बैंगलोर, बांदा और पन्ना: साल 2020 में देशव्यापी लॉकडाउन लगने के बाद से ही 39 साल के प्रेम लाल का जीवन बेहद कष्ट में बीत रहा है। मार्च 2020 में लॉकडाउन के एलान के बाद, तमाम दूसरे फंसे हुए प्रवासी मजदूरों की तरह ही प्रेम लाल ने भी घर लौटने के लिए बड़ी मुश्किल यात्रा की। पुणे में पेंटर का काम करने वाले प्रेम लाल ने उत्तर प्रदेश के आर्थिक रूप से पिछड़े बुंदेलखंड क्षेत्र के बांदा जिले में स्थित अपने घर के लिए, लगभग 1200 किलोमीटर की दूरी पैदल तय की। घर लौटने के बाद उन्हें महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत कुछ हफ़्तों का ही काम मिल पाया है।

प्रेम लाल कहते हैं, 'अगर मनरेगा जैसी योजनाओं के तहत साल में ज्यादातर समय रोजगार उपलब्ध रहे, तो मैं दूसरे शहरों में काम करने नहीं जाऊंगा'। मध्य प्रदेश के बुंदलेखंड क्षेत्र में आने वाले जिले पन्ना में मनरेगा के तहत मजदूरी करने वाले 45 वर्षीय बाबा दीन का हाल भी कमोबेश ऐसा ही है। बाबा दीन कहते हैं कि मार्च में लॉकडाउन लगने के बाद जब लोग लौट आए तो काम की मांग तेजी से बढ़ गई, 'लेकिन उसमें से सब को रोजगार नहीं मिल पाया।'

साल 2006 में लागू हुए मनरेगा का लक्ष्य है कि किसी घर के वयस्क सदस्य को साल भर में कम से कम 100 दिन का अकुशल मजदूरी वाला रोजगार दिलाया जाए। यह योजना ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों के लिए जीवनदायनी साबित हुई है। आर्थिक तंगी और प्राकृतिक आपदाओं के समय लगभग 14.7 करोड़ सक्रिय मजदूरों के लिए भी यह योजना मददगार रही है।

साल 2021-22 में मनरेगा के तहत काम मांगने वालों की संख्या बढ़कर 13.3 करोड़ हो गई है जो कि अब तक सबसे ज्यादा है। इसके बावजूद, 2021-22 के लिए सरकार ने मनरेगा के लिए 35% कम धन आवंटित किया है। साथ ही, सरकार 100 दिन से ज़्यादा का रोजगार भी नहीं देना चाहती है। वहीं, मजदूरों का कहना है कि उनके सामने अभी भी पैसे मिलने में देरी और काम की कमी जैसी कई समस्याएं खड़ी हैं।

इस रिपोर्ट में, इंडियास्पेंड और खबर लहरिया ने बांदा और पन्ना जिले के ज़रिए यह जानने की कोशिश की है कि लॉकडाउन के प्रतिकूल आर्थिक प्रभावों और रोजगार की कमी की समस्या का मनरेगा के मजदूर कैसे सामना कर रहे हैं। साथ ही, यह भी समझने की कोशिश की गई है कि क्यों सरकार को और ज़्यादा धन आवंटित करना चाहिए, ताकि लगभग 9.59 करोड़ उन परिवारों को मदद मिल सके, जो मनरेगा के तहत काम पाना चाहते हैं।

काम की मांग बढ़ी, फ़ंड में आई कमी

बांदा जिले में मनरेगा के तहत मजदूरी करने वाले राजा (सिर्फ़ पहला नाम ही लिखते हैं) के परिवार ने लॉकडाउन के समय नमक और रोटी खाकर खुद को जिंदा रखा। राजा को ज्यादातर समय काम नहीं मिला। राजा कहते हैं कि 2020 में लॉकडाउन से पहले स्थिति अच्छी थी। वह कहते हैं, 'मेरे लिए कोरोना वायरस बड़ी समस्या नहीं है। मैं इस साल मनरेगा में काम करना चाहता हूं'। राजा को इस साल जुलाई में सिर्फ़ आठ से 10 दिन का काम मिला है।

पहले लॉकडाउन से पहले भी बेरोजगारी एक बड़ी समस्या थी। इंडियास्पेड की जनवरी 2021 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दिसंबर 2019 में भारत में काम करने वाले लोगों में से कुल 48% लोग खुद का रोजगार करते थे। अगस्त 2020 में यह संख्या बढ़कर 64% पहुंच गई। यह दर्शाता है कि रोजगार के अवसर तेजी से कम हुए हैं।

रोजगार के मामलों में थिंक टैंक का काम करने वाले सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग ऑफ़ इंडियन इकॉनमी ने 5 अगस्त को अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि जुलाई 2021 में लगभग 1.6 करोड़ नए रोजगार अवसर बने, लेकिन इनमें से ज़्यादातर 'घटिया गुणवत्ता' वाले रोजगार थे। इसमें, 70% रोजगार कृषि क्षेत्र में था जो कि मॉनसून की फसलों की बुवाई के चलते पैदा हुआ।

साल 2020-21 में, मनरेगा में रोजगार की मांग 2019-20 की तुलना में 43% बढ़कर 13.3 करोड़ लोगों तक पहुंच गई, जिसमें से 84% लोगों को कुुछ न कुछ काम मिला भी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, लोगों को मिलने वाले काम के दिनों की संख्या डेढ़ गुनी बढ़कर 390 करोड़ पहुंच गई, जो कि 2018-19 में 270 करोड़ ही थी। इसके बावजूद, हर परिवार को साल भर में औसतन 52 दिन का ही काम मिल पाया, जबकि मनरेगा के तहत कम से कम 100 दिन का रोजगार मिलने की गारंटी दी जाती है।

सरकार ने 10 अगस्त, 2021 को संसद को बताया कि अप्रैल से जुलाई 2020 के बीच काम के दिनों की संख्या (170 करोड़ कामकाजी दिन) के 84% हिस्से के बराबर काम के दिनों की संख्या अप्रैल से जुलाई 2021 में भी थी। यह बताता है कि रोजगार की मांग बनी हुई है।

साल 2019-20 की तुलना में, उत्तर प्रदेश में साल 2020-21 में मनरेगा में काम मांगने वालों की संख्या दोगुना बढ़कर 1.57 करोड़ व्यक्ति तक पहुंच गई। आंकड़ों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के अलावा, गोवा और झारखंड में भी काम मांगने वालों की संख्या में 100% या उससे ज़्यादा की बढ़ोतरी हुई।

नागालैंड और लक्षदीप के अलावा, सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में काम मांगने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। इनमें, नौ राज्य ऐसे भी हैं जिनमें राष्ट्रीय औसत 43% से भी ज़्यादा की बढ़ोतरी हुई है। मध्य प्रदेश में काम मांगने वालों की संख्या में कुल 74% की बढ़ोतरी हुई है।

बांदा जिले में, साल 2019-20 की तुलना में साल 2020-21 में काम की मांग लगभग दोगुनी (95% की बढ़त) हो गई, वहीं पन्ना में यह बढ़ोतरी 54% की रही।

केंद्र सरकार ने देशव्यापी लॉकडाउन लगने से पहले, मनरेगा के लिए साल 2020-21 के लिए कुल 61,500 करोड़ रुपये आवंटित किए थे। लॉकडाउन के बाद शहरों से गांवों की ओर तेजी से पलायन हुआ। इसके बाद, केंद्र सरकार ने आवंटित राशि को 81% बढ़ाकर साल 2020-21 के लिए, 1,11,500 करोड़ कर दिया। हालांकि, बाद में इसमें 34% की कटौती करके साल 2021-22 के लिए इसे 73,000 करोड़ कर दिया गया

शोधकर्ताओं का कहना है कि यह आवंटित राशि रोजगार की मांग में बढ़ोतरी को पूरी करने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसके अलावा, इससे हर जॉब कार्ड धारक को 100 दिन का काम भी नहीं दिया जा सकता है। आईआईटी दिल्ली में असोसिएट प्रोफेसर और अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा कहती हैं, 'जॉब कार्ड धारक परिवारों को 100 दिनों का काम देने के लिए, 3 लाख करोड़ रुपयों की ज़रूरत है। जब से मनरेगा लागू हुआ है, तब से आज तक किसी भी सरकार ने इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए पर्याप्त राशि आवंटित नहीं की है।'

मजदूर किसान शक्ति संगठन और नैशनल कैंपेन फॉर पीपल्स राइट टू इन्फॉर्मेशन के संस्थापक सदस्य और सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे कहते हैं, 'लॉकडाउन के समय, अप्रैल 2020 के महीने में मनरेगा में कोई काम ही नहीं था और सरकार ने कुछ नहीं किया। मई और में थोड़ा-बहुत काम शुरू हुआ, क्योंकि सरकार ने आर्थिक पैकेज के ज़रिए पैसे आवंटित किए'। निखिल आगे कहते हैं कि इसके बावजूद 2020 के अंत में बहुत सारे मजदूरों का पैसा बकाया था।

इंडियास्पेंड की सितंबर 2020 में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020-21 केे लिए मनरेगा को आवंटित बजट (संशोधित) का आधा हिस्सा, इस वित्त वर्ष के पहले चार महीने में ही खर्च हो गया। साल के बाकी आठ महीनों के लिए, बजट का सिर्फ़ आधा हिस्सा ही बचा।

इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकनॉमिक रिलेशन्स (आईसीआरआईईआर) में सीनियर विजिटिंग फेलो और अर्थशास्त्री राधिका कपूर कहती हैं, 'हालांकि, कोरोना महामारी के काल में मनरेगा ने एक प्रभावी और सुरक्षित तंत्र के रूप में काम किया, लेकिन इसके लिए आवंटित फंड कम है। अप्रैल 2020 में मनरेगा के लिए आवंटित फंड में बढ़ोतरी किए जाने के बावजूद भी यह देश के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का मात्र 0.47% ही था। यह विश्व बैंक के अर्थशास्त्रियों की ओर से मनरेगा के सही कार्यान्यवयन के लिए सुझाए गए जीडीपी के 1.7% के लक्ष्य से काफी कम है।'

काम की उपलब्धता में कमी

साल 2020 में एक परिवार को साल में भर में औसतन 52 दिन काम मिला, जो कि मनरेगा के 100 दिन की गारंटी के लक्ष्य का लगभग आधा ही है।

कोरोना महामारी के चलते नौकरियां जाने और कमाई घटने की वजह से गरीबी भी बढ़ी है। बांदा के प्रेम लाल कहते हैं कि उन्हें साल 2020 में मनरेगा के तहत 15 दिन का काम मिला, लेकिन उसके भी पैसे अभी तक नहीं मिले हैं। पुणे में पेंटर का काम करने वाले प्रेम लाल कहते हैं, 'पुणे में मैं महीने के 20 हजार रुपये कमा लेता था। जब से मैं घर आ गया हूं, मैंने शायद ही कोई कमाई की है, लेकिन महीने का खर्च बढ़कर लगभग 8 हजार रुपये का हो गया है।'

पन्ना जिले के बाबा दीन को साल 2021 में मनरेगा के तहत कुल 23 दिन का काम मिला है। लगातार काम न मिलने की वजह से ये मजदूर कर्ज में दबे हुए हैं। बाबा दीन बताते हैं कि गांव के लगभग हर मजदूर ने 10 से 20 हजार का कर्ज़ ले रखा है। बाबा दीन को भी अक्सर काम की तलाश में 10 से 15 दिन के लिए शहर से बाहर जाना पड़ता है।

मनरेगा में, सूखे और प्राकृतिक आपदाओं के समय 50 दिन का अतिरिक्त काम उपलब्ध कराने का प्रावधान है। बेरोजगारी के हालात देखते हुए, मनरेगा कार्यकर्ताओं ने मांग की है कि सरकार काम की बढ़ती मांग को देखते हुए इन अतिरिक्त दिनों का काम और इसके लिए ज़रूरी राशि मुहैया करवाए।

मजदूरों के बारे में लोकसभा की स्टैंडिंग कमेटी ने अगस्त 2021 की अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया था कि रोजगार की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए, सरकार को मनरेगा के तहत कामकाजी दिनों की संख्या को बढ़ाकर एक साल में 200 दिन कर देना चाहिए। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सरकार को मनरेगा के बजट आवंटन, काम के लिए तुरंत भुगतान, और मनरेगा मजदूरों के लिए स्वास्थ्य बीमा जैसे प्रावधानों पर भी विचार करना चाहिए।

हालांकि, सरकार कामकाजी दिनों की संख्या बढ़ाने को लेकर इच्छुक नहीं दिखाई देती। जुलाई 2021 में सरकार ने संसद में बताया कि 'राज्य सरकारें चाहें, तो वे अपने संसाधनों से 100 दिन के बाद के अतिरिक्त दिनों का रोजगार उपलब्ध करा सकती हैं।' सरकार ने यह भी कहा कि 50 दिन का अतिरिक्त रोजगार सूखा प्रभावित या प्राकृतिक आपदा प्रभावित क्षेत्रों में, कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के सुझाव पर उपलब्ध कराया जाता है। सरकार ने यह भी स्पष्ट किया है कि 'मनरेगा के तहत काम के दिनों की संख्या बढ़ाने की कोई योजना नहीं है'।

आईसीआरआईईआर की राधिका कपूर कहती हैं, 'आर्थिक तंगी के इस दौर में, जल्द ही ज्यादातर परिवारों के 100 दिन का काम पूरा हो जाएगा। ऐसे में जब तक कोरोना महामारी के प्रभाव खत्म नहीं हो जाते, तब तक के लिए रोजगार के दिनों की संख्या को बढ़ाया जाना चाहिए।'

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 20 अगस्त, 2021 तक लगभग 7 लाख परिवार इस साल के पहले पांच महीने में ही 100 दिन का रोजगार पा चुके हैं। राजा कहते हैं, 'ज़्यादातर मजदूरों को 100 दिन का काम नहीं मिल पाता है। यही हालत कोरोना काल से पहले भी थी।'

निखिल डे कहते हैं कि आवंटित फंड में बढ़ोतरी करते हुए अतिरिक्त दिनों का रोजगार उपबल्ध कराया जाना चाहिए। साथ ही, सरकार को 2020 और 2021 को आपदा का साल मानते हुए कामकाजी दिनों की संख्या बढ़ा देनी चाहिए। वह आगे कहते हैं, 'जैसे ही आप पैसे देना बंद कर देते हैं, लोग काम पर आना बंद कर देते हैं। समय पर भुगतान करके ही मनरेगा को मांग पर आधारित योजना बनाया जा सकता है।'

'जब मांगा गया, तब दिलाया काम': स्थानीय पदाधिकारी

राजा के गांव मोतिहारी, जिला बांदा के मेवालाल वर्मा ग्राम रोजगार सहायक के तौर पर काम करते हैं। मेवालाल का कहना है कि जैसे ही गांव का कोई स्थायी निवासी काम की मांग करता है, तो पंचायत प्रशासन उसे मनरेगा के तहत काम दिलाने के लिए तुरंत हर संभव प्रयास करता है। वह आगे कहते हैं, 'कम से कम हमारी ग्राम सभा में लॉकडाउन के दौरान घर लौट आए प्रवासी मजदूरों की ओर से काम की कोई भी मांग नहीं की गई।' इसके पीछे मेवालाल तर्क देते हैं, 'पिछले साल यानी 2020 तक मनरेगा के तहत औसत मजदूरी 201 रुपये थी। जो प्रवासी मजदूर लौटकर आए थे, वे शहरों में इससे काफी ज्यादा कमाई करते थे। ऐसे में इस तरह के मजदूर गांव में 201 रुपयों के लिए क्यों काम करते?'

एक तरफ जहां मोतिहारी ग्राम सभा का दावा है कि वहां प्रवासी मजदूरों की ओर से काम की मांग नहीं की गई, वहीं पन्ना की बहादुरगंज ग्राम सभा के पंचायत सचिव संतराम यादव के मुताबिक, उनकी ग्राम सभा में काम की मांग में बढ़ोतरी हुई, लेकिन वह बहुत ज्यादा नहीं थी। वह आगे कहते हैं, 'हमने प्रवासी मजदूरों को जॉब कार्ड जारी किए और उन्हें काम दिलाया।'

मजदूरी में बढ़ोतरी और पैसे मिलने में देरी

प्रेम लाल पर डेढ़ लाख रुपये का कर्ज़ है। उन्हें अपनी पत्नी के इलाज के लिए भी हर महीने 4500 खर्च करने पड़ते हैं। वह कहते हैं, 'इस साल हमारे गांव में लोग मनरेगा में काम करने को लेकर डर रहे हैं, क्योंकि पिछले साल हमने जो काम किया था उसका पूरा पैसा नहीं मिला।'

मजदूरी में मामूली बढ़ोतरी और पैसे मिलने में देरी की वजह से लोग मनरेगा में काम करने को लेकर हिचकने लगे हैं। इंडियास्पेंड ने दिसंबर 2020 तीन राज्यों के सर्वे के बाद एक रिपोर्ट छापी थी, जिसके मुताबिक, मजदूरी का पैसा पाने के लिए लोगों को कई तरह की समस्याओं और बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

राजा कहते हैं, 'जब हम पंचायत के सामने पैसों की बात कहते हैं, तो कह दिया जाता है कि पैसे मिल जाएंगे और बात खत्म हो जाती है।' वह बताते हैं कि कोरोना महामारी के पहले भी मनरेगा के पैसे मिलने में देरी एक बड़ी समस्या रही है।

शोधार्थी अंकिता अग्रवाल और विपुल कुमार पैकरा के अक्टूबर 2020 में प्रकाशित विश्लेषण के मुताबिक, 21 में से कम से कम 17 राज्यों में मनरेगा के तहत मिलने वाली मजदूरी उन राज्यों में खेतिहर मजदूरी के लिए मिलने वाले न्यूनतम पैसों से भी कम है। इस विश्लेषण के मुताबिक, अलग-अलग राज्यों में मजदूरी का यह अंतर 2% से 33% तक का है।

राधिका कपूर कहती हैं कि वर्तमान आर्थिक सुस्ती के समय, मनरेगा में मिलने वाली मजदूरी को बढ़ाया जाना चाहिए और इसे कम से कम राज्यों में खेती के काम के लिए मिलने वाली न्यूनतम मजदूरी के बराबर किया जाना चाहिए। इससे, गरीब परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधारने में मदद मिलेगी।

फैक्ट चेकर की मार्च 2021 में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2021-22 में मजदूरी में औसतन 4% की बढ़ोतरी हुई, जबकि साल 2020-21 में 11% की बढ़ोतरी हुई। वहीं, केंद्रीय कर्मचारियों और पेंशनधारियों को महंगाई की वजह से हुई कमी को पूरा करने के लिए, जुलाई 2021 में 11% महंगाई भत्ता (डीए) दिया गया।

निखिल डे कहते हैं कि फंड की कमी और कोरोना महामारी के खिलाफ सरकार की लगातार बदलती रणनीति, ये दो महत्वपूर्ण कारण हैं जिससे मनरेगा जैसे रोजगार कार्यक्रमों पर असर पड़ा है। वह आगे कहते हैं, 'अगर मजदूरों को काम नहीं मिलता है, तो उन्हें पहले महीने के लिए मनरेगा में मिलने वाली मजदूरी का 25% और उसके बाद 50% का बेरोजगारी भत्ता दिया जाना चाहिए। जिससे 100 दिन के रोजगारी की गारंटी सुरक्षित रह सके।'

निखिल आगे सुझाव देते हैं कि महामारी के चलते लागू प्रतिबंधों को ध्यान में रखते हुए, मनरेगा के तहत किए जाने वाले कामों से जुड़े नियमों में सरकार को बदलाव करना चाहिए। इससे, लोगों को उनके घर के आसपास ही काम मिल सकेगा और कोरोना महामारी के कारण आने वाली समस्याओं से दो-चार नहीं होना पड़ेगा।

लाखों अन्य मजदूरों की तरह ही राजा की भी मांग है कि मनरेगा के तहत पर्याप्त दिनों का काम मिले और मजदूरी का भुगतान समय पर कर दिया जाए। वह कहते हैं, 'मैं इस स्थिति में नहीं हूं कि काम की तलाश में दूसरे राज्य में चला जाऊं। मुझे अपने परिवार का पालन-पोषण यहीं रहकर करना है।'

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