देहरादून: उत्तराखंड अभी चमोली के दर्दनाक हादसे से उभर ही रहा है कि बारिश का मौसम आते ही एक बार फिर प्रदेश के विभिन्न इलाकों से चट्टानें गिरने और भूस्खलन की ख़बरें बढ़ने लगी हैं। भूस्खलन की इन घटनाओं में अधिकतर उन इलाकों की हैं जहां पर चार-धाम परियोजना का काम शुरू किया गया था।

चार-धाम परियोजना, जिसे पहले 'ऑल वेदर रोड प्रोजेक्ट' के नाम से जाना जाता था, की शुरुआत उत्तराखंड में चार धाम केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री की यात्रा को सभी मौसम के लिए सुगम बनाने के लिए की गयी थी। लेकिन पर्यावरण की अनदेखी, बड़ी मात्रा में पहाड़ों और पेड़ों की कटाई और सुरक्षा मानकों की नज़रअंदाज़ी की वजह से यह परियोजना बरसात के मौसम में यात्रियों और स्थानीय रहवासियों के लिए खतरनाक और जानलेवा साबित हो रही है।

क्या है चार-धाम परियोजना

चार-धाम यात्रा को उत्तराखंड पर्यटन की रीढ़ माना जाता है लेकिन यात्रियों को सड़क मार्ग द्वारा यात्रा करने पर कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, विशेषकर बरसात में पहाड़ से पत्थर गिरना और भूस्खलन का खतरा और ज्यादा बढ़ जाता है जिसका सीधा प्रभाव यात्रा पर पड़ता है। साल 2017 के विधानसभा चुनावों से पहले दिसंबर 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका ऐलान किया था, पीएम मोदी ने इस प्रोजेक्ट को 2013 की केदारनाथ त्रासदी में मरने वाले लोगों के लिए श्रद्धांजलि बताया था।

केंद्र सरकार द्वारा देवभूमि उत्तराखंड में चार-धाम की यात्रा को सभी मौसम के लिए सुगम बनाने के साथ-साथ राज्य से लगती अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर सुरक्षा की दृष्टि से भी इस परियोजना को महत्वपूर्ण बताया गया है। केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय की इस रुपये 12,000 करोड़ की परियोजना के तहत 889 किलोमीटर लम्बे हाइवे को चौड़ा कर, चारो धामों, यमनोत्री (NH-94), गंगोत्री (NH-108), केदारनाथ (NH-109) और बद्रीनाथ (NH-58) को आपस में जोड़ा जा रहा है ताकि एक सुरक्षित सुगम और तेज़ आवाजाही हो सके। इस योजना के अंतर्गत 12 बाईपास ,15 फ्लाईओवर,107 छोटे पुल और 3889 कलवेर्टर् का निर्माण होना था।

यमनोत्री ऋषिकेश मार्ग पर भूस्खलन के बाद मलवा हटाती JCB, फ़ोटो - सत्यम कुमार

चार-धाम परियोजना का जिम्मा उत्तराखंड लोक निर्माण विभाग, बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन (BRO) और राष्ट्रीय राजमार्ग एवं अवसंरचना विकास निगम लिमिटेड (NHIDCL) के पास है।

प्रकृति से छेड़छाड़

उत्तराखंड राज्य का अधिकांश क्षेत्र पहाड़ी है जो भूगर्भीय रूप से बहुत ही नाजुक है। पर्यावरण के जानने वालों का मानना है कि पहाड़ पर वर्तमान में तेज़ी से जलवायु और भौगालिक बदलाव देखने को मिल रहे है जिनका सीधा प्रभाव दुर्लभ वनस्पति, जैव विविधता पर पड़ रहा हैं।

चूँकि चार-धाम प्रोजेक्ट का निर्माण पूर्ण रूप से पहाड़ी क्षेत्र में ही होना है, इस कारण इस प्रोजेक्ट का असर यहाँ के परिस्थतिक तंत्र पर पड़ना तय हैं। लेकिन इस प्रोजेक्ट को बनाने और इसके पास होने की प्रक्रियाओं के दौरान पर्यावरण पर पडने वाले असर को बिलकुल भी ध्यान में नहीं रखा गया है, यहां तक कि एनवायरनमेंट इम्पैक्ट अस्सेस्मेंट या प्रयावरण पर पड़ने वाले प्रभाव की समीक्षा को भी बाईपास कर दिया गया।

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 की अधिसूचना 2006 के अनुसार 100 किलोमीटर से बड़े किसी भी रोड प्रोजेक्ट पर एनवायरमेंट इंपैक्ट असेसमेंट अनिवार्य होता है, लेकिन प्रोजेक्ट के 100 किलोमीटर से कम होने पर ऐसा नहीं होता है। चार-धाम परियोजना में करीब 900 किलोमीटर लम्बे प्रोजेक्ट को 53 छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटा गया है, ताकि एनवायरमेंट इंपैक्ट असेसमेंट की आवश्यकता ही न हो।

सिटीजन फॉर ग्रीन दून ने अक्टूबर 2018 ने इस परियोजना के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर की जिसके बाद न्यायालय ने रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में एक हाई पावर कमेटी (HPC) का गठन करने का आदेश दिया। इस समिति का कार्य चार-धाम परियोजना से पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन पर होने वाले प्रभाव का आकलन कर रिपोर्ट तैयार करना था।

इस हाई पावर कमेटी के सदस्य हेमंत ध्यानी का कहना है कि सरकार के द्वारा एनवायरमेंट इंपैक्ट असेसमेंट (EIA) कराया ही नहीं गया, पर्यावरण पर पड़ने वाले असर के आकलन से बचने के लिए प्रोजेक्ट को 53 हिस्सों में बांट दिया, और प्रत्येक हिस्सा 100 किलोमीटर से कम का है।

सड़क की चौड़ाई और इसके नुकसान

सड़क को चौड़ा करने में मुख्य कार्य पहाड़ों की कटाई रहा है, हाई पावर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार पूर्व अवलोकन के अभाव के कारण सुरक्षा इंतज़ामों का अभाव रहा जो बाद में आम जनता और मजदूरों की मौतों व चोटों का कारण बना। पहाड़ों की कटाई के कारण बहुत से नये भूस्खलन ज़ोन बने हैं, जबकि बहुत ही कम जगहों पर भूस्खलन को रोकने के लिए पर्याप्त उपाय किये गये।

ध्यानी आगे बताते हैं कि पहाड़ में सड़क को जितना अधिक चौड़ा किया जायेगा पहाड़ों को उतना अधिक काटना होगा, जिसके चलते उतना ही अधिक नुकसान प्रकृति को होगा। वो आगे बताते हैं कि हाई पावर कमेटी (HPC) के द्वारा रिपोर्ट उच्चतम न्यायालय को प्रस्तुत करने के बाद न्यायालय ने सड़क के 12 मीटर होने पर रोक लगा दी और सड़क की चौड़ाई 5.5 मीटर तय की गयी। लेकिन डिफेंस मिनिस्ट्री की मांग थी कि सड़क अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये महत्वपूर्ण है इसलिये सड़क 7 मीटर चौड़ी हो। इस पर न्यायालय के द्वारा HPC को फिर से रिपोर्ट देने के लिए कहा गया, यह रिपोर्ट भी दिसम्बर 2019 में न्यायालय को सबमिट की जा चुकी है लेकिन न्यायालय का इस पर अभी कोई निर्णय नहीं आया है।

चार-धाम परियोजना में सड़क कि चौड़ाई एक बहुत बड़ा मुद्दा रहा है लेकिन जानकारों का मानना है कि इस सड़क की चौड़ाई का सम्बन्ध यातायात सुरक्षा से कम और आर्थिक लाभ से ज़्यादा है।

16 दिसम्बर 2013 को सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना की ओर इशारा करते हुए ध्यानी बताते हैं, "ऐसा आवश्यक नहीं है कि 12 मीटर चौड़ी सड़क ही अच्छी होती है लेकिन यदि आपको टोल टैक्स लगाना है तो सड़क के काले हिस्से की चौड़ाई 10 मीटर होना बहुत आवश्यक है इसीलिये सरकार सड़क के 12 मीटर चौड़ी होने के लिए जोर दे रही है।"

वानिकी कॉलेज रानीचौरी में पर्यावरण विज्ञान के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डा. एस पी सती का कहना है कि पहाड़ में अच्छी सड़क होना बहुत अवश्यक है लेकिन पहाड़ में ज्यादा चौड़ी सड़क बहुत खतरनाक होती है क्योकि ज्यादा चौड़ी सड़क का मतलब ज्यादा ट्रैफिक और पहाड़ में क्षमता से ज्यादा लोगो की आवाजाही जो किसी बड़ी घटना को न्योता देना है।

"यदि सीधे शब्दों में कहें तो पहाड़ में 12 मीटर की सड़क की आवश्कता नहीं थी, 5 से 7 मीटर की अच्छी सड़क भी पर्याप्त होती है। अतः हम सभी को यह समझना होगा कि पहाड़ में इस प्रकार का अनावश्यक निर्माण आने वाले समय में भयंकर तबाही का कारण बनेगा," डा. सती ने बताया।

पर्यावरण का तीन तरफ़ा नुकसान

इस परियोजना के तहत सड़क की चौड़ाई जितनी बढ़ाई जाएगी उतना ही उत्तराखंड के पर्यावरण पर तीन अलग अलग तरीकों से प्रभाव पड़ेगा जिसका खामियाजा यहां की जनता और यात्रियों को प्राकृतिक आपदाओं के रूप में भुगतना पड़ेगा।

चूँकि इस परियोजना का क्षेत्र पहाड़ और जंगल है, सड़क की चौड़ाई बढ़ाने के लिए पेड़ों को काटना पड़ेगा, पहाड़ों को काटना पड़ेगा और इससे निकलने वाले मलबे का निस्तारण करना पड़ेगा और यही तीन कारण हैं जो उत्तराखंड की आपदाओं को लेकर मुख्यरूप से जिम्मेदार हैं।

इस परियोजना के तहत लगभग 60 हजार पेड़ काटे गये हैं, इन सभी पेड़ों के तनों की मोटाई 30 सेमी से अधिक है। बड़े पेड़ पहाड़ को बांधे रखते हैं, जिस कारण पहाड़ से मिट्टी का कटाव बहुत कम होता है, भारी संख्या में पेड़ों की कटाई के कारण पहाड़ की स्थिरता और पर्यावरण दोनों पर बुरा असर पड़ेगा।

यमुनोत्री ऋषिकेश मार्ग पर नरेंद्र नगर के नजदीक भूस्खलन। फ़ोटो - सत्यम कुमार

इस ही के साथ सड़क निर्माण के लिए पहाड़ों की कटाई की तकनीक भी सवालों के घेरे में है। कई स्थानों पर पहाड़ 90 डिग्री पर यानि कि बिना किसी ढलान के काटे गए हैं ऐसे में ऊपरी इलाकों से पहाड़ों के सरकने का खतरा बढ़ जाता है।

"चार-धाम सड़क निर्माण के लिये 60 हजार से ज्यादा पेड़ काटे गये हैं जिसका बहुत बड़ा नुकसान यहां के पर्यावरण को होने वाला है, साथ ही क्षमता से अधिक मलबा डंपिंग ज़ोन में डाला गया है उस के द्वारा भी भारी मात्रा में पेड़ो की हानि हुई है जिसके चलते बरसात के मौसम में मिट्टी का कटाव अधिक होगा। और पहाड़ो की कटिंग के लिये 90 डिग्री स्लोप का इस्तेमाल किया गया है जिस कारण सड़क में नये भूस्खलन जोन बन गये हैं," डा. सती ने बताया।

इस बारे में जब हमने इस प्रोजेक्ट के एक्सक्यूटिव इंजीनियर जीतेन्द्र त्रिपाठी से बात की तो उन्होंने बताया, "सभी पहाड़ एक जैसे नहीं हैं इसी कारण सभी पहाड़ों को एक प्रकार नहीं कटा जाता है। यदि पहाड़ मजबूत है तो 80 डिग्री और 90 डिग्री काट सकतें है लेकिन यदि पहाड़ कमजोर है तो फिर 45 डिग्री ही काटना होगा, ये सब वहां की भौगोलिक परिस्थति पर निर्भर करता है।

पहाड़ों का मलबा सबसे बड़ी समस्या

पहाड़ों की कटाई से निकलने वाला मलबा भी एक बहुत बड़ा मुद्दा है और ये मलबा उत्तराखंड के पहाड़ों की समस्याओं को और बढ़ा देता है। इस मलबे के निस्तारण के लिए निर्धारित डंपिंग ज़ोन बनाये गए हैं ताकि ये मलबा नदियों में ना डाला जाये।

लेकिन इन डंपिंग ज़ोन में क्षमता से अधिक मलबा डालने के कारण अधिकतर डंपिंग ज़ोन में भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है, जिसके कारण डंपिंग ज़ोन के नीचे के ढ़लान के पेड़ों और नदियों पर भी बुरा असर हुआ है। हालांकि, इससे पैदा होने वाली समस्या से निपटने के लिए अभी कोई पर्याप्त योजना नहीं है।

चार-धाम परियोजना के तहत काटे गए पहाड़ों से जनपद रुद्रप्रयाग के केदार घाटी में आए दिन भारी लैंडस्लाइड होने के कारण किसानों के खेतों को भारी नुकसान हो रहा है। इसलिये केदार घाटी के बहुत से गावों, जिनमें सेरसी, बड़ासू, रामपुर, सीतपुर, मैखन्डा, ब्यूंग और फाटा में अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) के नेतृत्व में किसानों और आम जनता के द्वारा विरोध प्रदर्शन हो रहा है।

केदार घाटी में किसान आंदोलन, फ़ोटो - सत्यम कुमार

अखिल भारतीय किसान सभा के रुद्रप्रयाग जिला सचिव राजाराम सेमवाल ने चार-धाम प्रोजेक्ट के कार्यों पर सवाल उठाते हुए कहा कि सड़क के चौड़ीकरण के समय जिन लोगों के खेत चिन्हित हुए उनको तो मुआवज़ा मिला लेकिन उन लोगों के लिये कुछ नहीं हुआ जिनके खेत सड़क के ऊपरी हिस्से में थे लेकिन नीचे के खेत का कटान होने के बाद ये खेत भी सरक कर ख़राब हो गये।

"जो मिट्टी डंपिंग जोन में डाली गयी उसने क्षेत्र में पैदा होने वाले बांज, बुरांस जैसे अमूल्य पेड़ों के साथ साथ खेत और नदी के प्रवाह को भी नुकसान पहुचाया है, लेकिन इनको सही करने के ऊपर प्रशासन का कोई ध्यान नहीं है," सेमवाल ने बताया।

"असल में वर्तमान सरकार का ध्यान विकास की और है ही नहीं, वह तो केवल मुनाफ़े के अवसर की तलाश में रहती है।"

भूस्खलन स्थानों के ट्रीटमेंट के बारे में जीतेन्द्र त्रिपाठी ने हमें बताया कि टिहरी हाइड्रो डेवलॅपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड (टीएचडीसी) और जीओलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के साथ एक समझोता (MOU) किया गया है ये संस्थाए अपना अध्ययन कर रही हैं फिर इनके सुझावों के अनुसार कार्य किया जायेगा अभी केवल 8 या 9 मीटर तक की दीवारें बनाकर भूस्खलन को रोकने की कोशिश की गयी है, अभी कोई बड़ा ट्रीटमेंट नहीं किया गया है। लेकिन केवल इस प्रकार की दीवारों से भी भूस्खलन की घटनाएं काफी कम हुयी हैं।

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