भारत में इस साल के अप्रैल-मई महीने में कोरोना की दूसरी लहर आई। इस दौरान कोरोना संक्रमण रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन के आर्थिक प्रभावों के आंकड़े धीरे-धीरे सामने आने लगे हैं। बार्कलेज बैंक का कहना है कि मई महीने के हर हफ़्ते में भारत को $8 मिलियन यानी लगभग 60 हजार करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ। बार्कलेज के मुताबिक, यह नुकसान लगभग $117 बिलियन यानी 8.5 लाख करोड़ रुपयों तक जा सकता है, जो कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 3.75% है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के मुताबिक, भारत में बेरोजगारी का आंकड़ा दहाई के अंकों तक पहुंच चुका है और 23 मई को खत्म हुए हफ़्ते में यह आंकड़ा 14.73 प्रतिशत तक पहुंच गया। शहरी भारत में बेरोजगारी 17% और ग्रामीण भारत में बेरोजगारी 14% आंकी गई है। बेरोजगारी के ऐसे आंकड़ों की मुख्य वजह जानने के लिए, हमने सीएमआईई के सीईओ महेश व्यास से बात की


सम्पादित अंश:

सवाल: बेरोजगारी के इन आंकड़ों के क्या मायने हैं, खासकर पिछले एक साल के संदर्भ में इन आंकड़ों के बारे में हमें समझाएं।

महेश व्यास: अगर हम पिछले एक साल के आंकड़े देखें, तो समझ आता है कि अप्रैल और मई 2020 की तुलना में श्रम बाजार में सुधार हुआ है। पिछले साल अप्रैल-मई में लोगों के श्रम भागीदारी की दर (लेबर पार्टिसिपेशन रेट) तेजी से घटी और बेरोजगारी की दर नाटकीय ढंग से बढ़ गई, जिसके चलते तनाव का माहौल पैदा हुआ। उस समय बहुत सारे लोगों की नौकरियां गईं। उसके बाद, कुछ हद तक सुधार हुआ। पहले मई और फिर जून और जुलाई में बेरोजगारी की दर धीरे-धीरे घटने लगी थी। सीएमआईई के मुताबिक, सितंबर 2020 में सुधार की प्रक्रिया स्थिर होने लगी। उसके बाद, आंकड़े फिर से खराब होने लगे। दिसंबर महीने में थोड़ा सुधार हुआ, लेकिन जनवरी से फिर से गिरावट शुरू हो गई। जनवरी 2021 से मार्च 2021 का समय भी अच्छा नहीं रहा और बेरोजगारी की दर फिर से बढ़ने लगी और श्रम भागीदारी की दर कम होने लगी। हम लोग कह रहे थे कि हालात में पूरी तरह सुधार हो पाता कि इससे पहले सुधार की रफ़्तार पूरी तरह से रुक गयी और ठीक इसी समय भारत में कोरोना की दूसरी लहर ने दस्तक दे दी।

हमने अप्रैल 2021 में देखा कि बेरोजगारी दर 8% तक पहुंच गई और श्रम भागीदारी दर 40% पर स्थिर हो गई। बाकी चीज़ें भी बिगड़ने लगी थीं और जल्द ही मई में हमने देखा कि हालात और बुरे होने लगे। मई में बेरोजगारी दर बढ़कर 14.5% हो गई और 23 मई को खत्म हुए हफ़्ते में यह दर 14.7% पहुंच गई। हमारे पास, 30 दिन का गतिशील औसत (मूविंग एवरेज) भी है। साप्ताहिक आंकड़े बताते ही हैं कि उस हफ़्ते में कैसे हालात बने। हालांकि, जब हम 30 दिन के गतिशील औसत को देखते हैं, तो हमें और साफ तस्वीर और ज्यादा भरोसेमंद आंकड़े दिखते हैं जो बताते हैं कि ये आंकड़े 13% तक पहुंच गए थे। इसका मतलब है कि हम बेरोजगारी के बढ़ते आंकड़ों और स्थिर होती श्रम भागीदारी की दर को अच्छी तरह से समझ रहे थे।

सवाल: अगर हम नौकरियों की संख्या के बारे में जानना चाहें तो ये आंकड़े क्या बताते हैं? पिछले लॉकडाउन में लगभग 10 करोड़ लोगों की नौकरियां चली गईं और बाद में ज़्यादातर लोगों को नौकरियां वापस मिल गईं और वे काम पर लौट आए। अब, एक बार फिर से लोगों की नौकरियां गई हैं। कौनसे ऐसे लोग हैं जिनकी नौकरियां गईं और किस क्षेत्र के लोगों को उनकी नौकरियां वापस मिल गईं? दूसरी चीज, इस तरह लोगों की नौकरियां जाने से उन्हें किस तरह के आर्थिक नुकसान होते हैं या इससे प्रभावित होने वाले लोग बार-बार श्रम बल से बाहर होने और उसमें फिर से शामिल होने के आदी हो चुके हैं?

महेश व्यास: मैं आपको विस्तार से बताता हूं। जब अप्रैल 2020 में भारत कोरोना महामारी से प्रभावित हुआ, तो लगभग 12.6 करोड़ लोगों की नौकरियां गईं। यह संख्या बहुत बड़ी है। इसमें लगभग 9 करोड़ लोग ऐसे थे जो दिहाड़ी मजदूर थे। दिहाड़ी मजदूर वे लोग होते हैं जो रोज काम की तलाश में निकलते हैं या किसी लेबर चौक पर इकट्ठा होते हैं या किसी निर्माणाधीन बिल्डिंग में काम करने की तलाश में जाते हैं या फेरी लगाकर या ठेला लगाकर कोई सामान बेचते हैं। जब पूरे देश में लॉकडाउन लागू हुआ, तो लगभग सभी दिहाड़ी मजदूरों की कमाई का स्रोत बंद हो गया या उनका रोजगार छिन गया। हालांकि, जैसे ही अर्थव्यवस्था दोबारा खुली, ये दिहाड़ी मजदूर उन्हीं इमारतों के निर्माण के लिए लौटे, अपने ठेले या खोमचे लेकर लौटे, कोई प्लंबर तो कोई मिस्त्री का काम करने के लिए लौट आया। इमारतों का निर्माण फिर से शुरू हो गया और लोगों को फिर से काम मिलने लगा। इससे आप समझ सकते हैं कि दिहाड़ी मजदूर आसानी से लौट सकते हैं और काम भी पा सकते हैं। हालांकि, लॉकडाउन के बाद लौटने पर यह हुआ कि उनकी कमाई कम हो गई। अब यह होने लगा कि काम वे अब भी वही कर रहे थे, लेकिन पैसा कम मिलने लगा। साथ ही, यह भी हुआ कि अब काम भी कम मिलने लगा। नौकरी गंवाने वाले सभी 12.6 करोड़ लोग दोबारा काम पर लौटे भी नहीं। जो लौटे उसमें से भी कुछ ऐसे रह गए जिन्हें काम नहीं मिल पाया। सीएमआईई के डेटा को लेकर ही अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के अमित भोंसले, रोसा इब्राहिम और उनकी टीम ने रिसर्च की। इस रिसर्च में सामने आया कि जिन लोगों के पास औपचारिक नौकरियां (फॉर्मल जॉब) थीं और लौटने पर उन्हें फिर से काम मिला उनमें से ज्यादातर लोग ऐसे थे जिन्हें औपचारिक की बजाय अनौपचारिक नौकरियां (इनफॉर्मल जॉब) ही मिल पाईं। इसका मतलब यह हुआ कि कोरोना महामारी की पहली लहर के बाद या महामारी के बाद की पहली तिमाही में नौकरियों के क्षेत्र में अनौपचारिकता बढ़ गई।

इसके अलावा, आज हम जो कुछ भी देख रहे हैं उसकी ओर सीएमआईई लंबे समय से इशारा कर रहा है कि सैलरी वाली नौकरियों में लगातार स्थायी गिरावट देखी जा रही है और इसमें कोई सुधार नहीं हो रहा है। कोरोना महामारी के आने से पहले भारत में 40.35 करोड़ नौकरियां थीं। दिसंबर 2020 से जनवरी 2021 के बीच फिर से (सबसे अच्छे स्तर पर) 40 करोड़ तक नौकरियां पहुंच पाईं। मतलब सबसे अच्छे स्तर पर पहुंचने के बावजूद 35 लाख नौकरियां कम पड़ गईं। आज नौकरियों की संख्या 39 करोड़ रह गई है। इसका मतलब है कि अब हालात और बुरे हैं। नौकरी गंवाने वाले हर व्यक्ति को नौकरी वापस नहीं मिल पाई है। जिन लोगों को नौकरियां वापस मिली भी हैं उनमें भी ज्यादातर लोगों को उस स्तर की नौकरियां नहीं मिल पाईं जिन पर वे कोरोना काल से पहले काम कर रहे थे। इसके अलावा, सैलरी वाली नौकरियों की संख्या अब भी तेजी से घटती जा रही है।

सवाल: अगर हम इस 39 करोड़ नौकरियों वाले आंकड़े की बात करें, तो इसमें सैलरी वाली नौकरियों की संख्या कितनी है?

महेश व्यास: कोरोना महामारी आने से पहले सैलरी वाली नौकरियों की संख्या 8.5 करोड़ थी। अब इस 39 करोड़ में सैलरी वाली नौकरियों की संख्या 7.3 से 7.4 करोड़ के बीच रह गई है।

सवाल: नौकरियां गंवाने से परिवारों पर क्या असर पड़ता है? जैसा कि आपने कहा कि बहुत सारे लोग इस बात के आदी होते हैं कि वह काम छोड़ते हैं और नया काम पकड़ते हैं, इस तरह वह श्रम बल से अंदर और बाहर होते रहते हैं लेकिन, इनके अलावा बाकी लोगों को कुछ समय या लंबे समय के लिए नुकसान उठाना पड़ेगा। साथ ही, उन्हें स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं और खर्चों से भी जूझना होगा। किसी भी अर्थव्यवस्था और उसमें शामिल लोगों की सेहत पर इसका किस तरह असर पड़ेगा?

महेश व्यास: लोगों को हुए नुकसान के बारे में समझने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम यह देखें कि लोग अपनी कमाई के बारे में क्या बता रहे हैं। नौकरियां भले ही मिल रही हैं, लेकिन सैलरी वाले बहुत सारे लोगों की नौकरियां गई हैं और अभी भी जा रही हैं। अनौपचारिक नौकरियों में हो रही इस बढ़ोतरी का मतलब है कि लोगों की बचत और रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले फ़ायदों पर असर पड़ेगा। लोगों के काम करने की पूरी उम्र के दौरान काम मिलने की संभावना पर भी असर पड़ रहा है। गिग अर्थव्यवस्था, संविदा की नौकरियों और अनौपचारिक नौकरियों में बढ़ोतरी अच्छे संकेतों में शामिल नहीं है। यहां तक कि अब कानून भी ऐसी चीजों को बढ़ावा दे रहा है जो कि किसी भी तरह से ठीक नहीं है। संविदा श्रमिक, गिग श्रम, अनौपचारिक श्रम की वजह से खतरा और बढ़ता जा रहा है। किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए ज़रूरी है कि जब हम युवा हों तो अपने बुढ़ापे के समय या मुश्किल समय के लिए बचत करके रख सकें। मुश्किल समय वह है जब हम बूढ़े हो जाएं और काम न कर सकें। अगर हम सिर्फ उस समय के लिए कमा रहे हों जब हमारे पास कोई काम नहीं होगा, तब हम अपने रिटायरमेंट प्लान के लिए कोई बचत नहीं कर सकते। इसलिए, गिग अर्थव्यवस्था, संविदा श्रम और अनौपचारिकता की वजह से हमारे पास हमारे बुढ़ापे के समय के लिए बचत कम होगी। मेरी समझ से इससे बहुत बड़ी समस्या हो रही है।

मैं एक बात और जोड़ता हूं। जब हमने अपने सर्वे में लोगों से यह पूछा कि उनकी आज की कमाई एक साल पहले की कमाई की तुलना में कैसी है, तो मात्र 3% लोगों ने यह कहा कि उनकी कमाई पिछले साल की कमाई की तुलना में बेहतर हुई है। लगभग 55% लोगों ने यह कहा कि पिछले साल की तुलना में उनकी कमाई कम हुई है और बाकी के लोगों ने यह कहा कि इस साल उनकी कमाई का हाल बहुत बुरा है। इसका मतलब यह हुआ कि अगर आप महंगाई की गणना करेंगे तो यह पाएंगे कि एक साल पहले लोगों की कमाई की तुलना में भारत के 97% से ज़्यादा लोग गरीब हुए हैं। यह एक सबसे बड़ा नुकसानदायक कारक है। यह एक सवाल भी उठाता है कि आखिर हम इस स्थिति से कैसे उबर सकेंगे?

सवाल: आपकी राय में डेटा में किस तरह का अंतर है और आप इसमें किस तरह की चुनौतियां देख रहे हैं? भले ही आप प्राथमिक सर्वे करते हैं, आप की राय में कौन सा डेटा ऐसा हो सकता है जिसकी मदद से हम आज के अपने आर्थिक और सामाजिक संदर्भ को और बेहतर ढंग से समझ सकें?

महेश व्यास: फ़िलहाल, हम अपनी ओर से पूरी कोशिश कर रहे हैं। सीएमआईई लंबे समय से रोजगार-बेरोजगारी के आंकड़ों का अध्ययन कर रहा है। हमारे पास लोगों की आय के आंकड़े मौजूद हैं। हम पहले आय के आंकड़े बताएंगे, फिर खर्च के आंकड़े बताएं और फिर गरीबी का अनुमान भी साझा करेंगे। मुझे लगता है कि सीएमआईई के पास लोगों और उनके घर की आर्थिक स्थिति के बारे में पर्याप्त जानकारी और समझ है और आने वाले समय में हम इस बारे में आंकड़े पेश करेंगे।

हालांकि, मुझे लगता है कि हमारे देश में उद्योगों के ऐसे सर्वे किए जाने की ज़रूरत है जो बेहतर तरीके से किए जाएं और लगातार किए जाएं। श्रम मंत्रालय ऐसे सर्वे करने की कोशिश कर रहा है, लेकिन हमें यह जानने की ज़रूरत है कि कंपनियां हमें क्या बता रही हैं। हम उनकी बैलेंसशीट से यह जान पाते हैं कि वे क्या कर रही हैं। हम ये तो जानते हैं कि कोरोना महामारी के दौरान जब कंपनियों के फ़ायदे तेजी से बढ़ रहे थे, दोगुने हो रहे थे या दोगुने से भी ज़्यादा हो रहे थे तब काम करने वाले लोगों के वेतन में मुश्किल से 4 से 5% की बढ़ोतरी हो पाई, लेकिन हम यह नहीं जानते कि इस दौरान कंपनियां क्या कर रही हैं। हमें यह जानने की ज़रूरत है कि वे क्या कर रही हैं। जब तक कंपनियां उत्साह और आशा नहीं दिखातीं, वे निवेश के लिए तैयार नहीं होतीं, तब तक मुझे लगता है कि सुधार की गुंजाइश बहुत कम है। हमारे पास निवेश को समझने के आंकड़े भी मौजूद हैं और उसे देखकर हम कह सकते हैं कि निवेश का हाल बहुत बुरा है।

सवाल: पिछले साल भारत में रोजगार और बेरोजगारी के आंकड़ों में जबरदस्त बदलाव देखने को मिले। क्या आपके वर्तमान अध्ययन में ऐसी कुछ बातें हैं जिससे हमें यह पता चल सके कि ऐसी वापसी फिर से हो सकती है, भले ही उतनी मजबूत वापसी न हो लेकिन कुछ हद तक ही वापसी हो सके

महेश व्यास: इस बार मामला कुछ अलग है। मुझे पिछली बार की तुलना में इस बार ज़्यादा चिंता हो रही है। पिछली बार गिरावट काफी ज्यादा थी, आप कह सकते हैं कि यह गिरावट पहाड़ की चोटी से एकदम गर्त में गिरने जैसी थी। हालांकि, बहुत जल्द ही वापसी भी हुई क्योंकि लॉकडाउन होने या न होने से फ़र्क पड़ता है। एक बार लॉकडाउन खत्म होता है, तो तेज उछाल वाला सुधार होता है। हालांकि, श्रम बाजार समेत कई अन्य सूचकांक इस बार अभी भी गिरावट ही दर्शा रहे हैं। कल्पना कीजिए कि ऐसे हालात में महामारी आ गई, आंकड़ों में तेज गिरावट हुई और गिरावट बनी रही। हम इससे उबर नहीं पाए और गिरावट बढ़ती गई।

मैं इसे एक तरह से अर्थव्यवस्था का लक्षण बनते हुए देख रहा हूं, क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था में ऐसी ताकतें नहीं दिखाई दे रही हैं, जो हमें इस मुश्किल से उबार सकें। क्या आम लोग और उनके परिवार खुद से कुछ कर सकते हैं? ऐसा होना मुश्किल ही दिखता है, क्योंकि उनकी कमाई पर असर पड़ा है और वे कर्जदार होते गए हैं। अमीर लोगों में से कुछ लोग अपने पैसे इक्विटी मार्केट में लगा रहे हैं। वे लोग भी अपने पैसे वास्तविक क्षमता के विकास में नहीं लगा रहे हैं। जब तक वास्तविक क्षमता के विकास के सहारे किसी निवेश को मजबूती नहीं मिलती, तब तक कोई भी निवेश बाजार कैसे खुद-ब-खुद फलता-फूलता रहेगा? इसलिए यह तो तय है कि लोग खुद से कुछ नहीं कर सकते। कंपनियां कुछ भी नहीं करना नहीं चाह रही हैं, क्योंकि वे अपनी क्षमता का सिर्फ 66% ही इस्तेमाल कर पा रही हैं। उनके पास बहुत क्षमता है, लेकिन वे उसे इस्तेमाल नहीं कर पा रही हैं। ऐसे में वे भी अर्थव्यवस्था के सुधार में योगदान नहीं दे सकतीं। अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए सरकार कुछ करना नहीं चाह रही है।

ऐसे में जब सरकार कुछ करना नहीं चाह रही, तो व्यावसायिक क्षेत्र (कारपोरेट सेक्टर) के पास अर्थव्यस्था के सुधार के लिए कुछ करने का कोई कारण ही नहीं है। जब सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग गंभीर समस्या से गुजर रहे हैं और आम लोग नौकरियां और कमाई कम होने से परेशान हैं तो इस हालात में क्या सुधार हो सकता है? मुझे लगता है कि अगर सरकार कुछ नहीं करती है, तो हम और भी गंभीर समस्या झेलने वाले हैं।

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