लखनऊ/प्रयागराज:शीतलहर के चलते उत्तर भारत के स्कूलों की समय सारणी में बदलाव किए गए हैं। लेक‍िन 12 वर्षीय आयुष यादव कड़ाके की ठण्ड में सुबह लगभग 8 बजे काले रंग का बैग कंधे पर टांगे मम्मी-पापा को बाय बोल ई-रिक्शॉ पर बैठ कोचिंग क्लास के लिए निकल जाते हैं, फ‍िर वहां से सीधे स्‍कूल।

प्राइवेट कंपनी में मार्केटिंग का काम करने वाले आयुष के पिता शिव शंकर यादव, 36, कहते हैं कि वह अपने बेटे को कक्षा 3 से कोचिंग क्लास में भेज रहे हैं जिससे आयुष के पढ़ाई की नींव मजबूत रहे। आयुष केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई बोर्ड) से कक्षा 6 के छात्र हैं।

ये कहानी बस आयुष की ही नहीं है। यह भी नहीं है कि इसका ताल्लुक बस शहरों से ही है। प्राइवेट कोचिंग सेंटर या ट्यूशन की प्रवृत्ति पूरे देश में बहुत तेजी से फैल रही है।

इसी साल 18 जनवरी 2023 को आई एनजीओ प्रथम की शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट (ग्रामीण) (ASER) के अनुसार वर्ष 2022 में 1 से 8वीं तक के क्लास में पढ़ने वाले सरकारी स्कूलों के लगभग 31%, जबकि प्राइवेट स्कूलों के लगभग 30% छात्र पैसे देकर प्राइवेट कोचिंग या ट्यूशन जाते हैं। दोनों को मिलाकर देखें तो 30.5% छात्र प्राइवेट कोचिंग या ट्यूशन जाते हैं। 2018 में ये आंकड़ा 26.4% ही था।

वर्ष 2010 से 2022 के बीच पैसे देकर प्राइवेट कोचिंग में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। 2010 में सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के 22.5 फीसदी छात्र स्‍कूल के बाहर पैसे देकर पढ़ाई कर रहे थे। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में निजी ट्यूशन लेने वाले बच्चों के अनुपात में 2018 की अपेक्षा 8 प्रतिशत पॉइंट या उससे अधिक की वृद्धि हुई है।

आयुष के पिता शिव शंकर यादव कहते हैं, "बेटे का एडमिशन मैंने सीबीएसई बोर्ड के स्कूल में कराया है और चार हजार रुपए प्रतिमाह स्कूल की फीस जमा करता हूं। दो हजार रुपए कोचिंग का अलग से। चाहता हूं कि बेटा भविष्य में कुछ बेहतर कर पाए। क्‍लास में इतने बच्‍चे होते हैं क‍ि टीचर सभी बच्चों पर ध्यान ही कहां दे पाते हैं। कोचिंग इसलिए बहुत जरूरी है।" शिव का छोटा बेटा अभी 3.5 वर्ष का है, वे इस बात को लेकर भी चिंतित हैं कि अगले साल छोटे बेटे को भी कोचिंग भेजना पड़ेगा जिसका सीधा असर उनकी आर्थिक स्‍थ‍ित‍ि पर पड़ेगा।

पुणे की कंसल्टेंसी फर्म इंफिनियम ग्लोबल रिसर्च ने वर्ष 2022 में एक रिसर्च रिपोर्ट जारी की। उन्होंने इंडिया स्पेंड को मेल पर बताया कि भारत के कोचिंग उद्योग का बाजार वर्ष 2021 में ही 58,088 करोड़ रुपए तक पहुंच चुका है और इस इंडस्ट्री का पूरा कारोबार 2028 तक 1,33,955 करोड़ रुपए तक पहुंचने का अनुमान है। इस दौरान इसका कम्पाउंडेड एनुअल ग्रोथ रेट (CAGR) 13.03% तक रह सकता है। इंफिनियम ने आगे बताया कि उन्होंने बड़े कोचिंग संचालकों से बात करके और उनकी सालाना रिपोर्ट, ट्रेड जर्नल, रिसर्च एजेंसी और सरकारी रिपोर्ट्स के आधार पर ये रिसर्च किया है।

इससे पहले शिक्षा मंत्रालय (तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय) द्वारा संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) के लिए गठित एक विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2015 में जेईई की तैयारी कराने वाले कोचिंग संस्थानों का ही सालाना कारोबार लगभग 24,000 करोड़ रुपए था। इस कमेटी का गठन आईआईटी रुड़की के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर अशोक मिश्रा ने किया था जो अब भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर में विशिष्ट प्रोफेसर हैं।

प्रोफेसर अशोक मिश्रा इंड‍ियास्‍पेंड ह‍िंदी से कहते हैं, "जब रिपोर्ट तैयार हुई थी तब मैंने और कमेटी में शामिल दूसरे लोगों ने भी कहा था कि स्कूलों में खराब पढ़ाई का फायदा कोचिंग संस्थान उठा रहे हैं। ये बात ब‍िल्‍कुल सही है कि हमने तब जेईई कोचिंग क्‍लासेस की बात की थी। लेकिन ये बात भी सही है कि एजुकेशन की हमारी बेस ही कमजोर है। आज अगर कुल कोचिंग मार्केट 58,000 करोड़ रुपए का बताया जा रहा है तो कुछ वर्षों में ये आकर और बड़ा होगा अगर हमारी प्रारंभिक शिक्षा में बदलाव नहीं होता।"

सपने सरकारी नौकरी के और उन सपनों को पूरा करने का संघर्ष

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से लगभग 500 किलोमीटर दूर बिहार की राजधानी पटना में बोरिंग रोड चौराहा के पास एक 8 X 10' के कमरे में रहने वाले कुंदन कुमार (17 वर्ष) ने अभी 10वीं ही पास किया है और वे आईआईटी क्लियर करने का सपना लेकर पूर्णिया जिले से पटना आ गए हैं।

इंडियास्पेंड हिन्दी से हुई फोन पर बातचीत के दौरान वे कहते हैं, 'मेरे गांव के बहुत से लोग सरकारी नौकरी में हैं। कई लोग जेईई मेन और जेईई एडवांस परीक्षा पास कर अलग-अलग शहरों में इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हैं। उन लोगों ने भी 10वीं के बाद से ही तैयारी शुरू कर दी थी। और फिर बिहार बोर्ड के सहारे तो कुछ नहीं कर पाएंगे। इसलिए अभी से पटना आ गया।"

नेशनल सैंपल सर्वे की जुलाई 2017 से जून 2018 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्री-प्राइमरी और उससे ऊपर की कक्षाओं में पढ़ाई करने वाले लगभग 20% छात्र (लगभग 21% छात्र और 19% छत्राएं) प्राइवेट कोचिंग ले रहे थे।

बात बस उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान या हरियाणा की ही नहीं है। ऐसे बच्चे अब आपको हर गांव, हर शहर में मिल जाएंगे। जितने ज्यादा बच्चे, उतने ही कोचिंग सेंटर। कोविड महामारी के बाद ऑफलाइन कोचिंग सेंटर के अलावा ऑनलाइन कोचिंग का भी बाजार तेजी से बढ़ा है।

उत्‍तर प्रदेश के भदोही में संचालित एक कोचिंग सेंटर

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में डॉ. मोहम्मद फैजी, कॉमर्स विज नाम से कोचिंग सेंटर का संचालन करते हैं और यूजीसी नेट की तैयारी करवाते हैं। इसके अलावा 12वीं के छात्रों को कॉमर्स भी पढ़ाते हैं। वे कहते हैं कि कुंदन जैसे न जाने कितने बच्चे हर साल सपने लिए घर से दूर निकल जाते हैं। लेकिन गलाकाट प्रतिस्पर्धा और मानसिक दबाव के चलते उनका रास्ता कठिन हो जाता है।

मोहम्मद फैजी कहते हैं, "पढ़ाई अब पहले जैसी नहीं रही है। हमारे स्कूलों यहां तक कि डिग्री कॉलेज में भी पुराने तरीके से पढ़ाई हो रही है। किताबों का कंटेंट वैसा नहीं है जिसे बच्‍चे पढ़कर किसी प्रतियोगी परीक्षा को पास कर सकें। ऐसे में कोचिंग के अलावा उनके और परिजन के सामने कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता। 10वीं, 12वीं या आगे की पढ़ाई के लिए कोचिंग में बच्चों का प्रवेश हर साल बढ़ता ही जा रहा। ऐसे में अगर बेसिक एजुकेशन स‍िस्‍टम में बदलाव नहीं हुआ तो ये तस्वीर बदलने वाली नहीं है।"

शिक्षकों की भारी कमी, ऐसे में छात्र जाएं तो जाएं कहां?

उत्तर प्रदेश के जिला सीतापुर के ब्लॉक बिस्वा के एक प्राइमरी स्कूल में तैनात एक टीचर से भी यही सवाल पूछा। प्रियंका (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि सरकारी स्कूलों में प्राइमरी से लेकर मिडिल (पांचवी से आठवीं तक) स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है। ऐसे में जब बच्चे ठीक से पढ़ नहीं पाते, पढ़ाई में कमजोर हो जाते हैं तो उनके परिजन स्कूल के साथ-साथ कोचिंग में भी भेजने लगते हैं।

"मेरे ही क्लास के ज्यादातर बच्चे कोचिंग जाते हैं। चूंकि ट्यूशन महंगा होता है, इसलिए परिजन कोचिंग में भेजते हैं। जबकि ऐसा नहीं है कि सरकार स्कूलों के टीचर काबिल नहीं होते या बाहर कोचिंग के टीचर ज्यादा अच्छा पढ़ाते हैं। लेकिन सवाल तो यह है कि स्कूलों में पढ़ाने के लिए टीचर हों तब तो।" प्रियंका आगे बताती हैं।

हालांकि केंद्र सरकार दावा करती है क‍ि देश में छात्र-शिक्षकों का अनुपात (Pupil-Teacher Ratio) मानकों से बेहतर है। सरकार ने बताया क‍ि वर्ष 2020-21 में प्राथमिक स्‍कूलों में छात्र-श‍िक्षकों का अनुपात 26 रहा, मतलब प्रति 26 छात्र पर एक शिक्षक। वहीं उच्च प्राथमिक स्कूलों में ये अनुपात 19, माध्यमिक में 18 और उच्‍च माध्‍यमिक में 26 रहा। जो 2018-19 से बेहतर है। 2018-19 के दौरान प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक में छात्र-शिक्षकों का अनुपात क्रमशः 28, 20, 21 और 30 था नई शिक्षा नीति 30 से कम बच्‍चों पर एक श‍िक्षक की वकालत करता है।

देशभर में शिक्षकों की कमी को लेकर सरकार से अक्सर सवाल पूछे जाते रहे हैं। लेकिन केंद्र सरकार ज्यादातर बार यह कहकर जवाब देने से मना कर देती है कि शिक्षकों की नियुक्ति राज्य सरकारों का मामला है। आंध्र प्रदेश के गुंटूर लोकसभा सीट से तेलुगू देशम पार्टी के सांसद जयदेव गल्ला ने 6 दिसंबर 2021 को लोकसभा में शिक्षा मंत्रालय से देशभर में कार्यरत शिक्षकों का ब्योरा मांगा था। तब मंत्रालय ने बताया था कि देशभर में 10 लाख से ज्यादा शिक्षकों की कमी है।

केंद्र सरकार की रिपोर्ट की मानें तो उत्तर प्रदेश में सबसे ज्‍यादा शिक्षकों के दो लाख से ज्यादा पद खाली हैं। शिक्षकों की वैकेंसी के मामले में बिहार दूसरे नंबर पर है।

क्या शिक्षा में गिरावट की वजह से बढ़ रहे कोचिंग सेंटर?

ऐसा नहीं है कि बस सरकारी स्‍कूलों में ही पढ़ने वाले छात्र प्राइवेट कोचिंग जा रहे हैं। जानकार इसकी कई वजह बताते हैं। लखनऊ में मनोवैज्ञानिक डॉ. ज्ञान मिश्रा कहते हैं कि दरअसल माता-पिता को लगता है कि अगर उनका बच्चा अच्छे कोचिंग क्लास में नहीं जाएगा तो समाज में उनकी इमेज खराब हो जाएगी। उन्हें पिछड़ा हुआ या कम पैसे वालों में गिना जाएगा। यही वजह है कि प्राइवेट स्कूल में भारी-भरकम फीस देने के बाद भी बच्चे का ट्यूशन लगवाया जा रहा या फिर कोचिंग में भेजा जा रहा। नहीं तो दूसरी या तीसरी क्लास के बच्चों को स्कूल के अलावा अतिरिक्त पढ़ाई की जरूरत ही नहीं पड़ती।

वहीं प्रोफेसर अशोक मिश्रा कहते हैं ऐसा नहीं है कि बस प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए ही बच्चे कोचिंग का सहारा ले रहे हैं। अच्छे कॉलेज से स्नातक करने के लिए भी प्राइवेट कोचिंग करनी पड़ी रही है। ऐसे में देश में बढ़ते प्राइवेट कोचिंग सेंटर के पीछे की सबसे बड़ी वजह हमारी कमजोर शिक्षा व्यवस्था है।

लखनऊ के गोमती नगर स्थित कोचिंग तेजस एकेडमी में कक्षा एक से 12वीं तक के बच्‍चे कोचिंग क्लास लेने आते हैं। कोचिंग की संचालक शिप्रा श्रीवास्तव कहती हैं, "भले ही प्राइवेट स्‍कूल में बच्‍चों से ज्यादा फीस ली जाती है। लेकिन सच तो यह है कि वहां बच्‍चों को बहुत कुछ नहीं सिखाया जाता। स्कूलों में टीचर घड़ी देखकर पढ़ाते हैं जबकि हम हर बच्‍चे पर ध्‍यान देते हैं। स्‍कूल के क्‍लास में इतने बच्‍चे होते हैं क‍ि टीचर हर बच्‍चे पर ध्‍यान ही नहीं दे पाते। ऐसे में माता-पिता को मजबूरी में बच्‍चे को कोचिंग भेजना पड़ता है या ट्यूशन लगवाना पड़ता है।"

बनारस जिले में संचालित एक कोचिंग सेंटर।

उत्तर प्रदेश के जिला मिर्जापुर के कछवां बाजार के रहने वाले अभिषेक पांडेय इस साल 12वीं में हैं और अपने घर से लगभग 50 किलोमीटर दूर बनारस में कोचिंग कर रहे हैं। वजह पूछने पर बताते हैं कि उनका फिजिक्स कमजोर हैं। बीएचयू (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय) या इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बीएससी (साइंस से ग्रेजुएशन) करना चाहते हैं। ऐसे में वे एंट्रेंस परीक्षा की तैयारी में लगे हैं।

वह बताते हैं, "यूपी बोर्ड से पढ़ाई कर रहा हूं। सपना है कि ग्रेजुएशन किसी अच्छे विश्वविद्यालय से करेंगे। घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है इसलिए और कुछ नहीं सोच रहा। अच्छे विश्वविद्यालय के एडमिशन मिल जाएगा तो हॉस्टल भी मिल जाएगा। फिर वहीं से ग्रेजुएशन के आगे की भी पढ़ाई करूंगा। 10वीं के बाद ही पता चल गया था कि अगर बीएचयू या इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एडमिशन लेना है तो कोचिंग करनी होगी। इसलिए 10वीं के बाद से ही वाराणसी आ गया। कोचिंग में एडमिशन ले लिया। यहां के क्लास में बच्चे कम हैं। ऐसे में अच्छी तैयारी हो रही है।"

असर 2022 की र‍िपोर्ट के अनुसार कोविड-19 की वजह से बच्‍चों की पढ़ने की क्षमता में और कमी आई है। सर्वे रिपोर्ट के अनुसार बच्चों की बुनियादी साक्षरता के स्तर में बड़ी गिरावट आई है। संख्यात्मक कौशल की तुलना में उनकी पढ़ने की क्षमता बहुत अधिक तेजी से बिगड़ रही है और ये 2012 के पहले के स्तर तक पहुंच गई है।

हानिकारक है कोचिंग संस्कृति!

नई शिक्षा नीति (National education policy 2020-NEP) में कोचिंग संस्कृति को हानिकारक बताते हुए उसे हतोत्साहित करने की बात कही गई है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 स्कूली बच्चों को निजी ट्यूशन और कोचिंग कक्षाओं से दूर करना चाहती है। नीति में लिखा है कि आज की कोचिंग संस्कृति को प्रोत्साहित करने बजाय बच्चों में सीखने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। एनईपी में सीबीएसई बोर्ड की परीक्षाओं को और आसान बनाने की भी बात है ताकि छात्र स्कूल की पढ़ाई के दम पर ही बोर्ड की परीक्षा पास कर सकें।

हालांकि लखनऊ की शिक्षाविद और राइट टू एजुकेशन पर काम करने वाले एनजीओ यूथ इंड‍िया की फाउंडर डॉ. प्राची शेखावत एनईपी की पूरी प्रणाली पर सवाल उठाती हैं। वह कहती हैं कि पूरी संभावना है कि एनईपी बच्चों को निजी ट्यूटर की ओर और भी अधिक धकेलेगी। वजह बताते हुए वह कहती हैं, "नई श‍िक्षा नीति 3 और 6 जैसी छोटी कक्षाओं के लिए बोर्ड के समान एक सार्वजनिक परीक्षा का सुझाव देती है। ऐसे में माता-पिता बच्चों को कोचिंग भेजने के लिए मजबूर होंगे। प्राइवेट स्कूलों में सब बच्चों को पढ़ा नहीं सकते है। सरकारी में पढ़ा सकते हैं तो वहां की शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि तीसरी, चौथी क्लास के बच्चे जोड़, घटाना तक नहीं जानते।"

कुंदन अपने किसान पिता के सपने को पूरा करने के लिए पटना में अकेले रह कर सरकारी नौकरी के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं तो वहीं उनके पिता सर्द रातों में अपने खेत की रखवाली कर बेटे की शिक्षा में लगने वाले पैसों के इंतजाम में लगे हैं। कुंदन के पिता रामशरण कुमार (58) कहते हैं, "बेस मजबूत रहेगा तो आगे दिक्कत नहीं होगी। ऐसे में सरकारी नौकरी मिलने में ज्यादा परेशानी का सामना नहीं करना पड़ेगा। पांच बीघा की खेती में क्या होता है। कुंदन कुछ कर लेगा तो उससे छोटे दोनों भाई भी पढ़-लिख लेंगे।"

इस खबर के संदर्भ में उत्तर प्रदेश के बेसिक, माध्यमिक शिक्षा के महानिदेशक विजय किरण आनंद और बिहार के प्राथमिक, माध्यमिक शिक्षा के निदेशक रवि प्रकाश को फोन करने के अलावा मेल भी किया गया है। केंद्रीय स्कूल शिक्षा और साक्षरता विभाग के संयुक्त सचिव को भी जवाब के लिए मेल किया गया है। जवाब म‍िलते ही खबर अपडेट होगी।