभी अंतर्देशीय जलमार्ग परियोजनाओं को बी-2 श्रेणी की परियोजनाओं के रूप में रखता है। यदि वह वर्गीकरण बना रहता है तो अंतर्देशीय जलमार्ग परियोजनाओं को पर्यावरण प्रभाव आंकलन की भी आवश्यकता नहीं होगी।
मंथन अध्ययन केंद्र ने फिर से आरटीआई के माध्यम से दस्तावेज प्राप्त किए जिसमें बताया गया है कि मंत्रालय की विशेषज्ञ समिति ने 17 मई, 2018 को एक चर्चा में अपने पहले के रुख को स्पष्ट रूप से दोहराया कि जेएमवीपी में ड्रेजिंग रखरखाव शामिल है और इसलिए पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता है।
पर्यावरण मंत्रालय ने हालांकि अपनी विशेषज्ञ समिति की राय के खिलाफ जाकर 21 दिसंबर, 2017 के अपने ओएम के माध्यम से सभी अंतर्देशीय जलमार्ग परियोजनाओं के लिए ड्रेजिंग घटक रखरखाव को छूट प्रदान की।
24 अक्टूबर, 2017 को पर्यावरण मंत्रालय की बैठक के मिनट्स कई खुलासे करते हैं। बैठक की अध्यक्षता सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय, जहाजरानी और जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय ने की। इसमें दर्ज किया गया है कि अंतर्देशीय जलमार्ग परियोजनाओं के लिए किसी पर्यावरणीय मंजूरी की आवश्यकता नहीं है। इस बार केवल पर्यावरण मंत्रालय के दृष्टिकोण को दर्ज किया गया। मंत्रालय के सचिव ने कहा कि "परियोजना को पर्यावरण मंजूरी के लिए आवेदन करना चाहिए। आवेदन को फास्ट-ट्रैक आधार पर प्रक्रिया में शामिल किया जा सकता है।"
नवंबर 2018 में एनजीटी ने पर्यावरण मंत्रालय को तीन सप्ताह के भीतर विशेषज्ञों की राय के आधार पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया था। निर्देश के उलट चार महीने बाद प्रस्तुत अपने जवाब में मंत्रालय ने विशेषज्ञों से परामर्श करने का कोई सबूत पेश नहीं किया। इसके बजाय उसने 18 मई, 2017 की विशेषज्ञ समिति की बैठक के मिनट्स प्रस्तुत किए। हालांकि मंत्रालय ने 21 दिसंबर, 2017 के ऑफिशियल मेमोरेंडम के माध्यम से ड्रेजिंग रखरखाव घटक को छूट देने वाली समिति की सिफारिशों को पहले ही रद्द कर दिया था। इसी तरह, मंत्रालय ने जनवरी 2020 के एनजीटी के आदेश का अनुपालन नहीं किया जिसमें दो साल बाद मंत्रालय ने विशेषज्ञों से परामर्श करने और एक रिपोर्ट जमा करने के लिए कहा था।
8 मार्च, 2022 को हमने एनजीटी के इस आदेश के संबंध में गठित विशेषज्ञों की एक समिति द्वारा रिपोर्ट की स्थिति और अंतर्देशीय जलमार्गों के लिए पर्यावरण मंजूरी की आवश्यकता पर उनकी टिप्पणियों के लिए पर्यावरण मंत्रालय से संपर्क किया। उनकी प्रतिक्रिया मिलने पर स्टोरी को अपडेट किया जाएगा।
प्रोटोकॉल के तहत नहीं बनी पर्यावरणीय प्रभाव रिपोर्ट
भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण ने विश्व बैंक पर्यावरण सुरक्षा दिशानिर्देशों के अनुपालन के तहत परियोजना के मुख्य घटकों के लिए पर्यावरण प्रभाव आंकलन और पर्यावरण प्रबंधन योजना तैयार की।
हालांकि, ये रिपोर्ट और स्टडी पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना, 2006 के तहत नहीं हैं। इसका अर्थ है कि मंत्रालय की विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति ने रिपोर्ट की समीक्षा नहीं की है और प्रभाव मूल्यांकन के संचालन के लिए विशिष्ट संदर्भ की शर्तें निर्धारित नहीं की हैं।
स्टैंडर्ड प्रोटोकॉल निर्देश देता है कि मूल्यांकन समिति पर्यावरणीय प्रभाव रिपोर्ट का अध्ययन करती है, जन सुनवाई करती है और फिर विशिष्ट शर्तों के साथ पर्यावरण मंजूरी की सिफारिश करती है। ये शर्तें कानूनी रूप से बाध्यकारी हैं। उनकी निगरानी पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा की जाती है और पालन नहीं किए जाने की स्थिति में। यहां तक कि एक सामान्य नागरिक भी न्यायपालिका का सहारा ले सकता है।
इस तरह के प्रोटोकॉल को दरकिनार किए जाने का परिणाम यह होता है कि जरूरी मेहनत के बिना ही कार्य योजनाओं को प्रस्तुत कर दिया जाता है। इसके अलावा, तथ्य यह है कि इन शमन योजनाओं की निगरानी अंतर्देशीय जल प्राधिकरण द्वारा की जा रही है, जो कार्यान्वयन एजेंसी भी है। ऐसे में हितों के टकराव की चिंता स्वाभाविक है।
उदाहरण के लिए, अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण ने अपनी वेबसाइट पर 'राष्ट्रीय जलमार्ग-1 में डॉल्फिन पर नौवहन गतिविधियों के प्रभाव का अध्ययन' के लिए एक रिपोर्ट उपलब्ध कराई है। गैंगटिक डॉल्फिन आईयूसीएन लाल सूची के अनुसार एक लुप्तप्राय प्रजाति है और वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची-1 के तहत संरक्षित है।
गंगा जलमार्ग बिहार में विक्रमशिला गैंगटिक डॉल्फिन अभयारण्य से होकर गुजरता है। रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला गया है कि, "जहाजों की आवाजाही और उससे उत्पन्न ध्वनि और ड्रेजिंग गतिविधियों का गंगा नदी की जलीय प्रजातियों पर कुछ प्रभाव पड़ेगा। इसका नदी के पारिस्थितिकी तंत्र पर तीव्र और दीर्घकालिक प्रभाव भी हो सकता है।"
यह रिपोर्ट जलीय वन्यजीव संरक्षण के लिए एक कार्य योजना का प्रस्ताव रखती है। हालांकि, सितंबर 2020 में मयूख डे एट अल (2019) की नेचर्स जर्नल साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित पियर रिव्यूड स्टडी गंगा नदी में गंगा की डॉल्फ़िन पर जहाजों से पानी के नीचे शोर के प्रभाव का आंकलन करने में विफल रही है।
राष्ट्रीय संरक्षण फाउंडेशन के अनुसंधान सहयोगी मयूख डे कहते हैं कि गंगा डॉल्फिन पर प्रभाव को लेकर अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण के अध्ययन की वैज्ञानिक विश्वसनीयता बहुत कम है। वह बताते हैं कि डॉल्फिन पर जो लिखित सामग्री मौजूद है उसका एक बड़ा हिस्सा अध्ययन से गायब है और रिपोर्ट में इस्तेमाल किए गए कुछ संदर्भ समुद्री डॉल्फिन पर शोर के प्रभाव का उल्लेख करते हैं। समुद्री डॉल्फिन में देख पाने की क्षमता नहीं होती है और नेविगेट करने, शिकार करने और संवाद करने के लिए इको-लोकेशन पर निर्भर होते है इसलिए संचालन में मशीनरी की आवाज जैसे कि ड्रेजिंग या नदी के जहाजों की मोटरें आवश्यक कार्यों को करने के लिए नदी डॉल्फिन की क्षमता में गंभीर रूप से हस्तक्षेप करती हैं।
वन्यजीव संरक्षण ट्रस्ट और अध्ययन के सह-लेखकों में से एक नचिकेत केलकर कहते हैं, "अध्ययन एक चूक का नतीजा है कि कैसे शमन उपायों की प्रभावकारिता का परीक्षण करने के लिए कोई प्रयोगात्मक अध्ययन का प्रयास नहीं किया गया है। अगर ऐसा किया जाता तो जैव विविधता को प्रभावित किए बिना कैसे जलमार्गों को प्रभावी तौर पर प्रबंधित किया जा सकता है, इस संदर्भ में रास्ता दिखाया जा सकता है।"
साल 2014 में पर्यावरण मंत्रालय ने अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण को केंद्रीय अंतर्देशीय मत्स्य अनुसंधान संस्थान (CIFRI) द्वारा पश्चिम बंगाल के सागर से फरक्का तक गंगा जलमार्ग के एक खंड के माध्यम से कोयला परिवहन के प्रभाव पर अध्ययन करने का निर्देश दिया। अन्य बातों के अलावा, अध्ययन में छोटी नावों की गति के कारण मछली संयोजन संरचना में तेजी से परिवर्तन देखा गया और यह भी कि इसके पूर्ण प्रभाव का आंकलन केवल लंबी अवधि में ही किया जा सकता है।
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि केंद्रीय अंतर्देशीय मत्स्य अनुसंधान संस्थान के अध्ययन से मछुआरों पर प्रतिकूल सामाजिक प्रभावों का भी खुलासा होता है। यह समुदाय नदी के पारिस्थितिकी तंत्र पर सबसे अधिक निर्भर है। अध्ययन के अनुसार, "मछुआरे अपनी दैनिक आजीविका के लिए बड़े पैमाने पर मछली पकड़ने पर निर्भर हैं। यात्री नौका की आवाजाही के कारण होने वाली गड़बड़ी का मछली पकड़ने के संचालन पर सीधा असर पड़ता है। लगभग 38% मछुआरों ने फिशिंग में होने वाले नुकसान की सूचना दी। यात्री नौका की आवाजाही से प्रति मछुआरा औसतन 75 पैसे, 4.35 रुपये और 17.63 रुपये का नुकसान होता है। ऐसा क्रमशः निचले, मध्य और ऊपरी हिस्सों में देखा गया है। ध्यान दें तो यह सागर-फरक्का खंड पर है जो गंगा जलमार्ग के कुल 1,620 किमी खंड में से केवल 560 किमी पर है।
नेशनल प्लेटफॉर्म फॉर स्मॉल स्केल फिशरवर्क्स (अंतर्देशीय) के संयोजक प्रदीप चटर्जी बताते हैं, "राष्ट्रीय जलमार्ग-1 की स्थापना और भारत-बांग्लादेश प्रोटोकॉल मार्ग का हिस्सा जो राष्ट्रीय जलमार्ग-97 है, ने गंगा के मछली संसाधनों और उस पर निर्भर मछली पकड़ने वाले समुदायों के लिए मौत की घंटी बजा दी है।
हालांकि, सिफ्री (CIFRI) के अध्ययन में यह भी कहा गया है कि जलीय वनस्पतियों और जीवों, मछली पकड़ने और मछुआरों की आजीविका पर सीमांत प्रभाव को आसानी से लागू की गई योजनाओं के माध्यम से कम किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए, यदि कोयले को आर्द्र स्थिति में ले जाया जाता है और ढक दिया जाए तो यह रिवर इकोलॉजी पर ज्यादा प्रभाव नहीं दिखाता है। रिपोर्ट में पाया गया है कि इस तरह का मूवमेंट डीजल की बचत कराएगा और सरफेस ट्रांसपोर्टेशन की तुलना में कार्बन उत्सर्जन को भी कम कर सकता है।
प्रदीप चटर्जी ने 2020 और 2021 में गंगा जलमार्ग, भारत-बांग्लादेश प्रोटोकॉल मार्ग और सुंदरवन राष्ट्रीय जलमार्ग (NW-97) पर फ्लाई ऐश नौका यात्री के पलटने का उल्लेख किया है जो इंगित करता है कि "तेल और कोयले के कारण हो रहे जल प्रदूषण के साथ ही जहाजों और बजरों की निरंतर आवाजाही और ड्रेजिंग के कारण मैलापन और व्यवधान पैदा हो रहा है। इसके साथ ही फ्लाई ऐश का रिसाव भी हो रहा है। ये सब पहले से ही कम हो रही मछलियों के भंडारण में जो कुछ बचा है उसे भी चौपट कर रहा है।"
चटर्जी कहते हैं कि छोटे स्तर के मछुआरों के जाल और नावों के ऊपर से जहाज और नौका नियमित रूप से दौड़ रही है जिससे गरीब समुदाय को भारी आर्थिक नुकसान हो रहा है।
गंगा जलमार्ग पूरा होने के करीब, भविष्य की परियोजनाओं के लिए खतरनाक मिसाल
29 मार्च, 2020 को राज्य सभा में बंदरगाह, नौवहन और जलमार्ग मंत्रालय की नवीनतम स्थिति रिपोर्ट के अनुसार, जेएमवीपी सहित 26 राष्ट्रीय जलमार्गों में से 13 में विकास की गतिविधियां हो रही हैं। इन 13 परियोजनाओं में से मांडोवी, जुआरी और कंबरजुआ पर गोवा के राष्ट्रीय जलमार्ग, आंध्र प्रदेश में राष्ट्रीय जलमार्ग-4 के खंड और ओडिशा में राष्ट्रीय जलमार्ग-5 ईआईए अधिसूचना, 2006 के तहत पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रिया के तहत थे, लेकिन ये प्रक्रिया जेएमवीपी के लिए मांगी गई छूट के कारण ठप पड़ी हैं।
इसका मतलब यह हुआ कि गंगा जलमार्ग परियोजना बिना किसी गंभीर पर्यावरणीय प्रभाव अध्ययन के पूर्ण होने के करीब है। इसका मतलब यह भी हुआ कि आवश्यक प्रभाव अध्ययन के बिना ही अन्य नदी प्रणालियों में कई अन्य परियोजनाएं चल रही हैं। निश्चित तौर पर अंतिम परिणाम नुकसानदायक होगा। यह संबंधित वातावरण और उनमें रहने वाली मछलियों और जानवरों को नुकसान पहुंचाएगा जिसे आधिकारिक तौर पर एक विलुप्त प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है और इसमें भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव गंगा डॉल्फिन भी शामिल है। इतना ही नहीं, इससे मछुआरों और अन्य समुदाय जो इन नदी प्रणालियों के इर्द-गिर्द रहते हैं उनकी आजीविका भी बुरी तरह से प्रभावित होगी।
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