ऋषिकेश: छह बच्चों की मां सीता देवी (42) उत्तराखंड के ऋषिकेश की एक झुग्गी बस्ती में रहती हैं। स्थानीय लोगों में ये बस्ती बिहारी बस्ती के नाम से भी जानी जाती है।

सीता देवी का 15 साल का बेटा टीबी यानी ट्यूबरक्लोसिस से संक्रमित है। "तीन चार महीने तक मैंने इधर-उधर से उसका इलाज कराया। लेकिन बुखार उतर नहीं रहा था और वह बहुत कमजोर हो गया था। डेढ़ महीने पहले उसको टीबी होने का पता चला। अभी उसकी दवा चल रही है," सीता देवी ने बताया।

सीता देवी की तरह ही 22 साल की नीलम और 37 साल की रिंकू देवी भी इस ही बस्ती में रहती हैं और इन दोनों के बच्चों को भी टीबी है।

भारत में टीबी उन्मूलन कार्यक्रम वर्ष 1962 से चल रहा है। 9 सितंबर 2022 को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने 2025 तक भारत को टीबी मुक्त करने का 'प्रधानमंत्री टीबी मुक्‍त भारत अभियान शुरू किया। वर्ष 2017 में भारत के पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण में टीबी को 2025 तक ख़त्म करने का लक्ष्य रखा था, जो कि भारत के राष्ट्रीय टीबी उन्मूलन स्ट्रेटेजिक प्लान, 2017-2025 का हिस्सा था।

ऋषिकेश की बिहारी बस्ती में एक साथ कई टीबी संक्रमित मरीज मिले।

टीबी उन्मूलन का वैश्विक लक्ष्य 2030 है। लेकिन ऋषिकेश की इस बस्ती के लोगों से मिलकर ये बात समझ आती है कि वर्ष 2025 तक उत्तराखंड के लिए टीबी मुक्त हो पाना आसान नहीं होगा।

उत्तराखंड स्वास्थ्य विभाग के मुताबिक वर्ष 2020 में प्रति लाख व्यक्ति पर 275 लोगों को टीबी होने का आंकलन किया गया था। देशभर में वर्ष 2022 के लिए 17,40,403 टीबी मरीज अधिसूचित किए गए हैं। 2021 में 21,46,751, 2020 में 18,11,007 व्यक्ति टीबी संक्रमण के लिए अधिसूचित किए गए थे। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में टीबी से होने वाली कुल मौतों में भारत की हिस्सेदारी 34% है। विश्व में टीबी संक्रमित कुल मरीजों में से 26% अकेले भारत में हैं।

16 दिसंबर 2021 को द यूनियन पर प्रकाशित रिसर्च ये बात कहती हैं कि पोषण की कमी और टीबी का जोखिम एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। कुपोषण से टीबी का खतरा बढ़ जाता है और टीबी होने पर व्यक्ति कुपोषित हो जाता है। टीबी की दवाइयों को झेलने के लिए शरीर को प्रोटीन युक्त पौष्टिक आहार की जरूरत होती है।

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 के मुताबिक उत्तराखंड में 5 वर्ष की उम्र से कम के 59% बच्चे एनेमिक हैं। जबकि 15-49 आयु वर्ग की 43% महिलाएं एनीमिया की शिकार हैं। वर्ष 2021 में ग्लोबल हंगर इंडेक्स (वैश्विक भुखमरी सूचकांक) में भारत 116 देशों की सूची में 101वें स्थान पर था। इससे एक वर्ष पहले भारत 94वें स्थान पर था।

टीबी संक्रमित बेटे की देखरेख के लिए सीता देवी को कर्ज तक लेना पड़ा

अनियमित निक्षय पोषण योजना और कुपोषण की मार

करीब एक साल पहले सीता देवी के पति ने बीमारी की वजह से काम करना बंद कर दिया और तब से आठ सदस्यीय परिवार के भरण पोषण की ज़िम्मेदारी अकेली सीता देवी पर आ गयी।

"हम कर्ज में डूबे हुए हैं। उधार लेकर बेटे के खानपान की व्यवस्था की। फल, अंडा नहीं खिला सकते। हम उसे दो वक्त रोटी खिला सकें, यही बहुत है," सब्ज़ी बेचकर आजीविका चलाने वाली सीता देवी कहती हैं।

टीबी के मरीजों की आर्थिक सहायता के लिए राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (एनटीईपी) के तहत भारत सरकार अप्रैल-2018 में निक्षय पोषण योजना (एनपीवाई) लेकर आई। इसके तहत टीबी मरीज को पौष्टिक आहार के लिए 6 महीने तक 500 रुपए प्रतिमाह सहायता दी जाती है। सीता देवी के बेटे को यह रकम अब तक नहीं मिली।

नीलम का छह साल का बेटा टीबी से पीड़ित है और रिंकू का तेरह साल के बेटे का पिछले सात महीनों से टीबी का इलाज चल रहा है, उन्हें भी पौष्टिक आहार के लिए हर महीने दिए जाने वाले 500 रुपए इस दौरान नहीं मिले।

सात साल की बीना तीन बहनों में सबसे बड़ी है और टीबी संक्रमित है। माता-पिता, नानी और बहनों के साथ ये परिवार इसी छोटे से कमरे में रहता है।

बिहारी बस्ती के नजदीक चंद्रेश्वर नगर की संकरी गलियों वाले मोहल्ले में टीबी संक्रमितों के परिवार कुपोषण से जूझते मिले। टीबी से पीड़ित सात साल की बच्ची बीना पाल का वजन सिर्फ 15 किलो है। लखनऊ स्थित छाती रोग विशेषज्ञ डॉक्टर शेखर सिंह के मुताबिक 7 वर्ष के बच्ची का वज़न लगभग 20 से 22 किलोग्राम होना चाहिए.

बीना के पिता दिहाड़ी मजदूर हैं और छः लोगों के परिवार में अकेले कमाने वाले हैं।

बीना की दवाइयां दिखाते हुए उसकी नानी यशोदा देवी कहती हैं, "इसे रोज दूध पिलाने की कोशिश करते हैं। लेकिन एक बच्चा दूध पिएगा तो दूसरा भी मांगेगा।"

एक कमरे के कच्चे घर में लकड़ी के दीवान पर बीना से छोटी दो बहनें सोई हुई थीं। ऐसी स्थिति में यहां संक्रमण को रोकना संभव नहीं दिख रहा था।

ऋषिकेश की गैर-सरकारी संस्था 'आस' (एक्शन फॉर एडवांसमेंट ऑफ़ सोसाइटी ) एक साल में 80 टीबी मरीजों को 6-6 महीने के दो बैच में पौष्टिक आहार उपलब्ध कराती है। साथ ही टीबी मरीजों का हौसला भी बढ़ाती है। संस्था की संस्थापक हेमलता बहन कहती हैं, "नौ महीने से भी अधिक समय से 500 रुपए की छोटी सी मदद जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पा रही। टीबी के शिकार ज्यादातर ऐसे परिवार से हैं जहां भरपूर खुराक नहीं मिलती। बिना पौष्टिक आहार दिए मरीजों को ठीक नहीं किया जा सकता।"

मजदूर वर्ग की इन बस्तियों में मां-बाप कर्ज लेकर बीमार बच्चों को खाना खिला रहे हैं। उनकी इस स्थिति पर उत्तराखंड के स्टेट टीबी ऑफिसर डॉ पंकज सिंह कहते हैं, "सॉफ्टवेयर से जुड़ी तकनीकी खामियों के चलते मरीजों को केंद्र सरकार से मिलने वाली 500 रुपए की आर्थिक सहायता उनके खाते में ट्रांसफर नहीं हो पा रही थी। लेकिन अब ये दिक्कत दूर कर ली गई है और अक्टूबर से ये रकम मिलनी शुरू हो जाएगी"।

प्राप्त जानकारी के अनुसार जो मरीज टीबी के लिए पहले रजिस्टर्ड हुए थे उनके खातों में अक्टूबर के प्रथम सप्ताह से पैसे आना शुरू हो गए है हालाँकि इस स्टोरी में प्रकाशित केस स्टडी के लोगो को यह लाभ अभी प्राप्त नहीं हो पाया है क्योंकि उनका पंजीकरण देर से हुआ था.

इसी साल मार्च में जारी नेशनल टीबी रिपोर्ट-2022 के मुताबिक उत्तराखंड में टीबी के कुल 23,574 मरीज नोटिफाई किए गए। इनमें से 88.3% के बैंक खाते की जानकारी मिली। जिन्हें कम से कम एक बार 500 रुपए दिए गए हैं। जबकि देश में 62.1% नोटिफाई टीबी मरीजों को कम से कम एक बार 500 रुपए मिल सके।

टीबी मरीजों का इलाज कर रहे डॉ अभिज्ञान बहुगुणा कहते हैं कई बार ऐसा देखने में आया है कि टीबी संक्रमित बिना जांच रिपोर्ट नेगेटिव आए लोगों से घुलना मिलना शुरू कर देते हैं।

कम आय वाले तबके की प्राथमिक बीमारी बन गयी टीबी

ऋषिकेश के राजकीय चिकित्सालय के टीबी वार्ड में काम कर रहे डॉक्टर अभिज्ञान बहुगुणा कहते हैं, "हम टीबी संक्रमण की पहचान के बाद आमतौर पर मरीज को पहले 56 दिन आइसोलेट रहने की सलाह देते हैं। जबकि देखने में आता है कि मरीज लक्षण खत्म होते ही बाहर जाना शुरू कर देता है। उस समय भी वह किसी अन्य व्यक्ति को संक्रमित कर सकता है। संक्रमित व्यक्ति की बलगम की जांच रिपोर्ट नेगेटिव आना जरूरी है"।

डॉ बहुगुणा भी ऐसे परिवार का उदाहरण देते हैं जिसमें पांच बच्चे एक के बाद एक टीबी संक्रमित हुए। परिवार के चार वयस्कों में भी संक्रमण फैला, लेकिन वे इलाज के लिए तैयार नहीं हुए।

टीबी उन्मूलन के लिए इसके बैक्टीरिया के साथ-साथ गरीबी, कुपोषण, जागरूकता की कमी, सामाजिक भेदभाव जैसी कई बाधाओं को पार करना होगा।

देहरादून जिले के टीबी अधिकारी डॉ मनोज वर्मा कहते हैं, "हम टीबी संक्रमित पाए जाने वाले मरीजों का डाटा लेते हैं। लेकिन इनमें उनकी आर्थिक स्थिति का कोई कॉलम नहीं होता। निक्षय पोषण योजना का उद्देश्य किसी भी आय वर्ग के टीबी संक्रमित को आर्थिक मदद पहुंचाना है।"

वह आगे कहते हैं, "गरीबी से जूझते परिवारों को ध्यान में रखकर निक्षय मित्र योजना शुरू की गई है। ताकि कोई भी व्यक्ति, संस्था, अधिकारी या जन प्रतिनिधि टीबी संक्रमितों को गोद ले और उनके स्वास्थ्य के देखभाल की पूरी जिम्मेदारी उठाए"।

डॉ वर्मा मानते हैं कि टीबी कम आय वर्ग वाले तबके की अब भी प्राथमिक बीमारी है।

टीबी संक्रमित बच्चे की मां मीरा देवी से बातचीत करती पारुल अब बतौर टीबी चैंपियन कार्य कर रही है। वह टीबी की घातक मानी जाने वाली एक्सडीआर स्टेज से स्वस्थ हुई है।

टीबी छिपाना खुद और दूसरों के लिए और भी घातक

टीबी की जंग जीतने वाली ऋषिकेश की 24 वर्षीय पारुल अब टीबी चैंपियन हैं और टीबी जागरूकता के लिए काम करती हैं।

साल 2014 में टीबी से संक्रमित हुईं पारुल की बीमारी पता लगने में ही तीन महीने से अधिक का समय लग गया। करीब छः महीने तक फेफड़ों की टीबी का इलाज चला। स्वस्थ महसूस करने के छः महीने बाद एक बार उसमें फिर टीबी के लक्षण उभरने लगे। पारुल उस समय टीबी की घातक मानी जाने वाली स्टेज एमडीआर (Multidrug-resistant TB) से जूझ रही थीं। मल्टी ड्रग रजिस्टेंट टीबी' (एमडीआर टीबी) बड़े पैमाने पर दवा प्रतिरोधी होती है। इसमें कुछ दवाओं का इस पर कोई असर नहीं होता है। डॉक्टरों का मानना है की टीबी का यह स्तर मरीजों के लिए बहुत ही खतरनाक होता है।

कॉस्मेटिक सामान का ठेला चलाकर गुजारा करने वाले पारुल के पिता को बेटी के इलाज के लिए कुछ कर्ज भी लेना पड़ा था।

वह बताती हैं, "मैं जिस घर में ट्यूशन पढ़ने जाती थी वहां एक बुजुर्ग टीबी के मरीज थे। वहीं से मैं टीबी संक्रमित हुई। उन लोगों ने ये बात छिपाकर रखी थी। उनकी मौत होने पर ये पता चला कि उन्हें एक्सडीआर (Extensively drug-resistant) TB संक्रमण था, इस प्रकार की टीबी में या ज्यादातर दवाइयां असर नहीं दिखती।" पल्मोनरी, एमडीआर के बाद एक्सडीआर टीबी की तीसरी घातक स्टेज मानी जाती है।

ऋषिकेश के कृष्णानगर क्षेत्र में काम कर रहीं आशा कार्यकर्ता डेजी पंवार बताती हैं, "मेरे पास कई ऐसे मामले आए जिसमें पूरा परिवार ही टीबी संक्रमित था। एक परिवार के पांच लोगों को एक के बाद एक टीबी हुई। दादा-दादी, मां-बाप और फिर एक बच्चा। दूसरे बच्चे को संक्रमण से बचाने के लिए दवाइयां दी गईं। वे लोग पड़ोसियों को ये खबर नहीं होने देना चाहते थे कि परिवार में कोई बीमार है। हमसे दवाइयां भी छिपकर लेते थे। ताकि पड़ोसी उनके घर आना-जाना न छोड़ें। थोड़ा सा स्वस्थ होने पर वे सभी अपने-अपने काम पर भी जाने लगे।"

ऋषिकेश का सरकारी अस्पताल जहां टीबी मरीजों का निशुल्क इलाज होता है।

स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी

वर्ष 2021 तक उत्तराखंड के स्टेट टीबी ऑफिसर पद पर रहे डॉ. मयंक बडोला अब उत्तराखंड स्टेट एड्स कंट्रोल सोसाइटी के एडिशनल प्रोजेक्ट डायरेक्टर हैं। डॉ. बडोला कहते हैं, "हम टीबी उन्मूलन की बात कर तो रहे हैं, लेकिन इसके लिए जरूरी नीति और सुविधाएं अब भी हमारे पास नहीं हैं।"

वह कहते हैं, "उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में गंभीर टीबी मरीजों को भर्ती करने के लिए वार्ड की सुविधा देहरादून के एक मात्र अस्पताल हिमालय इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज जौलीग्रांट में था। करीब 2 महीने पहले महंत इंद्रेश अस्पताल में टीबी वार्ड शुरू किया गया है। देहरादून मेडिकल कॉलेज में कोई टीबी वार्ड नहीं बनाया गया। इसी तरह कुमाऊं मंडल में एकमात्र टीबी वार्ड, 10 बेड का, हल्द्वानी मेडिकल कॉलेज में है। जिसकी स्थिति बेहद खराब है। हम राज्य में 40-50 बेड का टीबी अस्पताल अलग क्यों नहीं स्थापित कर सकते?"

ऋषिकेश में स्थापित राज्य के एकमात्र एम्स में भी टीबी वार्ड नहीं है। जिसकी मांग लंबे समय से की जा रही है।

डॉ. बडोला कहते हैं कि गांवों से ज्यादा टीबी प्रसार की आशंका निम्न माध्यम आय वर्ग की शहरी बस्तियों में है जहां रोजगार के लिए लोग आते-जाते रहते हैं। इसके लिए शहरी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में टीबी का इलाज सुनिश्चित कराने की जरूरत है ताकि मरीज को उसके घर के नजदीक ही इलाज मिल सके। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में टीबी का इलाज चुनिंदा अस्पतालों में होता है। दूसरे जिलों से आने वाले मरीजों को इसकी दवा उनके जिला अस्पताल से मुहैया करायी जाती है। शहरी सामुदायिक केंद्रों में टीबी का इलाज उपलब्ध नहीं है।

हिमालयन इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस में रेस्पिरेटरी मेडिसिन विभाग में विभागाध्यक्ष और प्रोफेसर डॉ. राखी खंडूरी कहती हैं, "हमारे पास उत्तराखंड ही नहीं, उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों से भी इलाज के लिए मरीज आते हैं। हमारे अस्पताल में मरीजों का दबाव बहुत अधिक है। एक दिन में 8-10 टीबी मरीज आते ही हैं। मुझे नहीं लगता कि पिछले 5 वर्षों में टीबी संक्रमण में कमी आई है"।

2025 तक टीबी से मुक्ति का लक्ष्य कितना व्यावहारिक

निक्षय रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड में वर्ष 2022 में 16 सितंबर तक टीबी संक्रमित कुल 20,236 मरीजों का इलाज चल रहा था। वहीं 2021 में 23,167 संक्रमित, 2020 में 20,089 संक्रमित, 2019 में 25,902 संक्रमितों का इलाज हुआ। वर्ष 2020 की तुलना में 2021 में टीबी संक्रमण के ज्यादा मामले दर्ज किए गए। इस वर्ष अब तक 2020 की तुलना में संक्रमण के अधिक केस रिपोर्ट किए जा चुके हैं। आपको बताते चलें कि कोविड-19 के दौरान हुए लॉकडाउन का असर स्वास्थ्य सेवाओं पर भी दिखा था जिसकी वजह से मरीजों में टीबी के संक्रमण का पता सही समय पर नहीं लग पाया था और इसमें 25 से 65 % की गिरावट दर्ज की गयी थी ।

डॉ राखी खंडूरी कहती हैं "कई बार दूरदराज के जिलों में दवाइयों की सप्लाई समय पर नहीं होती और टीबी में ऐसा कतई नहीं होना चाहिए। दूर के जिलों में टीबी की दवा देने वाले कम से कम एमबीबीएस डॉक्टर हों, ये भी जरूरी है क्योंकि मरीज को कोई दिक्कत आती है तो फार्मासिस्ट इसे समझ नहीं पाते।"

वहीं, डॉ. मयंक बडोला के मुताबिक मौजूदा ढर्रे से अलग हटकर कुछ नहीं किया गया तो टीबी से मुक्ति का लक्ष्य 2030 से भी आगे जाएगा। कोविड-19 से तुलना करते हुए वह कहते हैं, "टीबी कोरोना से ज्यादा गंभीर है। इसके इलाज में 6 महीने से लेकर डेढ़ साल तक का समय लगता है। जिस तरह कोरोना के लिए बेहद कम समय में वैक्सीन विकसित की गई, उसी तर्ज पर टीबी प्रतिरोधी वैक्सीन क्यों नहीं तैयार की जा रही। टीबी विश्व की समस्या नहीं रह गई है बल्कि भारत समेत कुछ देशों में ही गंभीर संक्रामक बीमारी के तौर पर बनी हुई है"।

टीबी से बचाव के लिए भारत में बीसीजी वैक्सीन लगाई जाती है। हालांकि यह पूरी तरह कारगर नहीं मानी जाती, डॉ. बडोला बताते हैं।

टीबी की जांच में इस्तेमाल होने वाले ट्रुनैट (Truenat) मशीन से सामान्य टीबी का परीक्षण पहले की तुलना में जल्दी हो जाता है।

वे आगे कहते हैं, "आधुनिक तकनीक की मदद से टीबी की जांच में लगने वाले समय को कम करने और दवाइयों की उपलब्धता बनाए रखने में हम कामयाब रहे हैं। पहले टीबी की सामान्य जांच में भी 48 दिन लगते थे। वह अब कुछ घंटों में हो जाती है। लेकिन कई बार जांच किट ही कई-कई दिनों तक नहीं आती और एमडीआर या एक्सडीआर टीबी में अब भी ज्यादा समय लगता है । छोटे बच्चों में टीबी की जांच के लिए एआई एक्स-रे तकनीक पर काम करना होगा"। डॉ. बडोला टीबी प्रसार के लिहाज से शहर की मलिन बस्तियों समेत अन्य हॉटस्पॉट को चिन्हित कर स्क्रीनिंग किए जाने पर जोर देते हैं।

एम्स ऋषिकेश में लैब टेक्निशियन विनोद पैन्यूली कहते हैं "हमारे पास टीबी की जांच के लिए रोजाना तकरीबन 100 नमूनों आते हैं। इसमें से 7-8 पॉजिटिव केस होते हैं। 20-30% लोगों में एमडीआर और एक्सडीआर पॉजिटिव आता है। इसलिए टीबी मुक्त भारत के लिए 2025 तक का समय व्यावहारिक नहीं लगता है। अभी तो कितने एमडीआर, एक्सडीआर संक्रमित निकलेंगे। उनके इलाज का समय ही जोड़ लें तो 2025 तक टीबी से मुक्ति संभव नहीं दिखती"।

इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के मुताबिक देश के कई राज्यों में 2-3% नए एमडीआर केस और 12-17% तक दोबारा संक्रमण फैलने से एमडीआर केस सामने आ रहे हैं।

दूसरों के घर साफ-सफ़ाई कर गुजारा करने वाली मीरा देवी ने इंडियास्पेंड रिपोर्टर से अपने घर से कुछ दूर आकर मिलीं। उनके तीन बच्चों में सबसे छोटे 14 वर्षीय बेटे को टीबी है। पति से अलग रह रही मीरा एक महीने में तकरीबन 10 हजार तक कमाती हैं। वह कहती हैं "इसी पैसे में कमरे का किराया भी देना होता है। बच्चों को पढ़ाना-लिखाना भी है। "हम अपने बच्चों को कहां से फल-फ्रूट खिलाएंगे? जो अपने लिए बनाते हैं वही रूखा-सूखा उसे भी खिलाते हैं। लोगों ने बताया कि सरकार बच्चे के लिए पैसे देगी, हमें तो आज तक एक रुपया भी नहीं मिला"।

(This research/reporting was supported by a grant from the Thakur Family Foundation. Thakur Family Foundation has not exercised any editorial control over the contents of this reportage.)

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