उत्तर प्रदेश: नवजात शिशुओं की मृत्युदर में कैसे होगा सुधार?
उत्तर प्रदेश में 10 में से 8 नवजात शिशुओं की मौत जन्म के सात दिनों के अंदर हो जाती है। बहुत ही कम संस्थागत प्रसव डॉक्टरों की निगरानी में होते हैं, अधिकतर मामलों में सहायक नर्स या आशा कार्यकर्ता मौजूद होती हैं।
लखनऊ। 27 जून 2020 का दिन सुधा देवी के लिए इतना मनहूस होगा उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा। जिस दिन का इंतजार वो नौ महीने से कर रही थीं वो दिन उनके जिंदगी के सबसे बुरे दिनों में शामिल हो जाएगा किसे पता था।
उत्तर प्रदेश के कौशांबी जिले के मझनपुर की रहने वाली सुधा गर्भवती थीं । सुबह 4 बजे सुधा को जब प्रसव पीड़ा हुई तो परिवार ने एम्बुलेन्स को फोन किया । एम्बुलेन्स फोन के 4 घंटे बाद सुबह 8 बजे आई और उन्हें सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचाया गया। डॉक्टर के मौजूद न होने की स्थिति में स्टाफ नर्स और दाई शाम 5 बजे तक प्रयास करते रहे। उसके बाद परिवार वालों ने सुधा को अस्पताल से 5 किमी दूर एक प्राइवेट अस्पताल में भर्ती कराया। यहां सुधा ने शाम सात बजे नॉर्मल डिलीवरी से बेटे को जन्म दिया।
अस्पताल से सुधा को दूसरे दिन छुट्टी भी मिल गई लेकिन घर जाकर बच्चे को सांस लेने में दिक्कत होने लगी। बच्चे को अगली सुबह अस्पताल में भर्ती किया गया लेकिन दूसरे दिन यानि 29 जून को उसकी मृत्यु हो गई।
"बच्चा जब हुआ था तब भी नहीं रोया था लेकिन अस्पताल वालों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया। अगर उसी समय उसकी सही देखभाल होती तो आज वो जिंदा होता। हम गरीब लोग हैं इतने पैसे नहीं थे कि अपनी गाड़ी से किसी अच्छे अस्पताल जाते," सुधा ने बताया।
शिशु मृत्युदर के आंकड़े चौंकाने वाले
उत्तर प्रदेश में बाल मृत्यु के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। यूनिसेफ की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक यहां हर दिन पांच साल से कम उम्र के करीब 700 बच्चों की मौत हो जाती है।
बच्चों के अधिकारों पर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राइ) ने हाल ही में उत्तर प्रदेश के नवजातों के स्वास्थ्य को लेकर एक अध्ययन किया। इसमें उत्तर प्रदेश के वाराणसी, कौशाम्बी व सोनभद्र जिलों को शामिल किया गया। इस स्टडी में पता चला कि 10 में से 8 नवजात शिशुओं की मौत जन्म के सात दिनों के अंदर हो जाती है। यानि 82% नवजात शिशुओं की मौत जन्म के एक सप्ताह के अंदर हुई। इस स्टडी के अनुसार 78% प्रसव संस्थागत थे लेकिन उनमें केवल 14% प्रसव ही डॉक्टर ने कराए बाकी प्रसव एनएएम (सहायक नर्स) ने कराए थे। जिलेवार देखें, तो वाराणसी में 80% प्रसवों में एएनएम ने सहायता की, जबकि 20% प्रसव डॉक्टर की देखरेख में किए गए। कौशाम्बी में 88% प्रसव एएनएम ने कराए और केवल 12% डॉक्टर ने किए। सोनभद्र के आंकड़ों से पता चलता है कि संस्थागत प्रसवों में 87.5% प्रसवों में एएनएम ने सहायता की और 12.5% डॉक्टर ने किए। निष्कर्ष यह भी बताते हैं कि 17% प्रसवों को किसी भी कुशल या प्रशिक्षित सहायक द्वारा सहायता प्रदान नहीं की गई थी बल्कि दाई या रिश्तेदारों द्वारा मदद ली गयी।
कौशाम्बी जिले के बैरीपुर गांव की रहने वाली सुनीता मौर्या (28) ने हाल ही में बेटे को जन्म दिया था। सुनीता ने बताया कि जन्म से पहले वो अस्पताल जांच के लिए जाती थीं लेकिन तब डॉक्टर ने सबकुछ नॉर्मल बताया और डिलीवरी के एक दिन बाद मेरा बच्चा नहीं रहा।
''ज्यादातर मामले जिसमें बच्चों की जन्म के एक या दो दिन में ही मौत हो जाती है उसमें सबसे बड़ा कारण प्रीमेच्योरिटी होती है या बच्चे का वजन कम होना होता है। या फिर बच्चे में कोई जन्मजात दोष होता हो। इससे भी बच्चे की मौत हो सकती है। इसके अलावा एक और बड़ा कारण है बर्थ डिस्फेक्टिया यानि दम घुटना। कई बार बच्चे का माँ के पेट से ही दम घुटने लगता है यानि सांस लेने में दिक्कत होती है ऐसे में भी बच्चे की मौत जन्म के बाद होने की संभावना रहती है,'' लखनऊ की प्रसूति रोग विशेषज्ञ डॉ नीलम सिंह ने बताया।
लैसेंट रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2017 में पांच साल से कम उम्र के 68% बच्चों की मौत की वजह बच्चे और उसकी माँ का कुपोषण है। 83% शिशुओं की मृत्यु की वजह जन्म के समय कम वजन और समय पूर्व प्रसव होना है।
आशा व एएनएम के भरोसे गर्भवती महिलाएं
ग्रामीण महिला स्वास्थ्य की ज़िम्मेदारी आशा व एएनएम के कंधों पर है। टीकाकरण, पोषण से लेकर प्रजनन संबंधी कई काम इनके ही भरोसे हैं ऐसे में इनकी ट्रेनिंग कैसे होती है ये एक अहम सवाल है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टर का अभाव भी ऐसी स्थिति पैदा करते हैं।
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइज़़ेशन (डब्ल्यूएचओ) के मानकों के हिसाब से हर 1,000 लोगों पर एक डॉक्टर का अनुपात होना चाहिए। उत्तर प्रदेश की जनसंख्या लगभग 20 करोड़ है, 2011 की जनगणना के अनुसार। इस हिसाब से राज्य में कम से कम 20 लाख डॉक्टर होने चाहिए। लोकसभा में 7 फ़रवरी 2020 को पेश आंकड़ों के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में 30 सितंबर 2019 तक 81,348 एलोपेथिक डॉक्टर ही रजिस्टर्ड थे। यानी राज्य में ज़रूरत के हिसाब से लगभग 60% डॉक्टरों की कमी थी। राज्य की 75% से ज़्यादा आबादी गांवों में रहती है। जहां लोग स्वास्थ्य सेवाओं के लिए प्राथमिक स्वास्थ केंद्र (पीएचसी) और सामुदायिक स्वास्थ केंद्र (सीएचसी) पर निर्भर करते हैं। ग्रामीण इलाक़ों में पीएचसी और सीएचसी दोनों को मिलाकर कुल 3,664 डॉक्टर ही उपलब्ध हैं। जबकि ग्रामीण क्षेत्रों की जनसंख्या 15.5 करोड़ है। वहीं स्त्री रोग विशेषज्ञ और प्रसूति विशेषज्ञ की बात करें तो राज्य में 2019 में कुल 2716 पदों की जरूरत थी जिनमें सिर्फ 484 पद कार्यरत हैं और 2232 पद खाली हैं।
सोनभद्र जिले की आशा बहू सुनीता देवी पिछले 12 साल से आशा बहू हैं। वो बताती हैं, "हमें वजन नापने, आयरन की गोलियां कब कैसे कितनी देनी है, गर्भवती महिलाओं की देखरेख, उन्हें अस्पताल ले जाना, जांच करवाना ये सब काम कैसे करना है ये बताया जाता है। हमें प्राथमिक जानकारी ही होती है।"
एएनएम कविता देवी ने बताया, ''कई बार ऐसा होता है कि महिला को लेबर पेन शुरू हो जाता है और आस-पास के अस्पताल में कोई डॉक्टर नहीं होता है तो ऐसे में डिलीवरी हमें ही करानी पड़ती है। हम नॉर्मल डिलीवरी तो करा ही सकते हैं इतना अनुभव है। लेकिन जब अचानक कोई दिक्कत आ जाती है तो हमारी समझ से बाहर हो जाता है क्योंकि हम कोई एमबीबीएस डॉक्टर तो हैं नहीं।''
माँओं को नहीं मिली प्रसवोत्तर जांच
क्राइ (CRY) की स्टडी में ये बात भी सामने आई थी कि केवल 28% माताओं के बच्चों को ही जन्म के पहले हफ्ते में प्रसवोत्तर जांच मिली।
सोनभद्र जिले के राबर्ट्सगंज ब्लॉक के अमौली गांव में रहने वाली रजनी यादव पांचवी बार माँ बनने वाली थीं। उनकी डिलीवरी एएनएम के घर में हुई थी लेकिन बच्चे की दूसरे दिन मौत हो गई। रजनी के जच्चा बच्चा कार्ड में एएनसी (प्रसव पूर्ण होने वाली देखभाल व जांचें) के चारों जांचें दर्ज थीं लेकिन रजनी का कहना है कि उनकी सिर्फ दो ही जांच हुई थी। रजनी ने ये भी बताया कि उनके गांव से स्वास्थ्य उपकेंद्र की दूरी महज 5 किमी है लेकिन वहां पर कोई भी प्रसव नहीं कराया जाता सभी की डिलीवरी एएनएम के घर पर ही होती है। एएनएम अपने घर के एक कमरे में सभी का प्रसव कराती हैं।
हमने एएनएम से बच्चे की मौत का कारण और अस्पताल में प्रसव न होने का कारण पूृछा तो उन्होंने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि अक्सर ऐसा होता है कि दोपहर दो बजे के बाद अस्पताल में कोई डॉक्टर नहीं होता ऐसे में मरीज को ज्यादा दिक्कत होती है। गर्भवती महिला की पहले की जांचों में अगर कोई समस्या वाली बात नहीं रहती तो हम लोग ही डिलीवरी करा देते हैं इसलिए लोग सीधे घर ही आ जाते हैं।
बच्चे की मौत पर एएनएम ने बताया कि बच्चे की पसली ठीक चल रही थी लेकिन पता नहीं अचानक क्या हुआ। हमने वो सबकुछ किया था जो प्रसव के बाद किया जाना चाहिए था। डिस्चार्ज के बारे में पूछने पर एएनएएम ने बताया कि जगह की कमी होने के कारण 4 घंटे बाद हमने जच्चा-बच्चा को घर भेज दिया था।
इंडिया स्पेंड ने जब इस बारे में सोनभद्र के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ नेम सिंह से बात की तो उन्होंने कहा जिले में डॉक्टरों की कमी नहीं है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में कई बार ऐसी शिकायत मिलती है कि डॉक्टर समय पर नहीं रहते। हम ऐसी जगहों पर निगरानी की कड़ी व्यवस्था कर रहे हैं।
कैग की रिपोर्ट में भी मौत के आंकड़े छुपाने की बात
उत्तर प्रदेश में बच्चों के मौत के आंकड़े छुपाए जाने की बात कैग (CAG) की रिपोर्ट में भी सामने आई है। कैग ने 2018 में यूपी के अस्पतालों में ऑडिट किया था जिसमें ये बात सामने आई। इस रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में मृत नवजातों के आंकड़ों को जिला अस्पताल में रिकार्ड नहीं किया गया। कैग की रिपोर्ट में ये भी पाया गया कि किसी भी अस्पताल ने जांच के दौरान पीएनसी नहीं रजिस्टर की है। पीएनसी डिलीवरी के बाद होने वाली जटिलताओं को कम करने में सहायक होती है। इस रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि नवजात शिशु की मृत्यु मातृ स्वास्थ्य और जन्म के बाद बच्चे की देखभाल की ओर संकेत करती है। नियम के अनुसार अस्पतालों में एनएचएम टूलकिट रखने का प्रावधान है, जिससे अस्पतालों के लेबर रूम में हर महीने होने वाले नवजात शिशु की मौत, कारण सहित दर्ज हो। लेकिन कैग ने ऑडिट के दौरान ये पाया कि अस्पतालों के पास ऐसा कोई भी रिकार्ड नहीं है। उत्तर प्रदेश के कई जिलों के अस्पतालों के पास प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु का कोई रिकार्ड नहीं था। न ही अस्पतालों में इमरजेंसी दवाएं व समय से पहले होने वाली डिलीवरी को नियंत्रित करने वाले इंजेक्शन मौजूद थे।
यूपी सरकार के मुताबिक, राज्य में प्रति 100 गर्भवती में से 1. 63% बच्चे मृत पैदा हुए जबकि कैग की रिपोर्ट में ये आंकड़ा 2.2% का है और 0.8% प्रेग्नेंसी के क्या परिणाम हुए इसका कोई रिकार्ड ही नहीं है।
शिशु मृत्युदर के कारणों को गंभीरता से लेने की जरूरत
चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राइ) की क्षेत्रीय निदेशक सोहा मोइत्रा ने इंडियास्पेंड से कहा, "नवजात शिशुओं की मौत को लेकर क्राइ कौशाम्बी के 60 , वाराणसी के 50 गांवों (ग्रामीण) और सोनभद्र के 28 गांवों में काम कर रहा है। पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत की वजह भले निमोनिया और डायरिया हो लेकिन जब बच्चे की मौत जन्म के कुछ घंटों बाद या दो, तीन दिन में हो जाती है तो इसके पीछे सबसे बड़ी वजह रेस्पिरेट्री डिस्ट्रेस सिंड्रोम हो सकता है यानि बच्चा सांस लेने में तकलीफ महसूस करे।"
उन्होंने आगे ये भी कहा कि, "भारत में 2018 में नवजात शिशु मृत्युदर 1000 जीवित पर 23 थी। ग्रामीण क्षेत्रों में इसके पीछे का कारण स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच का न होना और विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी भी है। इसके अलावा महिलाओं में एनीमिया की वजह से जन्म के समय में बच्चे का कम वजन भी मौत का एक कारण हो सकता है। संस्थान ने इस शोध के जरिये नवजात मृत्यु के पीछे के कारणों और इसे रोकने के लिए सिस्टम, समुदाय और व्यक्तिगत स्तर पर किए जा सकने वाली आवश्यक कार्रवाई को गहराई से तब्दील करने की आवश्यकता महसूस हुई"।
क्राइ की स्टडी में भी ये बात सामने आई है कि अधिकांश महिलाओं के सामान्य प्रसव (89%) और उनमें से लगभग आधी (44%) महिलाओं में खून की कमी के कारण और महिलाओं के वजन में कमी के कारण हाई रिस्क प्रेगनेंसी थी। इन सभी हाई रिस्क प्रेगनेंसी में से (29 %) प्रसव घर में हुए है।
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