बेंगलुरु: लगभग तीन दशकों से पारिस्थितिकीविद् और कृषि-संरक्षक देबल देब देशी चावल की किस्मों व बीजों का संरक्षण और उसे साझा कर रहे हैं। कई किस्में, जिन्हें उन्होंने वर्षों से बचाया है, वे गंभीर रूप से संकटग्रस्त हैं। वे केवल कुछ ही जगहों पर उगाई जाती हैं।

देब ने बताया, "मैंने ओडिशा के कोरापुट जिले में ऐसे 35 और नागालैंड में लगभग 15 देशी और लुप्तप्राय किस्म के बीजों को बचाया है।" इन वर्षों में उन्होंने कई देशी किस्म के बीजों को नुकसान होते हुए देखा है, जब एक किसान के मृत्यु का मतलब होता है कि एक देशी किस्म विलुप्त हो गई।

यह अनुमान लगाया गया है कि 1970 के दशक में हरित क्रांति के उदय तक भारत में चावल की 100,000 से अधिक देशी चावल की किस्में थीं, जिसके बाद किस्मों की संख्या में गिरावट आई। चावल की स्थानीय किस्मों और देशी बीजों को संरक्षित करने के जुनून ने देब को दक्षिणी ओडिशा के रायगडा जिले में एक खेत बसुधा का निर्माण करने के लिए प्रेरित किया। वह अब 1,400 से अधिक देसी बीजों और प्रजातियों का संरक्षण कर रहे हैं और लगभग 8000 किसानों के साथ मुफ्त में बीज साझा कर चुके हैं। 2001 में जब उन्होंने बसुधा की शुरुआत की, तब तक देब द्वारा स्थापित एक चावल बीज बैंक ‘व्रीही’ लगभग आधा दशक पुराना हो चुका था।

देब ने कहा, "देशी फसल विविधता मानव रचनात्मक हस्तक्षेप का परिणाम है और ईश्वर या प्राकृतिक चयन द्वारा नहीं बनाई गई है। यह हमारी मानव विरासत का हिस्सा है। पीढ़ियों से चली आ रही इस तरह की व्यवस्था को छोड़ने से ऋणग्रस्तता, संकट और आत्महत्या जैसे परिणाम होंगे।”

एक साक्षात्कार में देब ने किसानों की स्वायत्तता, सामग्री और खाद्य संस्कृति के लिए देशी बीजों और स्थायी कृषि के महत्व और इस बारे में सरकार के दृष्टिकोण की बात की। पेश है साक्षात्कार का एक हिस्सा-

आप 1990 के दशक के अंत की एक घटना का उल्लेख करते हैं, जब चावल की एक प्रजाति तब विलुप्त हो गई, जब उसे उगाने वाले किसान का निधन हो गया। एक शोधकर्ता के रूप में आपके अनुभव में ऐसी घटनाएं कितनी नियमित हैं?

पूरे देश में किसानों ने वर्षों से देशी किस्म के चावल की खेती को छोड़ दिया है। अगर कोई किसान ऐसा करता भी रहे तो उनके बच्चे नहीं चाहते। यह कई दशकों से भारत में खेती की कहानी रही है। जिन किस्मों को मैंने दशकों पहले एकत्र किया था,उनकी अब खेती नहीं की जा रही है। पश्चिम बंगाल में मैंने 400 से अधिक किस्म एकत्र किए थे, लेकिन अब 150 से अधिक नहीं बचे होंगे। मेरा संग्रह संभवतः अंतिम है।

अग्नि साल [एक देशी चावल की किस्म], जिसे मैंने 1990 के दशक के अंत में पुरुलिया जिले के एक किसान से एकत्र किया था, विलुप्त हो गया क्योंकि अब इसे कोई नहीं उगाता। कुछ ऐसी किस्में भी हैं जो अब सिर्फ एक किसान द्वारा उगाई जा रही हैं। ये गंभीर रूप से संकटग्रस्त किस्में हैं क्योंकि ये न केवल कम संख्या में खेतों में बढ़ रहे हैं, बल्कि सिर्फ एक खेत में उगाए जा रहे हैं। मैंने ओडिशा के कोरापुट जिले में ऐसे 35 और नागालैंड में लगभग 15 देशी और लुप्तप्राय किस्म के बीजों को बचाया है।

आपको इन लुप्तप्राय किस्मों के बारे में कैसे पता चलता है?

मैं हमेशा यात्रा पर रहता हूं और विभिन्न जिलों में किसानों से मिलता हूं। मैं इन किस्मों को इकट्ठा करता हूं और इसे अपनी यात्रा के माध्यम से दस्तावेज करता हूं। इसके अलावा मेरे पास कोई अन्य विकल्प नहीं है।

जलवायु परिवर्तन और खाद्य सुरक्षा की बड़ी चुनौतियों पर सबका ध्यान बढ़ रहा है। आप दशकों से स्वदेशी खेती और आदिवासी समुदायों के साथ काम कर रहे हैं। कृषि पारिस्थितिकी को प्रोत्साहित करने में सरकार क्या भूमिका निभा रही है और आप जैविक व प्राकृतिक खेती के आसपास सरकार की पहल को कैसे देखते हैं?

सरकार कृषि विज्ञान का समर्थन नहीं कर रही है। अब तक सरकार को कोई समर्थन नहीं है। हमें कृषि विज्ञान के साथ 'जैविक' व 'प्राकृतिक खेती' की तुलना नहीं करनी चाहिए। जैविक खेती अनिवार्य रूप से शून्य रसायन और शून्य कीटनाशक है।

अधिकांश जैविक किसान कीटनाशकों का उपयोग नहीं करते हैं। लेकिन कई लोग यूरिया और डीएपी (डाय-अमोनियम फॉस्फेट) का उपयोग करते हैं या वे गोबर और खाद के साथ यूरिया मिलाते हैं। वे ऐसी मशीनरी भी लगाते हैं जो जीवाश्म ईंधन की खपत करती है। यह कृषि विज्ञान नहीं है। यह शून्य सिंथेटिक, कीटनाशक, उर्वरक होना चाहिए। इसके अलावा इसमें एक बहु-प्रजाति, बहु-विविध [फसल] पारिस्थितिकी तंत्र भी होना चाहिए। सरकार इसका समर्थन नहीं कर रही है। श्रीलंका में भी कुछ ऐसा ही मामला था।

कृषि विज्ञान का एक महत्वपूर्ण घटक है: स्थानीयकरण। खेती के सभी इनपुट सामग्री स्थानीय समुदाय से होने चाहिए, समुदाय के भीतर उपभोग की जाने वाली उपज स्थानीय समुदाय का होना चाहिए और बाजार भी स्थानीय उत्पादकों का बाजार होना चाहिए। बीज किसान के हाथ में और सामुदायिक बीज बैंक में होने चाहिए।

देश में कई पारिस्थितिक कृषि फार्म हैं, लेकिन वे सरकार द्वारा समर्थित नहीं हैं।

आंध्र प्रदेश सरकार ने एपी समुदाय आधारित प्राकृतिक खेती (APCNF) लॉन्च की। यह लाखों किसानों को राज्य में प्राकृतिक खेती करने और खेती में औद्योगिक रसायनों के उपयोग को खत्म करने के लिए प्रोत्साहित करता है। सिक्किम को 100% जैविक राज्य बताया गया है। स्थायी कृषि विधियों को अपनाने के लिए राज्यों द्वारा की गई ऐसी पहलों पर आपकी क्या टिप्पणी है?

मैं सिक्किम के उदाहरण से शुरू करता हूं। सिक्किम में उगाई जाने वाली लगभग सभी सब्जियों के बीज बाहरी आपूर्ति से प्राप्त होते हैं। लगभग सभी टमाटर और आलू हाइब्रिड हैं, जो कुछ निजी बीज कंपनियों द्वारा आपूर्ति किए गए कॉर्पोरेट बीजों से उगाए जाते हैं।

साथ ही मैंने स्थानीय फसलों की प्रजातियों और पारंपरिक कृषि ज्ञान प्रणालियों का तेजी से नुकसान होते देखा है। स्थानीय मिट्टी और जलवायु के प्रतिकूल फसलों की खेती की जा रही है और स्थानीय वनस्पतियों को शामिल करने वाली पारंपरिक कृषि पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन को भुला दिया गया है। किसान देशी ‘नाइट्रोजन फिक्सिंग पौधों’ के उपयोग को भूल गए हैं,जिन्हें वे "खरपतवार" के रूप में खत्म कर देते हैं। यह प्रणाली कृषि विज्ञान के खिलाफ है और इसलिए टिकाऊ नहीं है।

एपीसीएनएफ पर भी यही बात लागू होती है। जब कोई समुदाय पारंपरिक फसल किस्मों से जुड़े अपने पारंपरिक ज्ञान के आधार को भूल गया है तो कोई यह उम्मीद नहीं कर सकता है कि खेत की उर्वरता और उत्पादन की स्थिरता को पुनः प्राप्त किया जा सकता है। चावल या बाजरा की विभिन्न किस्मों के बीज उपलब्ध होने पर भी अधिकांश किसान अपने पूर्वजों के ज्ञान को भूल गए हैं कि उन्हें कैसे और कब बोना है, किस फसल के साथ या बाद में कौन सी फसल उगानी है और कुछ पौधों को कैसे लगाना है।

दूसरा, कृषि उपजों के सुनिश्चित एमएसपी के अभाव में स्थानीय किसान बाजार सबसे अच्छा सहारा हैं, लेकिन बिचौलियों द्वारा इसे भी हड़प लिया जाता है।

तीसरा, ग्राम समुदायों का विघटन हो रहा है और व्यक्तिगत लाभ, सामुदायिक हित को प्रभावित करता है। आम तौर पर हर कोई दीर्घकालिक उत्पादकता की कीमत पर तत्काल और अल्पकालिक लाभ प्राप्त करने के लिए उत्सुक है।

प्राकृतिक खेती को समर्थन देने की केंद्र सरकार की पहल के साथ क्या दिक्कतें हैं? आप कृषि-पारिस्थितिकी के माध्यम से एक स्थायी विकल्प कैसे बना सकते हैं?

कृषि पारिस्थितिकी अपनेआ आप में टिकाऊ व्यवस्था है। जब एक किसान कृषि-पारिस्थितिकी को अपनाता है, तो यह टिकाऊ हो जाता है। कृषि या किसी अन्य उत्पादन प्रणाली में स्थिरता का अर्थ है कि बाहरी निवेश शून्य होना चाहिए। उर्वरक,कीटनाशक और बीज बाहरी बाजार से नहीं आने चाहिए। किसान को खेती के वित्तपोषण के लिए बैंक से ऋण, सरकारी सहायता या एनजीओ पर निर्भर नहीं होना चाहिए। जब तक किसान मशीनरी सहित सभी बाहरी लागतों से पूरी तरह स्वतंत्र नहीं हो जाता, तब तक खेती टिकाऊ नहीं होगा।

एक तरफ हम किसानों को प्राकृतिक खेती करने के लिए कह रहे हैं, लेकिन जो बीज निगमों या सरकारों से मिलते हैं, वे संकर बीज हो सकते हैं। यह स्थिरता नहीं है।

इसलिए, किसानों को अपना फैसला लेने पर स्वायत्तता होनी चाहिए…

भूमि, बीज और उत्पादन के साधनों पर किसानों की संप्रभुता के लिए किसानों की समुदायिकता की आवश्यकता होती है। किसान बाजार उन्हें उपज की कीमत तय करने की अनुमति देगा, जो राष्ट्रीय या क्षेत्रीय बाजार कीमतों से प्रभावित नहीं हो। कीमत तय करने वाला कोई बिचौलिया या एजेंसी नहीं होनी चाहिए। उत्पादकों और उपभोक्ताओं के आपसी समझौते से तय की गई इस तरह की मूल्य निर्धारण प्रणाली यूरोप के ट्रांजिशन टाउन और अमेरिका के पश्चिमी तट पर कुछ किसान बाजारों में हो रही है।

पारंपरिक कृषि पद्धति के अवैज्ञानिक होने और पर्याप्त उपज पैदा करने में असमर्थ माना जाता है। सरकारी संस्थानों ने उच्च उपज पैदा होने वाले HYV बीजों के लिए जोर दिया है और आपने उल्लेख किया है कि इसी मानसिकता के कारण देशी किस्मों को नुकसान हुआ है। आप जैविक और प्राकृतिक खेती में खाद्य सुरक्षा की चिंताओं का जवाब कैसे देते हैं?

सबसे पहले हमें पारंपरिक खेती बनाम औद्योगिक खेती की उत्पादकता के मृत मुद्दे पर चर्चा नहीं करना चाहिए। एफएओ के दस्तावेजों और ढेर सारे प्रकाशनों ने पर्याप्त रूप से साबित किया है कि पारंपरिक फसलों और कृषि प्रणालियों में "उपज की कमी" की अवधारणा एक मिथक है। निस्संदेह पूर्वाग्रहों पर वास्तविकता को स्वीकार करना एक प्रमुख मुद्दा है।

मैंने अपनी यात्रा अकेले ही शुरू की थी और अब भी अकेले ही कर रहा हूं। मुझे सरकार से कोई समर्थन नहीं मिलता है, इसलिए मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अपनी मानसिकता बदलते हैं या नहीं। सरकार के फैसले उन किसानों को प्रभावित नहीं कर सकते हैं, जिनके पास अभी भी कुछ स्वायत्तता है। मैं आपको एक उदाहरण देता हूं, भले ही वह नकारात्मक है। सरकार ने [2010 में] बीटी बैंगन के बीज पर प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन पंजाब और महाराष्ट्र के कुछ किसान बांग्लादेश से बीजों की तस्करी कर रहे हैं। इसलिए प्रतिबंध ने बीटी बैंगन उगाने के उनके फैसले को प्रभावित नहीं किया है। यह सब किसान पर निर्भर करता है।

केंद्र सरकार की एक जैविक खेती नीति है जो एक दशक से अधिक पुरानी है, लेकिन अधिकांश किसान सिंथेटिक रसायन आधारित कृषि को जारी रखे हुए हैं। ‘अग्नि साल’ उगाने वाले किसान के मामले में सरकार ने उसे रोकने के लिए अधिकारी नहीं भेजे। यह किसानों का व्यक्तिगत निर्णय था कि वे किसी फसल की किस्म को उगाना जारी रखें या बंद कर दें। अंततः यह उनका प्रभाव है, जो खेती की स्थिति को निर्धारित करता है। नीतियां अनुकूल वातावरण बना सकती हैं, लेकिन इसके अभाव में भी लाखों किसान पारंपरिक खेती करते रहे हैं।

आपकी राय में क्या पंजाब या हरियाणा जैसे राज्यों की तुलना में अन्य जगहों पर इस तरह के स्वतंत्र निर्णय स्वदेशी समुदायों में अधिक प्रचलित हैं?

मुझे लगता है कि पूरा उत्तरी भारत इसके चंगुल में है, जहां सभी गतिविधियां व्यक्तिगत और अधिकतम लाभ पर आधारित हैं। यह पारिस्थितिक तंत्र और सामाजिक स्वास्थ्य की कीमत पर विकास की यूरोपीय या अमेरिकी अवधारणा पर आधारित है। हमने इसे समाज और व्यक्तियों के आदर्श लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया है। अधिकांश किसान पारंपरिक किस्मों को तब तक नहीं अपनाएंगे जब तक उपज के लिए उच्च कीमत का वादा नहीं किया जाता है।

अधिकांश जैविक किसान अधिक बाजार कीमतों की उम्मीद में खेती कर रहे हैं। अच्छे दाम नहीं मिले तो वे रुक जाएंगे क्योंकि इसके पीछे कोई विचारधारा नहीं है। यह मुनाफे पर आधारित है न कि उस तरह की कृषि पारिस्थितिकी पर जिसकी हमें तलाश करनी चाहिए।

दक्षिणी ओडिशा सहित दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में ऐसे किसान हैं, जिन्हें बाजार मूल्य की कोई चिंता नहीं है। वे इसे अपने उपभोग के लिए उपयोग करते हैं क्योंकि उन्हें चावल या बाजरा की एक विशेष किस्म की सुगंध और स्वाद पसंद है। बेशक उन्हें पैसे की जरूरत है, लेकिन वे मुख्य रूप से अपने खुद के उपभोग के लिए अनाज उगाते हैं। इस प्रकार के निर्वाह से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि नहीं होती है, इसलिए सरकार की दिलचस्पी नहीं है। इसलिए यदि आप पारंपरिक चावल या फसल की खेती कर रहे हैं, तो इससे औद्योगिक उत्पादन नहीं होता है और फिर सरकार को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं होती है।

लेकिन पूर्व-औद्योगिक खाद्य उत्पादन प्रणालियां अभी भी कायम हैं और ये वे किसान हैं जो पारंपरिक किस्मों को जीवित रखते हैं। स्वदेशी समुदायों में उनकी संख्या कम हो रही है क्योंकि तकनीकी-शहरी आधुनिकता के संपर्क में आने वाले उनके बच्चे अब रुचि नहीं ले रहे हैं।

क्या आप चावल की 1,400 से अधिक किस्मों के संरक्षण की अपनी पहल को बनाए रखने में ग्रामीण युवाओं के साथ बसुधा के माध्यम से जुड़ाव की व्याख्या कर सकते हैं? आप जिन समुदायों के साथ काम करते हैं, उनमें क्या होता है और आप किस तरह की दिलचस्पी देखते हैं?

जब आप समुदायों के साथ एक व्यक्तिगत संबंध बनाते हैं और उन्हें दिखाते हैं कि आप लाभ कमाने के लिए नहीं हैं, तो वे आपका सम्मान करते हैं और आपके काम का मूल्य देखते हैं। मेरा दृष्टिकोण देशी किस्मों [फसलों] के संरक्षण के लिए राष्ट्र की ओर से पारंपरिक किसानों के प्रति आभार व्यक्त करना है।

मैं बीजों के स्वास्थ्य लाभों पर अपने शोध के माध्यम से प्राप्त जानकारी को भी साझा करता हूं। तब वे एक फसल को बाजार मूल्य से परे देखते हैं। यह सांस्कृतिक पहलुओं को फिर से जोड़ने में भी मदद करता है जो मौद्रिक मूल्य से परे हैं।

अंतर्राष्ट्रीय सीमा के दोनों किनारों पर बंगाल में कई व्यंजनों को भुला दिया गया है, सिर्फ इसलिए क्योंकि उपयुक्त चावल की किस्म खो गई थी। एक विशेष प्रकार की इडली अब तमिलनाडु और केरल में उपलब्ध नहीं है क्योंकि चावल की कुछ विशेष किस्में खेतों से विलुप्त हो चुकी हैं। उन व्यंजनों से जुड़ी रस्में भी खत्म हो जाती हैं।

एक बार जब हम किसी किस्म को खो देते हैं, तो हम एक विशेष स्वाद या सुगंध भी खो देते हैं, जो किसी क्षेत्र और समुदाय के लिए विशिष्ट होता है। भौतिक संस्कृति जटिल रूप से जैव विविधता से संबंधित है और परस्पर निर्भर है और एक दूसरे को प्रभावित करता है। जब मैं एक बीज साझा करता हूं, तो यह एक मरती हुई संस्कृति को पुनर्स्थापित करता है।

यूरोपीय संघ की फार्म टू फोर्क रणनीति के तहत 2030 तक रासायनिक और खतरनाक कीटनाशकों का उपयोग और जोखिम को 50% तक कम करने, उर्वरकों के उपयोग को 20% तक कम करने और 2030 तक कुल कृषि भूमि का 25%जैविक खेती के तहत लाने का लक्ष्य है। कृषि-पारिस्थितिकीय विकल्पों की ओर संक्रमण पर आपकी क्या टिप्पणी है?

मुझे लगता है कि यह सोचना बेतुका है कि जैविक खेती से ग्रीनहाउस गैसों (जीएचजी) के उत्सर्जन में औद्योगिक खेती से कहीं ज्यादा वृद्धि होगी। पारंपरिक रासायनिक खेती में धान उगाने में पानी का बहुत अधिक उपयोग होता है। जलमग्न यूरिया जीएचजी उत्सर्जित करता है। उत्तर भारत के आधुनिक किसान जब चावल की पराली को जलाते हैं तो निश्चित रूप से इससे गंभीर प्रदूषण होता है, लेकिन यह चावल की खेती का दोष नहीं है। पिछली सहस्राब्दी में चावल की खेती के इतिहास में फसल के बाद पराली को जलाने के बारे में किसी ने कभी नहीं सोचा था। पूरे देश में शुष्क भूमि के किसानों ने सिर्फ 70 साल पहले तक कभी भी सिंचाई पंप का इस्तेमाल नहीं किया था। उन्होंने बहुत सारी सूखी खाद और फसल रोटेशन तकनीक का इस्तेमाल किया। इससे जीएचजी का उत्सर्जन नहीं होता है।

आधुनिक उत्पादन प्रणालियों में मशीनरी और परिवहन के लिए जीवाश्म ईंधन को जलाया जाता है। अब अगर आप इसकी तुलना सूखी खाद या मल्चिंग से करें तो मीथेन का उत्सर्जन लगभग न के बराबर होता है। सभी किसान गीली खाद का प्रयोग नहीं करते हैं। यह कृषि विज्ञान का विज्ञान है।

अधिकांश लोग इससे अनजान हैं और 'जैविक खेती' शब्द पर ध्यान केंद्रित करते हैं। लेकिन जैविक खेती किस प्रकार की होती है और इसके घटक क्या हैं, इसकी चर्चा कोई करता नहीं दिख रहा है। यदि कृषि-पारिस्थितिकी में संक्रमण होता है, तो इससे उत्सर्जन में वृद्धि नहीं होगी। कृषि विज्ञान कोई नई बात नहीं है। 1960 के दशक में भारत में हरित क्रांति के आगमन तक हजारों वर्षों से इसका अभ्यास किया जाता रहा है, जिसमें सिंथेटिक रसायनों और जीवाश्म ईंधन के उपयोग की मांग की गई थी।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन एक वास्तविकता है। खासकर बेमौसम बारिश और सूखा किसानों को प्रभावित करता है। इस माहौल में चिंता इस बात की है कि हम अपने भोजन का उत्पादन कैसे करेंगे। यह समस्या ज्यादातर औद्योगिक वर्ग ने पैदा की है।

हमें ऐसी फसलों की किस्मों को उगाना होगा जो जलवायु की अनिश्चितताओं जैसे लगातार बाढ़, लंबे समय तक सूखे, बेमौसम बारिश, मिट्टी की लवणता के लिए प्रतिरोधी हों। फसलों की पारंपरिक किस्में ही एकमात्र समाधान और सामान्य दृष्टिकोण है।

किसान उच्च ऋणग्रस्तता, कृषि संकट और पलायन से जूझ रहे हैं? जैविक खेती में क्या यह और बढ़ सकता है?

इन सारी समस्याओं की जड़ उपभोक्तावाद है। दक्षिणी ओडिशा और झारखंड में कई समुदाय हैं, जिनके पास कोई इलेक्ट्रॉनिक गैजेट नहीं हैं और इसके बिना वे खुश हैं। ओडिशा के रायगड़ा, कोरापुट और मलकानगिरी जिले के सैकड़ों स्वदेशी किसानों के पास अभी भी सेल फोन, टीवी और पंप सेट नहीं है, लेकिन फिर कहीं-कहीं आधुनिकीकरण के दबाव में लोग अपनी स्वदेशी संस्कृति को भूल गए हैं।

स्वदेशी फसल विविधता मानव रचनात्मक हस्तक्षेप का परिणाम है, यह प्राकृतिक चयन द्वारा नहीं बनाई गई है। यह हमारी मानवीय विरासत का हिस्सा है। यदि हम इसे छोड़ देते हैं तो ऋणग्रस्तता, संकट और आत्महत्या जैसे परिणाम होते हैं। हर साल फसलों का बंपर उत्पादन होता है, लेकिन खेत की कीमतें पर्याप्त नहीं होती हैं और किसान गरीब बने रहते हैं।

फिर कुछ ऐसा है जिसे मैं 'सिमेंटिक साम्राज्यवाद' कहता हूं। उदाहरण के लिए, कोई कंपनी आ सकती है और कह सकती है कि आपकी फसल अधिक उपज देने वाली नहीं है। इसलिए पहले से ही अधिक उपज देने वाली किस्म उगाने वाले किसान उसे छोड़ देता है। उनकी कॉर्पोरेट परिभाषा के अनुसार, सभी पारंपरिक फसल कम उपज देने वाले हैं। मेरे संग्रह में कई ऐसे बीज हैं, जो HYV से अधिक उपज देते हैं, लेकिन किसान उन्हें महत्व नहीं देते क्योंकि उन्हें HYV के रूप में लेबल नहीं किया जाता है। शब्दार्थ की दृष्टि से यह स्वीकार किया जाता है कि HYV के अलावा अन्य सभी किस्में कम उपज देने वाली होती हैं।

किसानों या उत्पादक बाजारों को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि बाहरी कारक उन्हें प्रभावित न करें। यूरोप में कई ऐसे शहर हैं, जो दिखाते हैं कि उनके लोग बाजार की ताकतों का विरोध कर रहे हैं। लेकिन भारत में ऐसा नहीं हो रहा है, यहां का मध्य वर्ग ऐसे बाजारों की बात नहीं करता। हम सुपरमार्केट में महंगे जैविक उत्पादों के बारे में बात करते हैं क्योंकि इसकी किसानों की तुलना में बेहतर पैकेजिंग की जाती है।

जो किसान अपने खेती के तरीकों में परिवर्तन कर रहे हैं, वे ग्रामीण या अर्ध-ग्रामीण क्षेत्रों में क्या कर सकते हैं? सरकारों के हस्तक्षेप के बिना वे कैसे टिके रह सकते हैं?

यह एक सरल प्रश्न है, लेकिन इसका उत्तर देना कठिन है। अगर पूरे गांव में केवल एक या दो किसान ही यह परिवर्तन करते हैं तो पारिस्थितिकीय खेती सफल नहीं हो पाती है। इसके लिए जागरूक व्यक्तियों के समुदाय की आवश्यकता है, जो अपने बच्चों और नाती-पोतों के लिए एक बेहतर भविष्य, एक अधिक टिकाऊ समाज बनाने की इच्छा रखते हैं। ये चीजें किसी व्यक्ति को जैविक खेती अपनाने के लिए प्रेरित कर सकती है।

मेरे अनुभव में सबसे जरूरी आवश्यकता लोगों के लोकाचार में बदलाव है। जैसा कि टिम बेंडर ने कहा है, "पर्याप्तता, न कि अधिकता, इस विश्वदृष्टि का आधार है।" यह सभी स्वदेशी संस्कृतियों और धार्मिक विश्वास प्रणालियों की परंपरा में भी जीवित है। भारत में उपनिषद, जैन संतों की शिक्षाएं, [गुरु] नानक, कबीर सभी संचय और उपभोक्तावादी वासना के खिलाफ उपदेश देते हैं।

उदाहरण के लिए आधुनिक किसान विरासत में मिले बीजों को छोड़ देता है और हाइब्रिड टमाटर या आलू उगाने के लिए हर साल हाइब्रिड बीज और कृषि रसायन खरीदने में निवेश करने के लिए पैसे उधार लेता है। और फिर, वह अपनी बंपर उपज को औने-पौने दाम पर भी नहीं बेच पाता है। सभी राज्यों में अक्सर ऐसा ही होता है। महाराष्ट्र में बैंगन की बंपर उपज देखी गई, जो 20 पैसे प्रति किलोग्राम की दर से बिका। पश्चिम बंगाल में आलू पिछले एक दशक से 20 पैसे प्रति किलोग्राम की दर से बिक रहा है।

आधुनिक कृषि प्रणाली में उत्पादक के परिवार की ऋणग्रस्तता और भूख सामान्य है क्योंकि कृषि की आधुनिकीकृत व्यवस्था में सरकार कल्याणकारी राज्य की जिम्मेदारियों को खुद से दूर करते हुए "मुक्त बाजार" पर झुकी हुई है। किसान इस आधुनिकता से तब तक नहीं बच सकते, जब तक वे उत्पादन और उपभोग की आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था को नहीं छोड़ते।

उत्पादन और वितरण प्रणाली का स्थानीयकरण तभी संभव है, जब समुदायवादी लोकाचार को बहाल किया जाए। जहां कहीं भी सामुदायिक कल्याण को व्यक्तिगत लाभ चाहने वाले हित से अधिक महत्व दिया गया है, वहां स्थिरता प्राप्त की गई है।मेसोअमेरिका में क्यूबा और ला वाया कैम्पेसिना इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।