बेंगलुरु: पी.एस. विजयशंकर धारणीय खेती और जल संसाधन प्रबंधन के विशेषज्ञ हैं। वह कहते हैं कि1960 के दशक में भारत की हरित क्रांति द्वारा लाई गई उत्पादन-केंद्रित कृषि, उच्च उपज वाले बीजों, उर्वरकों और भूजल के अत्याधिक उपयोग से भारत को 1970 के दशक तक खाद्य आत्मनिर्भरता हासिल करने में मदद तो मिली, लेकिन इसने मृदा स्वास्थ्य, भूजल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का काफी नुकसान भी किया। भारत को अब कृषि के लिए एक पारिस्थितिकी-केंद्रित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। इस तरह की खेती कृषि उत्पादन पारिस्थितिकी तंत्र के संसाधनों प्रयोग करता है और यह भी समझता है कि इन संसाधनों के उपलब्धता की एक सीमा है।

विजयशंकर ने हमसे औद्योगिक कृषि, धारणीय कृषि नीति और इसके प्रभावों के बारे में बातचीत की। साथ ही उन्होंने स्थायी प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन की अनिवार्यता के बारे में भी काफी कुछ साधा किया।

विजयशंकर ने कहा कि भले ही केंद्र सरकार गैर-रासायनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए कई नीतियों और योजनाओं की घोषणा की है। लेकिन अक्तूबर 2022 में व्यावसायिक उपयोग के लिए शाकनाशी-सहिष्णु(हर्बीसाइड टोलरेंट) , आनुवंशिक रूप से संशोधित सरसों (जीएम सरसों) के लिए मंजूरी देने के निर्णय से सरकार के दृष्टिकोण में भ्रम का पता चलता है। एक बात यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट वर्तमान में बीजों को जारी करने के खिलाफ दायर की गई याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है।

विजयशंकर ने यह भी कहा कि जैसा कि भारत रसायन मुक्त और धारणीय कृषि पद्धतियों में एक आदर्श बदलाव लाने का प्रयास कर रहा है। ऐसे में प्राकृतिक खेती के लिए पर्याप्त अनुसंधान, प्रशासनिक और वित्तीय सहायता सुनिश्चित करना चाहिए। साथ ही हरित क्रांति के सुसंगत दृष्टिकोण से सबक भी लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि श्रीलंका में हाल के कृषि संकट से सीखते हुए भारत में इस परिवर्तन के लिए काफ़ी ध्यानपूर्वक रणनीति तैयार करना चाहिए, क्योंकि रासायनिक उर्वरकों पर अचानक रोक लगाने से उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है, साथ ही इससे किसानों की आय भी काफी प्रभावित हो सकती है।

विजयशंकर 30 से अधिक वर्षों से आदिवासी समुदायों के बीच रह रहे हैं और काम कर रहे हैं। इसके अलावा वह समाज प्रगति सहयोग (एसपीएस) के सह-संस्थापक हैं, जो एक नागरिक समाज संगठन है। यह मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में पानी, धारणीय कृषि और आजीविका पर काम करता है। विजयशंकर ग्रामीण विकास मंत्रालय के एकीकृत वाटरशेड प्रबंधन कार्यक्रम (2009-14) और मध्य प्रदेश की राज्य जल नीति (2019) के निर्माण के लिए विशेषज्ञ समूह सहित कई सरकारी विशेषज्ञ समूहों के सदस्य थे। वह नेचर पॉजिटिव फार्मिंग एंड होलसम फूड्स फाउंडेशन (N+3F) के संस्थापक निदेशक भी हैं, जो बेंगलुरु स्थित एक गैर-लाभकारी संगठन है। यह धारणीय कृषि को बढ़ावा देता है।

संपादित अंश:

आपने कृषि की जलवायु भेद्यता के प्रबंधन करने के लिए कृषि नीतियों को लचीला बनाने के बारे में लिखा है। साथ ही आपने भारत को हरित क्रांति के उत्पादन-केंद्रित दृष्टिकोण से कृषि के पारिस्थितिकी तंत्र-केंद्रित दृष्टिकोण की ओर बढ़ने की आवश्यकता के बारे में लिखा है। क्या आप इस बारे में विस्तृत जानकारी दे सकते हैं?

आजादी से कुछ दशक पहले कृषि की विकास दर कम थी। स्वतंत्रता के समय पश्चिम में मुख्य खाद्य उत्पादक क्षेत्र (विभाजन के कारण) खो गए थे और खाद्य सुरक्षा एक प्राथमिक चिंता बन गई थी। 1940 के दशक की शुरुआत में बंगाल में अकाल पड़ा था। (इसके कारण) भारत ने खाद्य सुरक्षा पर ध्यान देने के साथ उत्पादन-केंद्रित दृष्टिकोण शुरू किया।

बड़े बांधों का निर्माण किया गया। कृषि की जाने वाली क्षेत्र 118 मिलियन एकड़ (1950 में) से बढ़कर 1970 में 140 मिलियन एकड़ हो गया और यह तब से स्थिर है। 1950 और 1960 के बीच भारत के खाद्य उत्पादन में 30% से अधिक की वृद्धि हुई। लेकिन 1960 के दशक के मध्य में बाद की घटनाओं (लगातार दो युद्ध और एक के बाद एक सूखे) ने हरित क्रांति को जन्म दिया, जिसने खाद्य उत्पादन बढ़ाने और खाद्य सुरक्षा प्रदान करने का प्रस्ताव रखा। इसने गहन कृषि की शुरुआत की, जहां भूमि की प्रति इकाई उपज बढ़ाने के लिए अधिक निवेश (पानी, कीटनाशक, उच्च उपज वाले बीज) का उपयोग किया गया। जाहिर तौर पर यह एक दशक के भीतर सफल हो गया, क्योंकि भारत ने (1970 के दशक तक) भोजन में आत्मनिर्भरता हासिल कर ली थी और खाद्य आयात बंद कर दिया गया था। हालांकि इससे देश में पोषण संबंधी सुरक्षा नहीं मिली क्योंकि व्यापक स्तर पर आज भी कुपोषण व्याप्त है।

उत्पादन-केंद्रित कृषि ने एक ऐसा संकट पैदा कर दिया है जो मिट्टी, भूजल और प्राकृतिक संसाधनों को प्रभावित करता है। मृदा क्षरण और मृदा स्वास्थ्य में कमी एक समस्या बन गई है। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग ने भी मिट्टी के क्षरण में योगदान दिया है। अब हमें एक पारिस्थितिकी तंत्र केंद्रित दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता है। उत्पादन-केंद्रित दृष्टिकोण में पारिस्थितिकी तंत्र की समझ का अभाव है। पारिस्थितिक तंत्र-केंद्रित दृष्टिकोण में उत्पादन प्रणाली को एक पारिस्थितिकी तंत्र के सबसेट के रूप में देखा जाता है, जो पारिस्थितिकी तंत्र से संसाधन प्राप्त करता है। यह पारिस्थितिकी तंत्र को कच्चे माल के स्रोत के रूप में उपयोग करता है और इसमें अपशिष्ट भी डालता है। किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र की सीमाएं होती हैं और उत्पादन-केंद्रित दृष्टिकोण इसे स्वीकार नहीं करता है।

एक अलग दृष्टिकोण की आवश्यकता लगभग आधी सदी से है, लेकिन अब इस संकट की मान्यता अधिक है क्योंकि हितधारक कृषि-पारिस्थितिकी के बारे में बात करने लगे हैं।

भारत में कई राज्यों ने इससे संबंधित पहल किए हैं, जिन्होंने कृषि-पारिस्थितिकी पर विचार करने और विकल्प खोजने का प्रयास किया। हालंकि संस्थागत रूप से कृषि में लगने वाले संसाधन, बाजारों और अन्य अंतर्संबंधों तक पहुंच के संदर्भ में भारत का अधिकांश बुनियादी ढांचा हरित क्रांति प्रतिमान को आगे बढ़ाने और औद्योगिक कृषि का समर्थन करने के लिए बनाया गया है। क्या एक बेहतर, टिकाऊ रूप के पक्ष में उत्पादन-केंद्रित दृष्टिकोण को त्यागना संभव है?

यह बदलाव धीमा रहेगा। हरित क्रांति अपनी शर्तों पर सफल रही क्योंकि इसने खाद्य आत्मनिर्भरता हासिल करने और आयात को कम करने के अपने उद्देश्यों को पूरा किया। इसकी सफलता के कारण यह संस्थागत रूप से जड़ जमा चुका है और इसे तोड़ना कठिन है। जैविक या प्राकृतिक खेती, चावल गहनता प्रणाली (एसआरआई), संरक्षण कृषि या गैर-कीटनाशक प्रबंधन (एनपीएम) सहित पिछले तीन दशकों में सभी स्थायी कृषि पहलों को केवल सीमित नीतिगत समर्थन प्राप्त हुआ है। उनका विस्तार नहीं किया गया है। उनका कवरेज सकल फसली क्षेत्र के 5% से अधिक नहीं होगा।

आपकी संस्था एसपीएस धारणीय कृषि को प्रोत्साहित करने के लिए एनपीएम पर काम कर रही है। यह क्या है और कैसे आगे बढ़ा रहा है?

एनपीएम कृषि के लिए कम लागत वाला विकल्प है। किसान और सरकार एनपीएम के लागत पहलू और स्थानीय रूप से उपलब्ध इनपुट पर इसकी निर्भरता को समझते हैं। लेकिन कृषि गतिशील है और नई समस्याएं उत्पन्न होती हैं। कम लागत होने के साथ-साथ एनपीएम श्रम प्रधान भी है। श्रम की कमी का सामना कर रही एक ग्रामीण अर्थव्यवस्था में एनपीएम विधियों को लागू करने में कई चुनौतियां हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में श्रमिकों की भारी कमी है। लोग कृषि श्रम करने के इच्छुक नहीं हैं। बहुत से लोग काम के लिए पलायन करते हैं, या अपने छोटे खेतों में काम करते हैं। समर्थन के बिना लोगों से श्रम-गहन धारणीय कृषि की ओर बढ़ने का आग्रह करना आसान नहीं है। जैव-इनपुट संसाधन केंद्र जैसे नवाचार, जो गांवों में जैविक इनपुट आसानी से उपलब्ध कराते हैं, उनको लोकप्रिय बनाया जाना चाहिए। एसपीएस के साथ काम करने वाले किसान लागत तत्व को समझते हैं और वह निर्वाह किसान हैं (जो अपने स्वयं के उपभोग के लिए भोजन उगाते हैं)।

जैविक और प्राकृतिक कृषि पद्धतियों को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न राज्य सरकारों और केंद्र सरकार द्वारा कई पहल की गई हैं। लेकिन पर्यावरण मंत्रालय की एक समिति ने हाल ही में हर्बिसाइड-टॉलरेंट जीएम सरसों के व्यावसायिक परिचय के लिए मंजूरी दे दी है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट वर्तमान में बीजों को जारी करने के खिलाफ दायर की गई याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है। क्या जीएम सरसों का फैसला और गैर-रासायनिक खेती के लिए सरकार का समर्थन अलग-अलग है?

कीटनाशक एक समस्या जरूर है लेकिन शाकनाशक एक बड़ी चुनौती है। श्रम की कमी (इसके उपयोग) को बढ़ावा देती है क्योंकि खरपतवार हटाना एक श्रम-गहन गतिविधि है। शाकनाशी (हर्बीसाइड) कीटनाशकों के समान ही हानिकारक होते हैं। जीएम सरसों के बारे में हालिया विवाद से पता चलता है कि जिस नई किस्म को मंजूरी दी गई है, वह शाकनाशी-सहिष्णु किस्म का है। ऐसी किस्मों के उपयोग से शाकनाशियों का अधिक गहन उपयोग होगा, जो पहले से ही एक बढ़ता हुआ खतरा है।

हालांकि सरकार का कृषि के प्रति उसके दृष्टिकोण के बारे में बहुत भ्रम प्रकट करती हैं। वे प्राकृतिक खेती मिशन के लिए लगभग 1,500 करोड़ रुपये आवंटित करते हुए, पर्याप्त निवेश द्वारा समर्थित प्राकृतिक खेती कार्यक्रम के लिए राष्ट्रीय मिशन लेकर आए हैं। वहीं रासायनिक उर्वरकों पर सब्सिडी बढ़ती जा रही है। समाचार रिपोर्टों के अनुसार, इस वर्ष यह लगभग 2.5 लाख करोड़ रुपये ($30.3 बिलियन) होने की उम्मीद है। जैसा कि मैंने पहले कहा, रासायनिक उर्वरकों का गहन उपयोग मिट्टी के क्षरण और मिट्टी के कार्बनिक कार्बन की कमी के महत्वपूर्ण कारणों में से एक है। इसलिए इन कार्यक्रमों के लक्ष्य स्पष्ट रूप से एक द्वंद में हैं।

एनपीएम के साथ आपके अनुभव और प्रयोगों के आधार पर सरकार आपसे क्या इनपुट चाहती है? इस तरह की नीति के बारे में सरकार कैसे सोचती है?

सरकार कम लागत वाले तरीकों को बढ़ावा देने की आवश्यकता को पहचानती है। लेकिन इसके लिए पर्याप्त बजटीय समर्थन नहीं है। किसानों की आय सहायता योजना (पीएम-किसान; 2022-23 में 68,000 करोड़ रुपये आवंटित) जो सालाना 6,000 रुपये प्रदान करती है। वह बेहद लोकप्रिय है, लेकिन इसने अन्य कार्यक्रमों और योजनाओं के लिए उपलब्ध कृषि विभाग के बजट को खत्म कर दिया है।

प्राकृतिक खेती के लिए किया गया निवेश (1,500 करोड़ रुपये) सही दिशा में एक कदम है। कुछ राज्य इस क्षेत्र में बढ़िया काम कर रहे हैं। उदाहरण के लिए ओडिशा अपने बाजरा मिशन के माध्यम से वैकल्पिक (गैर धान-गेहूं) खेती को बढ़ावा देता है। हालांकि यह प्राकृतिक खेती के बारे में नहीं हो सकता है। कृषि में राज्य स्तर की पहलें अब बहुत महत्वपूर्ण हैं और उनसे कई सबक सीखे जा सकते हैं।

बदलाव एक बहुस्तरीय प्रक्रिया है। निवेश आवश्यक है, लेकिन इसमें कई अन्य कारक भी हैं। बाजार प्रोत्साहन और सार्वजनिक खरीद एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार द्वारा नहरों का निर्माण करके कृषि-जलवायु की दृष्टि से अनुपयुक्त क्षेत्र में धान उगाना शुरू करने से पहले पंजाब में वर्षा आधारित खेती होती थी। उच्च एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) धान की खेती को प्रोत्साहित करता है। अब अगर धान की खेती को भारत के पूर्वी क्षेत्र में स्थानांतरित करना है, तो समर्थन मूल्य और खरीद में बदलाव की आवश्यकता है। उत्पादकों को प्रोत्साहन और सब्सिडी की प्रणाली फसल पैटर्न को पारिस्थितिक रूप से उपयुक्त मार्गों में बदलने में बड़ी भूमिका निभा सकती है। लेकिन आज ये एक नकारात्मक भूमिका निभा रहे हैं, जिसे ठीक करने की जरूरत है।

फिर हमें फसल प्रबंधन और मृदा सुधार के लिए उचित अनुसंधान सहायता और प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है। ज्ञान का एक व्यवस्थित निकाय मौजूद नहीं है। मार्केट लिंकेज एक और चुनौती है। एक मंडी (कृषि उपज बाजार) में कम लागत, गैर-कीटनाशक उत्पादों या रसायनों का उपयोग करके उगाए जाने वाले उत्पादों के बीच कोई अंतर नहीं है। किसानों के लिए कोई मूल्यवर्धन नहीं है और वे कम लागत वाले तर्क से सहमत नहीं हैं। उन्हें अधिक ठोस प्रोत्साहन की आवश्यकता होगी।

हालांकि जैविक उत्पाद का बाजार एक मजबूत बाजार है। हरित क्रांति के अनुभव में इसके विस्तार में तीन पहलुओं ने काम किया। प्रयास सुसंगत था; इसे विशिष्ट क्षेत्रों के लिए लक्षित किया गया था (इसे गहन कृषि विकास कार्यक्रम के रूप में शुरू किया गया था); यह एक बहुआयामी और पैकेज्ड दृष्टिकोण था जिसमें बीज, अनुसंधान, विपणन, उर्वरक आदि शामिल थे।

हमें इन सबकों से सीख लेकर उन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना होगा जहां पर्यावरण संकट सबसे गंभीर है। इसका अर्थ है फसल विविधीकरण, मिट्टी में निवेश, अनुसंधान और स्थानीय रूप से उपयुक्त बीज और, सबसे महत्वपूर्ण, कृषि विस्तार प्रणाली [जिसके द्वारा किसानों को योजनाओं, सेवाओं, संसाधन आदि के बारे में तकनीकी सलाह प्रदान की जाती है]। यह भी ध्यान रखना बहुत महत्वपूर्ण है कि हरित क्रांति की प्रगति का श्रेय काफी हद तक ग्रामीण स्तर के कार्यकर्ताओं (ग्राम सेवकों) के साथ सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित विस्तार प्रणाली को दिया जा सकता है। यह अब लगभग निष्क्रिय हो गया है। हमें इसे पुनर्जीवित करने की जरूरत है।

इस अक्तूबर में एक साक्षात्कार में इकोलॉजिस्ट देबल देब ने कहा था कि कृषि पारिस्थितिकी के लिए स्थानीयकरण महत्वपूर्ण था, और जब एक किसान कृषि विज्ञान को अपनाता है, तो यह धारणीय हो जाता है। मध्यम से बड़े किसानों के लिए स्थानीयकरण का क्या अर्थ है जो उपज को बाजार तक ले जाना चाहते हैं? यह खेती की मौजूदा उत्पादन-केंद्रित प्रणालियों के साथ कैसे तालमेल बिठाता है?

देब जी ने जिस स्थानीयकरण की बात की वह स्थानीय रूप से उपलब्ध या स्थानीय रूप से उपयुक्त संसाधनों का उपयोग करना है, जो स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र की सीमाओं पर विचार करता है। वह किसानों द्वारा उगाए जाने वाले बीजों के नियंत्रण के बारे में भी बात करता है। एक अर्ध-निरंकुश प्रणाली हो सकती है, जहां लोग अपने स्वयं के भोजन का उत्पादन और उपभोग करते हैं। बाजार, प्रमाणन या अवधारणा के प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार की जीवंत स्थानीय खाद्य प्रणालियां अस्तित्व में हैं, हालांकि हमें यह देखने की आवश्यकता है कि वे कितनी व्यापक हैं। लेकिन उन्हें 'डिफ़ॉल्ट जैविक' किसानों के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए। ऐसे क्षेत्र हैं जहां रासायनिक कृषि नहीं पहुंची है। लेकिन इनमें से अधिकतर पसंद का मामला नहीं हो सकता है। समुदाय गरीब हो सकते हैं और उनके पास संसाधन नहीं हो सकते हैं। यहां स्थानीयकृत कृषि भले ही हो रही हो, लेकिन उन्हें औद्योगिक कृषि से कब तक अछूता रखा जा सकता है, यह एक वास्तविक प्रश्न है।

हम स्थानीय खाद्य प्रणालियों के माध्यम से गैर-बाजार चैनलों का पता लगा सकते हैं, जो उपभोक्ताओं को उत्पादकों से सीधे जोड़ते हैं। एसपीएस क्षेत्र में उदाहरण के लिए ऐसे किसान हैं, जो अपने स्वयं के उपभोग के लिए गेहूं उगाते हैं और उनके पास थोड़ा अधिशेष है। ये किसान हमारे स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के बड़े नेटवर्क का हिस्सा हैं, जिसमें ऐसे समूह शामिल हैं जो कुल मिलाकर भोजन के उपभोक्ता या शुद्ध खरीदार हैं। इसलिए हमारे पास एक स्थानीय क्षेत्र में एसएचजी नेटवर्क के माध्यम से एक संगठन द्वारा समर्थित किसान-से-उपभोक्ता विनिमय की एक प्रणाली हो सकती है। इसमें औपचारिक बाजार और कीमतें शामिल नहीं हैं।

आंध्र प्रदेश के मामले में प्राकृतिक कृषि उपज तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम को बेची जा रही है। यह एक बड़ा और समर्पित बाजार है। इसी प्रकार मंडी प्रणाली के बाहर उपभोक्ता लिंकेज और मेले सीधे हैं। इस सब के लिए प्रयास और समर्पित संसाधनों की आवश्यकता है।

कृषि विज्ञान के साथ स्थानीयकरण की कल्पना करने के ये कुछ तरीके हैं। मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगा कि एक कृषि-पारिस्थितिक दृष्टिकोण में ऐसा कुछ भी नहीं है जो आंतरिक रूप से बाजारों के विपरीत हो। वास्तव में मेरा मानना है कि कृषि-पारिस्थितिकी को आगे ले जाने में बाजार के प्रोत्साहनों की बड़ी भूमिका है।

भारत का भूजल कृषि के लिए जीवन रेखा है। यह देश दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है और भूजल की कमी एक प्रमुख चिंता का विषय है। केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) के आंकड़ों के अनुसार 2022 में भारत में भूजल निष्कर्षण, 2004 के बाद से सबसे कम 60% था। 2017 में सीजीडब्ल्यूबी द्वारा एक नई मूल्यांकन पद्धति शुरू की गई थी। आप भूजल निष्कर्षण में कमी का आकलन कैसे करते हैं?

पारिस्थितिक तंत्र केंद्रित दृष्टिकोण का एक फोकस जल संसाधनों का प्रबंधन करना है। लेकिन भूजल संतुलन के सीजीडब्ल्यूबी आकलन के साथ कुछ मुद्दे हैं। वे मानसून से पहले और बाद में कुओं की निगरानी की प्रक्रिया का पालन करते हैं। साथ ही निकासी का अलग से मूल्यांकन किया जाता है।

सीजीडब्ल्यूबी द्वारा निगरानी किए गए कुओं के नमूनों की संख्या कम है। यह 30 मिलियन से अधिक भूजल संरचनाओं वाले भारत जैसे देश की सही और प्रतिनिधि तस्वीर नहीं दे सकता है। एक बड़े ब्लॉक में कुछ कुओं का नमूना लेना सटीक रूप से उन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व नहीं करेगा, जहां भूजल स्तर गंभीर या अतिदोहित हैं। इसलिए 60% भूजल निष्कर्षण डेटा कमतर आंका जा सकता है।

दूसरी बात यह है कि मानसून से पहले और बाद के नमूने खुले कुओं से लिए जाते हैं। रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से यह नहीं बताया गया है कि गहरे जलभृतों (जल धारण करने वाली चट्टान संरचनाओं) से पानी का नमूना लिया गया है या नहीं, जहां से बोरवेल स्रोत के पानी का नमूना लिया गया है। पंजाब जैसे स्थानों में जहां उच्च भूजल निकासी है और खुले कुएं मौजूद नहीं हैं। वे ज्यादातर बोरवेल होते हैं, जो मध्यम या गहरे होते हैं। इसका मतलब यह है कि यदि गहरे जलभृतों का नमूना नहीं लिया जाता है और केवल उथले पानी की जांच की जाती है, तो डेटा गलत होना तय है।

हालांकि सीजीडब्ल्यूबी की रिपोर्ट में जलवाही स्तर का उल्लेख है, लेकिन उन्हें अक्सर एक बड़े क्षेत्र को कवर करते हुए क्षेत्रीय पैमाने पर देखा जाता है। हार्ड रॉक क्षेत्र जैसे स्थानों में जलभृत स्थानीय हैं और मानचित्रण का पैमाना, उस पैमाने के अनुरूप नहीं होगा, जिस पर कार्रवाई की जानी है। सीजीड्ब्लयूबी का NAQUIM (एक्विफर मैपिंग प्रोजेक्ट) सही दिशा में एक बेहतरीन कदम है। हालांकि NAQUIM वर्तमान में भूजल संतुलन मूल्यांकन की सीजीड्ब्लयूबी की कार्यप्रणाली को सूचित नहीं कर रहा है। इसके अलावा मुझे लगता है कि हमें भूजल संतुलन के इन स्थानीय आकलनों में संसाधन के बारे में स्थानीय समुदायों की धारणाओं को शामिल करना चाहिए।

रिपोर्ट इकाइयों को अति-शोषित, महत्वपूर्ण, अर्ध-महत्वपूर्ण, सुरक्षित और खारे के रूप में वर्गीकृत करती है। पानी की गुणवत्ता में लवणता के अलावा फ्लोराइड और आर्सेनिक की उपस्थिति जैसी समस्याएं हैं जिन पर विचार नहीं किया जाता है।

2022 में निकाले गए 239 बिलियन क्यूबिक मीटर भूजल में से 11 नवंबर तक 87% सिंचाई के लिए है। पंजाब और हरियाणा, जहां किसानों की कुछ फसलों के लिए एमएसपी तक बेहतर पहुंच है और उन्होंने हरित क्रांति के लाभ और कमियां देखी हैं। राजस्थान के साथ 100% के करीब भूजल निष्कर्षण पाया गया है। दोनों राज्यों को जैविक या प्राकृतिक खेती में बदलाव मुश्किल लग सकता है। सरकार कृषि में एक निश्चित जल प्रबंधन नीति कैसे लागू कर सकती है क्योंकि यह जैविक या प्राकृतिक खेती जैसे अधिक धारणीय तरीकों का समर्थन करने की योजना बना रही है?

पानी एक पारिस्थितिकी तंत्र में एक प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला पदार्थ है। यह आपूर्ति में सीमित है। यह गुणात्मक गिरावट से गुजर सकता है। हमें पानी का तर्कसंगत उपयोग करना चाहिए। जब तक अंग्रेजों ने नहरों और बांधों में सार्वजनिक निवेश नहीं किया, तब तक पंजाब एक सूखी भूमि थी। कृषि पारिस्थितिकी उस पारिस्थितिकी तंत्र में धान जैसी कुछ प्रकार की फसलों की अनुमति नहीं देती है।

दशकों से मोनोकल्चर से दूर विविध फसल प्रणालियों की ओर जाने की आवश्यकता के बारे में चर्चा होती रही है। पंजाब दाल और कपास उगाता था। किसानों को गेहूं और चावल उगाने और सार्वजनिक खरीद प्रणाली को आपूर्ति करने के लिए धकेला गया है। इसका भूजल पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। लेकिन खरीद और एमएसपी प्रणाली अब इतनी गहरी हो गई है कि नीतिगत घोषणाएं काफी हद तक कागजों पर ही रह गई हैं।

वर्षों से पंजाब सरकार ने अधिसूचना जारी की है और गर्मियों में धान की रोपाई स्थगित करने के लिए कानून पारित किया है (यह सुनिश्चित करने के लिए कि मानसून के मौसम में धान की फसल वर्षा-आधारित है, न कि भूजल-आधारित)। इसे सीमित सफलता मिली है।

उत्पादन-केंद्रित दृष्टिकोण को खरीद प्रक्रिया द्वारा समर्थित किया जाता है। पंजाब में धान और गेहूं को कम समर्थन दिया जाना चाहिए और अन्य फसलों को अधिक प्रदान किया जाना चाहिए। लेकिन अचानक समर्थन बंद करने से समस्याएं हो सकती हैं। इसे चरणबद्ध तरीके से किया जाना चाहिए ताकि भारत के पूर्वी बेल्ट (पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, झारखंड) में,जहां धान उगाने के लिए अधिक अनुकूल परिस्थितियां हैं, वहां के किसानों को प्रोत्साहित किया जा सकता है।

यूक्रेन-रूस युद्ध के कारण उर्वरक कीमतों में वैश्विक वृद्धि हुई है और सरकार ने सर्दियों के फसल सीजन के लिए उर्वरक सब्सिडी के रूप में लगभग 52,000 करोड़ रुपये की मंजूरी दी है। उसी समय आर्थिक रूप से कठिन दौर से गुजर रहे श्रीलंका में जैविक कृषि नीति के अचानक लागू होने के परिणामस्वरूप किसान पीछे हट गए। बढ़ती उर्वरक कीमतों की इस वैश्विक पृष्ठभूमि के खिलाफ श्रीलंका की असफल जैविक कृषि नीति के कार्यान्वयन और 2021 में भारत में कृषि कानूनों को निरस्त करने के खिलाफ, आप रसायनों के नेतृत्व वाली औद्योगिक कृषि से अधिक धारणीय कृषि को कैसे देखेंगे? क्या यह उपज और खाद्य सुरक्षा को प्रभावित कर सकता है?

ऐसा माना जाता है कि रासायनिक खेती की तुलना में गैर-रासायनिक खेती में उपज काफी कम होती है। हालांकि (नई दिल्ली स्थित अनुसंधान संगठन) सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की तरह की रिपोर्टें आई हैं, जिन्होंने इस दावे का विरोध किया है। किसी भी फसल को एक निश्चित मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। यदि पौधों को पोषक तत्वों की पर्याप्त आपूर्ति के अन्य तरीकों के बिना रासायनिक उर्वरकों को अचानक वापस ले लिया जाता है, तो उपज प्रभावित होगी। ऐसा ही कुछ श्रीलंका में हुआ है, जब वे ऑर्गेनिक की खेती की तरफ बढ़ने के लिए जल्दबाजी कर गए।

इस बदलाव को काफी अच्छे तरीके से हैंडल किया जाना चाहिए। किसानों को विकल्प दिया जाना चाहिए ताकि वे पारिस्थितिक रूप से उपयुक्त संसाधनों का प्रयोग कर सकें, ताकि उपज कम न हो। हमें यह समझने की जरूरत है कि भारत के कई हिस्सों की मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की कमी है। जब तक हम अपनी मिट्टी का नवीनीकरण नहीं करेंगे, तब तक उर्वरकों से पूरी तरह दूर होना मुश्किल होगा। एनपीएम दृष्टिकोण रासायनिक कीटनाशकों को खत्म करने पर केंद्रित है, लेकिन यह मिट्टी के स्वास्थ्य के निर्माण और फसल प्रणाली में विविधता लाने की भी बात करता है। चूंकि हम मिट्टी को सुधारने के लिए काम कर रहे हैं, इसलिए हमें विवेकपूर्ण तरीके से उर्वरकों का उपयोग करना होगा और कीटनाशकों का उपयोग बंद करना होगा। एसपीएस ने यही दृष्टिकोण अपनाया है। बदलाव धीमा होगा लेकिन यह उन किसानों द्वारा किया जा रहा है जिन्होंने रासायनिक संसाधनों के प्रयोग को बंद कर दिया है।

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