मुंबई: पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जैव विविधता अधिनियम 2002 में प्रस्तावित संशोधन, भारत के जैव संसाधनों के संरक्षण पर ध्यान देने की बजाय उन्हें व्यवसायीकरण की तरफ ले जा सकता है। और, इन संसाधनों पर निर्भर लोगों के पारंपरिक ज्ञान और अधिकारों को कमजोर कर सकता है।

दिसंबर 2021 में, केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEF&CC) ने जैव विविधता कानून (संशोधन) विधेयक 2021 के जरिए जैव विविधता अधिनियम, 2002 में व्यापक संशोधन का प्रस्ताव रखा है। यह संशोधन मूल अधिनियम में जैव संसाधनों के उपयोग और पहुंच के लिए बनाए गए संस्थागत निरीक्षण ढांचे को कमजोर करता नजर आ रहा है।

जैव विविधता अधिनियम 2002, संयुक्त राष्ट्र के 1992 में जैव विविधता पर हुए सम्मेलन (CBD) को प्रभावी बनाने के लिए लागू किया गया था। इसका मकसद जैव संसाधनों और उससे जुड़े पारंपरिक ज्ञान से होने वाले लाभों का स्थायी, निष्पक्ष और समान बंटवारा करना है। साल 2021 के संशोधन में "जैव विविधता" जैसे शब्दों को "जैव संसाधनों" और "ज्ञान के धारकों" को "पारंपरिक ज्ञान के धारकों" के साथ बदलने का प्रस्ताव है।

भारतीय खेती में पर्यावरणीय स्थिरता, सामाजिक समानता और आर्थिक विकास की दिशा में काम करने वाला संगठनों के एक अखिल भारतीय गठबंधन आशा-किसान स्वराज ने अपने एक विश्लेषण में इसे "खतरनाक बदलाव" बताया है। इसकी संस्थापक-संयोजक कविता कुरुघंटी ने कहा, "बदलाव स्पष्ट है और जो कुछ भी वे कर रहे हैं, उसके बारे में ना कुछ भी छिपा रहे हैं, ना बढ़ा-चढ़ा कर बता रहे हैं।"

विश्लेषण में कहा गया है कि जहां "जैव विविधता" शब्द प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के एक जटिल जाल को दर्शाता है, वहीं दूसरी ओर, "जैव संसाधन" शब्द जैव विविधता की एकतरफा समझ को दिखाता है। ये जैव विविधता को शोषण और मुनाफाखोरी की तरफ ले जा रहा है। कुरुघंटी ने कहा, "इस बात का डर है कि कानून लागू करते समय और अदालत में चुनौती देते वक्त कैसे इन शब्दों की व्याख्या की जाएगी।"

पुणे स्थित एक अखिल भारतीय पर्यावरण एक्शन ग्रुप 'कल्पवृक्ष' की संरक्षण और आजीविका कार्यक्रम समन्वयक, नीमा पाठक ब्रूम ने इंडियास्पेंड को बताया, "ऐसा लगता है कि ये संशोधन विधेयक जैव विविधता और उसका संरक्षण करने वाले समुदायों के बारे में कम बात करता है, जो कि कानून का मुख्य उद्देश्य था और ज्यादा बात इस बारे में है कि कैसे जैव संसाधनों तक पहुंच ज्यादा आसान हो, खासतौर पर व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए, जैसे कि बड़ी कंपनियों के लिए।"

पाठक ब्रूम ने कहा, "संशोधन एक झटके की तरह है क्योंकि 2002 के जैव विविधता अधिनियम में बदलाव की मांग समय-समय पर उठती रही है ताकि इसे नागोया प्रोटोकॉल (जैव संसाधनों तक पहुंच और उनके उपयोग से होने लाभों को साझा करने पर एक अंतरराष्ट्रीय समझौता, जिसमें भारत एक हस्ताक्षरकर्ता है) के हिसाब से बनाया जा सके और सुनिश्चित किया जा सके कि लाभ बांटने के मामले में स्थानीय स्तर पर बेहतर समता हो। लेकिन जो आया है वो इसके बिल्कुल उलट है। इसने 2002 के अधिनियम को और भी कमतर बना दिया है। इसने जैव-विविधता समितियों की शक्ति को कम कर दिया है।"

फिलहाल इस विधेयक को समीक्षा के लिए एक संयुक्त संसदीय समिति के पास भेज दिया गया है। समिति की हालिया बैठक में 8 फरवरी, 2022 तक संशोधन के मसौदे पर आठ राज्यों के जैव विविधता बोर्डों के प्रतिनिधियों से राय मांगी गई है।

इंडियास्पेंड ने पर्यावरण मंत्रालय से कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों की इन आशंकाओं पर प्रतिक्रिया मांगी है कि क्या संशोधन से भारत की जैव विविधता के व्यवसायीकरण में तेजी आ जाएगी? उनकी प्रतिक्रिया मिलने पर हम इस आर्टिकल को अपडेट करेंगे।

संस्थागत ढांचों का कमज़ोर होना

साल 2002 के अधिनियम में जैव संसाधनों तक पहुंच बनाने के लिए तीन स्तर के ढांचे का प्रावधान किया गया है। राष्ट्रीय स्तर पर एक राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (एनबीए), राज्य स्तर पर राज्य जैव विविधता बोर्ड (एसबीबी) और स्थानीय निकाय स्तरों पर जैव विविधता प्रबंधन समितियां (बीएमसी)। बीएमसी की प्राथमिक जिम्मेदारी स्थानीय जैव विविधता को दर्ज करना और उससे जुड़े पारंपरिक ज्ञान से पीपल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर तैयार करना है।

पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस संशोधन विधेयक में बीएमसी और केंद्रीय/राज्य जैव विविधता समितियों जैसे संस्थागत ढांचे को कमजोर करने और सारी प्राथमिकता एनबीए को देने की बात है। संशोधन में कहा गया है कि "राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण के प्रतिनिधित्व वाली जैव विविधता प्रबंधन समिति" उचित और समतापूर्ण लाभ तय करेगी।

भारत में पर्यावरणीय न्याय के लिए बने एक संगठन- कोएलिशन फॉर एनवायरमेंटल जस्टिस इन इंडिया- ने हाल ही में एक बयान जारी किया है। इस संगठन में 34 नागरिक समाज संगठन, कार्यकर्ता और विशेषज्ञ शामिल हैं। इसमें कहा गया है कि इस तरह के प्रावधानों से बीएमसी की निगरानी प्रक्रिया प्रभावित होगी। बयान में कहा गया है, "इस कमजोरी का फायदा निजी कॉर्पोरेशन, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और खासतौर पर आयुष से जुड़े (आयुर्वेद, योग, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध, सोवा-रिग्पा और होम्योपैथी) उद्योगों को मिलेगा।"

बायोपाइरेसी के बढ़ने का डर

कुरुघंटी कहती हैं, मूल अधिनियम में जैव संसाधनों तक पहुंचने के लिए, कुछ श्रेणियों के लोगों/कॉर्पोरेट निकायों को एनबीए से पहले इजाजत लेनी होती है। इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो भारत के नागरिक नहीं हैं या ऐसे निकाय/कंपनी जिसका भारत में पंजीकरण नहीं हुआ है। लेकिन संशोधन में इसे भारत के बाहर बनी "विदेशी नियंत्रित कंपनी" तक सीमित कर दिया गया है। इसका मतलब है कि भारत में बनी या पंजीकृत हुई किसी भी कंपनी को राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण की मंजूरी लेने की जरूरत नहीं है।

पाठक ब्रूम ने कहा, "उन्होंने परिभाषाओं को इस तरह बदल दिया है कि विदेशी संगठन अब अपने भारतीय भागीदारों के जरिए संसाधनों तक पहुंच सकते हैं। इन प्रावधानों से बायोपाइरेसी की संभावना ज्यादा बढ़ सकती है। यह पहले से ही कमजोर थे, जिसे अब और भी कमजोर किया जा रहा है।"

बायोपाइरेसी तब होती है जब संगठन या शोधकर्ता अनुमति या आधिकारिक मंजूरी लिए बिना व्यावसायिक मकसद से स्वदेशी जैव संसाधनों का इस्तेमाल करते हैं, जो अक्सर लोगों के पारंपरिक ज्ञान पर आधारित होते हैं। यह उन संस्कृतियों के दोहन को बढ़ावा देता है, जिनसे यह जैव संसाधन लिए गए हैं। विदेशी फर्मों के भारत में लंबे समय से इस्तेमाल किए जा रहे उत्पादों जैसे- नीम, बासमती चावल, हल्दी और दार्जिलिंग चाय का पेटेंट लेने की कोशिश को इसके एक उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है।

कुरुघंटी ने कहा, "2002 अधिनियम बौद्धिक संपदा अधिकारों (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स), खासतौर पर पेटेंट के लिए आवेदन करते समय एक गेटकीपर का काम करता था। लेकिन, संशोधन के तहत चीजें आसान हो जाएंगी। विदेशी हिस्सेदारों वाली भारतीय कंपनियों के लिए एनबीए से पूर्व स्वीकृति की जरूरत नहीं रहेगी। अगर पायरेसी के मुद्दे सामने आते हैं तो यह साबित करना वाकई संघर्ष बन जाएगा कि बायोपाइरेसी हुई है।"

जल्दबाजी में लाए संशोधन पर चिंता

विशेषज्ञों ने इस बात पर भी चिंता जताई है कि बिना परामर्श प्रक्रिया के नए संशोधन को कैसे मंजूरी दे दी गई। संसद में विधेयक के लक्ष्य और कारण बताते हुए मंत्रालय का कहा है कि यह संशोधन भारतीय चिकित्सा प्रणाली, बीज, उद्योग और शोध क्षेत्रों की चिंताओं के मद्देनजर लाया गया है, जिन्होंने साझा शोध, निवेश और पेटेंट प्रक्रिया में कानूनी अनुपालन बोझ को कम करने, सरल और व्यवस्थित बनाने का आग्रह किया था।"

दिसंबर 2021 में वन और पर्यावरण के लिए कानूनी लड़ाई लड़ने वाले संस्थान 'लीगल इनिशिएटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट' ने प्रस्तावित संशोधन का शुरुआती मूल्यांकन किया था. इसमें कहा गया था कि पर्यावरण मंत्रालय ने विधेयक को सार्वजनिक टिप्पणियां मांगे बिना संसद में पेश किया गया था. जबकि सार्वजनिक टिप्पणियां मांगना पूर्व-विधान सलाहकार नीति, 2014 के तहत अनिवार्य है।

कुरुघंटी ने कहा, "संशोधन मूल रूप से आयुष उद्योग और बीज उद्योग से मिली जानकारी पर आधारित है। यह जल्दबाजी में लिए गए उन फैसलों का एक उदाहरण है, जो विचार-विमर्श करने वाली लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ख्याल रखने में विफल रहते हैं। जैसे कि उन लोगों से परामर्श करना जरूरी था, जिन पर इस कानून का प्रभाव पड़ेगा। कानून में संशोधन करने से पहले जो भी प्रक्रिया चली और जिन भी समितियों का गठन किया गया उन्होंने मुख्य तौर पर आयुष और बीज उद्योग के प्रतिनिधियों से ही परामर्श किया था।"

कोएलिशन फॉर एनवायरमेंट जस्टिस इन इंडिया के एक बयान के मुताबिक, "ये संशोधन जैव विविधता अधिनियम 2002 को भारत में चल रहे पर्यावरणीय कानून पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के दायरे से बाहर लाने का कदम भी है। 2002 के अधिनियम के तहत, पर्यावरण और संबंधित अधिकारों के खिलाफ हुए सभी उल्लंघनों को आपराधिक अपराध माना जाता है। नए विधेयक में मंत्रालय ने जैव विविधता अधिनियम के ऐसे उल्लंघनों को केवल नागरिक अपराधों तक सीमित करने का प्रस्ताव किया है।

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