लखनऊ: साल 2021 के सितंबर महीने में उत्तर प्रदेश का फिरोजाबाद डेंगू बुखार की गिरफ्त में आया और जिले के कई लोग अचानक से बीमार पड़ने लगे जिनमें से ज़्यादातर बच्चे थे। जिले का एकमात्र मेडिकल कॉलेज मरीजों से भरा था, लेकिन ग्रामीण इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में ताले लगे थे। ऐसे में लोग निजी अस्पतालों का रुख कर रहे थे जो कि बहुत महंगे थे, और जो लोग इतना खर्च उठाने लायक नहीं थे उनका सहारा बन रहे थे 'झोलाछाप डॉक्टर'।

झोलाछाप डॉक्टर भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था की अहम सच्चाई हैं। इन्‍हें कहीं 'ग्रामीण चिकित्सक' का नाम मिला है तो कहीं 'बंगाली डॉक्टर' और 'झोलाछाप डॉक्टर' कहकर पुकारा जाता है। ये वो लोग हैं जिन्होंने मेडिकल की डिग्री तो नहीं ली, लेकिन कई साल से गांव, कस्बों में मेडिकल प्रैक्टिस करते आ रहे हैं।

भारत की जनसंख्या के अनुपात में डॉक्टरों की बहुत कमी है। व‍िश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन के मानक के अनुसार एक हजार की आबादी पर एक डॉक्‍टर होना चाहिए। भारत में 1,343 की आबादी पर एक डॉक्टर उपलब्ध हैं, 2020 में लोकसभा में पेश आंकडों के मुताबिक।

देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की इन तीन बड़ी कमियों – लचर ग्रामीण स्वास्थ्य सुव‍िधाएं, डॉक्टरों की कमी और महंगे निजी इलाज का फायदा सीधे तौर पर झोलाछाप डॉक्‍टरों को मिलता है। ऐसे में गांव-कस्‍बों की बड़ी आबादी इनसे इलाज करा रही है क्योंकि, लोगों को इलाज के ल‍िए यह सहज तौर पर उपलब्‍ध होते हैं और कम खर्च में इलाज करते हैं।

57.3% के पास मेड‍िकल की ड‍िग्री नहीं

स्‍वास्‍थ्‍य एवं पर‍िवार कल्‍याण मंत्रालय की अगस्‍त 2019 की प्रेस रिलीज में भी झोलाछाप डॉक्टरों का जिक्र किया गया है। मंत्रालय ने कहा, "हमारी अधिकतर ग्रामीण और गरीब आबादी गुणवत्‍ता सम्पन्न स्वास्थ्य देखभाल सेवा से वंचित है और झोलाछाप डॉक्टरों के चंगुल में है। एलोपैथी औषधि क्षेत्र में काम करने वाले 57.3% के पास चिकित्सा (मेडिकल) योग्यता नहीं है।"

विश्‍व स्‍वास्‍थ्‍य संगठन की 2016 की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि भारत में एलोपैथी डॉक्टर के तौर पर काम करने वाले 31.4% लोगों की पढ़ाई 12वीं तक हुई है। वहीं, एलोपैथी की प्रैक्टिस कर रहे 57.3% के पास मेडिकल की डिग्री तक नहीं है। ग्रामीण क्षेत्र के महज 18.8% एलोपैथी डॉक्टर के पास मेडिकल की डिग्री है।

यह आंकड़े भारत की स्‍वास्‍थ्‍य व्‍यवस्‍था के गंभीर रूप से बीमार होने की कहानी खुद बयां करते हैं। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का सिर्फ 0.35% ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है। केंद्रीय बजट में 2022-23 के ल‍िए स्वास्थ्य क्षेत्र को 86,200.65 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं, जो 2021-22 में 73,931 करोड़ रुपये से 16% अधिक है।

स्‍वास्‍थ्‍य व्‍यवस्‍था की ऐसी दुर्दशा क्‍यों हुई इस बारे में जन स्‍वास्‍थ्‍य अभ‍ियान के राष्‍ट्रीय सह संयोजक अमूल्‍य न‍िध‍ि कहते हैं, "जनसंख्‍या के हिसाब से स्‍वास्‍थ्‍य व्‍यवस्‍थाओं को बढ़ाया नहीं गया और धीमे-धीमे अंतर बढ़ता गया। 70 के दशक के बाद से यह अंतर तेजी से बढ़ा है।"

गांव-कस्‍बों तक कैसे पहुंचे झोलाछाप डॉक्टर?

अमूल्‍य बताते हैं कि इस अंतर को पूरा करने की नीयत से साल 1977 में राष्‍ट्रीय स्‍तर पर 'जन स्‍वास्‍थ्‍य रक्षक योजना' शुरू की गई। जन स्‍वास्‍थ्‍य रक्षक को 50 रुपए महीना मिलता था और यह लोग टीबी कार्यक्रम, टीकाकरण और एएनएम की मदद करने जैसे काम करते थे। बाद के वर्षों में इन पर ध्यान नहीं द‍िया गया और 90 का दशक आते-आते यही जन स्‍वास्‍थ्‍य रक्षक गांव और कस्‍बों में लोगों का इलाज करने लगे। यहां से इन्‍हें ग्रामीण च‍िकित्‍सक और झोलाछाप डॉक्टर की पहचान मिल गई।

अमूल्‍य न‍िध‍ि मध्य प्रदेश सरकार की उस कमिटी में भी शामिल थे ज‍िसने जन स्‍वास्‍थ्‍य रक्षक कार्यक्रम का मुल्‍यांकन किया। अमूल्‍य बताते हैं कि मध्‍य प्रदेश में द‍िग्‍व‍िजय स‍िंह की सरकार के दौरान 2003 में जन स्‍वास्‍थ्‍य रक्षकों को फिर से 6 महीने की ट्रेनिंग दी गई, ज‍िसमें बताया गया कि इन्‍हें कुछ चुन‍िंदा दवाइयां देनी हैं, इंजेक्‍शन नहीं लगाना है और बॉटल नहीं चढ़ाना है। इसके बाद सरकार बदल गई और इनकी न‍िगरानी नहीं हो पाई। ऐसे में ज्‍यादातर झोलाछाप डॉक्टर में तब्‍दील हो गए।

जन स्‍वास्‍थ्‍य रक्षक कार्यक्रम को लेकर इंड‍ियास्‍पेंड ने सूचना के अध‍िकार (आरटीआई) के तहत यूपी के पर‍िवार कल्‍याण महान‍िदेशालय से जानकारी मांगी। हमने पूछा कि इस कार्यक्रम को क्‍यों बंद किया गया? इसके जवाब में बताया गया कि भारत सरकार ने इस योजना का मूल्‍यांकन किया, ज‍िसमें यह पाया गया कि इस योजना से स्‍वास्‍थ्‍य के क्षेत्र में कोई सुधार नहीं आया।

आरटीआई में यह बताया गया कि यूपी में 87,500 जन स्‍वास्‍थ्‍य रक्षक थे, ज‍िन्‍हें 50 रुपए महीना मानदेय द‍िया जाता था। इस योजना को मार्च 2002 में बंद कर दिया गया।

स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं में शामिल करने की मांग

उत्‍तर प्रदेश में जन स्‍वास्‍थ्‍य रक्षकों का एक संगठन भी है, जिसका नाम 'जन स्‍वास्‍थ्‍य रक्षक कल्‍याण समित‍ि' है। संगठन के मुताबिक, 1977 में इस कार्यक्रम की शुरुआत हुई। तीन महीने की ट्रे‍न‍िंग के बाद एक हजार की आबादी पर एक जन स्‍वास्‍थ्‍य रक्षक को रखा गया। मार्च 2002 तक इनसे काम ल‍िया गया और फिर इनसे काम लेना बंद कर द‍िया गया। इसके बाद से संगठन बहाली की मांग कर रहा है।

जन स्‍वास्‍थ्‍य रक्षक कल्‍याण समित‍ि के प्रदेश अध्‍यक्ष क‍प‍िल देव प्रजापति बताते हैं, "मार्च 2002 तक हमसे काम ल‍िया जा रहा था। स्‍वास्‍थ्‍य व‍िभाग की ओर से हमें दवाइयां मिलती थीं। यह दवाइयां मिलना बंद हो गईं। हमें 50 रुपए महीना म‍िलता था वो भी बंद हो गया। सरकार ने बिना कुछ बताए काम लेना बंद कर द‍िया।"

जन स्‍वास्‍थ्‍य रक्षक कल्‍याण समिति की वेबसाइट पर मौजूद आंकड़ों के मुताबिक, साल 2020 के सर्वे के हिसाब से उत्‍तर प्रदेश में करीब 38 हजार जन स्‍वास्‍थ्‍य रक्षक मौजूद हैं। संगठन की मांग है कि राज्य में 1.75 लाख जन स्‍वास्‍थ्‍य रक्षक न‍ियुक्‍त किए जाएं।

झोलाछाप मेडिकल प्रैक्टिस को भले ही मान्‍यता न मिली हो, लेकिन इनके अलग-अलग संगठन बने हैं। इन संगठनों में बड़ी संख्या में झोलाछाप डॉक्टर जुड़े हैं। उत्‍तर प्रदेश में ऐसा ही एक संगठन है – 'ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य सेवक वेलफेयर एसोसिएशन'। इस संगठन से देश भर के करीब 2.5 लाख झोलाछाप डॉक्‍टर जुड़े हैं।

ग्रामीण स्‍वास्‍थ्‍य सेवक वेलफेयर एसोसिएशन के अध्‍यक्ष प्रेम त्र‍िपाठी कहते हैं, "कोरोना काल में हमने जान दांव पर लगाकर लोगों की सेवा की। स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं में हमारी महत्वपूर्ण भूमिका है और इसे कोई नकार नहीं सकता। सरकार को हमें स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं में शाम‍िल करने की जरूरत है। हमें ट्रेन‍िंग देकर रज‍िस्‍टर करना चाहिए।"

प्रेम त्र‍िपाठी झोलाछाप डॉक्‍टरों को स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं की रीढ़ की हड्डी कहते हैं। उनका कहना है कि सरकारी स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं की पहुंच गांव तक नहीं है। प्राथमिक और सामुदाय‍िक स्‍वास्‍थ्‍य केंद्र गांव से दूर होते हैं, ऐसे में लोगों का प्राथमिक उपचार झोलाछाप डॉक्‍टर ही करते हैं।

झोलाछाप प्रैक्‍ट‍िस बंद की जाए: आईएमए

झोलाछाप डॉक्‍टरों के दावों को असल डॉक्‍टर पूरी तरह खार‍िज करते हैं। उनके हिसाब से झोलाछाप डॉक्‍टरों पर सख्‍त कार्यवाही होनी चाहिए और इनकी प्रैक्‍ट‍िस पूरी तरह से बंद करवानी चाहिए।

आईएमए, एएमएस के सच‍िव डॉ. जेडी रावत कहते हैं, "झोलाछाप डॉक्‍टर की ट्रेन‍िंग किसी अच्‍छी जगह से हुई नहीं है। यह खुद से या किसी के यहां काम करके सीख गए हैं। 100 मरीज वो देख रहे हैं, इसमें से एक भी केस बिगड़ जाए तो इसका जिम्‍मेदार कौन होगा? हमारी जानकारी में ऐसे लोग हैं जो सर्जरी तक रहे हैं और उन्‍हें शरीर की बनावट के बारे में पूरी जानकारी नहीं है।"

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) उत्‍तर प्रदेश के सच‍िव डॉ. राजीव गोयल कहते हैं, "हमारा रजिस्‍ट्रेशन इसलिए होता है कि झोलाछाप डॉक्‍टर प्रैक्‍ट‍िस न करें, लेकिन वो प्रैक्‍ट‍िस कर रहे हैं। सरकार को इस पर सख्‍त कदम उठाने होंगे। जहां तक बात डॉक्‍टर और जनसंख्‍या के अनुपात के अंतर की है तो हमारे पास डॉक्‍टरों की कोई कमी नहीं है। सरकार नौकरियां नहीं न‍िकाल रही, जो नौकरियां हैं भी वो संव‍िदा की हैं, जो कि डॉक्‍टरों को सही नहीं लग रही।"

झोलाछाप डॉक्‍टरों पर नकेल कसने के लिए मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) की ओर से एक टीम बनाई जाती है और उनके क्षेत्र के सभी रजिस्‍टर्ड डॉक्‍टरों का रजिस्‍ट्रेशन कराया जाता है। इस तरीके से झोलाछाप डॉक्‍टरों की पहचान हो जाती है। हालांकि इसके बाद भी झोलाछाप डॉक्‍टरों पर कार्यवाही तभी होती है जब कोई बड़ी घटना हो जाए। उससे पहले तक यह झोलाछाप डॉक्‍टर स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं की कमी का फायदा उठाते रहते हैं और लोग भी इनकी कम खर्च वाली सेवाएं लेते रहते हैं।

राजीव कहते हैं झोलाछाप की प्रैक्‍ट‍िस पूरी तरह बंद होनी चाह‍िए। कुछ राज्‍यों में इन्‍हें ट्रे‍न‍िंग देकर काम कराने की बात हो रही है, लेकिन यह गलत होगा। इससे समस्‍या का समाधान नहीं होने वाला है। स्‍वास्‍थ्‍य व्‍यवस्‍था को अच्‍छे से चलाने के ल‍िए प्रशिक्षित डॉक्‍टरों की ही जरूरत है।

पश्‍च‍िम बंगाल में स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं में शामिल करने पर व‍िचार

पश्‍च‍िम बंगाल की सरकार ने झोलाछाप डॉक्‍टरों को ट्रेन‍िंग देकर उनसे काम लेने की बात कही थी। साल 2021 के मई महीने में इस पर खूब चर्चा हुई। मुख्‍यमंत्री ममता बनर्जी ने तब इन्‍हें अलग नाम देने की बात भी कही थी। उनके मुताब‍िक, राज्‍य के 2.75 लाख झोलाछाप को 'स्‍वास्‍थ्‍य सुरक्षा बंधु' पुकारा जाएगा। हालांकि करीब एक साल बीतने को है, अब तक यह तय नहीं हो पाया है कि झोलाछाप डॉक्‍टरों से किस तरह से काम ल‍िया जाए।

ब‍िहार सरकार ने तो झोलाछाप डॉक्‍टरों को एक साल की ट्रेन‍िंग भी दी, लेकिन इसके बाद उनसे काम नहीं ल‍िया। साल 2018-19 में करीब 25 हजार झोलाछाप डॉक्टरों को ट्रेनिंग और सर्ट‍िफ‍िकेट दिया गया। सरकार ने इन्‍हें ग्रामीण च‍िक‍ित्‍सक का दर्जा द‍िया। अब यह ग्रामीण च‍िकित्‍सक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर सहायक के तौर पर न‍ियुक्‍त करने की मांग कर रहे हैं।

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