रतलाम: मध्य प्रदेश के रतलाम जिले के सैलाना तहसील में बने खरमोर पक्षी अभ्यारण में पिछले तीन सालों से एक भी खरमोर पक्षी को नहीं देखा गया है और अब अभ्यारण के प्रशासन और वन विभाग के द्वारा इसे दूसरे इलाके में स्थानांतरित किया जा रहा है।

खरमोर पक्षी या लेसर फ्लोरिकन भारत की बस्टर्ड पक्षी प्रजाति का सबसे छोटा पक्षी है। भारत में बस्टर्ड प्रजाति के तीनों सदस्य – ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, लेसर फ्लोरिकन और बंगाल फ्लोरिकन – घास के मैदानों के संरक्षण के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। यह पक्षी घास के मैदानों के कीड़ों को खाकर इन मैदानों को बचाते हैं और इस ही वजह से ये आसपास के किसानों के दोस्त भी कहे जाते हैं।

खरमोर अपनी कम होती संख्या के कारण गंभीर रूप से लुप्तप्राय की श्रेणी में आता है। इसकी लगातार कम होती संख्या के पीछे विशेषज्ञों द्वारा कई कारण बताये जाते हैं लेकिन इस क्षेत्र में पवन ऊर्जा संयंत्रों की बढ़ती संख्या इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है। इसके अलावा क्षेत्र में नीलगाय का बढ़ता प्रभाव, कृषि में प्रयोग किये जाने वाले कीटनाशक और स्थानीय लोगों का आक्रामक रवैया भी खरमोर पक्षी की कम होती संख्या के लिए जिम्मेदार हैं।

कम होती पक्षियों की संख्या

राष्ट्रीय स्तर पर इसकी घटती संख्या के कारण इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ़ नेचर (आई.यु.सी.एन) की रेड लिस्ट में इस पक्षी को लुप्तप्राय श्रेणी में रखा गया था। लेकिन लगातार कम होती संख्या की वजह से बर्डलाइफ इंटरनेशनल द्वारा 2021 में किये गए आंकलन के आधार पर इसे गंभीर रूप से लुप्तप्राय (Critically Endangered) की श्रेणी में शामिल किया गया है।

साल 2018 के आंकलन के अनुसार विश्वभर में सिर्फ 300 से 600 नर खरमोर बचे हैं। वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन सोसाइटी के सलाहकार डॉ निगेल कॉलर के अनुसार खरमोर अपने परिवार के दुसरे दो सदस्यों से ज़्यादा खतरे में है और इस शताब्दी में इसकी लगातार कम होती संख्या को देखते हुए अगर कुछ नहीं किया गया तो अगले 20 वर्षों में यह पक्षी विलुप्त हो जायेगा।

यह पक्षी अपने प्रजनन की अवधि में घास के मैदानों को चुनता है जिसमें गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान ख़ास हैं। मध्य प्रदेश में खरमोर पक्षी के संरक्षण के लिए दो विशेष अभ्यारण बनाये गए हैं जिसमें से सैलाना का खरमोर पक्षी अभ्यारण एक है (दूसरा धार जिले में सरदारपुर अभ्यारण हैं)। लेकिन वन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में इस अभ्यारण में खरमोर पक्षी की संख्या काफी कम होती गयी है और तीन सालों से इसे इस अभ्यारण में देखा ही नहीं गया है।

इस क्षेत्र में लम्बे समय से काम कर रहे पर्यावरणविद और साल 2017 में भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा खरमोर पक्षी पर बनाई गयी स्टेटस रिपोर्ट के सदस्य अजय गाडिकर का कहना है कि खरमोर की साइटिंग के लिए वन विभाग की तरफ से कर्मचारी और वालंटियर्स लगाने चाहिए जो पूरे क्षेत्र का दौरा करके खरमोर पक्षी को देख पाएं।

वन विभाग की कार्यशैली पर चिंता जताते हुए वह कहते हैं, "विभाग ने ज़्यादा कुछ नहीं किया है। इसके लिए उच्च अधिकारीयों जैसे चीफ वाइल्डलाइफ वार्डन के स्तर पर इच्छा शक्ति की ज़रुरत है जो कि नीचे के अधिकारियों तक पहुंचे तभी हम कोई बदलाव देख पाएंगे। वरना एक दिन हम इस पक्षी को खो देंगे।"

गाडिकर खरमोर की कम होती संख्या के पीछे तीन मुख्य कारण बताते हैं – बढ़ती पवन चक्कियां, मानव जनित दबाव और स्थानीय किसानों का आक्रामक रवैय्या।

इन कारणों का जिक्र भारतीय वन्यजीव संस्थान की रिपोर्ट और साल 2018-19 में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा 'संरक्षित क्षेत्रों के प्रबंधन' पर जारी की गयी रिपोर्ट में भी किया गया था।

किसानों को नहीं मिला है मुआवज़ा

सैलाना के स्थानीय निवासी मुकेश चंदेल कहते हैं, "ये वन विभाग वाले खरमोर पक्षी की वजह से खेती नहीं करने देते हैं। अब खरमोर तो 5-7 साल से यहां आ नहीं रहे हैं।"

साल 1983 में जब इस अभ्यारण को नोटिफाई किया गया था तब स्थानीय लोगों की ज़मीन इस अभ्यारण के क्षेत्र में आ गयी थी जिसका अधिग्रहण सरकार को करना था लेकिन यह अभी तक नहीं किया गया है। ऐसे में स्थानीय लोगों को इस अभ्यारण से काफी नुक्सान हुआ है।

अपनी जमीनों को लेकर स्थानीय किसानों और ग्रामीणों ने कई बार प्रशासन से अभ्यारण को स्थानांतरित करने की मांग की। इन्हीं मांगों को आधार बनाते हुए अभ्यारण के अधीक्षक ने 2021 में राज्य सरकार को आवेदन लिखकर अभ्यारण के करीब 447 हेक्टेयर क्षेत्र को डिनोटिफाई करने की गुजारिश की है।

इस आवेदन में स्थानीय किसानों के द्वारा सैलाना अभ्यारण के दो हिस्सों (355 हेक्टेयर और 90 हेक्टेयर) को डिनोटिफाई करने की लगातार की जा रही मांग को इसका कारण बताया गया है।

सैलाना के ही रहने वाले वासुदेव कहते हैं कि उनकी कुछ जमीन अभ्यारण क्षेत्र में है, उस ज़मीन पर वो न तो खेती कर सकते हैं और न ही उसे बेच सकते हैं। सरकार उनकी ज़मीन का अधिग्रहण भी नहीं कर रही है जिससे मिले मुआवजे से वो कहीं और ज़मीन लेकर उस पर खेती कर सकें।

"कुआँ भी नहीं खोद सकते हैं, और ना ही हमें खेत हांकने देते हैं। या तो हमें अपनी जमीन पर खेती करने दी जाये या फिर हमारी जमीन को लेकर हमें उचित मुआवजा दिया जाये तो हम कहीं और जमीन लेकर उस पर खेती कर सकें। अब ये (वन विभाग) न तो हमारी जमीन ले रहे हैं और न ही हमें खेती करने दे रहे हैं," वासुदेव ने इंडियास्पेंड को बताया।

इस विषय में गाडिकार का कहना है कि इसमें ग्रामीणों और किसानों की कोई गलती नहीं है। जब उनकी ज़मीन का मुआवजा सालों तक नहीं मिलेगा तो उनके मन में अभ्यारण और खरमोर पक्षी के प्रति हीन भावना उत्पन्न होगी जो इस अभ्यारण के उद्देश्य के बिलकुल विपरीत है। सही यह होता कि नोटिफिकेशन के समय ही स्थानीय लोगों की भूमि को सरकार द्वारा अधिग्रहित करके या तो उन्हें कहीं और जमीन दी जाती या उसका उचित मुआवजा।

इस बारे में जानने के लिए हमने अभ्यारण के अधीक्षक, रतलाम जिले के वन अधिकारी और सैलाना के रेंजर से दो महीने तक बात करने की कोशिश की तो हमारे फ़ोन का कोई जवाब नहीं दिया गया। हमारे द्वारा मध्य प्रदेश के PCCF और रतलाम वन अधिकारी को ईमेल भी किये गए हैं जिनका हमें जवाब नहीं मिला है। जवाब मिलने पर इस रिपोर्ट को अपडेट किया जायेगा।

बढ़ते पवन ऊर्जा संयंत्र

पिछले कुछ सालों में भारत ने अक्षय ऊर्जा के स्त्रोतों पर ख़ासा ज़ोर दिया है। हाल ही में ग्लासगो में संपन्न हुई COP26 शिखर वार्ता के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की बिजली की ज़रूरतों के 50% को 2030 तक अक्षय ऊर्जा पर स्थानांतरित करने की घोषणा भी की है।

मध्य प्रदेश में 5500 मेगावाट पवन ऊर्जा क्षमता है। राज्य में अभी 2519.89 मेगावाट पवन ऊर्जा उत्पन्न की जाती है जिसमें से करीब 400 मेगावाट पवन ऊर्जा सिर्फ रतलाम जिले के संयंत्रों से आती है।

सैलाना का क्षेत्र पवन ऊर्जा के उत्पादन के लिए काफी अनुकूल है। इस क्षेत्र का वार्षिक पवन ऊर्जा घनत्व 200 से 300 वाट प्रति वर्ग मीटर (200-300 W/m2) है।

अभ्यारण में खड़े होकर इस क्षेत्र में लगी पवन चक्कियों को साफ़ देखा जा सकता है। फोटो: शैलेष श्रीवास्तव

सैलाना का अभ्यारण और इसके आसपास का इलाका इको सेंसिटिव जोन में आता है जहां अभ्यारण की सीमा से 10 किलोमीटर के क्षेत्र में कोई भी औद्योगिक गतिविधि का संचालन या पवन चक्कियों की स्थापना नहीं की जा सकती है।

साल 2017 में मध्य प्रदेश सरकार ने इस ही नियम के चलते एक पवन ऊर्जा परियोजना को मंजूरी देने से मना कर दिया था।

लेकिन इंडियास्पेंड ने इस इको सेंसिटिव जोन अंदर ही कई पवन चक्कियों को चालू पाया। इन पवन चक्कियों का ज़िक्र केंद्र सरकार ने अपने साल 2020 के नोटिफिकेशन में भी किया है और माना है कि इस इको सेंसिटिव जोन में करीब 15 ऐसे संयंत्र संचालित हैं।

अभ्यारण के तीनों भागों की सीमा, उनके ईको सेंसिटिव ज़ोन और उनमे लगी पवन चक्कियां।

हालाँकि हमने जब इस अभ्यारण के तीनों भागों का दौरा किया तो इस क्षेत्र में हमने 50 के करीब पवन चक्कियां चलती हुई पायी।

पवन चक्कियों की मौजूदगी और इनके खरमोर पक्षी पर पड़ने वाले प्रभाव पर अजय गाडिकर का कहना है, "पिछले 3-4 सालों में अभ्यारण के आसपास ऊँची-ऊँची पवन चक्कियां स्थापित की गयी हैं। इन पवन चक्कियों को लगाने के दौरान होने वाली हलचल से भी क्षेत्र में बहुत प्रभाव पड़ता है।"

वन विभाग के एक कर्मचारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, "खरमोर पक्षी के इतने सालों से ना आने, या ना दिखने की सबसे बड़ी वजह इस क्षेत्र में लग रही पवन चक्कियां हैं। ये पवन चक्कियां दिखने में बहुत बड़ी होती हैं और इनकी परछाई इससे भी बड़ी और डरावने दिखती है।"

सैलाना अभ्यारण की सीमा पर लगी एक पवन चक्की। फोटो: गूगल अर्थ

पवन ऊर्जा संयंत्रों के आकर और परछाई के डरावने होने के साथ ही इनसे उत्पन्न होने वाली आवाज़ और इनके बिजली के तार भी खरमोर पक्षी के लिए दिक्कतें बढ़ा देते हैं।

"पक्षियों और इस इलाके के पर्यावरण पर पवन चक्कियों के प्रभाव का निष्पक्ष अध्ययन होना चाहिए। इस अध्ययन के बिना पवन चक्की परियोजनाओं का चलन चिंताजनक है क्योंकि ये खरमोर पक्षियों की घटती संख्या का कारण हो सकते हैं। घटती संख्या का वजह खोजने के बजाय अभ्यारण्य को डिनोटिफाई करना दुर्भाग्यपूर्ण है," मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में सक्रिय जागृत आदिवासी दलित संगठन की कार्यकर्ता माधुरी कहती हैं।

वह यह भी कहती हैं कि अक्षय ऊर्जा के पावर प्लांट की स्थापना की अनुमति के लिए भी सरकारों को पर्यावरणीय प्रभाव आकलन का नियम बनाना चाहिए।

आवाज से खरमोर पक्षी के डरने और उसके विस्थापन का भी खतरा बहुत बढ़ जाता है। इस बात का जिक्र सैलाना अभ्यारण पर इस क्षेत्र में भारतमाला परियोजना के अंतर्गत बन रहे राष्ट्रीय राजमार्ग के लिए बनाई गई बायोडायवर्सिटी रिपोर्ट में भी किया गया है।

इस बात का संज्ञान अभ्यारण के डेनोटिफिकेशन के मामले पर गठित की गयी स्थाई समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में लिया। "स्थानीय वन अधिकारी और कर्मचारियों का मानना है कि अभ्यारण की सीमा के पास लगी पवन चक्कियों से होने वाली आवाज़ खरमोर पक्षी के अपने प्रजनन काल में न आने के पीछे एक मुख्य कारण हो सकता है," रिपोर्ट में कहा गया।

यह रिपोर्ट राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की बैठक में प्रस्तुत की गई थी।

रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र किया गया कि उचित निगरानी और कानूनों को लागु न करने की स्थिति में इस पवन चक्कियां अभ्यारण के काफी नज़दीक बिना किसी आधिकारिक अनुमति के लगाई गयी है और इस संरक्षित क्षेत्र और इसके ईको सेंसिटिव ज़ोन की सुरक्षा के लिए एक व्यवस्था बनाई जानी चाहिए।

सैलाना में लगी पवन चक्कियों से बनने वाली बिजली को यहाँ से करीब 30 किलोमीटर दूर नगरा गाँव में बने डिस्ट्रीब्यूशन पॉइंट तक पहुंचने के लिए बिजली के तार लगाए गए हैं। इन हाई टेंशन तारों की ऊंचाई लगभग उतनी है जितनी ऊंचाई पर खरमोर या बस्टर्ड पक्षी उड़ते हैं।

देश में कई इलाकों में ऐसे तारों की चपेट में आकर बस्टर्ड पक्षियों के मरने या घायल होने की घटनाएं हुई हैं। हालाँकि इस इलाके में तारों पर लगे बर्ड डायवर्टर की वजह से ऐसी कोई घटना सामने नहीं आयी है।

नीलगाय का प्रकोप

अभ्यारण के डिनोटिफाई किये जा रहे क्षेत्र के इलाके में जिस 490.39 हेक्टेयर वनभूमि को अभ्यारण में शामिल करने के लिए प्रस्तावित किया जा रहा है वह भी खरमोर पक्षी के संरक्षण की दृष्टि से अनुकूल नहीं है।

इस क्षेत्र में लोगों और पवन चक्कियों की उपस्थिति के साथ साथ नीलगाय की बढ़ती और अनियंत्रित संख्या भी खरमोर पक्षी के लिए इस क्षेत्र को प्रतिकूल बनाती है।

नीलगाय की बढ़ती संख्या मध्य प्रदेश के कई इलाकों में किसानों के लिए समस्या बनी हुई है और सैलाना के किसान भी इस ही समस्या से जूझ रहे हैं।

अभ्यारण के अंदर नीलगाय के बड़े बड़े झुण्ड देखने को मिलते हैं। फोटो: शैलेष श्रीवास्तव

"नीलगाय या घोड़रोज़ की समस्या भी बढ़ती जा रही है। फारेस्ट गार्ड इसको न तो मारने देते हैं और ना ही इसका कोई समाधान ढूंढते हैं। ये फसलों को सिर्फ नुकसान पहुंचाते हैं," मुकेश चंदेल बताते हैं।

सैलाना अभ्यारण के आम्बा क्षेत्र में इंडियास्पेंड की मुलाकात पास ही के गाँव में रहने वाले लालू थावरा से हुई। लालू पहले वन विभाग में चौकीदार भी रह चुके हैं और खरमोर और नीलगाय के बारे में बताते हुए कहते हैं, "ये बड़े बड़े झुण्ड में घुमते हैं और पूरे इलाके में दौड़ते रहते हैं। इनकी संख्या भी बहुत ज़्यादा है। खरमोर पक्षी इनकी वजह से यहां नहीं आते हैं।"

आम्बा के पास नीलगाय से बचाव के लिए लगा बोर्ड। फोटो: शैलेष श्रीवास्तव

अजय गाडिकार इस बारे में बात करते हुए कहते हैं कि इस नए क्षेत्र से उन्हें बहुत ही कम उम्मीदें हैं।

"आम्बा का इलाका खरमोर के संरक्षण के लिहाज से उपयुक्त नहीं है। यहाँ हर तरह का व्यवधान मौजूद है। मुझे नहीं लगता ये इस पक्षी के लिए किसी भी तरह से लाभदायक होगा," वह कहते हैं।