देहरादून: गर्मी बढ़ने के साथ ही उत्तराखंड के जंगल एक बार फिर आग से घिरे हुए हैं। राज्य के वन विभाग के मुताबिक वनाग्नि की ज्यादातर घटनाएं चीड़ के जंगलों में हो रही हैं। ऐसे में उत्तराखंड वन विभाग वनों के वैज्ञानिक प्रबंधन, यानी कटाई-छंटाई, की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करने की तैयारी कर रहा है।

वन विभाग के अलावा भी कई लोग चीड़ के जंगलों को आग के साथ-साथ सूखते जल स्त्रोतों के लिए भी जिम्मेदार ठहराते हैं, लेकिन वैज्ञानिकों और पर्यावरण शोधकर्ताओं का मानना है कि चीड़ के वनों को बढ़ती आग और जल स्त्रोतों के सूखने के लिए ज़िम्मेदार ठहराना उचित नहीं है।

वन अधिकारी और चीड़ वनों पर शोध करने वाले मनोज चंद्रन का कहना है कि बढ़ती आग के लिए ज़िम्मेदार ठहराए जाने वाले चीड़ (Pinus roxburghii) के जंगलों ने हिमालय की हरियाली को सहेजा हुआ है। उत्तरी गोलार्ध में रहते हुए हिमालयी पहाड़ियों की दक्षिणी ढाल सूरज की रोशनी से सबसे ज्यादा तपती है। जिसका सामना सामान्य पेड़-पौधे आसानी से नहीं कर सकते। लेकिन चीड़ ने सदियों के अपने सफ़र में इस धूप में ही पनपना सीखा है। ये इसका क्लाइमेट अडॉप्टेशन यानी जलवायु के लिहाज से अनुकूलन है।

चीड़ के जंगल और आग

उत्तराखंड का भौगोलिक क्षेत्र 53,483 वर्ग किलोमीटर है। जिसका 45.74% क्षेत्र (24,465 वर्ग किलोमीटर) जंगलों से घिरा है। राज्य में मुख्य तौर पर चीड़ पाइन, साल, बांज ओक समेत अन्य वन पाए जाते हैं। सामान्य तौर पर समुद्र तल से 300-1000 मीटर ऊंचाई पर साल के पेड़ों के जंगल, 900-1800 मीटर तक चीड़ पाइन और 1500-2300 मीटर पर बांज ओक के जंगल हैं। चीड़ के वन ज्यादातर आबादी वाले इलाकों से लगे हुए हैं और कुल वन क्षेत्र का तकरीबन 28% हैं।

उत्तराखंड में पिछले कुछ सालों में वनाग्नि के मामलों में काफी वृद्धि दिखाई दी है। नवंबर-2019 से जून-2020 के बीच प्रदेश में जंगल की आग की घटनाओं के मुकाबले नवंबर-2020 से जून-2021 के बीच की घटनाओं में 28.3 गुना वृद्धि पाई गई।

राज्य सभा में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा दिए गए एक जवाब के मुताबिक, नवंबर-2020 से जून-2021 के बीच देशभर के जंगलों में आग लगने की 3,45,989 घटनाएं हुईं। जो पिछले 5 वर्षों में सबसे अधिक है। इस दौरान उत्तराखंड में 21,487 वनाग्नि की घटनाएं दर्ज हुईं। जबकि नवंबर-2019 से जून-2020 के बीच देशभर में दर्ज की गई वनाग्नि की 1,24,473 घटनाओं में से उत्तराखंड के वनों में 759 घटनाएं हुई थीं।

फारेस्ट सर्वे ऑफ़ इंडिया के अनुसार, देशभर में फॉरेस्ट फायर सीजन नवंबर से जून तक होता है। उत्तराखंड वन विभाग 15 फरवरी से 15 जून तक फॉरेस्ट फायर सीजन मानता है। इस दौरान लोग सदियों से आग को वन प्रबंधन के पारंपरिक तरीके के तौर पर अपनाते रहे हैं। सूखी झाड़ियों की सफाई और हरी घास के बंदोबस्त के लिए आग का इस्तेमाल किया जाता है।

लेकिन तेज़ गर्मी में यह आग अनियंत्रित हो जाती है और कई मामलों में वनाग्नि का कारण बनती है। उत्तराखंड के जंगलों में ज्यादातर आग लगने की घटनाएं मानवीय बस्तियों के ईर्द-गिर्द ही होती हैं। आग बेकाबू होने पर चीड़ के वन इसकी चपेट में आ जाते हैं।

चीड़ के वनों के पहाड़ों के गर्म हिस्से पर और रिहायशी क्षेत्र के नज़दीक होने के कारण ज्यादातर आग लगने की घटनाएं यहीं होती हैं।

बागेश्वर में वन पंचायत सरपंच संगठन के जिलाध्यक्ष पूरन रावल कहते हैं, "हमारे क्षेत्र के लिए चीड़ अभिशाप बन गया है। जैव-विविधता को पूरी तरह बरबाद कर दिया है। चीड़ को लेकर हमने पूर्व मुख्यमंत्री, उत्तराखंड वन विभाग और जिला प्रशासन तक कई पत्र लिखे कि इस चीड़ को आबादी क्षेत्र से कम किया जाए और चौड़ी पत्ती के जंगल तैयार किये जाएं। हम जंगल के साथ रहने वाले लोग हैं। हमें पता है कि चीड़ से कितना नुकसान हो रहा है।"

क्यों ज़्यादा आग लगती है चीड़ के जंगलों में

भारतीय वन सेवा अधिकारी और चीड़ के पेड़ों की कटाई पर प्रतिबंध के असर का अध्ययन करने वाले शोधकर्ता मनोज चंद्रन कहते हैं, "चीड़ और बांज दोनों जंगलों में आग लगती है। चूंकि बांज के वन पहाड़ की उत्तरी ढलान पर होते हैं, जहां गर्मी अपेक्षाकृत कम होती है और ज्यादा नमी पायी जाती है। इसलिए वहां आग लगने की आशंका कम होती है।"

चंद्रन चीड़ के जंगलों में आग के तेज़ी से फैलने के पीछे इसकी पत्तियों में होने वाले ज्वलनशील पदार्थ रेसिन को कारण बताते हैं।


चीड़ की पत्तियां तेजी से आग पकड़ती हैं लेकिन यह आग बहुत देर तक नहीं रहती है और आगे बढ़ जाती है। फोटो: वर्षा सिंह

"लेकिन चीड़ वनों में किसी एक स्थान विशेष पर आग कुछ ही सेकेंड रहती है और पत्तियों में मौजूद तेल की वजह से तेज़ी से आगे की तरफ बढ़ जाती है। तो सिर्फ ऊपर की परत ही जलती है। ज़मीन के अंदर उसकी गर्मी नहीं पहुंचती। मिट्टी के नीचे रहने वाले कीड़े-मकोड़े और नन्हे जीव सुरक्षित रहते हैं। बारिश होते ही चीड़ के जंगल फिर हरे-भरे हो जाते हैं," चंद्रन कहते हैं।

"इसके उलट बांज के जंगल आग सहन नहीं कर पाते। नमी के चलते ऊपर से इसकी लपटें नहीं दिखती लेकिन ज़मीन के अंदर कोयला सुलगता रहता है। जिसका नुकसान मिट्टी के भीतर जैव-विविधता पर पड़ता है। उसे दोबारा हरा-भरा होने में लंबा समय लगता है," चंद्रन बताते हैं।

सूखते जल स्रोत और बांज जंगलों में घुसपैठ

चीड़ एक हिमालयी प्रजाति है जो उत्तराखंड के साथ जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग और अरुणाचल प्रदेश से लेकर पड़ोसी हिमालयी देशों में मौजूद है। जंगलों की आग के साथ साथ चीड़ को सूखते जल स्त्रोतों के लिए भी जिम्मेदार ठहराया जाता है।

वैज्ञानिक समुदाय का एक धड़ा भी मानता है कि चीड़ के वनों से हिमालयी क्षेत्र का मरुस्थलीकरण हो रहा है। कुमाऊं विश्वविद्यालय के जियोग्राफी हेड प्रोफेसर जेएस रावत भी ये मानते हैं।

हालाँकि, वरिष्ठ वैज्ञानिक और गढ़वाल विश्वविद्यालय के पूर्व वाइस चांसलर प्रोफेसर एसपी सिंह इससे इंकार करते हैं। "वातावरण में बढ़ती गर्मी को भांपकर चीड़ अपना स्टोमेटा (पेड़ की पत्तियों, तनों व अन्य अंगों में बने छोटे-छोटे छेद) बंद कर देते हैं ताकि पानी स्टोर रहे। तीव्र गर्मी के दिनों में इसी पानी से वे अपना काम चलाते हैं। जबकि बांज अपना स्टोमेटा खुला रखता है। उसका शरीर पानी सहेजने में सक्षम नहीं होता। इसलिए बांज के बचे रहने के लिए अनुकूल परिस्थितियां चाहिए। जबकि चीड़ बहुत सूखे वातावरण में भी खुद को बचाए रखने में सक्षम है। अगर ऐसा नहीं होता तो डेफोरेस्टेशन यानी जंगल खत्म हो गए होते।"

"पानी की बचत के लिए ही गर्मियों में पेड़ अपनी पत्तियां गिरा देते हैं। यही झरी हुई पत्तियां मिट्टी की सुरक्षा कवच बन जाती हैं और तेज़ धूप में उसकी नमी को बचाती हैं। चीड़ को अपराधी साबित करना गलत है। कोई इकोलॉजिस्ट इस बात को नहीं मानेगा," प्रोफेसर सिंह कहते हैं।

चीड़ पर ये भी आरोप है कि ये बांज के जंगलों में घुसपैठ कर रहा है जिसका प्रभाव चारा-पत्ती के लिए बांज के वनों पर निर्भर करने वाले लोगों पर पड़ता है।

चंद्रन कहते हैं, "इसके ज़िम्मेदार हम हैं। बांज के जंगल में चारा-पत्ती के लिए कंटाई-छंटाई करने पर कैनोपी (पेड़ की ऊपरी शाखाओं पर पत्तियों का घना जाल) खुल जाती है। सूरज की रोशनी से ज़मीन सूखेगी तो वहां बांज नहीं उग पाएगा लेकिन चीड़ उग जाएगा। बांज के जंगल घटे हैं और अगर चीड़ नहीं होगा तो डिफॉरेस्टेशन हो जाएगा।"


चीड़ पर ये भी आरोप है कि ये बांज के जंगलों में घुसपैठ कर रहा है। फोटो: वर्षा सिंह

"चीड़ आर्थिक और पारिस्थितिक लिहाज से महत्वपूर्ण वृक्ष की प्रजातियों में से एक है। बदलती जलवायु में हमें चीड़ को बचाने की जरूरत है ताकि हिमालयी वन क्षेत्र को संरक्षित किया जा सके।"

वन प्रबंधन की बढ़ती मांग

वन प्रबंधन का उद्देश्य जंगल से वाणिज्यिक जरूरतों के लिए लकड़ी लेना और पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे इसका संतुलन बनाए रखना है। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के चलते ही तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने वर्ष 1981 में 1,000 मीटर से ऊपर पेड़ों की कटाई पर 10 वर्ष के लिए प्रतिबंध लगाया था। जिसे बाद में 10 वर्षों के लिए और बढ़ा दिया गया। 12 दिसंबर 1996 को ऐतिहासिक गोदावर्मन केस पर फ़ैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में जंगल काटने पर प्रतिबंध लगाया। जो अब तक जारी है।

गर्मियों में हर साल जंगल की आग शुरू होने के साथ ही समुद्र तल से एक हजार मीटर से ऊपर पेड़ों की कटाई पर लगा प्रतिबंध हटाने की मांग शुरू हो जाती है।


उत्तराखंड के पौड़ी में जंगल की आग से उठता धुआं। फोटो: वर्षा सिंह

टिहरी के सेमण्डीधार गांव के एसपी नौटियाल चीड़ वनों के विस्तार को लेकर मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री कार्यालय और उत्तराखंड वन विभाग को पत्र लिख चुके हैं। वह कहते हैं, "चीड़ के पेड़ों के बढ़ने के कारण गांव के जलस्रोत सूख रहे हैं। चीड़, जंगलों और खेतों में भी आग लगने की मुख्य वजह हैं। जिसकी वजह से फलदार और छायादार वृक्ष भी जल जाते हैं"। वह चीड़ के वृक्षों को काटकर उनकी जगह फलदार पेड़ लगाने की अनुमति चाहते हैं।

अपर प्रमुख वन संरक्षक, सतर्कता एवं विधि प्रकोष्ठ बीके गांगटे बताते हैं कि 1 हज़ार मीटर से अधिक उंचाई पर वनों के वैज्ञानिक प्रबंधन की मांग को लेकर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से अनुरोध किया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के गोदाबर्मन केस से जुड़े फैसले के चलते केंद्र ने वर्ष 2020 में यह मांग ख़ारिज कर दी थी। अब वन विभाग सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रहा है।

गांगटे बताते हैं "एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड (उत्तराखंड सरकार के वकील) को हमने सभी दस्तावेज दे दिए हैं। वह केस फाइल करने की तैयारी कर रहे हैं"।

प्रोफेसर सिंह कहते हैं "प्रतिबंध हटा तो कितना जंगल कट जाएगा, इसका अंदाज़ा नहीं है। इसलिए हम इस मांग को लेकर झिझकते हैं। हालांकि चीड़ के जंगल का सही प्रबंधन करें तो हमें बेहतर नतीजे मिलेंगे।" वह वन प्रबंधन की उत्तराखंड वन विभाग की क्षमता पर भी सवाल उठाते हैं।

वन अधिकारी मनोज चंद्रन कहते हैं, "पर्यावरण की मौजूदा स्थिति के लिहाज से आज हम एक पेड़ क्या, एक झाड़ी भी काटने की स्थिति में नहीं हैं।"

क्या चीड़ वनों के वैज्ञानिक प्रबंधन से जंगल में आग की घटनाएं कम होंगी? चंद्रन कहते हैं कि ऐसा बिल्कुल जरूरी नहीं है।

सेंटर फॉर इकोलॉजी डेवलपमेंट एंड रिसर्च के डायरेक्टर (रिसर्च) डॉ विशाल सिंह मानते हैं कि वनों का वैज्ञानिक प्रबंधन किया जाना चाहिए। लेकिन जंगल की आग के लिए चीड़ को दोषी ठहराने पर वह चिंता ज़ाहिर करते हैं, "चीड़ के जंगल को लेकर गलत और भ्रामक सूचनाएं लोगों तक पहुंचायी गई हैं। इसलिए जब भी जंगल में आग लगती है तो चीड़ को दोषी ठहराया जाता है। इसका असर राजनीतिक तौर पर फ़ैसले लेने की प्रक्रिया पर भी पड़ सकता है।"

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