सोनभद्र का मलेरिया संकट: कैसे कठोर निगरानी और आपसी सहयोग इसमें मदद कर सकती है
मलेरिया उन्मूलन अभियान में भारत की स्थिति को पटरी पर लाने के लिए कई विभागों को आपस में समन्वय करना होगा। यह ‘वन हेल्थ अप्रोच’ ही आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता है
सोनभद्र, उत्तर प्रदेश: सविता देवी के लिए बारिश का मौसम, काल का समय है और वह इसे मौत से जोड़ती हैं।
पिछले साल सितंबर में दक्षिण-पश्चिमी मानसून के दौरान 10 दिनों के अंतराल में ही उन्होंने अपने सात में से पांच बच्चों को मलेरिया के कारण खो दिया था। बैगा जनजाति समुदाय से आने वाली सविता देवी अपने 30 वर्षीय किसान पति राजू के साथ उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले की पहाड़ियों में स्थित पौसिला गांव में रहती हैं।
इस गांव में ना तो मोबाइल नेटवर्क है और ना ही सड़क संपर्क। यहां की मिट्टी की दीवारों वाली झोपड़ियां, पहाड़ियों पर आपको हर जगह फैली हुई मिल जाएंगी। राजू और सविता देवी जैसे किसान अपनी कुछ एकड़ खेत से अपनी आजीविका चलाते हैं। वे खेत को ही अपना घर कहते हैं।
उनकी झोपड़ी के एक कोने में एक टिन का बक्सा रखा हुआ है। वह बक्से को खोलकर अपने दो मृत बेटों चंदन और सूरज की फोटो दिखाती हैं और रोने लगती हैं।
सिसकते हुए वह बताती हैं, “मेरे पास सिर्फ़ ये दो तस्वीरें बची हैं, राजू (पति) ने बाकी को जला दिया। वह चाहते हैं कि मैं अपने बच्चों को खोने के गम से उबर जाऊं। लेकिन ये मैं कैसे करूं? इस फोटो को तो देखिए...क्या गोल चेहरे और क्या बड़ी-बड़ी आंखें हैं! मैं तो यह सोचती हूं कि बड़े होने के बाद वे अभी कैसे दिखते। अब मेरे पास यादों के रूप में सिर्फ ये तस्वीर हैं।”
मलेरिया के प्रकोप को याद करते हुए वह कहती हैं, “पर साल बहुत से लड़के मरे रहे , करीब 50-60 मर गए।” [“पिछले साल कई बच्चे मर गए थे, लगभग 50-60 मर गए।”]
पौसिला की मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) निर्मला देवी इस आंकड़े को 22 बताती हैं, जबकि नेशनल सेंटर फॉर वेक्टर बोर्न डिजीज कंट्रोल (NCVBDC) इसे शून्य बताता है। इंडियास्पेंड ने इस मामले पर टिप्पणी करने लिए NCVBDC से संपर्क किया है, जवाब मिलने पर हम इस स्टोरी को अपडेट करेंगे।
सोनभद्र मलेरिया के प्रति एक संवेदनशील क्षेत्र है। यह एक वन्य क्षेत्र है और दुर्गम बस्तियों में आदिवासी आबादी रहती है। यह जिला चार राज्यों की सीमाओं से लगा हुआ है, जहां विद्युत पावर प्लांट और संबंधित फैक्ट्रियों में काम की तलाश में प्रवासी श्रमिक आते रहते हैं। इसलिए मलेरिया पर नियंत्रण के लिए अंतर-राज्यीय सहित बहु-क्षेत्रीय सहयोग महत्वपूर्ण है।
मलेरिया एक जानलेवा बीमारी है, जो प्लास्मोडियम जीनस के अंतर्गत आने वाले सूक्ष्म परजीवियों के कारण फैलता है। NCVBDC के अनुसार भारत में मलेरिया के अधिकांश मामले प्लास्मोडियम विवैक्स और प्लास्मोडियम फाल्सीपेरम के कारण होते हैं। एनोफिलीज मच्छर स्थिर पानी के स्रोतों, जैसे कि मानसून के दौरान बनने वाले तालाबों और पोखरों में प्रजनन करते हैं।
इंडियास्पेंड ने इस सीरीज़ के पहले रिपोर्ट में बताया था कि सोनभद्र ऐसे तालाबों से भरा हुआ है। इस इलाके में बारिश के पानी से भरे कई गड्ढे हैं, जो महीनों तक स्थिर पानी से भरे रहते हैं और एनोफिलीज मच्छरों के प्रजनन के लिए समृद्ध जगह उपलब्ध कराते हैं।
इस रिपोर्टर ने 24 अप्रैल 2024 को जिलावार मलेरिया जांच और मौतों के आंकड़ों के लिए सूचना के अधिकार (RTI) के तहत जानकारी मांगी थी। 17 मई को मिले RTI के जवाब से पता चला कि सोनभद्र में 2023 में मलेरिया के 300 मामले दर्ज किए गए, जो राज्य में सातवें सबसे अधिक मामले थे। लेकिन यहां पी. फाल्सीपेरम का बोझ सबसे अधिक (65%) है, जो अधिक गंभीर है और इसमें जान जाने की संभावना बहुत अधिक होती है। सोनभद्र के जिला मलेरिया इकाई ने जिले के 1,440 में से 196 गांवों को मलेरिया के लिए अति संवेदनशील बताया है, जिसमें पौसिला भी शामिल है।दूरी का दंश
एक छोटी सी मिट्टी की झोपड़ी में 58 वर्षीय जनकधारी एक सफेद कपड़े के थैले में अपने तीन पोते-अंकुश, हिमांशु और दिव्यांशु और बहू सुशीला (30) का मृत्यु प्रमाण पत्र खोज रहे थे। इन सबकी मृत्यु नवंबर 2021 में मलेरिया के कारण हुई थी।
वह विलाप करते हुए कहते हैं, “हमारा तो पूरा घर बिखर गया।”
इन चारों को 32 किलोमीटर दूर एक निजी अस्पताल ले जाया गया था, जहां उनका मलेरिया परीक्षण पॉजिटिव आया। हिमांशु और दिव्यांशु में पी. फाल्सीपेरम और पी. विवैक्स दोनों के अंश थे। सोनभद्र के जिला अस्पताल द्वारा जारी मृत्यु प्रमाण पत्र में कहा गया है कि अंकुश में पी. फाल्सीपेरम के अंश थे, जबकि NCVBDC के 2021 के रिपोर्ट के अनुसार राज्य में इस मामले में शून्य मृत्यु दर्ज की गई थी।
जनकधारी के घर में हुए मौतों को देखकर अन्य पग्रामीणों में सदमा और डर समा गया था। जनकधारी के पड़ोसी 52 वर्षीय कमलभान ने याद करते हुए कहा, “उस साल बहुत से लोग मर गए थे, फिर साहब लोग जांच करने आए।“मलेरिया पर नियंत्रण करने के लिए बनाए गए राष्ट्रीय रणनीतिक योजना (2023-2027) में निगरानी (सर्विलांस) को मुख्य रणनीति के रूप में बताया गया है, जिसमें वन, आदिवासी, सीमावर्ती और प्रवासी आबादी क्षेत्र विशेष ध्यान के केंद्र हैं। सोनभद्र का लगभग 37% क्षेत्र, वन क्षेत्र है, वहीं 21% आबादी, आदिवासी आबादी है। इसके अलावा जिले की सीमा चार राज्यों से मिलती है और जिले में पर्याप्त संख्या में आदिवासी भी बिखरे हुए हैं। राज्य के कई गांवों और बस्तियों में पहुंचना भी दुर्लभ है। इसलिए यह जिला निगरानी (सर्विलांस) में पिछड़ रहा है।
सोनभद्र के जिला मलेरिया अधिकारी धर्मेंद्र श्रीवास्तव ने कहा, “सोनभद्र में कई ऐसे गांव हैं, जहां कोई सड़क नहीं है और अगर सड़क है भी तो घर पहाड़ियों में बिखरे हुए हैं। एक आशा कार्यकत्री को एक घर से दूसरे घर जाने के लिए कम से कम 2 किमी पैदल चलना पड़ता है, जिससे निगरानी करने में बहुत दिक्कत होती है।”
आपको बता दें कि सोनभद्र के पहाड़ी इलाके में प्रति वर्ग किमी जनसंख्या घनत्व 270 है, जो कि राज्य की औसत 829 का एक तिहाई है।
NCVBDC लोगों से एकत्र किए गए रक्त स्मीयर की जांच करके मलेरिया को ट्रैक करता है। मलेरिया के लिए परीक्षण की गई आबादी के प्रतिशत दर को वार्षिक रक्त परीक्षण दर (ABER) कहते हैं। यह उन क्षेत्रों में कम से कम 7% होना चाहिए, जहां साल भर मलेरिया होता है। वहीं मौसमी मलेरिया संचरण वाले क्षेत्रों में यह प्रतिशत 5% होना चाहिए।
उत्तर प्रदेश को ‘मलेरिया के कम संचरण वाले राज्य’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जहां औसत ABER 2020 के 1.19% से बढ़कर 2023 में 4.5% हो गया। पिछले साल राज्य के 75 जिलों में से 25 जिलों में ABER 5% से अधिक था। बदायूं (10%), अमेठी (9.3%) और गाजियाबाद (9%) जैसे कुछ जिलों में निगरानी बेहतर रही, वहीं सोनभद्र में, ABER 2020 के 3.31% से बढ़कर पिछले साल 8.17% हो गया।
सोनभद्र में मलेरिया जांच की दर बढ़ी है
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद-राष्ट्रीय मलेरिया अनुसंधान संस्थान के पूर्व वैज्ञानिक जी रमेश धीमान ने कहा, "इस संबंध में हमें एक व्यापक निगरानी तंत्र खड़ा करने की जरूरत है। जरूरत है कि स्वास्थ्य कर्मी हर पखवाड़े में इलाके में जाए और रैपिड डायग्नोस्टिक टेस्ट किट का उपयोग कर रक्त स्लाइड एकत्र करें। जब यह निगरानी ठीक से नहीं होती है तो संक्रमण का पता नहीं चल पाता है।"
धीमान वर्तमान में मलेरिया उन्मूलन के लिए बनाए गए वैश्विक कोष के राष्ट्रीय समन्वयक हैं। यह HIV/एड्स, तपेदिक और मलेरिया की महामारी को समाप्त करने के लिए निर्मित एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषण व साझेदारी संगठन है।
उन्होंने कहा, "ऐसा ना होने पर मामले अचानक से बढ़ जाते हैं और जब लोग मरने लगते हैं, तभी स्वास्थ्य विभाग को पता चलता है।" धीमान की यह बात जनकधारी और सविता देवी दोनों परिवारों के मामले में सही साबित होती है, जहां स्वास्थ्य विभाग की तरफ से बहुत देर से कार्रवाई शुरू हुई।
सविता देवी कहती हैं, "इतने सारे बच्चों की मौत के बाद ही गांव के अन्य लोगों की जांच शुरू हुई।" उनकी बेटी सुमन भी मलेरिया से बीमार थी और वह देर से हरकत में आए स्वास्थ्य विभाग के उपचार के बाद किसी तरह बच पाईं।
पौसिला से 40 किलोमीटर दूर मकरी बारी गांव में 27 जुलाई, 2023 को 75 वर्षीय पार्वती देवी की मौत के बाद जिला स्तर के अधिकारियों को गांव में जाना पड़ा। मकरी बारी में 2006 से सेवारत आशा कार्यकत्री राजेश्वरी देवी ने बताया, "मुझे याद है कि बुढ़िया की मौत के बाद हमने सुबह से शाम तक गांव के स्कूल में लगातार चार दिनों तक रैपिड टेस्ट किया। अफसर [अधिकारी] यह जांच करने के लिए लखनऊ से यहां आए थे कि पार्वती देवी के घर के आसपास कोई जमा पानी का स्त्रोत तो नहीं है।"
यहां से राज्य की राजधानी लखनऊ 400 किलोमीटर दूर है। पार्वती देवी के बेटे रमेश पाल कुछ पूछने पर शांत भाव से सिर हिलाते हैं। हालांकि आधिकारिक आंकड़ों में पार्वती देवी की मौत का कारण मलेरिया नहीं बल्कि डायरिया बताया गया है।भारत में मौतों के आधिकारिक पंजीकरण की समस्या कोई नई नहीं है। कोविड-19 महामारी के दौरान यह समस्या और भी ज़्यादा चर्चा में आई, जैसा कि इंडियास्पेंड ने मई 2022 में रिपोर्ट भी किया था। हालांकि 2019 के डेटा के अनुसार भारत में 10 में से नौ मौतें पंजीकृत होती हैं, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों और कम विकसित राज्यों में पंजीकरण का दर बहुत कम होता है। 2019 में पांच मौतों में से केवल एक मौत ही चिकित्सकीय रूप से प्रमाणित था और अक्सर मृत्यु के मूल कारण को गलत तरीके से दर्ज किया गया। इंडियास्पेंड ने जून 2020 में इस बारे में भी रिपोर्ट किया था।
सुपरहीरो आशा बहनें
सोनभद्र की जिला मलेरिया इकाई में एक जिला मलेरिया अधिकारी, एक सहायक मलेरिया अधिकारी, एक वेक्टर जनित रोग सलाहकार, चार निरीक्षक और एक वरिष्ठ फील्ड कार्यकर्ता शामिल हैं। गांवों में आशा कार्यकत्री ही निगरानी की एकमात्र साधन हैं।
1,527 आशा कार्यकत्री जिले की 18 लाख 60 हजार आबादी की देखभाल करती हैं और वे मलेरिया के अलावा डायरिया, तपेदिक और कुपोषण जैसे रोगों पर नजर रखती हैं। एक आशा कार्यकर्ता को उनके द्वारा किए गए प्रत्येक मलेरिया परीक्षण के लिए 15 रुपये और मलेरिया रजिस्टर में दर्ज किए गए प्रत्येक मामले के लिए 75 रुपये मिलते हैं। पंजीकृत मामले पर फॉलोअप के लिए अतिरिक्त 200 रुपये दिए जाते हैं। आशा कार्यकत्री ही जिले में सूचना का प्राथमिक स्रोत हैं, जिसके आधार पर जिला स्वास्थ्य विभाग गांवों में मलेरिया शिविर स्थापित करता है।
जब सविता देवी का बेटा चंदन बीमार पड़ा तो आशा कार्यकत्री निर्मला देवी के पास रैपिड डायग्नोस्टिक टेस्ट (RDT) किट नहीं थी, लेकिन उन्होंने अपने स्वास्थ्य उपकेंद्र को इसके बारे में सूचित कर दिया था। इस साल जनवरी में निर्मला देवी को 20 मलेरिया RDT किट दिए गए। 10 अप्रैल 2024 तक इसमें से पांच का इस्तेमाल नहीं हुआ क्योंकि निर्मला देवी अपने पति की सहायता के बिना पौसिला गांव नहीं पहुंच सकतीं और उनके पति गेहूं की कटाई में व्यस्त थे।
बढ़ते तापमान और लू के कारण भी आशा कार्यकत्रियों की कार्यक्षमता प्रभावित होती है। 6 मई को जब तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया तो म्योरपुर ब्लॉक के मकरा ग्राम पंचायत की 18 आशा कार्यकर्ताओं के काम की देखरेख करने वाली सुपरवाइजर (पर्यवेक्षक) प्रतिमा देवी ने दिन भर के काम के बाद तेज सिरदर्द की शिकायत की।
वह कहती हैं, “हर दूसरे दिन मुझे किसी आशा कार्यकत्री का फोन आता है और वे दस्त या सिरदर्द जैसी गर्मी से संबंधित बीमारियों की शिकायत करती हैं। लेकिन घर-घर जाना बहुत ही महत्वपूर्ण है और हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे क्षेत्र में मलेरिया से कोई मौत न हो।“सोनभद्र के वेक्टर जनित रोगों के सलाहकार शुभम सिंह कहते हैं, "हम मलेरिया के हॉटस्पॉट की पहचान गांव स्तर पर ही करते हैं, दूर-दूराज के इलाकों में नहीं क्योंकि हमारे पास सिर्फ़ एक वरिष्ठ फील्ड वर्कर है। ऐसे में वे घर इस निगरानी से छूट जाते हैं, जो गांव से दूर या पहाड़ियों में होते हैं।”
पौसिला के पास पचपीडिया प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के फार्मासिस्ट अशोक कुमार ने बताया कि खराब इंटरनेट कनेक्टिविटी भी सरकारी प्रक्रिया को बाधित करती है।
उन्होंने कहा, “सभी मलेरिया मामलों का डेटा, सरकार के एकीकृत रोग निगरानी प्लेटफ़ॉर्म पर अपलोड की जानी चाहिए, लेकिन क्षेत्र में खराब इंटरनेट एक्सेस के कारण एक मामले की जानकारी अपलोड करने में लगभग 15 मिनट लग जाते हैं। अगर मरीज़ों की संख्या ज़्यादा है तो यह एक अतिरिक्त बोझ बन जाता है।”
2018 और 2019 में देश के सभी मलेरिया मामलों का 20% हिस्सा भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में दर्ज किया गया, इसके बाद छत्तीसगढ़ (18.3%) का स्थान आता है। हालांकि इसमें भी मामला दर्ज करने में अनियमितिता की बात सामने आई।
जैसे 2020 में राज्य में 28,668 मामले दर्ज किए गए, लेकिन 2021 में यह संख्या घटकर 10,792 और 2022 में 7,039 हो गई। 2023 में मामले बढ़कर 13,603 हो गए, जो पिछले साल से 93.25% अधिक थे। इसके अलावा परीक्षण दरों में भी लगातार उतार-चढ़ाव दर्ज किया गया। 2017 में 2.01%, 2018 में 2.32% और 2021 में यह 1.8% था, जो फिर 2023 में 4.5% पर पहुंच गया।
मलेरिया नियंत्रण का मूल्यांकन करने वाला एक प्रमुख पैरामीटर API है, जो किसी क्षेत्र में प्रति 1,000 जनसंख्या पर मलेरिया के मामलों की संख्या को बताता है। एक से कम वाले API क्षेत्र को कम संचरण वाला क्षेत्र माना जाता है। 2015 में, उत्तर प्रदेश को श्रेणी-2 राज्य (API < 1 और कुछ जिलों में API > 1) के रूप में वर्गीकृत किया गया था। 2022 में यह श्रेणी 1 (सभी जिलों में API < 1) में परिवर्तित हो गया।
हालांकि PLOS ग्लोबल पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित एक शोध पत्र बताता है कि केवल उच्च और मध्यम संचरण जोखिम वाले क्षेत्रों में ही API पर भरोसा किया जा सकता है, जहां ABER और बुखार निगरानी मजबूत है। 2023 में राज्य में मलेरिया के लिए औसतन 5% से भी कम लोगों का परीक्षण किया गया। इसके कारण यह आंकड़ा मलेरिया के जोखिम की वास्तविकता को बहुत कम दिखाता है।हाशिए पर पड़े समुदायों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने पर केंद्रित एक गैर-सरकारी संगठन (NGO) ‘प्रयत्न’ के राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम प्रमुख अतुल कुमार बताते हैं, “उत्तर प्रदेश जैसी घनी आबादी वाले राज्य में मलेरिया अक्सर कुछ खास इलाकों में ही पाया जाता है। इसलिए किसी जिले या पूरे राज्य की आबादी के आधार पर गणना की गई API से मलेरिया की धुंधली तस्वीर ही सामने आ पाती है और इसके कारण इसके सरकारी रोकथाम उपाय भी सीमित हो जाते हैं।”
मलेरिया की भविष्यवाणी करने का एक अन्य मानक मच्छर घनत्व सूचकांक (MDI) है, जिसकी गणना किसी दिए गए क्षेत्र में पकड़े गए मच्छरों या उनके अंडों की संख्या से निर्धारित की जाती है। यह संख्या मौसम के अनुसार बदलती रहती है और मच्छरों की संख्या का अंदाजा देती है। MDI जितना अधिक होगा, मलेरिया का जोखिम उतना ही अधिक होता है।
धीमान ने कहा, "हमें MDI को मलेरिया प्रकोप से जोड़ने के लिए शोध की आवश्यकता है। अभी हमारी सरकारी योजनाएं केवल मामलों की संख्या पर आधारित हैं और किसी विशिष्ट क्षेत्र में मच्छरों की संख्या के आधार पर कोई रोकथाम रणनीति नहीं है।"
राज्य निगरानी अधिकारी विकासेंदु अग्रवाल इस बात से सहमत हैं। उन्होंने कहा कि MDI पर नजर रखने के लिए साल भर की गतिविधि की जरूरत होती है, लेकिन जब जिले में कुछ ही कीट विज्ञानी उपलब्ध हैं तो यह असंभव है।
उन्होंने बताया, "बरेली, बदायूं और पीलीभीत जैसे मलेरिया के अधिक मामले वाले जिलों में भी अप्रैल से अक्टूबर के बीच ही अधिक सावधानी बरता जाता है, वहीं सोनभद्र जैसे जिलों में ऐसा नियमित रूप से नहीं हो पाता है, जहां पर पिछले कुछ वर्षों में मलेरिया के मामले थोड़े कम हुए हैं।"
बार-बार प्रयास करने के बावजूद उत्तर प्रदेश की एकीकृत रोग निगरानी इकाई से मच्छर घनत्व सूचकांक से संबंधित कोई डेटा प्राप्त नहीं किया जा सका।
पिछले साल के जानलेवा प्रकोप के बाद अधिकारियों ने सोनभद्र में मलेरिया की निगरानी बढ़ा दी है। हालांकि मलेरिया नियंत्रण के लिए निगरानी से कहीं ज्यादा अन्य प्रयासों की ज़रूरत है। उदाहरण के लिए बरेली जिले में जांच से पता चला कि खराब निगरानी के अलावा, अत्यधिक बारिश, प्रयोगशालाओं की कमी और धीमी प्रतिक्रिया ने संक्रमण, बीमारी और मौत के जोखिमों को बढ़ा दिया है।
मलेरिया को हराने के लिए ‘वन हेल्थ अप्रोच’ जरूरी
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ‘वन हेल्थ अप्रोच’ के तहत स्वास्थ्य कार्यक्रमों, नीतियों, कानूनों और अनुसंधानों को इस तरीके से डिजाइन करने और लागू करने की बात करता है, जिसमें अलग-अलग क्षेत्र बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य परिणाम प्राप्त करने के लिए आपस में संवाद करें और एक साथ काम करें।
वन हेल्थ अप्रोच मलेरिया जैसे स्वास्थ्य खतरों से निपटने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और सोनभद्र इसका एक प्रमुख उदाहरण है। यह भारत का एकमात्र ऐसा जिला है, जो चार राज्यों (बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) की सीमा पर है। सिंह ने बताया कि सोनभद्र से सटे सभी जिले (बिहार का कैमूर व रोहतास, मध्य प्रदेश का सिंगरौली, झारखंड का गढ़वा और छत्तीसगढ़ का कोरिया व सरगुजा जिला) मलेरिया से बहुत ही अधिक प्रभावित हैं और इन जिलों से बहुत सारे लोग सोनभद्र के विद्युत पावर प्लांट और संबंधित फैक्ट्रियों में काम करने आते हैं।
जिला वेक्टर जनित रोग सलाहकार सिंह ने बताया, "हम एक अनोखी समस्या से जूझ रहे हैं। मलेरिया से प्रभावित सीमावर्ती राज्यों से हर दिन लगभग 12,000 लोग काम के लिए सोनभद्र में प्रवेश करते हैं। इस प्रवास पर नजर रखना मुश्किल है और यही से ही सोनभद्र में मलेरिया संक्रमण बढ़ने की संभावना सबसे अधिक है।"
उदाहरण के लिए, सविता देवी का गांव मध्य प्रदेश की सीमा से महज 11 किलोमीटर दूर है।
सिंह ने कहा, "प्रवासियों के लगातार आने-जाने से निगरानी करना बहुत ही चुनौतीपूर्ण हो जाता है। अगर किसी दिन कोई व्यक्ति मलेरिया से संक्रमित पाया जाता है और अगले दिन वह छत्तीसगढ़ चला जाता है, तो हमारी टीम मरीज के वापस आने तक उसका पता नहीं लगा पाएगी।"
मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम समीक्षा, 2022 में उच्च संक्रमण वाले जिलों से निम्न संक्रमण वाले जिलों में प्रवास को शोध का प्रमुख विषय बताया गया है। 2023-2027 के लिए भारत की मलेरिया उन्मूलन रणनीति में कहा गया है कि मलेरिया उन्मूलन और मलेरिया मुक्त स्थिति प्राप्त करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय, अंतर्राज्यीय और अंतर-जिला सीमाओं पर सीमा पार सहयोग की आवश्यकता होगी। हालांकि व्यवहार में ऐसा करना मुश्किल साबित हो रहा है।
अग्रवाल ने कहा, “व्यावहारिक रूप से स्वास्थ्य विभाग के लिए प्रवासी आबादी पर नजर रखना संभव नहीं है, हम पहले से ही अधिक काम के बोझ से दबे हुए हैं।”
प्रवासी मामले श्रम विभाग के अंतर्गत आते हैं, जबकि यह विभाग उन 13 अन्य विभागों की सूची में नहीं है, जिनके साथ राज्य का संचारी रोग विभाग मलेरिया सहित वेक्टर जनित रोगों से निपटने के लिए समन्वय और सहयोग करता है।
ये 13 विभाग हैं- स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग, महिला और बाल विकास विभाग, ग्रामीण विकास विभाग, पंचायती राज विभाग, शहरी विकास विभाग, चिकित्सा शिक्षा और प्रशिक्षण निदेशालय, बेसिक शिक्षा विभाग, माध्यमिक शिक्षा विभाग, कृषि विभाग, पशुपालन और डेयरी विभाग, विकलांग व्यक्तियों का सशक्तिकरण विभाग, पेयजल और स्वच्छता विभाग और सूचना विभाग।
सोनभद्र और उसके सीमा पार के पड़ोसी इलाकों में बारिश और तापमान के रुझान मिलते-जुलते हैं।
इस जिले का 36.79% भाग वन क्षेत्र मे आता है, जो मध्य प्रदेश के सिंगरौली (38.42%), बिहार के कैमूर (41.12%)और ।झारखंड के गढ़वा (34%) के समान है, जबकि यह छत्तीसगढ़ के कोरिया (62.03%) और सरगुजा (45.02%) से कम है। पारिस्थितिक समानता बताती है कि मलेरिया संचरण पैटर्न सीमाओं के पार भी समान हो सकते हैं। महामारी संबंधी सूचनाओं के आदान-प्रदान से इससे लड़ने की बेहतर तैयारी की जा सकती है।
सोनभद्र के नगवा ब्लॉक में सोन नदी के तट पर बसा बसुहारी गांव जिला मलेरिया विभाग द्वारा चिन्हित सबसे जोखिम वाला गांव है। इस नदी के पार झारखंड का गढ़वा जिला है, जो मलेरिया से अत्यंत प्रभावित जिला है।
सोनभद्र के जिला मलेरिया अधिकारी श्रीवास्तव ने कहा, "उनकी चुनौतियां हमारी तरह ही हो सकती हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि वे अपने जिले में मलेरिया के मामलों को कैसे नियंत्रित कर रहे हैं। लेकिन जिला स्तर पर हम किसी भी सीमा-पार सहयोग के बारे में अनुरोध नहीं कर सकते हैं।"
NCVBDC से RTI के जवाब से पता चला है कि पिछले साल गढ़वा में मलेरिया के 176 मामले दर्ज किए गए थे और API 0.1 था, वहीं सोनभद्र में ऐसे 300 मामले दर्ज किए गए, जहां API 0.14 था। हालांकि गढ़वा में 100 लोगों में से लगभग 14 (ABER 13.55%) का परीक्षण किया गया, जबकि सोनभद्र का परीक्षण आंकड़ा लगभग 100 लोगों में से 8 (ABER 8.17%) था।
धीमान ने कहा, "मलेरिया संचरण में कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती है, इसलिए विभिन्न क्षेत्रों के साथ-साथ राज्यों का सहयोग महत्वपूर्ण हो जाता है। नीति और राष्ट्रीय उन्मूलन कार्यक्रम के दिशा-निर्देशों के अंतर्गत चीजें अच्छी स्थिति में हैं, हमें केवल उचित कार्यान्वयन सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।"जलवायु डेटा मीट्रिक
राजीब चट्टोपाध्याय पुणे स्थित भारतीय मौसम विभाग (IMD) में वरिष्ठ वैज्ञानिक और जलवायु अनुप्रयोग व उपयोगकर्ता इंटरफ़ेस टीम के प्रमुख हैं। वह जलवायु और स्वास्थ्य के बीच संबंधों का भी अध्ययन करते हैं। उन्होंने बताया कि जलवायु परिवर्तन मलेरिया के संक्रमण को अधिक प्रभावित क्षेत्रों से गैर या कम प्रभावित क्षेत्रों में धकेल सकता है।
उन्होंने कहा कि इस संबंध में जलवायु डेटा और मलेरिया से संबंधित स्वास्थ्य डेटा से पैटर्न की तलाश करना महत्वपूर्ण हो सकता है। मौसम विज्ञान विभाग निश्चित रूप से इसमें मदद कर सकता है, लेकिन यह राज्य के संचारी रोग विभाग के 13 सरकारी भागीदारों में सूचीबद्ध नहीं है। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन विभाग भी इस सूची से अनुपस्थित हैं।
चट्टोपाध्याय कहते हैं, "अनियमित भारी वर्षा और गर्म तापमान के दौरान यह परीक्षण महत्वपूर्ण है। हमें मलेरिया जैसी बीमारियों से निपटने के लिए अधिक स्थानीय प्रयासों की जरूरत है, क्योंकि मलेरिया का वेक्टर, जलवायु सहित स्थानीय कारकों पर प्रतिक्रिया करता है। जलवायु परिवर्तन को दरकिनार करना और उसके प्रभावों की कम निगरानी 2030 के राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन लक्ष्य को पटरी से उतार सकती है।"
IMD, पुणे वैश्विक पूर्वानुमान प्रणाली के आधार पर मलेरिया की संक्रमण अवधि के विस्तार के मुद्दे पर हर सप्ताह साप्ताहिक बुलेटिन जारी करता है। इस परियोजना के प्रमुख चट्टोपाध्याय ने कहा, "यह मलेरिया की बेहतर निगरानी के लिए सहायक हो सकता है और राज्यों को पहले से और बेहतर योजना बनाने में मदद कर सकता है।" हालांकि उन्होंने कहा कि इसे और बेहतर व सटीक बनाने के लिए आवश्यक स्वास्थ्य डेटा की कमी है।
सहयोग कैसे सहायक हो सकता है: ओडिशा से एक केस स्टडी
ओडिशा में स्वास्थ्य मॉडलिंग और जलवायु समाधान संस्थान (IMACS) के निदेशक कौशिक सरकार की अध्यक्षता में शोधकर्ताओं और सार्वजनिक स्वास्थ्य पेशेवरों की एक टीम ने मलेरिया के लिए जलवायु स्मार्ट स्वास्थ्य प्रणाली शुरू करने के लिए एक बहुक्षेत्रीय व बहुविषयक शोध योजना शुरू की। इस परियोजना को रीचिंग द लास्ट माइल द्वारा वित्त पोषित किया गया था।
सरकार की टीम ने दक्षिणी ओडिशा में मलेरिया से प्रभावित दो सबसे चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों- कोरापुट और मलकानगिरी में बुखार उपचार डिपो का संचालन किया। उन्होंने इसके लिए कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का भी सहयोग लिया।
उनकी टीम ने तापमान, मिट्टी, वनस्पति सूचकांक, भूमि उपयोग, चरम मौसम की घटनाओं के प्रकार व संख्या, वन क्षेत्र, आर्द्रता और वर्षा सहित लगभग 130 पारिस्थितिक कारकों को एकत्रित करने के लिए AI और बिग डेटा सिस्टम का उपयोग किया और अध्ययन किया कि इन कारकों ने उन जिलों में बुखार और मलेरिया की घटना को कैसे प्रभावित किया है। ओडिशा सरकार और IMD के समर्थन के साथ-साथ धीमान और चट्टोपाध्याय दोनों के वैज्ञानिक इनपुट के साथ यह परियोजना सफल रही, जो IMACS’ के वैश्विक विशेषज्ञ नेटवर्क का हिस्सा हैं।
अन्य पूर्व चेतावनी प्रणालियां केवल यह भविष्यवाणी करती थीं कि कोई क्षेत्र मलेरिया-प्रवण है या नहीं, सरकार का मॉडल संबंधित क्षेत्र में मामलों की अनुमानित संख्या का भी पूर्वानुमान करता था।
सरकार ने कहा, "इसका उद्देश्य मलेरिया के मामलों में वृद्धि या कमी का पूर्वानुमान लगाना और प्रकोप-ग्रस्त क्षेत्रों की पहचान संक्रमण शुरू होने से पहले करना था, न कि संक्रमण शुरू होने के बाद। इसका उद्देश्य स्वास्थ्य विभाग के लक्ष्य-आधारित दृष्टिकोण और निगरानी को सुविधाजनक बनाना था।"
इस जलवायु-आधारित मलेरिया भविष्यवाणी मॉडल की सटीकता 94% थी, जिसमें त्रुटि सीमा +-6% थी। यानी, यदि मॉडल ने किसी निश्चित समय में किसी विशिष्ट उप-केंद्र के लिए 100 मामलों की भविष्यवाणी की, तो उस उप-केंद्र में मलेरिया के वास्तविक मामले 94 से 106 के बीच होने थे।
सरकार ने बताया, "जिन उप-केंद्रों में यह मॉडल लागू किया गया था, वहां इस लक्षित दृष्टिकोण के कारण मलेरिया के मामलों में 70-80% की सापेक्ष गिरावट देखी गई। इन क्षेत्रों में नियमित सरकारी सहायता उन स्थानों तक पहुंची, जहां उनकी जरूरत थी और इन प्रयासों में स्थानीय समुदायों को भी सार्थक रूप से शामिल किया गया। यदि हम लक्षित दृष्टिकोण अपनाते हैं तो कल्पना करें कि हम कितने सफल हो सकते हैं और सरकार कितने संसाधन बचा सकती है।"
सही जगह चोट करना
उत्तर प्रदेश को मलेरिया से लड़ने के लिए जलवायु स्मार्ट स्वास्थ्य प्रणाली को विकसित करना अभी बाकी है, लेकिन राज्य में मलेरिया के मामले पिछले कुछ सालों में ऐतिहासिक रूप से कम हुए हैं। विकासेंदु अग्रवाल इसका श्रेय जन जागरूकता अभियानों, कड़ी निगरानी और मामले को फॉलो-अप करते रहने की रणनीति को देते हैं।
दक्षिण पूर्व एशिया के छह अन्य मलेरिया प्रभावित देशों की तरह भारत ने 2015 से 2022 के बीच में मलेरिया के मामलों में 55% से अधिक की कमी की है। हालांकि दक्षिण पूर्व एशिया से मलेरिया के सर्वाधिक 66% मामले भारत से ही आते हैं। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में मलेरिया का अब कोई विशेष सीजन नहीं रह गया है, इसलिए सरकार को चाहिए कि वे गैर-पारंपरिक महीनों के दौरान भी टेस्ट करते रहें, नहीं तो मलेरिया से लड़ने का अभियान पटरी से उतर सकता है।
धीमान कहते हैं, "देश में मलेरिया से लड़ने के लिए बेहतरीन निदान उपकरण, उपचार, इनडोर स्प्रे और लंबे समय तक चलने वाले मच्छरदानी के रूप में लगभग सभी उपाय उपलब्ध हैं। हालांकि हमें अभी भी कार्यान्वयन में सुधार करने की जरूरत है। हम जो कुछ भी उपाय कर रहे हैं, वह मच्छरों के व्यवहार और उनके संचरण गतिशीलता के ठोस ज्ञान पर आधारित ही होना चाहिए।"
उन्होंने आगे कहा कि IMACS जैसे वन हेल्थ मॉडल को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए स्वास्थ्य शिक्षा के साथ-साथ स्वास्थ्य सेवाओं तक बेहतर पहुंच की जरूरत है। आशा कार्यकर्ता गांवों का दौरा करती हैं और लोगों को मानसून से पहले और बाद के मौसम में मलेरिया के बारे में शिक्षित करती हैं।
हालांकि इन चुनौतियों के अलावा एक और प्रमुख चुनौती मलेरिया के मामलों में आम लोगों द्वारा पारंपरिक चिकित्सकों पर विश्वास है, जिससे लड़ना सरकार के लिए बहुत मुश्किल है।
जब सविता के बच्चे बीमार पड़ गए, तो वह उन्हें बचाने के लिए एक ओझा के पास ले गई। जब तक वह उन्हें चोपन के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले जातीं, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
मकरा गांव में अंकुश की मां अब भी मानती है कि यह परिवार की बड़ी बहू का काला जादू था, जिसने उनके बेटे के साथ-साथ उनकी नंद और उनके दो भांजों को भी छीन लिया। उनके लिए सात दिनों के अंतराल में परिवार के चार लोगों की मौत का बस यही कारण है।
प्रयत्न नामक संस्था के राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम प्रमुख अतुल कुमार ने कहा, "किसी भी तरह के हस्तक्षेप से पहले हमें स्थानीय लोगों की स्थिति के बारे में पूर्ण जानकारी होनी चाहिए।"
सोनभद्र में भी जब इस रिपोर्टर ने झोलाछाप डॉक्टरों पर उनके विश्वास के बारे में पूछा तो लोगों ने अपने अनुभवों को साझा करने से परहेज किया। इस क्षेत्र में आम लोगों को झोलाछाप या बिना लाइसेंस वाले डॉक्टरों पर भरोसा है। कुमार बताते हैं कि ‘झोला’ मतलब उपचारों और दवाईयों का थैला है, जिसे चिकित्सक हमेशा अपने साथ रखता है, वहीं ‘छाप’ मतलब वह विश्वास है, जो ग्रामीण उस स्थानीय चिकित्सक पर दिखाते हैं और उनको लगता है कि वह उनकी बीमारियों को निश्चित रूप से ठीक कर देंगे।
कुमार आगे कहते हैं, "जब आप इन समुदायों को झोलाछाप डॉक्टरों पर भरोसा न करने के लिए कहते हैं, तो आप वास्तव में उन्हें अपने समुदाय के ही किसी ऐसे व्यक्ति पर भरोसा न करने के लिए कह रहे होते हैं।"
प्रयत्न संस्था ने झोलाछाप डॉक्टरों को भी मलेरिया से लड़ने के अपने अभियान में शामिल किया है और उनका काम मलेरिया के मामलों को संस्था के सामने रिपोर्ट करना है। कुमार ने बताया कि समुदाय-समावेशी दृष्टिकोण अपनाने से समुदाय का संस्था के प्रति विश्वास बढ़ा है और मलेरिया के मामलों के संज्ञान में आने की संख्या भी बढ़ी है। इससे जमीनी स्तर पर राष्ट्रीय दिशा-निर्देशों और मानकों के अनुसार देखभाल की गुणवत्ता भी सुनिश्चित हो रही है।
इन सबसे बेखबर सविता देवी ने अपने जीवन का बहुत कुछ खो दिया है। वह अपनी शामें अपने मृत बेटे चंदन द्वारा लगाए गए आम के पेड़ को देखते हुए बिताती हैं। इस दुख के कारण वह अपने अन्य दुखों से बेखबर हैं; जिनमें उनकी जमीन का गिरवी होना, 50,000 रुपये का कर्ज होना और अपने पति राजू से अलग होना शामिल है, जो परिवार द्वारा लिए गए कर्ज को चुकाने के लिए अब गुजरात में मजदूरी करते हैं।
यह सीरीज यहां समाप्त होती है, आप इसके पहले भाग को यहां पढ़ सकते हैं।
अनुवाद- सागर
यह रिपोर्ट अर्थ जर्नलिज्म नेटवर्क के सहयोग से की गई है।