इंफाल, बिष्णुपुर, चुराचांदपुर: सत्रह साल के मार्विन मंगलेनथांग मैकेनिकल इंजीनियर बनना चाहते थे, लेकिन यह 3 मई के पहले की बात है। आज उनके हाथों में हथियार है और अब वह अपने दुश्मनों की जान लेना चाहते है।

जब 3 मई को मणिपुर में पहली बार हिंसा भड़की, तो मारे गए लोगों में मंगलेनथांग के पिता भी शामिल थे। मंगलेनथांग ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी है। उनका कहना है कि अब उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य बदला लेना है।

मणिपुर में बहुसंख्यक मैतेई समुदाय और अल्पसंख्यक कुकी समुदाय के बीच जातीय संघर्ष गृहयुद्ध में बदल चुका है। राज्य सरकार के अनुसार चार महीने की उथल-पुथल और 40,000 से अधिक सुरक्षा बलों की मौजूदगी के बावजूद मणिपुर में हिंसा लगातार जारी है। दोनों पक्षों के आम नागरिक मामले को अपनी हाथों में ले रहे हैं और इससे सबसे अधिक प्रभावित बच्चे हो रहे हैं।

अगस्त में केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री अन्नपूर्णा देवी ने राज्यसभा में एक लिखित जवाब में कहा कि मणिपुर में मौजूदा स्थिति के परिणामस्वरूप 14,763 स्कूल जाने वाले बच्चे विस्थापित हुए हैं।

हालांकि उन्होंने आगे यह भी बताया कि इन विस्थापित बच्चों में से 93% से अधिक ने राहत शिविरों के नोडल अधिकारियों की सहायता से अपने आपको निकटतम स्कूलों में दाखिला करा लिया है।

राज्य सरकार के गृह मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि मणिपुर में 351 राहत शिविरों में 22,000 से अधिक बच्चे रह रहे हैं। उनमें से 76 अनाथ बच्चे विस्तारित परिवारों के साथ रह रहे हैं, जबकि 121 को बाल गृहों में स्थानांतरित कर दिया गया है।

हालांकि जब इंडियास्पेंड ने 25 अगस्त से 5 सितंबर के बीच तीन जिलों के स्कूलों और राहत शिविरों का दौरा किया तो पाया कि यह दावा, जमीनी हकीकत से मेल नहीं खाता है। विशेष रूप से चुराचांदपुर जिले में कुकी-ज़ो समुदाय के छात्रों की एक बड़ी संख्या है, जो स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। इसका कारण यह भी है कि जिन स्कूलों में उन्हें जाना था, उनमें से कई तो राहत शिविर बन चुके हैं। निजी स्कूल आधी ट्यूशन फीस ले रहे हैं, लेकिन हिंसा के कारण आर्थिक रूप से प्रभावित माता-पिता इसे वहन करने में सक्षम नहीं हैं।

हमने शिक्षा मंत्री से आधिकारिक आंकड़ों और ज़मीनी हकीकत के बीच अंतर के बारे में पूछा है। उनका जवाब आने पर हम स्टोरी को अपडेट करेंगे।

राहत शिविरों में राहत

चित्तीदार टी-शर्ट में 11वीं कक्षा के छात्र मार्विन मंगलेनथांग चुराचांदपुर के एक प्रशिक्षण केंद्र में हथियार चलाने का प्रशिक्षण ले रहे है। हिंसा शुरू होने से पहले वह एक मैकेनिकल इंजीनियर बनना चाहते थे।

कांगपोकेपी जिले का नौ वर्षीय लालबोई एक समय अपनी कक्षा का सबसे अच्छा छात्र था, हालांकि अब वह गणित के आसान सवाल भी नहीं हल कर पा रहा है। उसका अधिकांश दिन अपनी मां की तस्वीर को निहारने में बीत जाता है, जिनकी हत्या बीते दिनों उसके आंखों के सामने हुई थी। उस समय लालबोई का परिवार कांगपोकेपी से भागने का प्रयास कर रहा था।

लालबोई तो बच गया और अब वह चूड़ाचांदपुर के एक राहत शिविर में है, लेकिन अपनी मां की मौत के कारण वह सदमे में है और पढ़ाई क्या किसी भी चीज़ पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा है।

चुराचांदपुर के राहत शिविरों में छात्रों को मुफ्त में पढ़ाने वाली 28 वर्षीय कॉलेज छात्रा ग्रेसी सामते बताती हैं, "मई के शुरुआती दिनों में लालबोई अपने पिता के साथ इस राहत शिविर में पहुंचा था। शुरुआत में वह पूरी तरह से चुप रहता था, लेकिन जैसे-जैसे हमने उसकी काउंसलिंग शुरू की, वह धीरे-धीरे खुलने लगा। तभी हमें उसकी मां की दुखद मौत के बारे में पता चला और यह भी पता चला कि उसने कैसे अपनी आंखों के सामने अपनी मां को मरते हुए देखा था। लालबोई का अपनी मां के साथ गहरा रिश्ता था। जब उनके गांव में हिंसा भड़की तो उसके शराबी पिता घर में नहीं थे।''

सामते ने बताया कि लालबोई के पिता को अब मोर्चे पर तैनात किया गया है। इस बीच नौ साल का बच्चा लालबोई अपनी मरी हुई मां को याद करके रोने लगता है। सामते ने बताया, "लालबोई स्कूल भी नहीं जा सकता क्योंकि चुराचांदपुर का उसका स्कूल पहाड़ियों में स्थित है, जो सीमा के करीब होने के कारण इसे दुर्गम और खतरनाक बनाता है और वहां रोजाना गोलीबारी होती है।"

इसलिए सामते और उनके जैसे अन्य स्वयंसेवक सीमित पुस्तक और सीमित अध्ययन सामग्री होने के बावजूद बच्चों को शिक्षा प्रदान करने का हरसंभव प्रयास कर रहे हैं।

समते ने इंडियास्पेंड को बताया कि लालबोई को एक बार राहत शिविर के पीछे कुछ कॉलेज छात्रों के साथ ड्रग्स का सेवन करते हुए पकड़ा गया था। इस घटना के बाद उन्हें राहत शिविर के केयरटेकर की कड़ी निगरानी में रखा गया है।

जोनल शिक्षा अधिकारी लहिंग्टिनेंग सिंगसिट ने बताया कि हिंसा शुरू होने से पहले कांगपोकेपी जिले के सरकारी और निजी स्कूलों में कुल मिलाकर 55,950 छात्र पढ़ते थे। उन्होंने कहा कि उनके पास इस बात का डेटा नहीं है कि हिंसा के बाद कितने छात्र स्कूल पढ़ने आ रहे हैं।

उन्होंने आगे बताया, "कांगपोकेपी के राहत शिविरों में 3,532 छात्र रह रहे हैं, जिनमें से 3,351 को जिले के स्कूलों से जोड़ा गया है, जो कि 90% से अधिक है। हालांकि हम नहीं जानते कि इलाके में तनाव के कारण वे सभी वास्तव में स्कूल जा पा रहे हैं या नहीं। कांगपोकेपी में 421 सरकारी स्कूल हैं, जिनमें से केवल 366 ही चालू हैं।"

हमने इम्फाल के क्षेत्रीय शिक्षा मंत्री से विस्थापित मैतेई छात्रों के डेटा और स्कूल वापस जाने वाले छात्रों की संख्या को जानने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।

नशे के क़रीब आना

लालबोई एकमात्र ऐसा बच्चा नहीं है, जो सदमे और शिक्षा के अभाव के कारण नशीली दवाओं के सेवन की ओर आकर्षित हुआ है। चुराचांदपुर में यंग लर्नर स्कूल की प्रधानाचार्या ने बताया कि हिंसा व संघर्ष के कारण बच्चों के बीच नशे के उपयोग में वृद्धि हुई है।

चुराचांदपुर में यंग लर्नर्स स्कूल की प्रधानाध्यापिका रामसीमजो तुसिंग कहती हैं, ''चल रही हिंसा ने छात्रों के बीच अनुशासन की भावना को खत्म कर दिया है। वे हिंसा के वीडियो देखते हैं और हिंसा व संघर्ष के सदमे से बचने के साधन के रूप में नशीली दवाओं की ओर झुक रहे हैं। सरकार की तरफ से इन बच्चों के लिए मेडिकल सुविधा, थेरेपी या काउंसलिंग की कोई व्यवस्था नहीं है। हालांकि अध्यापक अपनी तरफ से मदद करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी संख्या सीमित है और वे पेशेवर परामर्शदाता (काउंसलर) नहीं हैं।”

हमारी रिपोर्टिंग में पाया गया कि पूरे मणिपुर में 105 नशामुक्ति पुनर्वास केंद्र हैं और सब भरे हुए हैं। हाल के महीनों में नशे की लत की औसत आयु में उल्लेखनीय कमी आई है, जो 20-21 साल से घटकर लगभग 14-15 साल हो गई है। यह दर्शाता है कि छोटे बच्चे भी अब हिंसा और संघर्ष के सदमे से बचने के लिए नशे का सेवन कर रहे हैं।

बुनियादी ढांचे को आघात

सरकार के दावों के विपरीत चूड़ाचांदपुर के कई सरकारी स्कूल बंद हैं। यहां तक कि जो स्कूल फिर से खुल गए हैं, वे भी छात्रों को कक्षाओं में वापस लाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

चुराचांदपुर में रॉयल एकेडमी के प्रधानाचार्य रेजॉइस कैमी अपने छात्रों की दुर्दशा साझा करते समय रो पड़े। उन्होंने खुलासा किया कि उनके स्कूल में पहले 300 छात्र हुआ करते थे, अब केवल 50-60 छात्र हैं। रोते हुए उन्होंने बताया, "कई छात्र राज्य छोड़ चुके हैं और अन्य विस्थापित हो गए हैं या फिर वे ग्राम स्वयंसेवक ड्यूटी पर हैं। कुछ इतने सदमे में हैं कि स्कूल वापस आने में असमर्थ हैं।”

चुराचांदपुर का एक स्कूल जो अब राहत शिविर में बदल चुका है

उन्होंने आगे बताया, "हमारे स्कूल में तोड़फोड़ की गई, किताबें जला दी गईं। हमें अब अध्ययन सामग्री और किताबों के लिए गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) पर निर्भर रहना पड़ रहा है क्योंकि सरकारी मदद की भारी कमी है। पिछले सप्ताह राहत शिविरों से छह छात्र बिना जूतों के स्कूल पहुंचे। उन्होंने मुझे बताया कि उनका सब कुछ जल गया है, जिसमें उनके जूते भी शामिल हैं। मैंने अपने पैसे से उनके लिए जूते खरीदे।”

चुराचांदपुर के क्षेत्रीय शिक्षा अधिकारी जांगखोहाओ हाओकिप ने इंडियास्पेंड को बताया कि 31 अगस्त तक जिले के 212 सरकारी स्कूलों में से केवल 44 ही चालू हो पाए हैं क्योंकि बाकी स्कूलों को 22,000 से अधिक लोगों के लिए राहत शिविरों में बदल दिया गया है।

हाओकिप ने इंडियास्पेंड को बताया कि हिंसा शुरू होने से पहले चुराचांदपुर के सरकारी स्कूलों में 17,525 छात्र नामांकित थे, लेकिन 31 अगस्त तक के आंकड़ों के अनुसार अब केवल 3,700 छात्र ही स्कूल जा रहे हैं।

उन्होंने कहा, "कई लोग राज्य से बाहर चले गए हैं। जो लोग अभी भी मणिपुर में हैं, वे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं क्योंकि वे शहर के राहत शिविरों में रहते हैं, जबकि अधिकांश चल रहे सरकारी स्कूल पहाड़ी इलाकों में हैं। बच्चों को वहां भेजना सुरक्षा का एक बड़ा मुद्दा है क्योंकि वहां लगातार गोलीबारी होती रहती है। इसके अलावा दूरी भी एक प्रमुख कारण है।”

"हम इन बच्चों को निजी स्कूलों में नहीं भेज सकते क्योंकि स्कूल अपने शिक्षकों को वेतन देने के लिए ट्यूशन फीस का 50% ले रहे हैं और राहत शिविरों के बच्चे और उनके अभिभावक किसी भी तरह से यह भुगतान करने में सक्षम नहीं हैं।"

12 साल की जेसिका चानू इंफाल के एक राहत शिविर में पढ़ाई कर रही हैं। उन्हें पढ़ाई जारी रखने में कठिनाई हो रही है क्योंकि वह जिस भाषा में पढ़ती थीं, शिक्षक उससे अलग भाषा का उपयोग करते हैं। हिंसा और कर्फ्यू के कारण स्कूल भी अधिकतर दिन बंद ही रहते हैं।

ऐसी ही स्थिति इंफाल में भी है, जहां बहुसंख्यक मेइती लोग रहते हैं। बारह वर्षीय जेसिका चानू अपने सबसे अच्छे दोस्त की तलाश में है, जो म्यांमार की सीमा पर एक छोटे से शहर मोरेह में छूट गई है। यह चानू का भी घर हुआ करता था।

जुलाई में चानू ने अपने दोस्त से संपर्क करने का प्रयास किया था, लेकिन राहत शिविर के कार्यवाहक ने उसे तब डांट लगाई थी। चानू को समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्यों डांटा जा रहा है, इसलिए वह रोने लगी। फिर उसे उसके घर को आग लगाए जाने और लोगों को मारे जाने का एक वीडियो दिखाया गया और इसके बाद उसे अपने सबसे अच्छे दोस्त के साथ कभी भी बात न करने की हिदायत दी गई। कारण- चानू मैतेई है और उसकी सबसे अच्छी दोस्त कुकी है।

चानू ने इंडियास्पेंड को बताया, "मुझे अपने दोस्त की बहुत याद आती है, लेकिन यहां कैंप में लोग मुझसे कहते हैं कि किसी कुकी से दोस्ती रखना बुरी बात है। मैं मोरेह के एक निजी स्कूल में पढ़ती थी, लेकिन अब मुझे यहां एक सरकारी स्कूल में भर्ती कराया गया है, जहां पर एक राहत शिविर भी लगा है। यहां के अधिकतर शिक्षक मणिपुरी भाषा में बातें समझाते हैं, जो मेरी समझ में नहीं आता। वैसे भी वे आधे समय संघर्ष की ही बात करते हैं। शिक्षक कम होने के कारण गणित, हिंदी और विज्ञान जैसे सिर्फ महत्वपूर्ण विषय ही पढ़ाये जा रहे हैं। मुझे ऐसा लग रहा है कि जैसे मैं पढ़ाई में पिछड़ रही हूं। आस-पास के इलाकों में हिंसा या कर्फ्यू के कारण आधे दिन वैसे भी स्कूल बंद रहते हैं। यहां पढ़ाई और ना पढ़ाई होना बिल्कुल बराबर है।"

यौन हिंसा के डर से शिक्षा का त्याग

सत्रह वर्षीय किमहोइलिंग को उसके राहत शिविर से लगभग 8-9 किमी दूर कांगपोकेपी के नागा बाहुल्य क्षेत्र के एक सरकारी स्कूल में फिर से भर्ती कराया गया था। हालांकि सरकार द्वारा अगस्त में कक्षा 9 से 12 तक के स्कूलों को फिर से खोलने से कुछ दिन पहले उसने दो महिलाओं को सार्वजनिक रूप से नग्न परेड करने और कथित तौर पर बलात्कार करने का एक वायरल वीडियो देख लिया। ये महिलाएं किमहोइलिंग के ही गांव बी फैनोम की थीं। तब से उसने एक भी कक्षा में भाग नहीं लिया है। वह कहती है कि वह मौत से तो नहीं लेकिन यौन उत्पीड़न या इसकी किसी भी संभावना से डरती है।

किमहोइलिंग कहती है, "मैं डॉक्टर बनना चाहती थी और मैं इसके लिए लगन से तैयारी कर रही थी। इस हिंसा के कारण मेरे सपने बिखर गए हैं। मैंने पिछले चार महीनों से किसी भी कक्षा में भाग नहीं लिया है। भले ही स्कूल फिर से खुल गए हैं, लेकिन हिंसा बंद नहीं हुई है। हर दिन लोग अपनी जान गंवा रहे हैं। महिलाओं द्वारा अकल्पनीय भयावहता सहने की जो कहानियां मैंने सोशल मीडिया पर सुनी और देखी हैं, उन्हें देखते हुए मैं कोई जोखिम नहीं लेना चाहती हूं। कोई भी लड़की या महिला यह नहीं चाहती कि उसके साथ बलात्कार या यौन उत्पीड़न किया जाए। निराशाजनक बात यह है कि मणिपुर में महिलाओं को बाहरी लोगों ने नहीं बल्कि हमारे अपने लोगों ने धोखा दिया है। हमने अपना भरोसा खो दिया है और जब तक सरकार पूर्ण शांति सुनिश्चित नहीं कर लेती, मुझे नहीं लगता कि मैं स्कूल लौट पाऊंगी।”

यौन शोषण की वायरल कहानियों ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि माता-पिता अपनी बेटियों को स्कूल भेजने से घबरा रहे हैं। 11वीं कक्षा में पढ़ने वाली 16 वर्षीय ज़ेबा थोइबा का परिवार चुराचांदपुर को बिष्णुपुर से अलग करने वाले बफर जोन के पास रहता है। हिंसा के कारण 31 अगस्त तक यहां पर कम से कम आठ मौतें हो चुकी हैं। अब स्कूल जाने की बात को लेकर ज़ेबा की अपने माता-पिता के साथ रोज बहस होती है।


उसे स्कूल तक पहुंचने के लिए सुरक्षा की चार परतों से गुजरना होता है और दोनों तरफ गांव के सशस्त्र स्वयंसेवक भी होते हैं।

ज़ेबा पढ़ना चाहती है, लेकिन यौन उत्पीड़न की रिपोर्टों से उपजी चिंताओं के कारण उसके माता-पिता ने जुलाई में उसका नाम स्कूल के रोस्टर से हटा दिया।

ज़ेबा के पिता मोहम्मद थोइबा ने कहा, "हमने अपनी सबसे बड़ी बेटी को शिक्षा के लिए अपने रिश्तेदारों के पास असम भेज दिया है। हालांकि, हम अपनी अन्य दो बेटियों को राज्य से बाहर भेजने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं और हम यहां की स्थिति के बारे में अनिश्चित हैं। स्थिति इतनी अस्थिर है कि कभी भी कुछ भी हो सकता है। हर दिन हम लोगों को अत्याधुनिक हथियार ले जाते हुए देखते हैं और हम नहीं जानते कि ये व्यक्ति कमांडो हैं, आतंकवादी हैं या नागरिक हैं। हम अपनी लड़कियों को पहाड़ी स्कूलों में नहीं भेज सकते, जहां उन्हें सुरक्षा की कई परतों को पार करना पड़ता है और हथियारबंद लोगों का भी सामना करना पड़ता है। हमारे जैसे कई परिवारों ने अपनी बेटियों का नाम स्कूल से हटवा लिया है।”

बंदूक, सदमा और बदला

पिछले सोमवार की सुबह 12 वर्षीय औथोबा, बिष्णुपुर के नारनसेना गांव के चौराहे पर सैकड़ों मीरा पैबीस के बीच बैठे थे। मीरा पैबीस को ‘मणिपुर की माताएं’ भी कहा जाता है। औथोबा की मां भी उन्हीं सैकड़ों मीरा पैबीस में से एक हैं। उनके साथ सैकड़ों हथियारबंद लोग अत्याधुनिक हथियार लेकर मोर्चे पर जाने की तैयारी कर रहे हैं, जहां लड़ाई चल रही है। कुछ ने कहा कि वे सशस्त्र अरामबाई तेंगगोल समूह का हिस्सा थे, कुछ ने कहा कि वे गांव के स्वयंसेवक थे। हालांकि ग्रामीणों का मानना था कि ये मैतेई विद्रोही समूह के लड़ाके थे। इंडियास्पेंड स्वतंत्र रूप से उनकी पहचान की पुष्टि नहीं कर सका।

औथोबा हथियारबंद लोगों की मौजूदगी में भी सहज दिखा। उसने इन हथियारबंद लोगों को देखने के लिए स्कूल छोड़ने की बात को भी स्वीकार किया, जिनके साथ वह पिछले कुछ महीनों से समय बिता रहा है, हथियार चलाना सीख रहा है और उम्मीद कर रहा है कि उसे भी अपना एक हथियार मिल जाएगा। ताकि वह भी अपने लोगों को ‘अवैध प्रवासियों’ से बचा सके, जो उन्हें नुकसान पहुंचा रहे हैं।

जब उनसे पूछा गया कि यह बात उन्हें किसने बताई तो उसने कहा, 'हर कोई ऐसा कहता है, इसलिए यह सच ही होगा।'

अकेले 29-31 अगस्त के बीच तीन दिनों में बिष्णुपुर-चुराचांदपुर सीमा रेखा के पास नारनसेना और थमनापोकपी गांवों में कम से कम आठ लोग मारे गए। गोलीबारी की आवाजें तो रोजमर्रा की घटना है।

सैकड़ो मीरा पैबी में से एक 42 वर्षीय मेमा सैखोम कहती हैं, "हम शांति चाहते हैं, लेकिन कुकी चाहते हैं कि संघर्ष कभी ख़त्म न हो। अब बच्चों को भी इस तरह की स्थिति में लाया जा रहा है। हम कितना भी चाहें, हम उन्हें संघर्ष से दूर नहीं रख सकते। उन्हें पता चल जाता है और हमें उन्हें बताना भी पड़ता है कि हम उन्हें इन बाहरी लोगों से लड़ने के लिए तैयार कर रहे हैं।”

मेमा ने आगे बताया, "मेरे 12-वर्षीय बेटे ने अपने चाचा की लाश को देखा, जो गांव के स्वयंसेवकों में से एक थे। 31 अगस्त को मोर्चे पर उनकी मृत्यु हो गई। जब मेरे बेटे ने अपनी चाची, चचेरी बहनों और मुझे रोते हुए देखा, तो वह घर वापस आ गया और मुझसे कहा कि वह अपने चाचा की मौत का बदला लेगा। एक मां के रूप में इस बात पर मुझे खुश नहीं होना चाहिए, लेकिन अब हम मां के रूप में नहीं सोच रहे हैं। हम पहले मैतेई हैं। भले ही हमें अपने बेटों को शहीद के रूप में देखना पड़े, लेकिन हम उन्हें अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान कर देंगे। यही कारण है कि मैं अपने बेटे को सशस्त्र स्वयंसेवकों को देखने और उनसे सीखने के लिए प्रोत्साहित कर रही हूं। स्कूल उन्हें बचाव और सुरक्षा करना नहीं सिखाएंगे।”

बिष्णुपुर और चुराचांदपुर के पास मोर्चे पर सिंगल बैरल गन के साथ सीललगॉन, संघर्ष में पिता के मारे जाने के बाद उन्होंने हथियार उठाए हैं

इस पूरे क्षेत्र में ऐसी भावनाएं आम हैं। 18-वर्षीय सीललगॉन एक कुकी है, जो वर्तमान में बारहवीं कक्षा का छात्र है। वह चुराचांदपुर के सेंट पॉल इंस्टीट्यूट के अपने अंग्रेजी शिक्षक से हर दिन मिलता है। हालांकि उनकी मुलाकात स्कूल में नहीं बल्कि मोर्चे पर होती है, जहां वे लड़ाका बन गए हैं। जब इंडियास्पेंड ने उनसे मुलाकात की, तो सीललगॉन अपनी मां से मिलने के लिए दो दिन की छुट्टी पर गया था। सीलालगॉन के पिता मणिपुर हिंसा में हताहत हुए लोगों में से एक थे।

सीललगॉन ने इंडियास्पेंड को बताया, "मई के तीसरे सप्ताह में मुझे मोर्चे पर तैनात किया गया था। मैंने लोगों को मरते देखा है, लेकिन मुझे लगता है कि मैं नहीं मरूंगा क्योंकि मैं एक दिन सेना अधिकारी बनकर अपने देश की रक्षा करना चाहता हूं। अंतर यह है कि अभी मैं वही काम अपनी मातृभूमि मणिपुर के लिए कर रहा हूं। सेना में जाना मेरे पिता का सपना था। मैं अपने पिता की तरह कभी हथियार नहीं उठाना चाहता था, जो शांतिप्रिय और किसान थे। लेकिन बिना किसी गलती के 'नार्को-आतंकवादी' होने की अफवाह के कारण उनकी हत्या कर दी गई और अब मैं भी हथियार उठाने पर मजबूर हूं।"

मणिपुर में जारी हिंसा ने छोटे बच्चों को सामान्य से कहीं अधिक तेजी से परिपक्व बना दिया है। सीललगॉन ने कहा, ''यह किसी के लिए अच्छा नहीं है, इसलिए मैं मरने से बचने के लिए सभी सावधानियां बरतता हूं, क्योंकि मैं आगे पढ़ना चाहता हूं। हालांकि मेरे अंदर अब स्कूली बच्चे जैसी कोई चीज़ नहीं है। लड़ने में सक्षम हर पुरुष या महिला अब मोर्चे पर जा रहे हैं क्योंकि हमारे पास हमारी रक्षा के लिए हथियार या सुरक्षाबल नहीं हैं। हमें अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी।”

वह आगे कहते हैं, ''हमें पूर्व सैनिकों द्वारा प्रशिक्षित किया जा रहा है। वे हमें घर में बने बम बनाना, कंटीले तारों से गुजरना, अपनी सहनशक्ति पर काम करना और बोर व राइफल दोनों से फायर करना सिखाते हैं। मेरी माँ और तीन बहनें कांगवई में अपने घर को वापस आ गई हैं। मैं उनकी सुरक्षा के लिए ऐसा कर रहा हूं, अन्यथा उन्हें भी मार दिया जाएगा या फिर उनका बलात्कार कर दिया जाएगा।”