मुंबई: कोविड-19 महामारी और खासकर इसकी दूसरी लहर ने कई राज्यों में सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की गंभीर खामियों को अच्छे से उजागर कर दिया। अप्रैल 2021 में प्रकाशित हमारी रिपोर्ट के मुताबिक, लोगों को अस्पताल में बेड, ऑक्सीजन की कमी और अन्य ज़रूरी चीजों के लिए काफी परेशान होना पड़ा।

इसके बाद, पहली और दूसरी लहर के बीच डेडिकेटेड कोविड-केयर फैसिलिटी और ऑक्सीजन बेड बढ़ाए जाने की रफ्तार में कमी आई। लैब की सीमित क्षमता और संख्या की वजह से टेस्टिंग और कोविड मामलों की संख्या पर सवाल भी उठे। 15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, सर्विलांस और कोविड फैलने के मैनेजमेंट और बाकी चीजों से जुड़ी समस्याएं भी सामने आई हैं। इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि क्रिटिकल केयर से जुड़ी मूलभूत सुविधाओं की भारी कमी महसूस की गई। 14वें वित्त आयोग में फंडिंग से जुड़े ज्यादा अधिकार मिलने के बावजूद कई राज्यों में इस तरह की समस्याएं आईं।

वित्त आयोग ऐसे संवैधानिक निकाय होते हैं जो हर पांच साल में बनाए जाते हैं। इनका काम राज्य और केंद्र सरकारों को वित्तीय मामलों में सुझाव देना, केंद्रीय कर के पैसों के बंटवारे के बारे में सलाह देना और आयोग के पांच सालों के समय के दौरान राज्यों को केंद्रीय अनुदान देना होता है।

1 फरवरी 2021 को संसद में पेश की गई 15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट का बारीकी से विश्लेषण करने पर पता चलता है कि स्वास्थ्य क्षेत्र पर खास ध्यान दिया गया। इसके अलावा, केंद्र सरकार से राज्यों को दिया जाने वाले कर का हिस्सा 41% पर रहा। हालांकि, 14वें वित्त आयोग में यह हिस्सा 42% था। 15वें वित्त आयोग के समय जम्मू-कश्मीर और लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने के लिए इसमें एक प्रतिशत की कमी की गई। वित्त आयोग ने राज्य सरकारों को सुझाव दिए कि स्वास्थ्य सुविधाओं पर अपने खर्च को बढ़ाएं और साल 2022 तक इसे कुल खर्च के कम से कम 8% तक पहुंचाएं।

15वें वित्त आयोग ने केंद्र सरकार को भी सलाह दी कि वह स्वास्थ्य सुविधाओं पर अपना खर्च बढ़ाये। साथ ही, यह भी कहा कि केंद्र सरकार और राज्यों की ओर से जनता की स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए होने वाले खर्च को तेजी से बढ़ाया जाना चाहिए और साल 2025 तक स्वास्थ्य क्षेत्र के खर्च को देश के सकल घरेलु उत्पाद (जीडीपी) का 2.5% तक पहुंचाना चाहिए। ये सुझाव 1 अप्रैल 2020 से 31 मार्च 2026 तक के लिए हैं।

15वें वित्त आयोग ने स्वास्थ्य क्षेत्र पर इतना जोर क्यों दिया, यही समझने के लिए हमने 14वें वित्त आयोग के दौरान एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप (EAG) के 8 राज्यों के स्वास्थ्य के क्षेत्र में किए गए खर्च का विश्लेषण किया। इन राज्यों में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और राजस्थान शामिल हैं। इन आठ राज्यों में देश की जनसंख्या के 47% लोग रहते हैं। देश के बाकी राज्यों की तुलना में इन राज्यों की जनसंख्या ज्यादा ग्रामीण और सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ी हुई है।

ऊँची प्रजनन दर और मृत्यु दर के हिसाब से, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत कुछ राज्यों को हाई-फोकस राज्यों की श्रेणी में रखा गया है। बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और मध्य प्रदेश, देश के सबसे गरीब राज्यों में से हैं।

इंडियास्पेंड ने इस मामले में ज्यादा जानकारी के लिए, एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप के सभी राज्यों के स्वास्थ्य और वित्त सचिवों और केंद्र सरकार के संयुक्त स्वास्थ्य सचिव और आर्थिक सलाहकार से संपर्क किया है। इन लोगों के जवाब मिलने पर इस स्टोरी को अपडेट कर दिया जाएगा।

14वें वित्त आयोग के दौरान स्वास्थ्य सुविधाओं पर बढ़ा खर्च

केंद्र सरकार के पास इकट्ठा होने वाले कर के पैसों में से सीमा शुल्क, आयकर, सेवा कर और केंद्रीय उत्पाद शुल्क जैसी मदों का पैसा यूनाइटेड फंड के तौर पर राज्यों को ट्रांसफर किया जाता है। यह पैसा राज्य सरकारें अपने हिसाब से खर्च कर सकती हैं।

14वें वित्त आयोग में केंद्र सरकार की ओर से राज्यों को दिए जाने वाले पैसे को बढ़ाकर 32% से 42% किया गया, ताकि राज्यों को स्वास्थ्य समेत राज्य सूची के विषयों पर खर्च करने की ज्यादा आजादी मिले और थोड़ी सुलभता रहे।

14वें वित्त आयोग की समयावधि के दौरान, उत्तराखंड को छोड़कर एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप के बाकी सभी राज्यों के लिए केंद्र सरकार से मिलने वाला पैसा लगभग दो गुना तक बढ़ गया। राज्यों में मिलने वाले पैसों में की गई यह बढ़ोतरी 15वें वित्त आयोग के शुरुआत दो साल के लिए भी लागू रही। (चार्ट देखें)


दिल्ली से संचालित सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस अकाउंटेबिलिटी के सीनियर प्रोग्राम ऑफिसर सिमोंती चक्रवर्ती ने इंडियास्पेंड को बताया, "बाकी सुझावों के अलावा 14वें वित्त आयोग ने सामाजिक क्षेत्र पर खर्च का जिम्मा राज्यों के हवाले ही छोड़ा था। इसके पीछे की सोच यह थी कि फंड बढ़ाए जाने से सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं जैसे कि स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च की ज्यादा जिम्मेदारी राज्यों की होनी चाहिए।

यहां यह देखने की ज़रूरत है कि राज्यों (खासकर एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप के राज्यों) के फंड में की गई इस बढ़ोतरी की वजह से संबंधित राज्यों में स्वास्थ्य के खर्च पर बढ़ोतरी हुई है कि नहीं।


13वें वित्त आयोग की तुलना में, 14वें वित्त आयोग में उत्तराखंड को छोड़कर बाकी के सभी राज्यों में स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च दोगुने से ज्यादा बढ़ गया। इसके अलावा, 15वें वित्त आयोग के शुरुआती दो साल में यह खर्च और भी ज्यादा बढ़ गया।


जैसे-जैसे आप ऊपर दिए गए चार्ट को और विस्तार से देखते हैं तो पता चलता है कि इस समयावधि में एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप के राज्यों ने स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए खूब खर्च तो किया लेकिन इसके बावजूद ये राज्य 15वें वित्त आयोग की सिफारिशों के हिसाब से तय किए गए कम से कम 8% के लक्ष्य को नवंबर 2021 तक पूरा नहीं कर पाए। यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है कि पिछले 12 सालों में झारखंड और मध्य प्रदेश ने स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च (कुल खर्च का प्रतिशत हिस्सा) के राष्ट्रीय औसत की तुलना में कम ही खर्च किया है।

14वें वित्त आयोग की समयावधि के दौरान एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप के राज्यों में से उत्तराखंड ने स्वास्थ्य पर खर्च में सबसे कम बढ़ोतरी की। हालांकि, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के डेटा के मुताबिक, लगभग सभी पैमानों पर बाकी के सात राज्यों की तुलना में उत्तराखंड राज्य की बेस परफॉर्मेंस सबसे अच्छी है। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS) की रिपोर्ट के मुताबिक, 14वें वित्त आयोग की समयावधि के दौरान, कई सूचकांकों पर उत्तराखंड ने राष्ट्रीय औसत को भी पछाड़ दिया।

डेटा का और विश्लेषण करने पर पता चलता है कि 15वें वित्त आयोग के शुरुआती दो सालों के दौरान, एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप के बाकी सात राज्यों के साथ-साथ देश के सभी राज्यों की तुलना में उत्तराखंड ने स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति खर्च सबसे ज्यादा किया। उत्तराखंड के अलावा छत्तीसगढ़, ओडिशा और राजस्थान ने भी राष्ट्रीय औसत से ज्यादा खर्च किया। वहीं, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश ने राष्ट्रीय औसत से कम खर्च किया।


स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च बढ़ाने पर इतना जोर क्यों?

15वें वित्त आयोग की समयावधि के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं पर इतना जोर दिया जाना इस बात की ओर इशारा करता है कि एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप में शामिल इन राज्यों में स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा पर्याप्त नहीं है। हमारा विश्लेषण यह दर्शाता है कि 14वें वित्त आयोग का समय खत्म होने पर, भौतिक मूलभूत ढांचे जैसे कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े कर्मचारियों जैसे कि डॉक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ की संख्या में भारी कमी रही। इन्हीं क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ा सबसे ज्यादा पैसा खर्च होता है।

15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट में इस बात को खासतौर पर दर्शाया गया कि बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश (पश्चिम बंगाल, जो एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप के राज्यों में शामिल नहीं था) में जन स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी रही। इन तीनों राज्यों में ग्रामीण जनसंख्या के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या राष्ट्रीय औसत की तुलना में काफी कम है। इस मानक पर 14वें वित्त आयोग की तुलना में मध्य प्रदेश ने तेजी से सुधार तो किया लेकिन वह भी राष्ट्रीय स्तर से पीछे ही रह गया।

इसका एक संभावित स्पष्टीकरण यह है कि स्वास्थ्य सुविधाओं के खर्च में यह बढ़ोतरी तुरंत जमीन पर उतरती नहीं दिख रही है। केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव जे वी आर प्रसाद राव ने इंडियास्पेंड को बताया, "स्वास्थ्य सुविधाओं का असर होने में ज्यादा समय लगता है। यह ऐसा नहीं है कि एक लाख टॉयलेट बनाने हैं जिनकी गिनती की जा सके और अगले साल आप यह देख सकें कि कितने टॉयलेट बन गए। लोगों के स्वास्थ्य की स्थिति में आने वाले किसी भी सुधार को मापने के लिए नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे आम तौर पर 3-4 साल का अंतर रखता है।"

एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप वाले राज्य कहां रह गए पीछे?

राज्यों ने स्वास्थ्य क्षेत्र में सबसे ज्यादा पैसा जिस काम के लिए खर्च किया वह है श्रमशक्ति यानिकि मैनपावर। जब हम आंकड़ों को और ध्यान से देखें तो पता चलता है कि एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप के राज्यों का प्रदर्शन अभी भी बहुत अच्छा नहीं है।


एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप के सभी आठ राज्यों में, ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले मैनपावर में कमी निचले कर्मचारियों, जिसमें महिला स्वास्थ्य कर्मचारी और ऑक्जिलरी नर्स मिडवाइफ (एएनएम) शामिल हैं (ऊपर चार्ट देखें), की है।

14वें वित्त आयोग की अवधि खत्म होने के बाद, एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप के आठ में से चार राज्यों - बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में ग्रामीण क्षेत्र में काम करने वाले नर्सिंग स्टाफ की संख्या में मौजूद कमी और बढ़ गई है।

ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा के कर्मचारियों के निचले स्तर में सुधार लाते हुए, एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप के कुछ राज्यों में 14वें वित्त आयोग की समयावधि के दौरान पिछले पांच सालों की तुलना में पैरामेडिकल कर्मचारियों, डॉक्टरों और विशेषज्ञों की संख्या में सुधार हुआ है। हालांकि, अभी भी कई राज्यों में अंतर बना हुआ है। (चार्ट देखें)


छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड, ओडिशा और राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर डॉक्टरों की भारी कमी है। हालांकि, 14वें वित्त आयोग की समयावधि के दौरान छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश इसमें थोड़ा बहुत सुधार लाने में कामयाब रहे। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश ने भी इस मानक पर अच्छा सुधार किया।

इन सुधारों के बावजूद, आंकड़े यह दर्शाते हैं कि 14वें वित्त आयोग की समयावधि खत्म होने के बाद भारत के ग्रामीण इलाकों के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर तैनात किए जाने वाले चार में तीन विशेषज्ञ नदारद ही रहे। वहीं, अगर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की बात करें तो इन दोनों राज्यों में 10 में से 9 विशेषज्ञों की कमी है।

अगर अन्य पैरामेडिकल स्टाफ की बात करें तो भारत के ग्रामीण क्षेत्र के स्वास्थ्य केंद्रों पर तैनात किए जाने वाले रेडियोग्राफर में दो में से एक, फार्मासिस्ट में पांच में से एक और लैब टेक्नीशियन में तीन में से एक की कमी है।

अगर एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप वाले राज्यों की बात करें तो इनमें यह अंतर राष्ट्रीय आंकड़ों की तुलना में भी ज्यादा है।

इस मामले में सबसे बुरा हाल बिहार का है। 14वें वित्त आयोग की समयावधि खत्म होने पर, बिहार के ग्रामीण क्षेत्र के स्वास्थ्य केंद्रों में रेडियोग्राफर की संख्या में 95%, फार्मासिस्ट की संख्या में 72% और लैब टेक्नीशियन की संख्या में 75% की कमी थी।


कारण और परिणाम

विशेषज्ञों का मानना है कि कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए ठेकेदारी प्रथा पर निर्भरता, लंबे समय के लिए स्वास्थ्य से जुड़ें लक्ष्यों के लिए खर्च करने में राज्यों की उदासीनता, बजट का सही मैनेजमेंट और डॉक्टरों की सरकारी नौकरी के प्रति उदासीनता की वजह से ही ग्रामीण क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवा से जुड़े मैनपावर में कमी की मुख्य वजहें हैं।

तिरुवनंतपुरम के श्री चित्रा तिरुनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज ऐंड टेक्नॉलजी में पब्लिक हेल्थ के प्रोफेसर रखल गायतोंडे ने इंडियास्पेंड से कहा, "मेरा मानना है कि डॉक्टर या किसी भी अन्य मानव संसाधन को सरकारें वित्तीय देयता की तरह देखती हैं, क्योंकि अगर आप किसी को नियुक्त करेंगे तो सरकार को उनकी सैलरी देनी होगी और उसकी पेंशन का भी इंतजाम करना होगा। यही कारण है कि ठेकेदारी पर काम कराए जाने की ओर रुझान तेजी से बढ़ा है।"

जमीनी स्वास्थ्य सुविधाओं के कार्यकर्ताओं के एक ग्लोबल नेटवर्क पीपल्स हेल्थ मूवमेंट से जुड़े हेल्थ रिसर्चर और कार्यकर्ता रवि दुग्गल कहते हैं, "हालांकि, ठेकेदारी सिस्टम टिकाऊ नहीं है क्योंकि इससे स्वास्थ्य सुविधाओं का सिस्टम प्रभावित होता है। अगर ऐसा होता है कि एक डॉक्टर एक साल के लिए काम करता है और दूसरे साल के लिए दूसरा डॉक्टर काम करता है तो डॉक्टर को भी काम करने में खास रुचि नहीं होती है। जब सरकारें डॉक्टरों के प्रति समर्पित नहीं रहेंगी तो डॉक्टर भी स्वास्थ्य सुविधाओं के सिस्टम के प्रति समर्पण नहीं दिखाएंगे।"

दूसरी तरफ, मेडिकल की पढ़ाई का बढ़ता खर्च भी एक बड़ी वजह है। रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद 24 फरवरी 2022 को भारत सरकार ने यूक्रेन से कई भारतीय छात्रों को बाहर निकाला। ये छात्र यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे। इनमें से कई छात्रों का कहना था कि उनके लिए भारत की तुलना में यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई करना सस्ता था। वहीं, दूसरे छात्रों का कहना था कि भारत के मेडिकल कॉलेजों में पर्याप्त सीटें नहीं हैं।

15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट में इस कमी की ओर भी मुख्य रूप से इशारा किया गया है। इसके अलावा, मेडिकल कॉलेजों के अनियमित वितरण की भी ध्यान दिलाया गया। रिपोर्ट के मुताबिक, ज्यादातर मेडिकल कॉलेज दक्षिण और पश्चिमी भारत के राज्यों में स्थित हैं। 15वें वित्त आयोग ने सलाह दी कि जन स्वास्थ्य सेवा से जुड़े सभी केंद्रों पर स्पेशलिस्ट मेडिकल कोर्स चलाएं जाएं ताकि राज्यों की ज़रूरतों के हिसाब से हर साल डॉक्टरों की भर्ती की जा सके।

जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के असोसिएट प्रोफेसर इंद्रनील मुखोपाध्याय बताते हैं, "मेडिकल की शिक्षा महंगी है। एमबीबीएस डिग्री हासिल करने के लिए छात्रों को 50 लाख से लेकर एक करोड़ रुपये तक खर्च करने पड़ जाते हैं। डॉक्टर भी कमाना चाहते हैं इसलिए वे प्राइवेट सेक्टर में नौकरी तलाशते हैं। यही वजह है कि कई राज्यों में ग्रामीण क्षेत्र के लिए डॉक्टर तैनात कर पाना काफी मुश्किल हो रहा है।"

स्टाफ की कमी की वजह से बंद हो रहे हैं कई स्वास्थ्य केंद्र

आगे दी गई परिस्थितियों की वजह से एक दूरगामी प्रभाव देखने को मिलता है। सरकारें प्रोफेशनल हेल्थकेयर स्पेशलिस्ट के लिए कम पैसे खर्च करती हैं, इस वजह से ये स्पेशलिस्ट सरकार के लिए काम नहीं करना चाहते। इसका परिणाम यह होता है कि स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में मैनपावर की भारी कमी है। डॉक्टरों और नर्सिंग स्टाफ की इस कमी का परिणाम यह होता है कि कई सारे स्वास्थ्य केंद्र बंद करने पड़ते हैं।

15वें वित्त आयोग ने इस बात को रेखांकित किया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHC) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (CHC) से जुड़े उप केंद्रों की मदद से मुहैया कराई जाती हैं। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की कमी है और जन स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी है। हाल ही में हेल्थ ऐंड वेलनेस सेंटर (HWC) स्थापित किए जाने का ऐलान किया गया है। इन केंद्रों पर सभी उम्र के लोगों के लिए रोगों की रोकथाम, उनसे बचाव, इलाज और गंभीर बीमारियों के जुड़े इलाज जैसी सुविधाएं मुहैया कराए जाने का लक्ष्य है। इन केंद्रों की वजह से स्वास्थ्य सुविधाओं के तंत्र पर अतिरिक्त बोझ पड़ेगा क्योंकि स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या पहले से ही बहुत कम है।

14वें वित्त आयोग की समयावधि के आखिरी छह महीनों में, भारत में कोविड-19 का पहला केस सामने आया। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने संसद को 12 मार्च 2021 को बताया कि बड़े और मध्यम आकार वाले राज्यों में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश ऐसे राज्य हैं जिनमें ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या में भारी कमी है।

केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव प्रसाद राव बताते हैं, "खुद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने अपने आधिकारिक बयान में यह कहा है कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और उप केंद्रों की संख्या में 23% की कमी आई है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि इन केंद्रों को चलाने के लिए एएनएम की संख्या पर्याप्त नहीं है। राज्यों के स्वास्थ्य विभाग इस बार पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे रहे हैं कि सैंक्शन किए गए उप केंद्र असल में काम भी कर रहे हों।"

इस बात को नीचे दिया गया चार्ट भी साबित करता है। चार्ट में दिखाया गया है कि एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप वाले राज्यों में सिर्फ राजस्थान और उत्तराखंड ऐसे राज्य थे जिनमें कोविड-19 महामारी शुरू होने से पहले ग्रामीण क्षेत्र के स्वास्थ्य केंद्रों की कोई कमी नहीं थी। ओडिशा और छत्तीसगढ़ में, देश के औसत की तुलना में स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या में मामूली कमी थी।


स्वास्थ्य कर्मियों की संख्या के अलावा, स्वास्थ्य सेवाओं की हकीकत जानने का एक और पैमाना है कि प्रति 1,00,000 जनसंख्या पर कितने बेड उपलब्ध हैं। इस पैमाने पर बिहार की परफॉर्मेंस सबसे खराब है। बिहार में 2020 के आंकड़ों के मुताबिक, प्रति एक लाख जनसंख्या पर मात्र 25 बेड उपलब्ध थे, जबकि राष्ट्रीय औसत 141 बेड का है। अब इसकी तुलना, एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप (EAG) से बाहर के राज्यों में से सबसे अच्छी परफॉर्मेंस वाले राज्य कर्नाटक से करिए जहां प्रति एक लाख संख्या पर उपलब्ध बेड की संख्या 395 है। एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप राज्यों में सिर्फ़ उत्तराखंड ऐसा राज्य है जहां बेड की संख्या राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है।


दूरगामी प्रभाव और इनके कारण

रवि दुग्गल बताते हैं, "प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या, प्रशिक्षित कर्मियों की संख्या, अस्पतालों में बेड की संख्या ये सब कारण हैं। हेल्थकेयर एक ऐसा सेक्टर है जिसमें काम करने वाले लोगों की ज्यादा ज़रूरत होती है। इसमें मरीजों को काउंसलिंग देने से लेकर, सर्जरी और मरीज के पूरी तरह ठीक होने तक स्वास्थ्य कर्मियों की ज़रूरत होती है। ऐसे में सरकारों का 70 से 80% खर्च स्वास्थ्य कर्मियों के वेतन पर ही खर्च हो जाना स्वाभाविक है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि और स्वास्थ्य केंद्रों और अस्पताल बनाने को नजरअंदाज किया जा सकता है।"

रवि दुग्गल आगे कहते हैं, "ज़रूरत इस बात की है कि बजट तय करते समय स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े लोगों के वेतन और गैर-वेतन के खर्च को अलग-अलग तय कर लिया जाए। इससे सरकारें यह सुनिश्चित कर सकेंगी कि वे वेतन या गैर-वेतन किसी के लिए भी ज़रूरत से ज्यादा खर्च न करें।"

विशेषज्ञों का भी मानना है कि अक्सर यह देखा जाता है कि जितना पैसा आवंटित होता है उतना मिल नहीं पाता है। रवि दुग्गल समझाते हैं, "अगर किसी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में दो डॉक्टर, कई एएनएम और पैरामेडिकल स्टाफ मौजूद हों और दवाएं पर्याप्त मात्रा में हों, तो ऐसे केंद्र को चलाने के लिए 40 से 50 लाख रुपये का खर्च आता है। लेकिन वास्तविकता में सिर्फ 15 से 20 लाख रुपये ही आवंटित होते हैं। यही वजह है कि स्वास्थ्य केंद्रों में हमेशा पद खाली रहेंगे, दवाओं की कमी रहेगी, रख-रखाव सही से नहीं हो सकेगा तो छतों से पानी टपकेगा और टॉयलेट गंदे रहेंगे। संसाधनों की कमी से जूझने वाले राज्यों का तर्क है कि ऐसे स्वास्थ्य केंद्र चलाने का कोई तुक नहीं है, क्योंकि इसमें जो पैसा खर्च होता है, वह व्यर्थ चला जाता है क्योंकि इसका लाभ लोगों को नहीं मिल पाता है।"

महिलाओं और बच्चों पर क्या है असर?

15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, कई सुधारों के बावजूद स्वास्थ्य से जुड़े अहम बिंदुओं पर भारत अभी भी अपने जैसे कई देशों से पिछड़ रहा है। भारत अभी भी बच्चे और उसकी मां के स्वास्थ्य, इनफैंट और मैटरनल मोर्टेलिटी रेट, पोषण के मामलों और संस्थागत डिलीवरी की दर जैसे मामलों में कई देशों से पीछे है।

15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, बच्चों के पोषण से जुड़े परिणामों में लंबे समय के लिए इसका असर देखा जा सकता है। न सिर्फ़ बच्चों के स्वास्थ्य बल्कि उनकी सीखने, रोजगार पाने और आर्थिक परफॉर्में पर भी इसका असर पड़ता है। भारत जैसे देश के लिए यह विकास से जुड़ी चुनौती है जिसे प्राथमिकता के साथ महत्व दिया जाना चाहिए।

रिपोर्ट के मुताबिक, उम्र के हिसाब से कम वजन, उम्र के हिसाब कम लंबाई और बच्चों में एनीमिया का स्तर बच्चों की प्राथमिक इम्यूनिटी के विकास को प्रभावित करता है। कोविड-19 महामारी ने इन समस्याओं और विषमताओं को और भी बढ़ा दिया है। महामारी के बाद से बच्चा देने वाली मां और बच्चे की सेहत पर, खासकर गरीब परिवारों पर इसका बुरा असर पड़ रहा है।

14वें वित्त आयोग की अवधि के दौरान हुए दो राउंड, एक बार शुरुआत में 2015-16 में और एक बार आखिर में 2019-21 में हुए सर्वे में पता चला है कि सभी एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप राज्यों ने बच्चों की उम्र के हिसाब से लंबाई, उम्र के हिसाब से वजन और बच्चों में एनीमिया के मामलें में सुधार किया है।

सभी एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप राज्यों में उम्र के हिसाब से बच्चों की लंबाई के मामले में राष्ट्रीय स्तर से भी ज्यादा सुधार हुआ है। हालांकि, बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में अभी भी बच्चों की उम्र के हिसाब से लंबाई, राष्ट्रीय औसत की तुलना में काफी कम है। बिहार और झारखंड में उम्र के हिसाब से कम वजन की समस्या भी बनी हुई है।

जहां पूरे देश में इस समयावधि के दौरान बच्चों में एनीमिया के मामलों में बढ़ोतरी हुई है, वहीं झारखंड और उत्तराखंड ने इस मामले में सुधार किया है और बच्चों में एनीमिया के स्तर में कमी आई है। दूसरी तरफ, छत्तीसगढ़, ओडिशा और राजस्थान में बच्चों में एनीमिया के मामलों में बहुत तेजी से बढ़ोतरी हुई है।


15वें वित्त आयोग ने संयुक्त राष्ट्र की ओर से निर्धारित सतत विकास के लक्ष्यों को प्राप्त करने की ओर राज्यों की प्रगति में भारी अंतर की ओर इशारा किया है। मैटरनल और चाइल्ड मोर्टेलिटी रेट के इन लक्ष्यों के मुताबिक, साल 2030 तक इन्फेंट मोर्टेलिटी रेट (IMR) को घटाकर 1,000 जीवित नवजातों पर 12 करना है।

14वें वित्त आयोग की समयावधि के दौरान, सभी एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप राज्यों में 1,000 जीवित नवजातों पर IMR का स्तर घटा है। हालांकि, अभी भी यह संयुक्त राष्ट्र की ओर से निर्धारित सतत विकास के लक्ष्यों से कफी दूर है।

संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास के लक्ष्यों के मुताबिक, 2030 तक मैटरनल मोर्टालिटी रेट को घटाकर 1,00,000 जीवित नवजातों पर 70 मौत तक लाना है। इसकी तुलना में, स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक, भारत में वर्तमान मैटरनल मोर्टालिटी रेट यानी MMR 130 है। 14वें वित्त आयोग की अवधि के दौरान उत्तराखंड और झारखंड को छोड़कर बाकी के सभी एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप राज्यों में MMR राष्ट्रीय औसत से ज्यादा था।

15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट ने रेखांकित किया है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में अस्पतालों या स्वास्थ्य केंद्रों पर कराई जाने वाली डिलीवरी में बढ़ोतरी हुई है। NFHS के आंकड़ों से पता चलता है कि 14वें वित्त आयोग की समयावधि के दौरान देश भर में 10 में से 9 बच्चे अस्पतालों में या प्रशिक्षित स्वास्थकर्मियों की देखरेख में पैदा हुए। इस पैमाने पर देखें तो सभी एम्पावर्ड एक्शन ग्रुप राज्यों ने शानदार प्रगति की है। हालांकि, साल 2021 में बिहार और झारखंड में चार में से एक बच्चे का जन्म बिना किसी देखरेख के ही हुआ।


एक गैर लाभकारी संस्था सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के लिए अकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव की अगुवाई करने वाली अवनी कपूर बताती हैं, "जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में IMR और MMR प्राथमिकता रहे हैं। लेकिन बच्चों और जन्म देने वाली माओं के स्वास्थ्य में सुधार सुनिश्चित करने के लिए यह ज़रूरी है कि लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं मिल सकें, चाहे यह मामला सुरक्षित डिलीवरी का हो या जन्म के बाद ज़रूरी नियमित देखभाल हो।"

अवनि कपूर रेखांकित करती हैं कि ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं के आंकड़े बताते हैं कि मार्च 2020 तक सिर्फ़ 72% प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ऐसे थे जहां लेबर रूम (प्रसव कक्ष) मौजूद थे। इसके अलावा, डेटा बताता है कि देश में दाई और स्त्री रोग विशेषज्ञों की संख्या में 69.7% और बच्चों के डॉक्टरों की संख्या में 78.2% की कमी है। अवनि के मुताबिक, इस कमी की वजह से IMR और MMR के लक्ष्यों को हासिल करने की भारत की प्रगति पर असर पड़ सकता है।

केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव प्रसाद राव कहते हैं, "इन उत्तरी भारत के राज्यों के राजनीतिक नेतृत्व ने जनता की शिक्षा, स्वास्थ्य और उनके लिए आवास की व्यवस्था जैसी अन्य चीजों को प्राथमिकता नहीं दी है। यही कारण है कि इन राज्यों में हमेशा से आम लोगों को समस्या होती है और सामाजिक सूचकांकों पर इन राज्यों का स्तर हमेशा खराब रहता है।"

(यह लेख Centre for Financial Accountability की स्मितु कोठरी फ़ेलोशिप के अंतर्गत प्रकाशित किया गया है।)

हम फीडबैक का स्वागत करते हैं। कृपया respond@indiaspend.org पर लिखें। हम भाषा और व्याकरण के लिए प्रतिक्रियाओं को संपादित करने का अधिकार सुरक्षित रखते हैं।