देहरादून: उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में पुरोला ब्लॉक के बेस्टी गांव की रक्सीना देवी को इस साल 27 फरवरी को प्रसव पीड़ा हुई, घरवाले उन्हें करीब 10 किलोमीटर दूर स्थित पुरोला के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र लेकर गए जहां उन्होंने बच्चे को जन्म दिया। लेकिन इस दौरान काफी रक्तस्त्राव होने के कारण रक्सीना देवी को देहरादून के लिए रेफर किया गया।

"हमें बताया कि नौगॉव की एम्बुलेंस ख़राब होने के कारण बड़कोट से एम्बुलेंस को बुलाया गया और देहरादून के रास्ते में विकासनगर से पहले ही रक्सीना ने दम तोड़ दिया," रक्सीना देवी के पति अरविंद सिंह चौहान कहते हैं। "यदि सीएचसी पुरोला में अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ होती तो मेरी पत्नी आज जिन्दा होती। आसपास में कोई बच्चों का डॉक्टर ना हो पाने के कारण मुझे अपने बच्चे के इलाज के लिए भी अब बार-बार देहरादून ही जाना पड़ता है," चौहान बताते हैं।

उत्तराखंड में पर्वतीय जिलों में स्वास्थ्य सेवाओं के खस्ताहाल के चलते राज्य में ऐसी कई कहानियां हैं जिनमें मरीज़ों को सही समय पर एम्बुलेंस न मिलने, उचित उपचार की कमी, डॉक्टरों की सीमित उपलब्धता और कई और कारणों के चलते अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है। लेकिन इसके बावजूद भी राज्य की स्थापना के 21 सालों के बाद भी उत्तराखंड का स्वास्थ्य पर खर्च राज्य सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का सिर्फ 1.1% है।

उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों की ग्रामीण जनसंख्या को इलाज के लिए किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है इसे हम जनपद टिहरी गढ़वाल के सकलाना पट्टी में सत्यों गाँव में स्थित शहीद ओम प्रकाश सकलानी अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के उदाहरण से समझते हैं।

शहीद ओम प्रकाश सकलानी अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र आसपास के लगभग 50-60 किलोमीटर के क्षेत्र में करीब 20 से अधिक गावों की 10 से 12 हजार की आबादी के लिए एक मात्र स्वास्थ्य केंद्र है।

इस स्वास्थ्य केंद्र में सामान्य सर्दी, बुखार का इलाज तो मिल जाता है लेकिन आज के समय की सामान्य स्वास्थ्य सुविधाओं जैसे एक्सरे और अल्ट्रासॉउन्ड की यहां कोई व्यवस्था नहीं हैं। इस स्वास्थ्य केंद्र में लम्बे समय से लेडी मेडिकल ऑफिसर(LMO) का पद भी रिक्त है। यहां के अधिकतर मामलों को टिहरी जिला अस्पताल या देहरादून के लिए रेफर किया जाता है और उसके लिए भी स्वास्थ्य केंद्र में मात्र एक ही एम्बुलेंस है।

टिहरी जिले के सत्यों गाँव सकलाना पट्टी में स्थित शहीद ओम प्रकाश सकलानी अति प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का डिलीवरी रूम फोटो- सत्यम कुमार

हमने जब स्वास्थ्य केंद्र में जाकर देखा तो पाया कि प्रसव के लिए जो कमरा है उसमें बहुत ज्यादा सीलन है जिसके चलते छत और दीवारों से प्लास्टर तक गिरता है। प्रसव के लिए आयी महिलाओं को इस केंद्र में संक्रमण का खतरा बना रहता है। इसके संबंध में केंद्र के इंचार्ज मयंक राय ने सिर्फ यह कहा, "हमारे द्वारा विभाग में उच्च अधिकारियों को इससे अवगत कराया है।"

जर्जर सड़कें और एम्बुलेंस व्यवस्था

पहाड़ी इलाकों में स्वास्थ्य केंद्रों की कमी और दूरी के चलते इन इलाकों में एम्बुलेंस व्यवस्था और सड़कों का महत्त्व काफी बढ़ जाता है। लेकिन, अधिकतर यह पाया जाता है कि ख़राब सड़कों और एम्बुलेंस की कमी के चलते मरीज समय पर अस्पताल भी नहीं पहुँच पाते हैं।

पिछले माह नैनीताल जिले में एंबुलेंस सेवा की लापरवाही के कारण रामगढ़ क्षेत्र में गर्भस्थ शिशु ने अपनी मां के गर्भ में ही दम तोड़ दिया। रामगढ के तारा चंद्र ने अपनी पत्नी तारा की प्रसव पीड़ा बढ़ने पर 108 एम्बुलेंस सेवा को फ़ोन किया तब उन्हें एक घंटे इंतज़ार करने को कहा गया, एक घंटे के बाद फिर से फ़ोन करने पर उन्हें बताया गया कि एम्बुलेंस का टायर पंक्चर हो गया है। इसके बाद तारा को निजी वाहन में अस्पताल ले जाया गया।

बदहाल स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ-साथ बदहाल सड़कों की मार भी पहाड़ के गांव में रहने वाली जनता पर पड़ती है, ऐसी ही एक घटना पिथौरागढ़ जिले के अंतिम गांव नामिक की है। भोपाल सिंह टाकुली की 27 वर्षीय पत्नी गीता टाकुली, गांव में बारिश के कारण सड़क के टूटजाने से चार दिनों तक प्रसव पीड़ा को झेलती रही, बाद में ग्रामीणों ने महिला को डोली के सहारे आपदा में ध्वस्त और बदहाल रास्तों पर 10 किमी चलकर बागेश्वर जिले के गोगिना गांव पहुंचाया।

यहां से वाहन से 35 किमी की यात्रा कर गीता को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र कपकोट ले जाया गया।

भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स रिपोर्ट 2019-20 के अनुसार उत्तराखंड राज्य में इन्फेंट मोर्टेलिटी रेट (IMR) या शिशु मृत्यु दर (1000 नए जन्मे बच्चों में ऐसे बच्चे जिनकी मृत्यु एक साल के भीतर हो जाती है) कुल 31 है, जो ग्रामीण क्षेत्र में 31 और शहरी क्षेत्र में 29 है। जबकि पड़ोसी राज्य हिमांचल की बात करे तो कुल शिशु मृत्यु दर 19 है जो ग्रामीण क्षेत्र में 20 और शहरी क्षेत्र में 14 है।

राज्य की बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था के बारे में भाकपा (माले) के गढ़वाल सचिव इन्द्रेश मैखुरी का कहना है, "राज्य में स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत खराब है, यहाँ के अस्पतालों में यदि शिद्दत के साथ कोई काम होता है तो वह है मरीजों को रेफर करना। राज्य के पहाड़ी इलाको में तो ऐसे हालात हैं कि गर्ववती महिला अपने प्रसव के अंतिम दिनों में देहरादून या मैदानी क्षेत्र में रहने वाले अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ जाकर रहने लगती है ताकि समय आने पर उसको उचित सुविधा मिल सके।"

डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ की कमी

उत्तराखंड में स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर सरकार की गंभीरता का अंदाजा स्वास्थ्य विभाग के रिक्त पदों से लगाया जा सकता है। राज्य का गठन हुए 21 साल हो चुके हैं लेकिन आज भी पहाड़ी जिलों में रहने वाले लोग छोटी-छोटी बिमारियों के ईलाज के लिए मैदानी जिलों के अस्पतालों पर निर्भर हैं।

राज्य के स्वास्थ्य विभाग में 24,451 राजपत्रित और अराजपत्रित पद स्वीकृत हैं, जिनमे से 8,242 पद वर्तमान में रिक्त है जो कुल स्वीकृत पदों का करीब 34% है। यह आंकड़े साल 2021-22 के बजट में दिए गए हैं।

इसी प्रकार रूरल हेल्थ स्टेटिस्टिक्स रिपोर्ट 2019-20 के आंकड़ों पर गौर करें तो उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्र में कुल 1,839 उपकेंद्र हैं, जिनमें से 543 उपकेंद्र ऐसे हैं जिनके पास अपनी बिल्डिंग नहीं है, इसके अलावा कुल 257 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में से 30 के पास अपनी बिल्डिंग नहीं है।

इन सेंटरों के स्टाफ़ की बात करें तो 56 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में स्पेशलिस्ट के कुल 236 पद स्वीकृत है, जिनमे से मात्र 32 पदों पर ही विशेषज्ञ डॉक्टर नियुक्त हैं बाकि के 204 पद रिक्त हैं, जो कि कुल स्वीकृत पदों का 86% है। इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टेंडर्ड (आइपीएचएस) के मानकों के अनुसार प्रत्येक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में चार विशेषज्ञ (सर्जन, प्रसूति व स्त्री रोग विशेषज्ञ, बाल रोग विशेषज्ञ और चिकित्सा विशेषज्ञ) होने चाहिए। उत्तराखंड में एक भी ऐसा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है जिसमे सभी चार विशेषज्ञ कार्यरत हों। प्रदेश में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के लिए सर्जन के 61 स्वीकृत पदों में से 55 पद रिक्त हैं, ग्रामीण क्षेत्रों में रेडियो ग्राफर के कुल 56 पदों में से 47 पद ख़ाली पड़े हैं।

इसी प्रकार ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में लेबोरेटरी टेक्नीशियन के लिए कुल 313 लोगों की आवश्यकता है जिसमे से केवल 61 पदों पर नियुक्ति की गयी है। नर्सिंग स्टाफ़ के भी 649 पदों में से 406 पद रिक्त हैं। यह रिपोर्ट बताती हैं कि वर्तमान में उत्तराखंड के शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या के हिसाब से 78 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए जबकि वर्तमान में केवल 38 केंद्र हैं।

सोशल डेवलपमेंट फ़ॉर कम्युनिटी (एसडीसी) फाउंडेशन द्वारा उत्तराखंड सरकार के चिकित्सा,स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग से सूचना के अधिकार के तहत दी गयी जानकारी पर बनाई गयी रिपोर्ट के अनुसार, राज्य में विशेषज्ञ डॉक्टरों के कुल 1,147 पदों में से 654 पद रिक्त हैं। रिपोर्ट के अनुसार राज्य में केवल 43% विशेषज्ञ डॉक्टर ही सरकारी अस्पतालों में नियुक्त हैं।

हालांकि सरकार लम्बे समय से डॉक्टरों को पहाड़ चढ़ाने की कोशिश कर रही है लेकिन अधिकांश, राजकीय मेडिकल कॉलेजों से पढ़ाई पूरी करने वाले डॉक्टर भी पहाड़ में पोस्टिंग से कतराते हैं। इस समस्या को दूर करने के लिये सरकार के द्वारा बॉन्ड सिस्टम भी शुरू किया गया, जिसके तहत राजकीय मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने वाले छात्रों को फीस में छूट दी जाती है, इस छूट के बदले में छात्रों से पांच साल के लिये पहाड़ो में पोस्टिंग के लिए बॉन्ड भरवाया जाता है।

उत्तराखंड राज्य का स्वास्थ्य पर खर्च

हिमालयी राज्य उत्तराखंड ने स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में अन्य हिमालयी राज्यों की तुलना में अपने हाथ बांधे हुए हैं। भारतीय रिजर्व बैंक की स्टेट फाइनेंस ए स्टडी ऑफ़ बजट 2020-21 रिपोर्ट के अनुसार, हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड सरकार के द्वारा जन स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च किया है। इस दौरान उत्तराखंड ने जन स्वास्थ्य पर राज्य सकल घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) का सबसे कम 1.1% खर्च किया, जबकि, जम्मू-कश्मीर ने 2.9%, हिमाचल प्रदेश ने 1.8% और पूर्वोत्तर राज्यों ने 2.9% हिस्सा खर्च किया है, रिपोर्ट में बताया।

इसके साथ ही एसडीसी फाउंडेशन के अध्ययन के अनुसार भी राज्य ने 2017 से 2019 तक प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य सेवाओं पर हिमालयी राज्यों में सबसे कम खर्च किया है। स्वास्थ्य सेवाओं में हिमालयी राज्यों में अरुणाचल प्रदेश ने तीन वर्षों में सबसे ज्यादा रुपये 28,417 प्रति व्यक्ति खर्च किये। जबकि उत्तराखंड ने मात्र रुपये 5,887 खर्च किये। यहां तक कि पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश ने भी इस मद में उत्तराखंड से 72% ज्यादा खर्च किया था।

स्वास्थ्य बजट में भारी कटौती

भारतीय रिजर्व बैंक की राज्यों के बजट पर आधारित वार्षिक रिपोर्ट और उत्तराखंड विधानसभा में प्रस्तुत बजट दस्तावेजों के विश्लेषण से पता चलता है कि उत्तराखंड में वर्ष 2001-02 से लेकर 2020-21 तक राज्य सरकार स्वास्थ्य सेवाओं पर बजट अनुमान में रुपये 22,982 करोड़ खर्च करने का वादा किया था लेकिन 2019-20 तक वास्तविक खर्चों और 2020-21 के पुनरीक्षित अनुमान तक सिर्फ रुपये 18,697 करोड़ खर्च किया, रुपये 4,285 करोड़ ऐसा है जो सरकार द्वरा खर्च ही नहीं किया गया। उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं पर जहाँ एक और ज्यादा बजटीय खर्च की जरूरत है वहीं राज्य सरकार द्वारा वास्तविक खर्चों में की जा रही यह कटौती स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता पर ख़ासा प्रभाव डाल रही हैं।


उत्तराखंड में अभी तक दो दलों, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के नेतृत्व की सरकारें रही हैं और दोनों ही सरकारों में बजटीय आवंटन को जरूरत के मुताबिक बढ़ाने के स्थान पर वास्तविक खर्च में कटौती की गयी है। साल 2002-03 से लेकर 2006-07 और 2012-13 से 2016-17 तक के कांग्रेस के दो कार्यकाल में यह कटौती रुपये 1,591.69 करोड़ तथा बीजेपी के नेतृत्व में 2007-08 से 2011-12 और 2017-18 के दो कार्यकालों में रुपये 2,658.30 करोड़ की कटौती की है।


प्रदेश के बजट में चिकित्सा एवं परिवार कल्याण पर खर्च बढ़ा हुआ दिखाई देता है लेकिन यह बढ़ोतरी कुल बजटीय खर्च और राज्य सकल घरेलू उत्पाद के सापेक्ष बढ़ती हुई नहीं दिखाई देती है। ऊपर दिए गए चार्ट में हम देख सकते हैं कि बजट 2021-22 के अनुमान में चिकित्सा एवं परिवार कल्याण पर कुल खर्च का (जिसमे राजस्व एवं पूंजीगत व्यय शामिल हैं) 5.6% है, और 2014-15 में यह 5.5% था और 2010-11 में यह 4.9% था | इसके साथ ही 2021-22 के बजट अनुमान के अनुसार उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च राज्य सकल घरेलू उत्पाद का महज 1% है।

एसडीसी फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल कहते हैं कि रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के राष्ट्रीय आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि जन स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में हम पिछड़ रहे हैं। राज्य सरकार को अब जन स्वास्थ्य को पहली प्राथमिकता बनाना चाहिए। वे कहते हैं कि कोविड महामारी ने हमारे सामने जो चुनौतियां खड़ी की हैं, उसके बाद यह मसला न सिर्फ सार्वजनिक चर्चा का विषय बन गया है, बल्कि यह भी स्पष्ट हो गया है कि हमें जन स्वास्थ्य के ढांचे पर गुणात्मक तरीके से और ज्यादा खर्च करके इसे और मजबूत बनाने की जरूरत है।

उत्तराखंड राज्य में स्वास्थ्य व्यवस्था की स्थिति पर सरकार का पक्ष जानने के लिए हमारे द्वारा मंत्री सुबोध उनियाल, स्वास्थ्य महानिदेशक डॉ सुमन आर्य,अतिरिक्त महानिदेशक तृप्ति बहुगुणा आदि से फोन द्वारा संपर्क करने की कोशिश की गई लेकिन संपर्क नहीं हो पाया। हमने स्वास्थ्य निदेशालय उत्तराखंड को भी ईमेल किया है जिसका जवाब हमें अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। जवाब आने पर हम उसे लेख में सम्मिलित करेंगे।

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