दिल्ली की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों को परेशान कर रही एक अलग तरह की गर्मी
दिल्ली की 30% से ज्यादा आबादी करीब 1,800 अनधिकृत कॉलोनियों में रहती है, जिनमें से 32.2% लोग एक कमरे वाले घरों में रहते हैं। खराब वेंटिलेशन और बनावट के कारण इन घर के अंदर गर्मी और ज्यादा बढ़ जाती है
नई दिल्ली: एक संकरी गली से होते हुए उषा मुझे अपने कमरे में लेकर गईं। वहां रोशनी काफी कम थी। बेसमेंट के अपने कमरे में वह 5 बच्चों के साथ रहती हैं। सीढ़ियों से उतरकर जब हम उनके कमरे में पहुंचे तो देखा, वहां कोई खिड़की नहीं थी। उस छोटी सी जगह में एक बड़ा डबल बेड लगा हुआ था और ऊपर छोटा-सा काफी शोर करने वाला पंखा लटका हुआ था, जो हवा कम दे रहा था और कमरे की गर्मी को चारों तरफ फैलाने का काम ज्यादा कर रहा था।
अपना पसीना पोछते हुए उषा ने सवाल किया, 'आपको कुछ नमी महसूस हो रही है?' जवाब का इंतजार किए बगैर वह कहने लगीं, 'हम लोग रात में कम से कम तीन से चार बार नहाते हैं। मेरे पूरे शरीर पर चकत्ते हो गए हैं।'
उषा एक डोमेस्टिक वर्कर हैं और नॉर्थ दिल्ली के मुखर्जी नगर में रहती हैं। नंदलाल झुग्गी में उनका घर है, जहां दिहाड़ी मज़दूर, रिक्शा चालक और होम बेस्ड (घर से काम करने वाले लोग) वर्कर्स रहते हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि यहां दिन काटना मुश्किल नहीं हैं लेकिन रातें ज्यादा मुसीबत वाली होती हैं। इसमें भी अगर बिजली कट जाए तो गर्मी से हालात नरकीय हो जाते हैं।
दिल्ली स्टैटिस्टिक हैंडबुक- 202 के अनुसार दिल्ली की लगभग 32.2% आबादी (ग्रामीण और शहरी दोनों समेत) एक कमरे वाले घरों में रहती है। दिल्ली की अधिकांश शहरी झुग्गियों में बहुत सघन बसावट है। इन झुग्गियों के घरों में वेंटिलेशन की व्यवस्था या तो है ही नहीं अगर है भी तो बहुत खराब हालत में है। कई घरों तक तो सूरज की रोशनी कभी नहीं पहुँच पाती है।
साल 2023 में इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) ने रिपोर्ट पेश की है, जो ऐसे इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए गंभीर चेतावनी है। रिपोर्ट बताती है कि आने वाले समय में ग्लोबल वार्मिंग के सबसे बड़े खतरों में से एक है- खतरनाक ह्यूमिड हीटवेव का मानव मृत्यु दर पर प्रभाव। येल स्कूल ऑफ़ द एनवायरनमेंट के वैज्ञानिकों के एक अध्ययन को अप्रैल 2023 में 'नेचर' में प्रकाशित किया गया था। इस शोध में वैज्ञानिकों ने शहरी हीट स्ट्रेस पर टेंपरेचर और नमी (ह्यूमिडिटी) के संयुक्त प्रभाव की जांच की है। शोधकर्ताओं ने पाया कि शहरों में हीट स्ट्रेस का बोझ लोकल क्लाइमेट से प्रभावित होता है। उन्होंने यह भी बताया कि आने वाले समय में हवाओं में ह्यूमिडिटी का असर इतना ज्यादा हो सकता है कि यह पेड़ों और वनस्पतियों से मिलने वाले कूलिंग बेनेफिट्स से भी नियंत्रित नहीं हो पाएगा।
दिल्ली के गोपालपुर गांव में नंदलाल झुग्गी में उषा के कमरे तक जाने वाली गली। तेजी से बढ़ते शहरीकरण के कारण दिल्ली का माइक्रोक्लाइमेट खराब हो रहा है, जिससे घनी आबादी वाली झुग्गियों में तापमान बढ़ रहा है और हवा का बहाव कम हो रहा है।
ह्यूमिडिटी से नुकसान
इस साल दिल्ली के लोगों को भीषण गर्मी का सामना करना पड़ा है। राष्ट्रीय राजधानी में कई दिनों तक तापमान 45 डिग्री सेल्सियस के पार चला गया था। इस गर्मी से सबसे ज़्यादा संकट उन लोगों पर है जो इन-फॉर्मल यानी अनौपचारिक बस्तियों या झुग्गियों में रहते हैं। उन पर ही ऐसे मौसम की तगड़ी मार पड़ती है। दिल्ली की इस भीषण गर्मी में कई लोगों की मौत की भी खबरें सामने आई थीं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार गर्मी से संबंधित बीमारियों के कारण 275 लोगों की मौत हुई। हालांकि, एक्सपर्ट्स मानते हैं कि हीटवेव से होने वाली मौतों की वास्तविक संख्या इससे ज़्यादा हो सकती है। गर्मी की हालत ऐसी थी कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और भारत मौसम विज्ञान विभाग को देश के विभिन्न हिस्सों में हीटवेव को लेकर एडवाइजरी जारी करनी पड़ी।
क्या होता है हीटवेव
मैदानी इलाकों में जब अधिकतम तापमान कम से कम 40 डिग्री सेल्सियस या उससे ज़्यादा और पहाड़ी इलाकों में कम से कम 30 डिग्री सेल्सियस या उससे ज़्यादा हो जाता है, तो इसे हीटवेव या लू माना जाता है। हालांकि, भीषण गर्मी के बीच जैसे ही राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और दिल्ली के कुछ हिस्सों में बारिश हुई, तापमान में ठीक-ठाक गिरावट आ गई। ऐसे ही एक बरसात के दिन मैंने दिल्ली की कुछ झुग्गी बस्तियों का दौरा किया और लोगों को एक अलग तरह की गर्मी के बारे में बात करते हुए सुना। एक ऐसी गर्मी जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता है क्योंकि इसे मापा या ट्रैक नहीं किया जाता है। शहरी इनफॉर्मल सेटलमेंट्स या झुग्गियों के कई घरों में बहुत खराब वेंटिलेशन है। इससे गर्मियों के दौरान कमरे में बहुत ज्यादा गर्मी जमा हो जाती है। ऐसे घरों के अंदर का तापमान औसतन 35-40 डिग्री सेल्सियस के बीच हो सकता है। इससे झुग्गी वाले घरों के अंदर हीटवेव की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
दिल्ली के गोपालपुर गांव में नंदलाल जुग्गी में अपने घर के बाहर सहाना अपने दो साल के बेटे के साथ। वह 7 महीने की गर्भवती हैम और इस चौकोर आकार के कमरे की दहलीज पर बैठकर बहुत समय बिताती हैं। कभी-कभी बाहर निकलकर खुली नाली से सटे एक विशाल पीपल के पेड़ के नीचे बैठ जाती हैं।
नंदलाल जुग्गी और तैमूर नगर के निवासियों ने उमस से राहत पाने के लिए एग्जॉस्ट पंखे लगवाए हैं।
एक डबल बेड के आकार के छोटे से कमरे में सहाना, उनके पति और उनका दो साल का बच्चा तीनों लोग सोते हैं, खाना बनाते हैं और नहाते भी हैं। सहाना 7 महीने की गर्भवती हैं। वह अपना ज़्यादातर समय इस चौकोर आकार के कमरे के दरवाजे पर बैठकर बिताती हैं। कभी-कभी वह बाहर निकलकर खुली नाली से सटे एक बड़े पीपल के पेड़ के नीचे बैठ जाती हैं। अपने कमरे को ठंडा रखने के लिए सीलिंग फैन के अलावा सहाना के पास बस एक छोटा सा एग्जॉस्ट फैन है। सहाना कहती हैं, 'गर्मी से बचने के लिए हम क्या करें? हम कूलर नहीं खरीद सकते। ये एग्जॉस्ट फैन भी अब काम नहीं आ रहा है।' झुग्गियों की दुनिया में सहाना की कहानी बेहद आम है। नंदलाल झुग्गी और तैमूर नगर झुग्गी के लगभग सभी घरों में उमस से राहत पाने के लिए लोग एग्जॉस्ट फैन का सहारा लेते हैं।
साल 2017 के एक अध्ययन के अनुसार, दुनिया की जलवायु न केवल गर्म हो रही है बल्कि बहुत अधिक आर्द्र (Humid) भी हो रही है। भारत के कई हिस्सों में बहुत ज्यादा तापमान और नमी का संयोजन मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक साबित हो रहा है। गर्मी और उमस के संयुक्त वैज्ञानिक माप को 'वेट बल्ब तापमान' कहा जाता है और यह तापमान सामान्य होने पर भी खतरनाक स्तर तक पहुँच सकता है। उदाहरण के लिए, अगर वातावरण का तापमान 30 डिग्री सेल्सियस है और रिलेटिव ह्यूमिडिटी यानी कि सापेक्ष नमी 90 प्रतिशत है तो इस नैशनल वेदर सर्विस कैलकुलेटर के अनुसार, वेट बल्ब कैलकुलेटर में तापमान 29 डिग्री सेल्सियस होगा, जो काफी असहज करने वाला मौसम होता है। रिलेटिव ह्यूमिडटी (RT) यानी कि सापेक्ष नमी एक माप है, जो बताता है कि पानी-हवा के मिश्रण में अधिकत संभव वाष्प की तुलना में कितना वाष्प मौजूद है?
थर्मोरेगुलेशन की प्रक्रिया
इंडियास्पेंड ने अगस्त 2017 में अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि हमारा अस्तित्व हमारे शरीर के एक स्थिर तापमान पर रहने पर निर्भर करता है। आमतौर पर हमारे शरीर का तापमान सिर के ऊपर से लेकर छाती के बीच तक जिसमें मस्तिष्क, फेफड़े और छाती शामिल हैं, 37 डिग्री सेल्सियस होता है। हमारी स्किन का टेंपरेचर 35 डिग्री सेल्सियस होता है। इससे ज्यादा टेंपरेचर होने पर उसे कंट्रोल करने के लिए शरीर से पसीना निकलता है। पसीने की बूंदों का वाष्पीकरण होता रहता है, जिससे त्वचा को ठंडा रखने में मदद मिलती है और तापमान को लेकर शरीर में संतुलन बना रहता है।
थर्मोरेगुलेशन की यह प्रक्रिया तभी ठीक से हो पाती है जब हमारे आसपास की हवा इसके अनुकूल हो। दरअसल, हवा सीमित मात्रा में ही पानी होल्ड कर पाती है। सीधी भाषा में समझें तो उसका एक कोटा होता है, जिसके पूरे होने तक वह पानी को धारण करती है। अगर हवा शुष्क है यानी कि पानी में हवा की मात्रा कम है तो हमारा पसीना तेजी से वाष्पीकृत होता है। इससे शरीर को ठंडक मिलती है। लेकिन ऐसी नम हवा जिसमें पहले से ही पानी की मात्रा ज्यादा होगी, उसमें पसीना आसानी से वाष्पीकृत नहीं हो पाता है। ऐसे में शरीर को उमस वाली असहनीय गर्मी लगती है।
कैप्शनः 4 जुलाई को शाम 6.49 बजे दिल्ली के भीड़भाड़ वाले इलाके जाकिर नगर की तस्वीर। ऐपल वेदर ऐप से पता चलता है कि उमस के कारण यहां गर्मी कैसी है
अप्रैल 2019 में 'साइंस ऑफ़ द टोटल एनवायरनमेंट' नामक पत्रिका में एक शोध प्रकाशित हुआ था। इसमें दिल्ली (भारत), ढाका (बांग्लादेश) और फ़ैसलाबाद (पाकिस्तान) के तमाम क्षेत्रों के साथ कम आय वाले इलाकों में हीट एक्सपोजर की तुलना की गई थी। इस अध्ययन में सिर्फ हवा के तापमान पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय थर्मल इंडेक्स का उपयोग करके आउटडोर माइक्रोक्लाइमेटिक कंडीशन्स (बाहरी सूक्ष्म जलवायु स्थितियों) का आकलन किया गया था। इस शोध के बाद रिसर्चर्स ने यह सिफारिश की कि टेंपरेचर के दायरे में नमी जैसे कारकों को भी शामिल करने के लिए हीट ऐक्शन प्लान (HAP) में थर्मल इंडेक्स को शामिल किया जाना चाहिए।
दिल्ली का मामला
तकरीबन 1,800 अनधिकृत कॉलोनियों में दिल्ली की 20 मिलियन से ज़्यादा आबादी का 30% से ज़्यादा हिस्सा रहता है। ये कॉलोनियाँ पिछले कुछ सालों में बेतहाशा फैलती गई हैं और इनका विस्तार होता रहा है। शहर भर में अवैध कॉलोनियों की समस्या पहली बार 1961 में सरकार के ध्यान में आई थी, जिसके बाद उसे उन्हें नियमित (Regularise) करने पर विचार करना पड़ा। एक साल बाद दिल्ली सरकार ने 103 ऐसे आवासीय इलाकों को नियमित (रेगुलराइज) किया।
रेगुलराइजेशन कानूनी और पर्यावास की दृष्टि से कैसे इनफॉर्मल सेटलमेंट्स यानी झुग्गियों की मदद कर सकता है, इस बारे में बात करते हुए अर्बन रिसर्चर्स कार्यकर्ता अरविंद उन्नी कहते हैं कि रेगुलराइजेशन में ज़मीन के डिजिटलीकरण के अलावा संपत्ति का मालिकाना हक प्रदान करना और बस्तियों में सड़क-पानी की सुविधाओं और अन्य सेवाओं समेत समग्र सुधार की योजना को भी शामिल किया जाना चाहिए। उन्होंने बताया कि लोग पार्शियल रेगुलराइजेशन यानी कि आंशिक नियमितीकरण का भी स्वागत करते हैं क्योंकि इससे उन्हें सिक्योरिटी मिलती है। साथ ही उनकी हाउसिंग की कीमत भी बढ़ती है।
उन्नी बताते हैं कि सरकार कौन सी कॉलोनियों को नियमित करेगी, यह चुनने की प्रक्रिया काफी रैंडम है। इसका बहुत कुछ इस बात से लेना-देना है कि वहां कौन रहता है, जमीन का उपयोग कैसा है। सेटलमेंट जितना पुराना होगा, उसके नियमित होने की संभावना उतनी ही बेहतर होगी। वह बताते हैं कि हालांकि अनधिकृत कॉलोनियों को बिल्डिंग बाय-लॉ से छूट नहीं है, लेकिन इन क्षेत्रों में विकास के लिए कोई औपचारिक या सोची-समझी योजना नहीं है। डिवेलपमेंट ज्यादातर MCD (दिल्ली नगर निगम) लेवल पर सशुल्क अप्रूव किए गए फॉर्मल सैंक्शन्स के माध्यम से होता है, लेकिन अक्सर यह रिश्वत के माध्यम से अनौपचारिक रूप से भी कंट्रोल किया जाता है। ढांचा जितना अधिक औपचारिक होगा, बाय-लॉ की प्रक्रिया भी उतनी ही फॉर्मल होगी। शहरी गांवों की तरह जहां बाय-लॉ लागू नहीं होते हैं और संचालन लगभग पूरी तरह से अनौपचारिक होता है। झुग्गियों को अवैध माना जाता है।
उन्नी ने इंडियास्पेंड को बताया, 'बाय-लॉ सभी पर लागू होने चाहिए, लेकिन हमारे शहर में तमाम तरह की बस्तियों के फॉर्मलाइजेशन की कमी के कारण उन्हें लागू करने का कोई प्रभावी तरीका नहीं है।' इंडियास्पेंड ने इस संबंध में टिप्पणी के लिए एमसीडी में आयुक्त अश्विनी कुमार और नगरपालिका सचिव शिवप्रसाद के.वी. से संपर्क किया है। जब हमें कोई जवाब मिलेगा तो हम इस स्टोरी को अपडेट करेंगे।
डोमेस्टिक वर्कर परमीला लगभग 25 साल पहले दिल्ली आई थीं। गोपालपुर गांव में नंदलाल जुग्गी, जहां वह रहती हैं, दिल्ली की कई विपन्न अनधिकृत कॉलोनियों में से एक है। परमीला के घर में एक कमरा और एक किचन है। इसके साथ एक छोटा सा कॉमन एरिया भी है। कमरे में एक छोटा फैन लगा है। कमरा बिल्कुल हवादार नहीं है, इस वजह से वह काफी क्लॉस्ट्रोफोबिक (बंद जगहों का डर) लगता है। परमीला ने मुझे बताया कि इस कमरे में दो लोग सोते हैं।
उन्होंने मुझसे पूछा, 'क्या आप भरोसा कर सकती हैं कि यहाँ कोई सोता है?' वह मेरे पति थे, जो बिना कपड़ों के यहाँ सो रहे थे।' मैं उनके कमरे में 5 अन्य महिलाओं के साथ बैठी थी जो या तो डोमेस्टिक वर्कर्स थीं या फिर दिहाड़ी मजदूर। वे बताती हैं कि कैसे उनके पति धूप में काम करते समय बीमार महसूस करते हैं। एक अन्य घरेलू कामगार अनीता ने मुझे बताया कि ई-रिक्शा चलाने वाले उनके पति गाड़ी चलाते समय बेहोश हो गए थे। उन्हें जल्दी से घर लाया गया था। इसके बाद भी वह अगले दिन काम पर वापस चले गए।
दिल्ली के गोपालपुर गांव में नंदलाल झुग्गी में परमीला और उनकी पड़ोसन कमरे में बैठी हैं। ये महिलाएं बताती हैं कि कैसे उनके पति धूप में काम करते हुए बीमार महसूस करते हैं।
ग्रुप की एक अन्य महिला कमला देवी कहती हैं, 'हम रात में अपने कमरों के अंदर नहीं सोते हैं। कुछ लोग छत पर सोते हैं और कुछ रात बाहर बिताते हैं।' उन्होंने मुझे बताया कि वे लोग केवल सुबह के समय ही सो पाते हैं क्योंकि तब तक मौसम थोड़ा कम उमस भरा होता है, लेकिन तब तक काम का वक्त हो जाता है। तैमूर नगर गांव की रहने वाली प्रीति शर्मा ने मुझे बताया, 'हमारे पास सिर्फ एक छोटा कूलर है, जिसके सामने मेरे पति सोते हैं, ताकि वह ठीक से नींद ले पाएं और अगले दिन काम पर जा सकें।'
दिल्ली हीट ऐक्शन प्लान 2024-25 में कहा गया है कि अगर उमस अधिक है तो व्यक्ति 37°C या 38°C तापमान पर भी हीटवेव के दुष्प्रभावों से पीड़ित हो सकता है। आमतौर पर 37°C या 38°C ड्राई-बल्ब टेंपरेचर मनुष्य की सहनीय सीमा से काफी कम होता है। नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरनमेंट, सस्टेनेबिलिटी ऐंड टेक्नोलॉजी (आईफॉरेस्ट) के अध्यक्ष और मुख्य कार्यकारी अधिकारी चंद्र भूषण कहते है, 'वेट बल्ब तापमान हमें वास्तव में यह मापने की सुविधा देता है कि हम किसी विशेष तापमान पर कैसा महसूस करते हैं। यह निर्धारित कर सकता है कि तापमान और आर्द्रता दोनों हमारे शरीर पर क्या प्रभाव डालते हैं?'
भूषण आगे बताते हैं कि हवा में नमी और तापमान दोनों मिलकर हमारे शरीर को प्रभावित करते हैं। पिछले साल से आईएमडी ने 'फील-लाइक टेम्परेचर' जैसा कुछ जारी करना शुरू कर दिया है। इसकी गणना गर्मी और वातावरण में नमी को मिलाकर की जाती है लेकिन मौसम विभाग केवल शुष्क बल्ब तापमान के आधार पर ही लू की घोषणा करता है। वह इस प्रकरिया में वातावरण की नमी को ध्यान में नहीं रखता।
भारतीय मौसम विभाग द्वारा 12 जुलाई, 2024 को दर्ज किया गया ‘फील लाइक टेंपरेचर’
माना जाता है कि 35 डिग्री सेल्सियस तक का वेट-बल्ब तापमान इंसान के लिए सहनीय होता है लेकिन विशेषज्ञ वेट-बल्ब टेंपरेचर को गर्मी मापने के लिए सटीक मीट्रिक नहीं मानते हैं। उनका मानना है कि छाया में रहने वाले व्यक्ति के लिए ज्यादा सटीक मीट्रिक 'हीट इंडेक्स' है।
दिल्ली के हीट ऐक्शन प्लान में 'वेट बल्ब टेंपरेचर' शब्द का उल्लेख नहीं है। इसमें कहा गया है कि वातावरण में नमी के प्रभाव की गणना करने के लिए हम 'हीट इंडेक्स वैल्यू' का उपयोग कर सकते हैं, जो हवा के तापमान के साथ रिलेटिव ह्यूमिडिटी (सापेक्ष नमी) को जोड़ने के बाद कैसी गर्मी पड़ती है, इसका एक माप है।
उदाहरण के लिए, अगर हवा का तापमान 34°C है और सापेक्ष नमी (आर्द्रता) 75% है तो हीट इंडेक्स 49°C है। सापेक्ष आर्द्रता 100% होने पर हीट इंडेक्स सिर्फ 31°C होगा। टेंपरेचर और रिलेटिव ह्यूमिडिटी चार्ट और महसूस किए गए तापमान से संबंधित तालिका नीचे दी गई हैः
टेंपरेटर-ह्यूमिडिटी इंडेक्स। सोर्स: दिल्ली हीट ऐक्शन प्लान 2024-25
दिल्ली शहर के लिए हीट अलर्ट लिमिट। सोर्स: दिल्ली हीट ऐक्शन प्लान 2024-25
भारत को 'हीट कोड' की आवश्यकता क्यों है
भूषण बताते हैं, 'फिलहाल भारत को शहरों और राज्यों के लिए 'हीट कोड' की जरूरत है, जो हीटवेव की चर्चा में गर्मी और नमी दोनों को ध्यान में रखेगा।' वह कहते हैं कि शहरी हीट ऐक्शन प्लान काम नहीं कर रहे हैं। इसके लिए न तो कोई फंडिंग है और न ही कोई संस्थागत को-ऑर्डिनेशन। भूषण ने इंडियास्पेंड को बताया, "दिल्ली हीट ऐक्शन प्लान को स्पष्ट तरीके से लागू नहीं किया गया। इसे अप्रैल में गर्मी के मौसम से ठीक पहले अधिसूचित किया गया था। इंडियास्पेंड ने इस पर जवाब के लिए दिल्ली आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के विशेष मुख्य कार्यकारी अधिकारी सुशील सिंह से संपर्क करने की कोशिश की। जवाब मिलने पर हम स्टोरी को अपडेट करेंगे।
धरती पर हर 1°C तापमान बढ़ने पर नमी लगभग 7% बढ़ जाती है क्योंकि हमारे महासागरों और तमाम जलस्रोतों से पानी वाष्पित होता रहता है। साल 2019 में Indian Institute of Tropical Meteorology के रिसर्चर्स ने 9 क्लाइमेट मॉडल्स का मूल्यांकन किया और पाया कि हीटवेव की फ्रीक्वेंसी और उसकी अवधि साल 2020 की शुरुआत में बढ़ना शुरू हो गई थी और यह ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि के साथ और बढ़ता रहेगा।
साल 2017 में हुई एक स्टडी से पता चला है कि अगर ग्लोबल मीन टेंपरेचर पूर्व-औद्योगिक काल से 2 डिग्री सेल्सियस ज्यादा पर स्थिर रहता है तो 21वीं सदी के अंत तक भीषण हीटवेव की आवृत्ति मौजूदा क्लाइमेट से 30 गुना बढ़ जाएगी। कुल मिलाकर सभी प्रकार के क्लाइमेट मॉडल बताते हैं कि निकट भविष्य में हीटवेव के एक बड़ी प्राकृतिक आपदा बनने की पूरी संभावना है।
देश के कई शहरों और राज्यों ने इस खतरे को पहचाना है और इसे लेकर हीट ऐक्शन प्लान (HAP) बनाए हैं। हीटवेव के इस खतरे को लेकर ज्यादा संवेदनशील 23 राज्यों और 130 शहरों में HAP विकसित करने के लिए केंद्र सरकार भी उनकी मदद कर रही है। भूषण कहते हैं कि इतनी कोशिशों के बावजूद नैशनल रिस्पॉन्स संतोषजक नहीं है। इंडियास्पेंड ने इस संबंध में बात करने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) के सदस्य और विभाग के प्रमुख राजेंद्र सिंह और NDMA में सलाहकार (शमन) सफी अहसान रिजवी से संपर्क किया है। जब हमें कोई प्रतिक्रिया मिलेगी तो हम इस स्टोरी को अपडेट करेंगे।
भूषण ने बताया कि हीट कोड में हीटवेव का ऐलान करते समय ह्यूमिडिटी और टेंपरेचर दोनों को ध्यान में रखा जाएगा। साथ ही, इस स्थिति से निपटने के लिए रणनीति भी तैयार की जाएगी। इस कोड में हीटवेव की आपात स्थिति को लेकर कई मानक प्रॉसेस शामिल होंगे। जैसे- काम के घंटे की लिमिट निर्धारित करना। सार्वजनिक स्थानों और अस्पतालों में राहत उपायों को लागू करना। इसके अलावा यह जिला प्रशासन को आपात स्थिति घोषित करने, बाहरी गतिविधियों को रोकने और गर्मी से राहत के प्रयासों के लिए संसाधन आवंटित करने का अधिकार देगा। बता दें कि भारत सरकार राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के तहत हीटवेव को प्राकृतिक आपदा नहीं मानती है। ऐसे में हीटवेव राष्ट्रीय या राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष से मदद के लिए पात्र नहीं है। शहरों और राज्यों में ऐसी स्थिति से निपटने के लिए संसाधनों की कमी एक बड़ी चुनौती है।
स्वास्थ्य पर प्रभाव
साल 2010 से 2018 के बीच देश भर में हीटवेव से कम से कम 6,167 लोगों की मौत हुई। इनमें से 34% या 2,081 मौतें साल 2015 में हुई थीं, जो सबसे घातक हीटवेव वाला साल था, जैसा कि इंडियास्पेंड ने जून 2020 में रिपोर्ट किया था। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ गांधीनगर के पूर्व निदेशक दिलीप मावलंकर के अनुसार, ह्यूमिडिटी शरीर में कूलिंग मेकैनिजम पर असर डालती है। ज्यादा ह्यूमिडिटी की वजह से पसीना वाष्पित नहीं होता है। ऐसी स्थितियों में शरीर गर्म हो जाता है और हीटस्ट्रोक की संभावना बढ़ जाती है, खासतौर से उन लोगों में जो पहले ही कई बीमारियों से पीड़ित हैं।
मावलंकर कहते हैं कि हम वास्तव में नहीं जानते हैं कि झुग्गियों में वेटबल्ब तापमान अधिक होता है या नहीं। यह डेटा कभी भी मौसम केंद्र से नहीं आया है। मौसम केंद्र काफी ओपन और बड़ी जगहों पर बने होते हैं। वे माइक्रो-क्लाइमेट डेटा नहीं देते हैं। वे केवल मैक्रो-लेवल की एक तस्वीर बनाते हैं।"
बार-बार हाई वेट बल्ब टेंपरेचर के संपर्क में आने से हीटस्ट्रेस और थकावट हो सकती है। बहुत ज्यादा गर्मी और हाई ह्यूमिडिटी की वजह से थोड़े वक्त के बाद ही इंसानी सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है। हाई वेट बल्ब टेंपरेचर लोगों की बिल्डिंग्स में रहने की क्षमता को भी प्रभावित कर सकता है। मावलंकर कहते हैं कि दुर्भाग्य से भारत में ऐसा कोई शोध नहीं है जो यह दिखाए कि हाई वेट-बल्ब टेंपरेचर के कारण झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों को किस तरह की गर्मी का सामना करना पड़ रहा है।
हीटवेव रोधी घर
तेजी से बढ़ते शहरीकरण के कारण भारतीय शहरों में माइक्रोक्लाइमेट बदल रहा है। इससे हवा का बहाव भी कम हो रहा है और घनी आबादी वाले इलाकों में टेंपरेचर तेजी से बढ़ रहा है। हालांकि दिल्ली के लिए यूनीफाइड बिल्डिंग बाइलॉज में पर्यावरण से संबंधित किसी दिशानिर्देश का उल्लेख नहीं है लेकिन पर्यावरण-वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने बिल्डिंग्स के लिए पर्यावरण संबंधी दिशानिर्देश अधिसूचित जरूर किए हैं।
उन्नी बताते हैं कि एयर वेंटिलेशन और एनवायरमेंट के लिए कुछ सामान्य दिशानिर्देश मौजूद हैं, लेकिन उन पर पुनर्विचार और फिर से काम करने की जरूरत है। हमारे बिल्डिंग बाइलॉज की समस्या यह है कि वह भवन सामग्री मसलन- ईंट, मोर्टार आदि पर ज्यादा ध्यान देते हैं, लेकिन उनके पर्यावरणीय पहलुओं पर उनका उतना फोकस नहीं होता है। इसमें बदलाव की बहुत जरूरत है।
दिल्ली का हीट ऐक्शन प्लान कहता है कि दिल्ली में 6 हजार 343 झुग्गियाँ हैं। झुग्गियों और लो-इनकम कम्युनिटीज में रहने वाले लोग खासतौर पर गर्मी के प्रति संवेदनशील होते हैं। ज्यादा हाई टेंपरेचर और हाई ह्यूमिडिटी का मिश्रण मानव स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा है। मावलंकर कहते हैं कि ह्यूमिडिटी की स्थिति में पीने का पानी भी काम नहीं आता। उमस का कुछ नहीं किया जा सकता, सिवाय इसके कि इसके बीत जाने का इंतज़ार किया जाए।
कई एनजीओ ने दिल्ली की झुग्गियों में हीटवेव-रेसिलिएंट घर बनाने के लिए अलग-अलग छोटे पैमाने पर पायलट प्रोजेक्ट शुरू किए हैं। इंडो-ग्लोबल सोशल सर्विस सोसाइटी (IGSSS) ने दिल्ली की 4 झुग्गियों में हीट इंसुलेटर, एग्री-बायो-पैनल लगाने के लिए एक प्रोजेक्ट शुरू किया है। कुल मिलाकर हीट इंसुलेटर पैनल के लिए 30 घरों का चयन किया गया है। जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कार्यक्रम IGSSS के लीड प्रोशिन घोष, जो इस प्रोजेक्ट का हिस्सा थे, कहते हैं कि इस प्रोजेक्ट के बाद सभी लाभार्थी घरों में तापमान औसतन 3-4 डिग्री सेल्सियस कम हो गया।
IGSSS की ओर से दिल्ली की झुग्गियों में हीट इंसुलेटर और एग्री-बायो पैनल लगाए जा रहे हैं।
जरूरी संसाधनों की कमी की स्थिति में कम्युनिटी कूलिंग सेंटर एक सलूशन हो सकता है। नेचुरल रिसोर्स डिफेंस काउंसिल (NRDC) में प्रमुख स्वास्थ्य सलाहकार अभियंत तिवारी कहते हैं कि NRDC ने जोधपुर नगर निगम और गैर-लाभकारी महिला आवास ट्रस्ट के साथ साझेदारी में जोधपुर हीट ऐक्शन प्लान के तहत एक प्रोजेक्ट शुरू किया है। इस प्रोजेक्ट में सोलर पैनलों से संचालित कूलिंग सेंटर स्थापित किए गए हैं। ये एक कूलर की तरह काम करते हैं, जिनके चारों ओर घास के शेड बने हैं और जिस पर लगातार पानी का छिड़काव होता रहता है। इस सेंटर में एक बार में 40 से अधिक लोगों को समायोजित करने की क्षमता है।
तिवारी कहते हैं कि यह एक ऐसी जगह है जहाँ कोई भी गर्मी से राहत पाने के लिए आ सकता है। यह एक पोर्टेबल सलूशन है और इस पर बहुत सारे रिसर्च हो सकते हैं। देश के और शहरों में भी वहां के स्थानीय निकाय की ओर से ऐसे कई समाधान तैयार किए जा सकते हैं। उन्नी कहते हैं, 'ये पायलट सलूशन्स असरदार हैं या नहीं, यह पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करता है कि इसे प्रयोग करने वाले लोग कैसा महसूस करते हैं और क्या उन्हें इसका फायदा हुआ है? फिलहाल हम इसे लेकर एक्सपेरिमेंट कर रहे हैं लेकिन एक बार इसका डॉक्युमेंटेशन हो जाए और इन्हें सरकारी सहायता और प्रोत्साहन मिलने लगे तो इस प्रोजेक्ट को और आगे बढ़ाया जा सकता है।
उन्नी बताते हैं कि अर्बन प्लानिंग में वेंटिलेशन, बिल्डिंग स्पेसिंग, नैचरल कूलिंग और ट्री-प्लानिंग शामिल होना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि वर्तमान योजनाएं पुरानी हो चुकी हैं और हीटवेव तथा क्लाइमेट चेंज जैसे आधुनिक पर्यावरणीय मुद्दों पर कोई बात नहीं करती हैं।
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