अकुशल मजदूरों से भी कम कमाई पर काम करने को मजबूर आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता
दिल्ली की आंगनवाड़ी कर्मियों कम वेतन के साथ ही सरकारों द्वारा लगाए गए एस्मा, बढ़ती महंगाई और पुरुष प्रधान समाज जैसी समस्याओं से भी जूझ रही हैं।
दिल्ली: महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण के स्तर में सुधार लाने के साथ-साथ सरकार की विभिन्न योजनाओं को लागू करने में अहम भूमिका निभाने वाली आंगनवाड़ी कर्मी अकुशल मजदूरों से भी कम आमदनी पर जीवन यापन करने को मजबूर हैं। ऐसी स्थिति दिल्ली की आंगनवाड़ी कर्मियों ने अपनी मानदेय वृद्धि के लिए हड़ताल शुरू की, लेकिन इन आंगवाड़ी कर्मियों को सरकारी कर्मचारी नहीं मानने वाली हरियाणा और दिल्ली सरकारों ने इन पर हेस्मा (हरियाणा एसेंशियल सर्विसेज़ मेंटेनेंस एक्ट) और एस्मा (एसेंशियल सर्विसेज़ मेंटेनेंस एक्ट) लगाकर कइयों को नौकरी से निकाल दिया गया।
पहले से ही बेहद कम मानदेय पर गुज़ारा करने को मजबूर आंगनवाड़ी कर्मियों को अब भारी परेशानी झेलनी पड़ रही है। परिवार का खर्च चलाने और बच्चों का पालन-पोषण करने के लिए उन्हें पैसे उधार लेने पर पड़ रहे हैं।
एकता विहार प्रोजेक्ट के तहत कार्यरत आंगनवाड़ी सहायिका मीनू कहती हैं, "मेरा मानदेय 4,839 रुपये मासिक है। दिल्ली में इन पैसों में किसी परिवार का गुजारा कैसे हो सकता है? लॉकडाउन में मेरे पति की नौकरी भी छूट गई थी, वह ड्राइवर हैं। चार महीने से मानदेय नहीं मिला था ऊपर से सरकार ने मुझे बर्खास्त कर दिया है। हम बेहद परेशानी में गुजारा कर रहे हैं।"
यह हाल देश की राजधानी दिल्ली का है। लोकसभा में प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार देश में दिसंबर 2018 तक 14 लाख आंगनवाड़ी केन्द्र थे जिसमें से 13.70 लाख चालू थे। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार इन केन्द्रों का संचालन 13.20 लाख आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और 11.82 लाख आंगनवाड़ी सहायिकाएं करती हैं। इसमें से दिल्ली में 9353 आंगनवाड़ी और 10738 सहायिकाएं काम करती हैं। आंगनवाड़ी कर्मी मुख्य तौर पर 0-6 वर्ष तक के बच्चों और गर्भवती महिलाओं के देखभाल के लिए एकीकृत बाल विकास योजना (ICDS ) के तहत काम करती हैं।
तय जिम्मेदारियों के अलावा सरकार समय-समय पर आंगनवाड़ी कर्मियों को अन्य जिम्मेदारियाँ भी सौंप देती है। कोरोना महामारी के दौरान इन्होंने ही घर-घर खाना व दवाएं पहुंचायी। त्वरित गति से कोरोना वैक्सीन का टीकाकरण भी इन्हीं के कारण संभव हो सका। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वीकार किया कि सरकार जितना काम लेती है उसकी तुलना में आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं का मानदेय बेहद कम है।
आंगनवाड़ी कर्मी लंबे समय से मानदेय वृद्धि सहित अन्य मांगों के लिए संघर्ष कर रही हैं। दिल्ली में 22 सूत्रीय मांगों को लेकर 31 जनवरी 2022 से दिल्ली स्टेट आंगनवाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन के नेतृत्व में 22,000 आंगनवाड़ी कर्मियों ने लगातार 38 दिनों तक हड़ताल किया। लेकिन उन पर हेस्मा (हरियाणा एसेंशियल सर्विसेज़ मेंटेनेंस एक्ट) और एस्मा (एसेंशियल सर्विसेज़ मेंटेनेंस एक्ट) लगाकर हड़ताल पर 6 महीने के लिए रोक लगा दी। 9 मार्च को हेस्मा और एस्मा लागू होने के बाद आंगनवाड़ी कर्मियों की यूनियन इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ हाईकोर्ट चली गई और फ़ैसला आने तक हड़ताल को स्थगित कर दिया।
हड़ताल स्थगित होने के बाद काम पर लौटी 884 आंगनवाड़ी कर्मियों को दिल्ली सरकार ने बर्खास्त कर दिया। सरकार यह संख्या और ज़्यादा बढ़ाना चाहती थी लेकिन हाईकोर्ट ने आंगनवाड़ी कर्मियों की याचिका पर सुनवाई करते हुए नयी भर्ती करने पर रोक लगा दी है। मामले की सुनवाई अभी जारी है।
दिल्ली में न्यूनतम मज़दूरी भी नहीं दे रही है सरकार
आंगनवाड़ी सहायिकाओं को प्रतिमाह 4,839 रुपये मानदेय मिलता है जबकि दिल्ली में अकुशल मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी 16,064 रुपये प्रतिमाह है। सहायिकाओं को इसी पैसे में पूरे परिवार का खर्च उठाना पड़ता है। दिल्ली जैसे महँगे शहर में 4,839 रुपये प्रतिमाह में परिवार का खर्च, बच्चों की शिक्षा का खर्च वहन कर पाना बेहद मुश्किल है। परिवार के किसी सदस्य के बीमार पड़ने की स्थिति में हालात असहनीय हो जाते हैं।
पिछली बार 2017 में आंगनवाड़ी वर्कर्स और हेल्पर्स का मानदेय बढ़ाया गया था। लेकिन तब भी आंगनवाड़ी कर्मियों को 58 दिनों तक हड़ताल करनी पड़ी थी।
दिल्ली में अकुशल मज़दूरों की न्यूनतम मजदूरी 16,064 रूपये, अर्धकुशल की 17,693 रूपये और कुशल मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी 19,473 रूपये है लेकिन आंगनवाड़ी वर्कर्स को 9,678 रूपये और आंगनवाड़ी हेल्पर्स को 4,839 रुपये प्रतिमाह दिया जाता है।
हड़ताल के दौरान ही दिल्ली सरकार ने आंगनवाड़ी वर्करों और हेल्परों का मानदेय बढ़ाकर क्रमश: 12,700 और 6,810 रुपये कर दिया था। जिसे अभी तक वितरित नहीं किया गया है।
बढ़ती महंगाई के इस दौर में जब महंगाई दर 15% से ज़्यादा हो जाने के कारण डीज़ल, पेट्रोल, खाद्य तेल और सब्ज़ी की लगातार बढ़ती क़ीमतों के बीच आंगनवाड़ी कर्मियों को परिवार का खर्च चलाने के लिए किस तरह का संघर्ष करना पड़ता होगा, इसका सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
चार महीने से बकाया है मानदेय
बेहद कम मानदेय होने के बाद भी आंगनवाड़ी कर्मियों को जनवरी 2022 से ही मानदेय का भुगतान नहीं किया गया है। आंगनवाड़ी कर्मियों से केन्द्र और राज्य सरकारें अलग-अलग योजनाओं के लिए काम/सर्वे करवाती हैं और उसके लिए भुगतान करती है। कई योजनाओं का यह भुगतान भी आंगनवाड़ी कर्मियों को वर्षों से नहीं मिला है।
मेहरौली प्रोजेक्ट के तहत आयानगर में आंगनवाड़ी केन्द्र संख्या 99 में बतौर कार्यकर्ता कार्यरत पूनम बताती हैं, "साल 2013-14 में मैंने बीएलओ का काम किया था, जनवरी 2020 में पेंशन प्रमाणीकरण का सर्वे किया था, 2020 में हमने घर-घर जाकर पालतू जानवरों के बारे में सर्वे किया था, कम्यूनिटी बेस इवेंट, प्रधानमंत्री मातृत्व वंदना योजना इन सभी योजनाओं के तहत हम काम कर चुके हैं। लेकिन, मजदूरी का भुगतान नहीं हुआ है अथवा कुछ लोगों को आंशिक भुगतान किया गया है। मानदेय में इन सभी को जोड़ दिया जाये तो मेरा कुल बकाया करीब 76,590 रुपये है।"
साल 2018 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहायिका के मानदेय में क्रमश: 1,500 और 750 रुपये बढ़ाने की घोषणा की थी। चार वर्ष हो चुके हैं लेकिन आंगनवाड़ी कर्मियों को इस राशि का भुगतान नहीं किया गया है।
अपने मांग पत्रक में आंगनवाड़ी कर्मियों ने माँग की है, "दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार यह सुनिश्चित करे कि केन्द्र सरकार द्वारा घोषित व 1 अक्टूबर 2018 से लागू मानदेय वृद्धि की बकाया राशि ( अगस्त 2021 तक 34 महीनों के लिए कार्यकर्ता व सहायिका को क्रमश: 51,000 और 25,500 रुपये ) का तुरंत भुगतान किया जाये।"
कोरोना महामारी के दौरान थीं कोरोना योद्धा
कोरोना महामारी की पहली, दूसरी और तीसरी लहर में आंगनवाड़ी कर्मियों ने घर-घर जाकर लोगों को ज़रूरी सेवायें मुहैया करवायीं। जब लोग अपने परिजनों को छूने में भी संकोच करते थे आंगनवाड़ी कर्मियों ने ख़ुद को ख़तरे में डालकर लोगों की मदद की। सरकार ने इन्हें कोरोना योद्धा कहकर "सम्मान" दिया। जैसे ही मुश्किल दौर बीत गया राज्य और केन्द्र सरकार ने इनसे मुँह फेर लिया।
आंगनवाड़ी कर्मियों ने सरकार को 22 सूत्रीय माँग पत्रक सौंपा है उसमें प्रमुखता से यह माँग की है कि, "कोविड महामारी के दौरान कार्यरत आंगनवाड़ी कर्मियों के लिए सुरक्षा के समुचित इंतज़ाम किया जाये व उनके संक्रमित होने की स्थिति में उचित इलाज की ज़िम्मेदारी विभाग द्वारा उठायी जाये।"
शकरपुर प्रोजेक्ट के तहत आंगनवाड़ी केन्द्र 54 में कार्यरत सहायिका अनीता विधवा हैं और दो बच्चों सहित अपनी मां के साथ रहती हैं।
बर्खास्त की गयीं 884 आंगनवाड़ी कर्मियों में शामिल अनीता कहती हैं, "कोरोना महामारी के दौरान हम लोगों ने सिर पर रखकर सूखा दलिया और भूना हुआ चना प्रत्येक घर तक पहुँचाया। लोग घण्टों तक दरवाज़ा भी नहीं खोलते थे। सरकार ने हमें मास्क और सेनेटाइजर भी नहीं उपलब्ध करवाया था, हमें ख़ुद ही यह ख़रीदने पड़े। हमारी कुछ साथी संक्रमित भी हो गई थीं। जिन्हें स्वयं ही इलाज के सभी इंतजाम करने पड़े।"
बेहतर वेतन और पेंशन की सुविधा भी मिलनी चाहिये
लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति और महिलाओं के अधिकारों के मुद्दों पर मुखर, प्रोफेसर रूप रेखा वर्मा कहती हैं, "आंगनवाड़ी केन्द्रों से जुड़े कार्यों के अलावा सरकार विभिन्न योजनाओं को लागू करवाने के लिए आंगनवाड़ी कर्मियों से काम करवाती है। सर्वे सहित वह सभी कार्य जिनके लिए सरकार के पास कर्मचारी नहीं हैं, आंगनवाड़ी कर्मियों के मत्थे ही मढ़ देती है।"
प्रोफेसर वर्मा आंगनवाड़ी कर्मियों के संघर्ष को जायज बताते हुए कहती हैं, "आंगनवाड़ी कर्मियों के काम के घंटे और कार्यों का स्वरूप निर्धारित किया जाना चाहिए। उन्हें सरकारी कर्मचारी का दर्जा तो मिलना ही चाहिए साथ ही रिटायरमेंट के बाद पेंशन की सुविधा भी सरकार को सुनिश्चित करनी चाहिये।"
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक मामले की सुनवाई करते हुए आंगनवाड़ी कर्मियों की भूमिका को स्थायी कर्मचारी के तौर पर दी जाने वाली सेवाओं के रूप से चिन्हित किया। कोर्ट ने यह मानने से इंकार कर दिया कि आंगनवाड़ी कर्मी पार्ट टाइम जॉब करती हैं। उन्हें ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम, 1972 के तहत ग्रेच्युटी के भुगतान का हक़दार बताया है। गुजरात हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच की ओर से दिये गये फ़ैसले के ख़िलाफ़ दायर अपीलों की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह फ़ैसला सुनाया।
सड़क पर अधिकार और घर में लड़ रही हैं आज़ादी के लिए लड़ाई
नौकरी करने के दौरान भी आंगनवाड़ी कर्मियों को घर में खाना बनाने, साफ-सफाई करने से लेकर बच्चों का पालन-पोषण करना ही पड़ता है। परिवार संभालने की ज़िम्मेदारी रोजगारशुदा होने के बाद महिलाओं पर पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक होता है। आंदोलनात्मक गतिविधियों में भागीदारी के लिए समय निकालना महिलाओं के लिए बेहद मुश्किल होता है। कारण कि परिवार के सदस्य आर्थिक कारणों से नौकरी करने की इजाज़त तो दे देते हैं। सड़क पर उतरकर आंदोलन के लिए परिवार में भी संघर्ष करना पड़ता है।
प्रोफेसर रूप रेखा वर्मा कहती हैं, "पुरुष प्रधान समाज में रोजगार करने वाली आत्मनिर्भर महिलाओं के प्रति ही समाज असहज होता है। शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ सड़कों पर संघर्ष करने वाली महिलाएं समाज के लिए 'नीम चढ़ा करेला' बन जाती हैं।"
आंगनवाड़ी कर्मी सुनीता ने अपना प्रोजेक्ट और आंगनवाड़ी केन्द्र बताने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा, "सरकार हमारे खिलाफ कार्रवाई कर रही है। फिलहाल बर्खास्त हूँ अपने खिलाफ कोई और कार्रवाई नहीं चाहती।" वह आगे कहती हैं, "कई बार मैं घर पर बताती भी नहीं हूँ कि आंदोलन में भागीदारी करने जा रही हूँ। हमारे तर्कों से भले ही कोई असहमत हो लेकिन अपने अधिकार की लड़ाई तो हमें ही लड़नी होगी।"
आंगनवाड़ी कर्मियों में बड़ी संख्या में तलाकशुदा या परिवार का पूरा खर्च उठाने वाली महिलाएं हैं। इन पर बच्चों के पालन पोषण की जिम्मेदारी भी होती है। चाँदनी उनमें से एक हैं। वह अपने पति से अलग रहती हैं और दो बच्चों की माँ हैं। उन्होंने इंडियास्पेंड से बताया, "आंदोलन में भागीदारी करना और परिवार भी संभालना हमारे लिए चुनौती है जिसका हम सामना कर रहे हैं। जब 38 दिनों तक हमारी हड़ताल चली थी तब बच्चों के स्कूल भी बंद थे। मैं घर के अंदर बच्चों को बंद करके चली जाती थी। आंदोलन से लौटकर बच्चों की देखभाल और घर के काम करती। दो-तीन बार जब पुलिस ने कुछ साथियों को पकड़ लिया तो बिना किसी को सूचित किए थाने जाना पड़ा और वहाँ घटों रूकना पड़ा।"
आंदोलन में शामिल होने से जीवन में क्या बदलाव आया है? सवाल का जवाब देते हुए वह कहती हैं "हमारा मानदेय पहले से ही बहुत कम है ऊपर से सरकार नियमित भुगतान नहीं करती है। आंदोलन के अलावा हमारे पास कोई और उपाय नहीं बचा है। आंदोलन में भागीदारी से हमारा आत्मविश्वास काफ़ी बढ़ा है। अब डर नहीं लगता, चाहे सामने पुलिस वाले हों या कोई अधिकारी। राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं के बारे में फ़िल्मों, कहानियों में जो देखा और लोगों से सुना था अब वह महसूस कर रही हूँ।"
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