मुंबई: भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश (यूपी) में कोविड-19 के अब तक 17 लाख से अधिक मामले सामने आ चुके हैं। और इस बीमारी ने महामारी की शुरुआत के बाद से 22,891 लोगों की जान ले ली है। यह राज्य की कुल आबादी का 1.34% है। पूरे देश में कोविड से हुई मौतों (1.3%) की तुलना में यह दर थोड़ी ज्यादा है। जब कोविड की दूसरी लहर अपने चरम पर थी उस समय राज्य में एक दिन में 300 से अधिक मौतों का आंकड़ा दर्ज किया जा रहा था। ग्राउंड रिपोर्टिंग ने दिखाया कि राज्य में कोविड के मामलों और मौतों के आंकड़ों को कम करके दिखाया गया था। महामारी के दौरान कराए गए पंचायत चुनावों में कुप्रबंधन के चलते चुनाव ड्यूटी में लगे शिक्षकों के जीवन को खतरे में डाल दिया गया था।

जैसे ही अधिकांश राज्यों में यह लहर थमने लगी, यूपी में भी कम मामले दिखने लगे। 28 सितंबर को राज्य में कोविड-19 के केवल 14 नए मामले दर्ज किए गए थे। कुल 177 सक्रिय मामले थे। हालांकि इस मानसून में यूपी में डेंगू, लेप्टोस्पायरोसिस और स्क्रब टाइफस जैसे मामले भी बढ़ रहे हैं।

बीमारियों के प्रकोप से निपटने के लिए राज्य ने कोविड संकट से क्या सबक लिया? यूपी सरकार में चिकित्सा और स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, मातृ एवं बाल कल्याण मंत्री जय प्रताप सिंह से इस मुद्दे पर बातचीत की।

संपादित अंश

सवाल: कोविड की दूसरी लहर जब अपने चरम पर थी, राज्य में एक दिन में लगभग 350 मौतों की जानकारी आ रही थी। सरकार ने अपने कोविड अनुभव से क्या सबक लिया है? यूपी की मौजूदा स्वास्थ्य प्रणाली के बारे में क्या कहेंगे और बीमारियों को फैलने से रोकने के लिए क्या तैयारियां की गई हैं?

जवाब: जब हमने पहली बार कोविड का सामना किया, वह बड़ा ही मुश्किल समय था। जहां तक मुझे याद है, 8 मार्च, 2020 को पहला मामला सामने आया था। वे लोग इटली से आगरा लौटे थे। हमारे पास उनकी देखभाल के लिए कोई खास इंतजाम नहीं था, इसलिए हमने उन्हें सफदरजंग अस्पताल रेफर कर दिया। किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में सिर्फ एक टेस्टिंग मशीन थी, जो एक दिन में लगभग 70 सैंपल जांच सकती थी। तब हमारे मुख्यमंत्री ने हमें अपना सारा पैसा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में बुनियादी ढांचे, जांच सुविधाओं, अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या और उनकी उपलब्धता बढ़ाने में लगाने को कहा। साथ ही ये भी सुनिश्चित करना था कि वहां हर दवा उपलब्ध हो। इस अभियान में युद्ध स्तर पर नेपाल की सीमाओं से सटे क्षेत्रों की जांच करना और ट्रेनों की जांच करना शामिल था। साल 2020 में हमने बहुत अच्छा काम किया था। इससे हमारा बुनियादी ढांचा मजबूत हुआ। अस्पतालों में सभी स्तर के बिस्तरों की संख्या बढ़ा दी गई थी। और उसके साथ दवाएं, डॉक्टर, नर्स सब कुछ बहुत ही कम समय में एक साथ तैयार कर लिया गया था। टेस्टिंग भी ज्यादा की जा रही थी।

साल 2021 में वायरस एक अलग म्यूटेंट के रूप में आया था। अब चाहे वह यूपी हो या फिर पूरी दुनिया, इससे निपटना आसान नहीं था। यह हमारी सभी तैयारियों के लिए एक झटका था। हमने अचानक खुद को ऑक्सीजन की कमी का सामना करते हुए पाया क्योंकि वायरस फेफड़ों को तेजी से संक्रमित कर रहा था। लोग ऑक्सीजन के लिए यहां से वहां भाग रहे थे। ऑक्सीजन सिलेंडर की कमी चल रही थी। सामान्य ऑक्सीजन प्लांट बहुत धीमी गति से काम रहे थे। क्योंकि अब तक इनका इस्तेमाल सिर्फ सर्जरी के लिए किया जा रहा था। आप जानते ही हैं कि फिर प्रधानमंत्री और उनके कैबिनेट ने अपने कदम आगे बढ़ाए। सभी ऑक्सीजन प्लांट को भारत सरकार ने अपने हाथ में ले लिया था। प्रत्येक राज्य को जरूरत के आधार पर आवंटन किया गया था। उत्तर प्रदेश के लिए बोकारो और जामनगर से ऑक्सीजन की पूर्ति की गई। टैंकर सीधे 75 जिलों के सभी सरकारी अस्पतालों और निजी अस्पतालों तक पहुंचे, हमने इसके लिए युद्धस्तर पर काम किया था।

सवाल: कोविड के बाद अब राज्य की स्वास्थ्य प्रणाली में क्या बदलाव आया है? हाल ही में डेंगू के मामले तेजी से बढ़े। ऐसे में राज्य की स्वास्थ्य प्रणाली एक बार फिर से कमजोर होने और हताहतों की संख्या बढ़ने की संभावना बनी हुई है।

जवाब: साल 2020 से 2021 तक कोविड के बीच, सभी ग्राम पंचायतें, नगर निगम, नगर पालिकाएं शहर और गांव की नालियों और घरों में फॉगिंग और छिड़काव कर रहे थे। हर साल लार्वा से निपटने के लिए ऐसा किया जाता है। डेंगू के अलावा जापानी इंसेफेलाइटिस से भी निपटा जा रहा था। इसके लिए एक निश्चित उम्र से ऊपर के बच्चों के लिए 100% टीकाकरण किया गया।

डेंगू का चक्र लगभग हर तीन साल में एक बार होता है। साल 2019 में हमें समस्या हुई थी। और इस बार अचानक फिर से इसके मामले काफी बढ़ गए। इस बार भारी बारिश हुई है। जलभराव भी काफी था और कचरे के निपटान को लेकर भी बहुत सी समस्याएं थीं। हाल ही में फिरोजाबाद और मथुरा में डेंगू के मामले तेजी से बढ़े हैं। और जब तक हमारे लोग हरकत में आए ...आप देखिए, शुरू में लोग डेंगू का इलाज कराने के लिए सरकारी अस्पतालों में नहीं आए, बल्कि सीधे पास के निजी अस्पतालों में चले गए। जिस वजह से बहुत से लोगों की जानें चली गई। और कुछ बच्चों ने तो घर पर दम तोड़ दिया था। जब तक हम कार्रवाई करते तब तक नुकसान हो चुका था। हमारी सभी टीम ने एक साथ काम किया। घर-घर जाकर सर्वे किया गया। खाली जगहों या कंटेनरों में भरे पानी को खाली किया जा रहा है। लोगों को चेतावनी दी जा रही है और उन्हें जागरूक किया जा रहा है।

मथुरा में अचानक से लेप्टोस्पायरोसिस और स्क्रब टाइफस जैसी बीमारियां फैल गईं। ये मामले हमारे लिए नए थे। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद (ICMR) की रिपोर्ट आने के बाद दवाएं बदल दी गईं। जो कुछ भी हम कर सकते थे, वह किया। लेकिन इससे थोड़ा नुकसान हुआ और हमारी तैयारियों के बावजूद वहां व्यवस्थाएं दुरुस्त नहीं थीं।

सवाल: अगर मैं आपसे आगे की स्वास्थ्य रणनीति को परिभाषित करने के लिए कहूं, तो वह क्या होगी? कितना बचाव, कितना इलाज, कितना संवाद? उदाहरण के लिए, आपने बारिश के बारे में बात की थी, तो क्या प्रशासन को इसे देखते हुए काम शुरू नहीं कर देना चाहिए था?

जवाब: हर साल सभी संबंधित विभागों को, मानसून के ठीक पहले नालों की सफाई और फॉगिंग करने के निर्देश दिए जाते हैं। इस साल काफी ज्यादा बारिश हुई है। नालियों को कितना भी साफ कर लें वो क्षमता से ज्यादा पानी तो नहीं ले जा सकती। इसलिए उन जगहों पर जलभराव की समस्या सामने आ जाती है जहां कम निर्माण होता है या फिर पर जहां गड्ढे होते हैं। स्वास्थ्य विभाग के पास पहले से ही एक प्रणाली है – जिसमें हर तीन महीने में न केवल डेंगू बल्कि चिकनगुनिया, H1N1 फ्लू, कालाजार, जापानी इंसेफेलाइटिस और दस्त के लिए भी एक कार्यक्रम चलाये जाते हैं। कभी-कभी सब कुछ एक साथ आ जाता है। अभी तो कोविड से ही बाहर निकल रहे हैं कि अचानक से डेंगू के मामले सामने आने लगे। लखनऊ में डायरिया के बहुत सारे मामलों के बारे में आपको जानकारी है ही। फिर अचानक से यूपी के किसी दूसरे इलाके में कालाजार के कुछ मामले मिलते हैं और फिर आप उधर भागने लगते हैं। मैं मानता हूं कि सब कुछ इतनी तेजी से हुआ कि हम उस में फंस गए। हालांकि तैयारियां पूरी थीं। हम अभी-अभी सख़्त कोविड प्रबंधन से गुजरे थे। लेकिन अब सब नियंत्रण में है, कोई समस्या नहीं है। सभी सरकारी अस्पताल पूरी तरह से तैयार हैं।

सवाल: भारत की लगभग 80 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवा प्रणाली निजी हाथों में है, और 20 प्रतिशत सार्वजनिक है। आपने डेंगू के मामले में कहा, अधिकांश लोगों ने पहले निजी अस्पतालों में जाना पसंद किया और फिर जब उन्हें सही इलाज नहीं मिला, तो वे सरकारी अस्पतालों में अपने इलाज के लिए आगे आए। लेकिन तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी। भारत के सबसे बड़े राज्य में इस स्थिति से निपटने के लिए आपकी क्या योजना है?

जवाब: अप्रैल-मई के ठीक बाद, हमने आशा और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को घर-घर जाने के लिए प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया था। कोविड के लिए 2020 और 2021 में भी सर्वे का काम किया जा रहा था। और कोविड के मामलों में कमी आने के ठीक बाद, हमने फील्ड वर्कर्स को हर घर का सर्वे करने में लगा दिया कि वो देखें किस तरह का बुखार चल रहा है। इसके पीछे विचार था लोगों को ये बताना कि किसी भी तरह का बुखार अगर दो-तीन दिनों के अंदर नहीं उतरता तो उन्हें सरकारी अस्पताल में आना चाहिए जहां डेंगू और अन्य बीमारियों के लिए उनकी जांच की जाएगी। इन बीमारियों से निपटने की सुविधा लगभग हर जिले में है। और हमने एक जागरूकता कार्यक्रम के लिए फ़ील्डवर्कर्स का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया है। लोगों को इसके जरिए जानकारी दी गई है कि सरकार पूरी तरह से तैयार है, और आपको अपनी किसी भी बीमारी के इलाज के लिए सरकारी अस्पताल में ज़रूर आना चाहिए। हमने टीबी के मामलों की जांच-पड़ताल के लिए भी इन फील्डवर्कर्स का इस्तेमाल किया है। जिनके पास आयुष्मान भारत कार्ड नहीं था, उन लोगों का कार्ड बनाने में भी इन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने मदद की है।

लोग सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए आगे आएं इसका दूसरा रास्ता यह है कि हमारे सभी अस्पतालों में डॉक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ की कमी न हो। साथ ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHCs) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (CHCs) में उचित दवाएं और लैब हों। सरकार पर काफी निर्भरता है और जब लोग हमारे पास आएं, तो उन्हें पता होना चाहिए कि उन्हें सारी स्वास्थ्य सुविधाएं मिल जाएंगी।

यह एक बड़ी आबादी वाला राज्य है और हमारा सार्वजनिक बुनियादी ढांचा 30 से 35% सुविधाओं को कवर करता है। आप कह सकते हैं कि 65-70% सुविधाएं निजी हैं, फिर भी हमारे सरकारी प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर बहुत अधिक निर्भरता है। मैं आपको बता सकता हूं कि हमारे पास एक साल में लगभग 10 करोड़ की औसत OPD (फुटफॉल) है - प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और जिला स्वास्थ्य केंद्रों तक। और आज हम स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों और उप-केंद्रों का एक नेटवर्क तैयार कर रहे हैं। जहां हम विशेष रूप से 'डिलीवरी' की तकनीकों में सुधार करने जा रहे हैं। स्वास्थ्य क्षेत्र का मूल प्राथमिक उद्देश्य शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर को कम करना भी है।

सवालः यूपी में लगभग 10.3 करोड़ लोगों का कोविड टीकाकरण किया जा चुका है। सेरोप्रेवलेंस के अध्ययनों से पता चला है कि राज्य के 18 साल से ज्यादा उम्र की लगभग 80% आबादी में पहले से ही एंटीबॉडी बनी हुई है। तो, क्या यह आकंड़े आपको कुछ सुकून दे रहे हैं और अगर नहीं, तो महामारी से निपटने के लिए आपकी क्या योजनाएं हैं?

जवाबः जैसा कि आपने कहा, लगभग 80% आबादी एंटीबॉडी दिखा रही है और लगभग 57.3% लोगों को टीके की पहली और लगभग 14-15% लोगों को दूसरी डोज लग चुकी है। ICMR के अनुसार एक डोज के बाद भी प्रतिरोधक क्षमता 96.6% बढ़ जाती है। लोगों को पता है कि उनके शरीर में एंटीबॉडी बन चुकी हैं लेकिन फिर भी हम उनसे दूसरी डोज लेने के लिए कह रहे हैं। उन्हें कॉल सेंटर से कॉल किया जाता है। हमने दूसरे शॉट के लिए एक विशेष दिन (शनिवार) निर्धारित किया हुआ है। हम उन्हें आने के लिए कह रहे हैं क्योंकि इससे वह लंबे समय तक कोविड से बचे रहेंगे। कल ही 36 लाख 88 हजार लोगों का टीकाकरण किया गया है। और एक महीने में लगभग 3 करोड़ 25 लाख लोगों को टीका लगाया जा चुका है। अगर हमें पर्याप्त टीके मिलते रहे तो हमारा लक्ष्य दिसंबर 2021 तक इस पूरी आबादी का टीकाकरण करने का है। ICMR अब 12 से 18 साल के बच्चों के लिए Zydus Cadila वैक्सीन को भी अंतिम रूप देने जा रहा है।

सवाल: अगर आप पीछे मुड़कर कोविड-19 को देखते हैं, तो सार्वजनिक स्वास्थ्य के बारे में आपकी प्रमुख चिंताएं क्या हैं?

जवाबः स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे में कोविड के दौरान जो भी कमियां सामने आई थीं मूल रूप से, हमें उनमें सुधार करने की कोशिश करनी है। अचानक हमें बताया गया कि महामारी का तीसरा चरण आ सकता है और यह 18 साल से कम उम्र के लोगों पर असर डालेगा। लेकिन अब जो सीरो-सर्वे की रिपोर्ट आई है और जिस तेजी के साथ पूरे भारत और यूपी में टीकाकरण किया गया है, उसे देखते हुए तो हमें तीसरी लहर की कोई संभावना नजर नहीं आ रही है। लेकिन इसके कारण (डर) हमने स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार किया है। हमने बाल चिकित्सा आईसीयू को पूरी तरह से तैयार कर लिया है और अपने डॉक्टरों को प्रशिक्षित किया है। साथ ही हर प्रकार के बुनियादी ढांचे मसलन डिजिटल एक्स-रे, अल्ट्रासाउंड, स्मॉल आईसीयू, ऑक्सीजन कंसंट्रेटर और ऑक्सीजन जेनरेटिंग प्लांट लगाए जा रहे हैं।

हमने पहले ही यूपी भर्ती बोर्ड के जरिए विशेषज्ञों की भर्ती की सिफारिश की है। इच्छुक एक हजार लोगों को पहले ही काम पर लगाया जा चुका है। इस तरह से स्वास्थ्य केंद्रों पर विशेषज्ञों का होना सुनिश्चित हो जाएगा।

अब हर जिले में मेडिकल कॉलेज बनाए जा रहे हैं। साल 1947 से 2017 के बीच हमारे पास केवल 12 मेडिकल कॉलेज थे। हमारे मुख्यमंत्री हर जिले में एक मेडिकल कॉलेज बनाने पर जोर दे रहे हैं और नौ कॉलेजों का उद्घाटन पहले ही प्रधानमंत्री द्वारा किया जा चुका है। अन्य 12 या 13 जिलों में कॉलेज का निर्माण किया जा रहा है. 16 जिलों में पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल पर काम चल रहा है, जिसके लिए किसी भी दिन टेंडर निकाले जा सकते हैं। कुल मिलाकर हमारे पास 100 सीटों वाले लगभग 45 मेडिकल कॉलेज होंगे। हमें उम्मीद है कि एक बार यह प्रणाली शुरू हो जाए तो एक समझौता प्रणाली के माध्यम से डॉक्टरों को कम से कम पांच साल तक PHCs में काम करने के लिए कहा जाएगा। इसके बाद डॉक्टरों की कोई कमी नहीं होगी।

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