कैसे बेमौसम बारिश ने मलेरिया के फैलने के समय को बढ़ा दिया
जलवायु परिवर्तन के कारण उत्तर प्रदेश के सोनभद्र में मच्छरों के प्रजनन और मलेरिया के फैलने का समय अब मानसून के महीनों तक सीमित नहीं रहा है। मच्छरों के बदलते व्यवहार के साथ तालमेल बनाए रखने और मलेरिया को नियंत्रित करने के लिए "वन हेल्थ" दृष्टिकोण को अपनाना जरूरी है।
सोनभद्र, उत्तर प्रदेश: “जब मच्छर सब खून पी लेला, जब बीमारी हो जाला, तब दवाई छिड़की का बा?” अठारह वर्षीय सीता देवी की आवाज गर्मी को चीरती हुई सुनाई देती है। वह अप्रैल की एक तपती दुपहरी में अपनी झोपड़ी के दरवाजे पर खड़ी होकर बात कर रही थीं। वहीं पास ही में उनकी सास गुलाबी देवी (60) और ननद सोनू देवी (34) चारपाई पर लेटी कराह रहीं थी। दोनों को पिछले दो सप्ताह से तेज बुखार था और वो ठंड लगने और शरीर में तेज दर्द से परेशान थीं।
सीता देवी का गांव सेंदुर दक्षिण-पूर्वी उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के मुख्यालय रॉबर्ट्सगंज से 64 किमी दूर है। इन बस्तियों तक पहुंचने के लिए कोई पक्की सड़क नहीं है लोगों को अक्सर मुख्य सड़क तक पहुंचने के लिए 6-12 किमी पैदल चलना पड़ता है और यहीं से उन्हें आने-जाने के लिए बस मिल पाती है। अलग-थलग पड़ी इस बस्ती में मलेरिया को 'जाड़े-वाला-बुखार' कहा जाता है, जो अब तक उनके लिए बारिश के महीनों में आने वाली बीमारी थी। लेकिन यहां आने वाले मामलों को देखकर लगता है कि मलेरिया अब मानसून की बीमारी नहीं रह गई है।
सोनू देवी ने कहा, “फरवरी और मार्च में भारी बारिश के बाद, हर जगह मच्छरों का झुंड है। वो हमें काट रहे हैं। लोग बीमार पड़ने लगे हैं।" वह आगे कहती हैं, " खेतों की निराई करना तो दूर की बात है, मेरे लिए अपने घर के कामों को निपटाना और पानी लाना तक मुश्किल हो गया है। कमजोरी की वजह से मैं कुछ नहीं कर पा रही हूं। "
2018 और 2019 में, भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में देश में होने वाले कुल मलेरिया मामलों का पांचवां हिस्सा (20%) दर्ज किया गया था। इस दौरान, छत्तीसगढ़ राज्य में 18.3% मलेरिया के मामले सामने आए थे, जो उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे स्थान पर था। इस रिपोर्टर ने 24 अप्रैल, 2024 को राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण केंद्र (NCVBDC) के अंतर्गत आने वाले राष्ट्रीय वेक्टर-जनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम को एक सूचना का अधिकार (RTI) अनुरोध दायर किया था, जिसमें मलेरिया परीक्षण, मलेरिया के मामलों की संख्या और मलेरिया से होने वाली मौतों की जानकारी मांगी गई थी।
NCVBDC ने 17 मई को जवाब दिया और बताया कि 2020 में ओडिशा (41,739 मामले), छत्तीसगढ़ (36,667 मामले) और उत्तर प्रदेश (28,668 मामले) में देश में सबसे ज़्यादा मलेरिया के मामले थे। लेकिन अगले दो सालों में उत्तर प्रदेश में मलेरिया के मामले कम हो गए - 2021 में 10,792 और 2022 में 7,039 मामले दर्ज किए गए। इसके साथ ही मलेरिया परीक्षण की दर में भी उतार-चढ़ाव आता रहा- 2017 में 2.01% से 2018 में 2.32% और फिर 2021 में 1.8% तक आ गया। हालांकि, 2023 में परीक्षण दर में सुधार हुआ और यह 4.5% तक पहुंच गया।संभावित रूप से जानलेवा बीमारी मलेरिया प्लास्मोडियम नामक सूक्ष्म परजीवी से होता है। ये परजीवी मादा एनोफिलीज मच्छरों के पेट और लार ग्रंथियों में रहते हैं। इन मच्छर के काटने के 10 से 14 दिन के बाद इंसानों को मलेरिया हो जाता है। NCVBDC के मुताबिक, भारत में मलेरिया के ज्यादातर मामले दो प्रकार के परजीवियों, प्लास्मोडियम विवाक्स और प्लास्मोडियम फाल्सीपेरम के कारण होते हैं। प्लास्मोडियम फाल्सीपेरम संक्रमण विवाक्स से अधिक गंभीर होता है और इससे मृत्यु होने की संभावना ज्यादा होती है। एनोफिलीज मच्छर ठहरे हुए पानी में प्रजनन करते हैं, जैसे कि तालाब और पोखर।
और सोनभद्र ऐसे गड्ढों से भरा पड़ा है। पहाड़ों और जंगलों के बीच यहां हर जगह बारिश के पानी से भरे अनगिनत गड्ढे मिल जाएंगे, जो महीनों तक पानी से लबालब रहते हैं। पानी से भरे ये गड्ढे एनोफिलीज मच्छरों के पनपने के लिए एक बेहतरीन जगह बन चुके हैं। सोनभद्र के जिला वेक्टर जनित रोग सलाहकार शुभम सिंह ने कहा, "अब पानी है तो मच्छर भी होंगे ही।"
सोनभद्र में मलेरिया के बढ़ते मामलों पर प्रकाश डालते हुए शुभम सिंह ने बताया कि जिले में 50-60 छोटे-बड़े बांध हैं और उनके साथ-साथ गड्ढे और नाले भी हैं, जो मच्छरों के प्रजनन स्थल बन रहे हैं। आरटीआई के जवाब में NCVBDC द्वारा दी गई जानकारी से पता चला है कि 2019 में सोनभद्र में मलेरिया के 3,689 मामले दर्ज किए गए, जो बरेली (46,717) और बदायूं (20,339) के बाद तीसरा सबसे बड़ा आंकड़ा था। चौंकाने वाली बात यह है कि 2019 में जनवरी से अप्रैल के गैर-मानसून महीनों में सोनभद्र में मलेरिया के 593 मामले दर्ज किए गए, जो साल भर के कुल मामलों का 16% था। यह उत्तर प्रदेश के सभी जिलों में सबसे ज्यादा था। इन्हीं चार महीनों में, बरेली में 560 और बदायूं में 307 मामले सामने आए। 2021 में, इन महीनों में जिले में हुए कुल 1,978 मलेरिया मामलों का 10% हिस्सा दर्ज किया गया, जबकि 33% मामले नवंबर-दिसंबर के दौरान सामने आए। हाल ही में, 2022 में जिले में जनवरी से अप्रैल के दौरान मलेरिया के कुल मामलों का 57% हिस्सा दर्ज किया गया। इस चिंताजनक स्थिति को देखते हुए, जिला मलेरिया इकाई ने सोनभद्र के 1,440 में से 196 गांवों को मलेरिया के लिए रेड अलर्ट पर रखा है।
म्योरपुर ब्लॉक के मकरा गांव में रहने वाले 52 वर्षीय किसान कमलभान (उन्होंने अपना पूरा नाम नहीं बताया) ने कहा कि वह रात में मच्छरों को भगाने के लिए नीम के पत्ते जलाते हैं। उनके घर के एक कोने में अधजले नीम के पत्तों का ढेर लगा हुआ है और पास में एक बोरी भरकर शाम के लिए तैयार रखी गई है।
कमलभान ने अपने आंगन में खेल रहे बच्चों की ओर इशारा करते हुए कहा, “अगर उन्होंने छिड़काव किया होता, तो मच्छरों का इतना आतंक नहीं होता। मुझे अपने पोते-पोतियों की चिंता है।” राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन ने उन्हें NCVBDC के मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम के तहत लंबे समय तक चलने वाली दो कीटनाशक वाली मच्छरदानी दी थीं- एक 2023 में और दूसरी उससे कुछ समय पहले। इनकी वजह से वह रात को चैन की नींद सो पाते हैं। उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “लेकिन मच्छर तो हमें दिन-रात काटते हैं। हम उन्हें पूरे दिन तो लगा कर नहीं घूम सकते है न?”गांव के एक बस स्टॉप पर रामजी चिलचिलाती धूप में अपनी पत्नी के आने का इंतजार कर रहे हैं। 50 साल के रामजी नाव चलाने का काम करते हैं। उन्हें बुखार है और वे बार-बार गमछे से अपना चेहरा पोंछते हुए स्टॉप पर आने वाली हर बस को बड़ी उम्मीद के साथ देख रहे थे। उनकी पत्नी बृहस्पतिया देवी अपने 13 साल के बेटे सुनिंदर के लिए इलाज के लिए लेकर गई थी। उसे मलेरिया है। बृहस्पतिया देवी दिहाड़ी निर्माण मजदूर है और पिछले छह दिनों से काम पर नहीं जा पाई है।
सुनींदर को बुखार आया तो पहले तीन दिन उसका घर पर ही इलाज किया गया। उसकी मां बृहस्पतिया ने उसे इस उम्मीद से कंबल में लपेटकर रखा कि बुखार उतर जाएगा। लेकिन जब बच्चे की हालत बिगड़ी, तो वह उसे 6 किलोमीटर पैदल चलकर एक स्थानीय झोलाछाप डॉक्टर के पास ले गई। उसने सुनींदर के इलाज के 180 रुपये उधार कर दिए थे। वह दुखी मन से कहती है, "दवाओं का कोई असर नहीं हुआ।" हालांकि सबसे नजदीकी सरकारी स्वास्थ्य केंद्र 4 किलोमीटर दूर है और पैदल चलकर वहां 20 मिनट में पहुंचा जा सकता है, लेकिन वहां डॉक्टर मिलेंगे? उन्हें इसकी उम्मीद कम ही थी। सो बृहस्पतिया वहां नहीं गई।दो दिन बाद, वो दोनों फिर से कई किलोमीटर पैदल चलकर मुख्य सड़क तक पहुंचे। और वहां से अपने बेटे को एक निजी क्लिनिक में एलोपैथिक डॉक्टर को दिखाने के लिए ले गए। ब्लड टेस्ट किया गया और तीन दिन बाद मलेरिया की पुष्टि हुई। सुनिंदर को 14 दिनों तक मलेरिया रोधी दवाएं दी गईं और वह ठीक हो गया है। कुल मिलाकर, परिवार को इलाज और दवाओं पर 3,000 रुपये खर्च करने पड़े। बृहस्पतिया ने कहा, “मुझे बड़ी तस्सली है कि मेरा बड़ा बेटा सतिंदर (18) काम के लिए चेन्नई चला गया। कम से कम वह मलेरिया के इन खतरों से बच रहेगा।"
रामजी ने कहा, "मच्छरों को भगाते-भगाते हमारी नींद उड़ गई है।" रामजी के घर के पीछे एक कुआं है, जो इस्तेमाल में नहीं है। अनियमित बारिश के पैटर्न की वजह से यह पूरे साल पानी से भरा रहता है।मलेरिया अब सिर्फ मानसून तक सीमित नहीं
हालांकि मलेरिया तेजी से फैल रहा है, लेकिन जिला स्वास्थ्य विभाग को अभी भी परिवार कल्याण विभाग से नए कीटनाशक के उपयोग के लिए दिशा निर्देश का इंतजार है। मच्छरों को नियंत्रित करने के लिए NCVBDC ने इनडोर रेजीड्यूअल स्प्रेइंग (IRS) की सिफारिश की है, जिसमें दीवारों और अन्य सतहों को कीटनाशक से कोट किया जाना है। दशकों तक इस्तेमाल होने वाला मुख्य कीटनाशक DDT को पिछले साल दिसंबर में बंद कर दिया गया था।
मई में जब जिले में हीटवेव अलर्ट जारी किए गए थे, तो धर्मेंद्र श्रीवास्तव एक मलेरिया मेडिकल कैंप में थे। जिला मलेरिया अधिकारी ने कहा कि ये अच्छी बात है कि काफी लोग कीटनाशक वाली मच्छरदानी का इस्तेमाल कर रहे है। वह आगे कहते हैं, " पिछले साल तक, DDT का छिड़काव साल में दो बार किया जाता था, 15 मई से 30 जून तक और फिर 15 सितंबर से 15 अक्टूबर तक। लेकिन इस साल, हमें नए कीटनाशक के बारे में अभी तक कोई दिशा निर्देश तक नहीं मिले हैं।"
मलेरिया के लिए IRS (इनडोर रेजिडुअल स्प्रेइंग) का काम ज्यादातर मानसून के बाद, सितंबर-अक्टूबर के महीनों में किया जाता है। यह समय मच्छरों के प्रजनन के लिए सबसे अनुकूल होता है, क्योंकि बारिश के बाद मच्छरों को प्रजनन के लिए उपयुक्त जगह मिल जाती है। IRS इन प्रजनन स्थलों को मच्छरों के लिए अनुपयुक्त बनाता है। लेकिन अब यह समय सीमा पुरानी हो चुकी है। राष्ट्रीय मलेरिया अनुसंधान संस्थान के पूर्व वैज्ञानिक और वर्तमान में ग्लोबल फंड फॉर मलेरिया के नेशनल कोऑर्डिनेटर रमेश धीमान ने सुझाव दिया कि मलेरिया के फैलने के समय के बढ़ जाने के कारण इस समय सीमा पर फिर से विचार किया जाना चाहिए और यह कार्यक्रम स्थानीय स्तर पर योजनाबद्ध तरीके से होना चाहिए। ग्लोबल फंड फॉर मलेरिया एक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय और साझेदारी संगठन है जो एचआईवी/एड्स, तपेदिक और मलेरिया जैसी महामारियों को खत्म करने के लिए काम करता है।
2019 तक दो दशकों में, सोनभद्र में बारिश में गिरावट देखी गई है। लेकिन पिछले चार सालों में बारिश का पैटर्न काफी बदला है। 2020 और 2021 में मानसून से पहले बहुत अधिक बारिश हुई, जबकि मानसून सामान्य या लगभग सामान्य रहा। 2022 और 2023 में भी बारिश कम हुई। इस अनियमित बारिश और बीच-बीच में आने वाले सूखे ने किसानों को भी परेशानी में डाल दिया है। हाल के कुछ सालों में, सोनभद्र में मलेरिया फैलने का समय भी बढ़ा है। जिला मलेरिया केंद्र के आंकड़ों से पता चलता है कि 2019 में, मलेरिया के मामले सितंबर में सबसे ज्यादा थे। 2020 में, मलेरिया का पीक सीजन अक्टूबर तक चला, तो वहीं 2021 और 2022 में मलेरिया का पीक सीजन दिसंबर तक था।
इस साल, फरवरी में सोनभद्र में बहुत ज्यादा बारिश हुई। औसत तापमान 20-22 डिग्री सेल्सियस के बीच रहा। मार्च में भी काफी बारिश हुई और औसत तापमान 24-26 डिग्री सेल्सियस के बीच रहा। ज्यादातर एनोफिलीज मच्छर 20-30 डिग्री सेल्सियस के तापमान में सबसे ज्यादा पनपते हैं, जिससे फरवरी और मार्च दोनों ही महीने मच्छरों के प्रजनन के लिए अनुकूल हो गए।
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग, पुणे के वैज्ञानिक राजीव चट्टोपाध्याय ने बताया, "ऐसे महीनों में भी मलेरिया के मामले अधिक आ रहे हैं, जिन्हें पहले मलेरिया फैलने के लिए नहीं माना जाता था। बढ़ती गर्मी और बारिश के बदलते पैटर्न का मलेरिया फैलने के रुझान पर सीधा असर पड़ रहा है।" वह जलवायु और स्वास्थ्य के बीच संबंधों पर काम करने वाली क्लाइमेट एप्लीकेशन और यूजर इंटरफेस टीम का नेतृत्व भी करते हैं।
उन्होंने कहा, "जलवायु परिवर्तन के कारण, मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों का व्यवहार बदल रहा है। ऐसे उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्रों में जहां पहले मलेरिया नहीं होता था, वहां भी अब मलेरिया फैल रहा है। इसका सीधा संबंध जलवायु परिवर्तन से है। इस तरह की स्थिति में, उत्तर प्रदेश आसानी से कम जोखिम वाले क्षेत्र से उच्च जोखिम वाले क्षेत्र में बदल सकता है।" इंटीग्रेटेड डिजीज सर्विलेंस प्रोग्राम में राज्य निगरानी अधिकारी विकासेंदु अग्रवाल ने बताया कि उत्तर पश्चिम उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले में जनवरी में मलेरिया का प्रकोप देखने को मिला था।
व्यापक और बहुआयामी दृष्टिकोण की जरूरत
वर्ल्ड मलेरिया रिपोर्ट 2023 के अनुसार, 2022 में मलेरिया से प्रभावित 85 देशों और क्षेत्रों में मलेरिया के अनुमानित 24.9 करोड़ मामले थे, जो 2021 की तुलना में 50 लाख मामलों की वृद्धि है। भारत में वैश्विक मामलों का 1.4 % हिस्सा है और WHO के दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र के तीन में से दो मामले भारत में ही दर्ज किए गए हैं। हालांकि, भारत ने मलेरिया के उच्च मामलों वाले 11 देशों में 2021-22 के दौरान मामलों में सबसे अधिक गिरावट (30%) दर्ज की। मलेरिया से होने वाली मौतों में भी 34% की गिरावट आई है।
मलेरिया के मामलों में आई कमी अस्थायी हो सकती है। रिपोर्ट कहती है कि जलवायु परिवर्तन उन क्षेत्रों में मलेरिया को फिर से फैला सकता है जहां मलेरिया फैलने की संभावना ज्यादा है और जहां हाल ही में मलेरिया को खत्म किया गया है।
भारत में मलेरिया के मामलों में गिरावट 2015 से ही देखी जा रही है, जब देश ने 2016 में राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया था। इस कार्यक्रम का लक्ष्य 2030 तक मलेरिया को पूरी तरह से खत्म करना और उन क्षेत्रों में जहां मलेरिया पहले ही खत्म हो गया है, वहां इसे फिर से फैलने से रोकना है। लेकिन 2022 में मलेरिया उन्मूलन की समीक्षा ने चेतावनी दी कि जलवायु परिवर्तन का मलेरिया पर प्रभाव एक महत्वपूर्ण महामारी विज्ञान है जिसे अब और अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
मलेरिया उन्मूलन की समीक्षा में कई सिफारिशें की गई हैं, जिनमें से दो विशेष रूप से मलेरिया से पूरी तरह से निपटने में मदद कर सकती हैं। यह समग्र दृष्टिकोण ‘वन हेल्थ’ पर आधारित है: इसका मतलब है कि उन क्षेत्रों में मलेरिया के फिर से फैलने की संभावनाओं को समझने के लिए जलवायु परिवर्तन अध्ययन करना चाहिए जहां मलेरिया को अच्छी तरह से नियंत्रित किया गया है या समाप्त कर दिया गया है। मलेरिया के खिलाफ लड़ाई में राज्य, जिला और ब्लॉक स्तर पर कार्यबल की मासिक बैठकों में बहु-क्षेत्रीय और सीमा पार सहयोग को एक मानक एजेंडा आइटम के रूप में शामिल करना होगा।
"वन हेल्थ" एक ऐसा दृष्टिकोण है जो स्थानीय, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तरों पर काम करता है। इसका लक्ष्य इंसानों, जानवरों, पौधों और उनके साझा पर्यावरण के बीच आपसी संबंधों को पहचानते हुए, बेहतर स्वास्थ्य परिणाम प्राप्त करना है। हालांकि भारत के राष्ट्रीय वन हेल्थ कार्यक्रमों में मलेरिया को विशेष रूप से शामिल नहीं किया गया है, लेकिन देश के मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम में वन हेल्थ आधारित बहु-क्षेत्रीय और पारस्परिक-सहयोगी दृष्टिकोण पर चर्चा की जाती है।
समीक्षा में माना गया कि स्वास्थ्य क्षेत्र और गैर-स्वास्थ्य क्षेत्रों, जैसे जल संसाधन, पंचायती राज और ग्रामीण विकास, और कृषि के बीच सहयोग के प्रयास "अधिकतर छिटपुट" रहे हैं और मिलकर काम न करना मलेरिया खत्म करने के लिए एक बड़ी बाधा है।
उदाहरण के लिए, सोनभद्र में भूजल भंडार की कमी की लंबे समय से समस्या है। केंद्रीय भूजल बोर्ड की 2012 की रिपोर्ट में इस समस्या से निपटने के लिए चेक डैम जैसे भूजल रिचार्ज संरचनाओं की सिफारिश की गई थी। "जो अब एनोफिलीज के लिए सक्रिय प्रजनन स्थल बन गए हैं" जिला मलेरिया अधिकारी ने कहा। पूरे साल अनियमित बारिश इन प्रजनन स्थलों को वर्ष भर बनाए रखती हैं। इसकी जीता-जागता उदाहरण रामजी के घर के बाहर का इस्तेमाल में न आने वाला कुआं है, जिसमें साल भर पानी भरा रहता है। इसके अलावा रिहंद बांध के पास गुलाबी देवी के घर के आसपास की नालियों को भी देखा जा सकता है, जो बारिश होने पर पानी से भर जाती हैं।
‘प्रयत्न’ गैर-सरकारी संगठन के स्वास्थ्य कार्यक्रम प्रमुख अतुल कुमार बताते हैं कि मच्छरों का बहुत गहराई से अध्ययन करने की जरूरत है। वह 13 साल से मलेरिया पर काम कर रहे हैं और उन्होंने देखा है कि मलेरिया फैलाने वाले मच्छरों के काटने के तरीके बदल गए हैं। वह कहते, “जब तक हम वेक्टर के व्यवहार का अध्ययन नहीं करेंगे, तब तक हम लोगों को कैसे समझा पाए कि उन्हें मच्छरों से कैसे बचना है?”
सोनभद्र में इस तरह के अध्ययन करने के लिए कोई नियुक्त कीट कलेक्टर या जिला स्तरीय एंटोमोलॉजिस्ट (कीट विज्ञानी) नहीं है। राज्य एंटोमोलॉजिस्ट विपिन कुमार इस संबंध में किए गए किसी भी विशेष अध्ययन के बारे में जानकारी नहीं दे सके। धीमान ने इसे लापरवाही का मामला बताया है।
स्वास्थ्य संकट से ज्यादा
सोनभद्र के गांवों में मलेरिया के मरीज पेरासिटामोल और दर्द निवारक दवाओं पर निर्भर हैं, जिन्हें झोलाछाप डॉक्टरों से खरीदा जाता हैं। गुलाबी देवी ने झोलाछाप डॉक्टरों के पास जाना पसंद किया क्योंकि "अस्पताल बहुत दूर है और वहां पहुंचने के लिए 150 रुपये चाहिए, जो बहुत ज़्यादा हैं"। बृहस्पतिया देवी सुनिंदर को झोलाछाप के पास इसलिए ले गईं क्योंकि जब उनके पास पैसे होंगे तब वे उसे दे सकती हैं। सोनू देवी कुंवारी में नजदीकी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं गईं क्योंकि वहीं डॉक्टर उपलब्ध नहीं होते हैं।
झोलाछाप या बिना लाइसेंस वाले डॉक्टर यहां समुदाय के लोगों के लिए काफी भरोसेमंद हैं। 'झोला' का मतलब है दवाइयों से भरा थैला जिसे कथित डाक्टर अपने साथ रखता है। गांव वालों की नजर में यह झोला बीमार लोगों को ठीक करने के लिए एक 'अधिकार' या छाप है
स्थानीय लोगों में प्रभावी मलेरिया उपचार के बारे में जागरूकता की कमी स्वास्थ्य प्रणाली के लिए भी एक चुनौती है। स्वास्थ्य विभाग को लोगों को जांच कराने और दवा का पूरा कोर्स पूरा करने के लिए मनाने में मुश्किल हो रही है। जिला मलेरिया अधिकारी श्रीवास्तव ने एक उदाहरण दिया: "एक बार हमें एक महिला मिली जिसे मलेरिया के लिए तुरंत चिकित्सा की आवश्यकता थी, लेकिन उसके पति ने हमें बताया कि वह अपनी पत्नी का इलाज करने में जितना खर्च करेगा, उससे वह बेहतर है कि वह एक नई पत्नी ले ले।"
बृहस्पतिया देवी और उनके पति रामजी सीमांत मजदूर हैं जो निर्माण स्थलों पर काम करके रोजाना 250 रुपये कमाते हैं। बेटे के बीमार होने के कारण उन दोनों को मिलाकर 12,50 रुपये की दिहाड़ी का नुकसान हुआ। मलेरिया से पीड़ित परिवार ने इंजेक्शन, दवाईयों और आने-जाने पर 3,000 रुपये खर्च किए थे। बृहस्पतिया देवी को उस पैसे को बचाने में एक साल से ज्यादा का समय लगा था।
सेंदुर की गुलाबी देवी की भी हालात उनके जैसी ही है। उनका परिवार रोजी-रोटी के लिए एक छोटे से जनरल स्टोर पर निर्भर है। मलेरिया के खर्चों ने उन्हें आर्थिक संकट में डाल दिया है।
उन्होंने सवाल किया, "लेकिन मैं अपनी ज़िंदगी की कीमत 1,100 रुपये से कैसे तौलूं?
यह दो भागों की एक सीरीज का पहला भाग है जो "वन हेल्थ" के नजरिए से मलेरिया पर फोकस कर रहा है। इसे इंटरन्यूज के अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क के सहयोग से तैयार किया गया है। ऐश्वर्या त्रिपाठी एक स्वतंत्र पत्रकार हैं जो जलवायु, स्वास्थ्य और लिंग सहित ग्रामीण मामलों पर रिपोर्ट करती हैं।