बेंगलुरु: ये आंकड़े एक कहानी बताते हैं:

भारत में 3,71,848 कैदी (प्री ट्रायल) ऐसे हैं जिनकी सुनवाई अदालत में शुरू भी नहीं हुई है, जिन्हें स्थानीय रूप से विचाराधीन कैदी के रूप में जाना जाता है।

भारतीय जेलों में बंद सभी कैदियों में से 76% (चार में से तीन) मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह वैश्विक औसत, जो कि 34% है, से बहुत ज़्यादा है।

भारत 54 राष्ट्रमंडल देशों (पूर्व ब्रिटिश उपनिवेशों, जिनमें से कई देशों की कानूनी प्रणाली में एक औपनिवेशिक झलक दिखाई देती है) में विचाराधीन कैदियों की संख्या में दूसरे स्थान पर है। पहले स्थान पर बांग्लादेश है, जून 2022 में कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) द्वारा विचाराधीन कैदियों पर बनाई गई एक रिपोर्ट के अनुसार।

लिकटेंस्टीन (91.7%), सैन मैरिनो (88.9%), हैती (81.9%), गैबॉन (80.2%) और बांग्लादेश (80%) के बाद विश्व स्तर पर भारत छठे स्थान पर है।

साल 2020 के भारत सरकार के आंकड़ों के अनुसार, चार में से एक विचाराधीन कैदी को एक वर्ष या उससे अधिक के लिए कैद किया गया है, और आठ में से एक को दो से पांच साल तक जेल में रखा गया है। साल 2010 से 2020 के दशक में, एक साल या उससे अधिक समय से जेल में बंद विचाराधीन कैदियों का प्रतिशत लगभग सात प्रतिशत से बढ़कर 29% हो गया।

ये आंकड़े यह बताते हैं कि भारत में पहले से कहीं अधिक कैदी मुकदमे की प्रतीक्षा कर रहे हैं, और पहले की तुलना में अधिक कैदी जेल में अधिक समय बिता रहे हैं।

साल 2020 में कोविड लॉकडाउन के दौरान जब भारत की अदालतें ऑनलाइन चल रही थीं, उस दौरान दिसंबर 2020 तक की अवधि में विचाराधीन कैदियों की संख्या में 12% की वृद्धि देखी गई, जबकि पिछले चार वर्षों में इनकी औसत वृद्धि 4% थी, इंडियास्पेंड ने फरवरी 2022 की रिपोर्ट में बताया है।

इसका मतलब यह है कि भारत में हर चार में से तीन कैदी बिना किसी अपराध के दोषी पाए बिना दंडात्मक सजा काट रहे हैं।

इसके अलावा, जैसे-जैसे अधिक लोग हर दिन गिरफ्तार किए जाते हैं, वैसे-वैसे अधिक लोग मुकदमे की प्रतीक्षा में जेल में अधिक समय बिताते हैं, यह हमारी जेलों में भीड़ को बढ़ाता है। यह बढ़ती भीड़ पहले से ही अस्वच्छ स्थितियों और गन्दगी से जूझ रही हमारी जेलों, जहां स्वास्थ्य सेवा आसानी से उपलब्ध नहीं होती, में संचारी रोगों के प्रसार के खतरे को बढ़ा देता है, सीएचआरआई रिपोर्ट बताती है।

महामारी की पहली लहर के दौरान विचाराधीन कैदियों की संख्या में बढ़ोतरी को ध्यान में रखते हुए, उच्चतम न्यायालय ने उच्चाधिकार प्राप्त समितियों को नियुक्त किया, जिसके परिणामस्वरूप 68,264 विचाराधीन कैदियों की रिहाई हुई और सीएचआरआई द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार जेल में रहने वालों की संख्या में 17% की गिरावट आई।

हालाँकि, 11 जुलाई, 2022 को, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दशकों से अदालत द्वारा कई निर्णयों और निर्देशों के बावजूद, भारतीय जेलों में विचाराधीन कैदियों की "बाढ़" थी। अदालत ने केंद्र सरकार को यूनाइटेड किंगडम में इसी तरह के अधिनियम की तर्ज पर जमानत देने की प्रक्रिया को कारगर बनाने के लिए एक अलग जमानत अधिनियम पेश करने पर विचार करने का निर्देश दिया।

अदालत ने राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासनों को विशेष अदालतों में रिक्तियों को तेजी से भरने और अधिक विशेष अदालतों के गठन के अपने पिछले आदेशों के पालन का भी निर्देश दिया। इसने उच्च न्यायालयों को उन विचाराधीन कैदियों की रिहाई की सुविधा प्रदान करने का भी निर्देश दिया जो अपनी जमानत शर्तों का पालन करने में सक्षम नहीं थे। उच्चतम न्यायालय ने प्रशासन और अदालतों को हलफनामे/स्टेटस रिपोर्ट दाखिल करने के लिए चार महीने का समय दिया।

उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना ने कहा, "हमे उन प्रक्रियाओं पर सवाल उठाना चाहिए जो बिना किसी मुकदमे के लंबे समय के लिए कैदियों की संख्या बढाती है।" और 30 जुलाई को, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिला-स्तरीय विचाराधीन समीक्षा समितियों से "अंडर-ट्रायल कैदियों की रिहाई में तेजी लाने" का आग्रह किया।

भारत की जेलें विचाराधीन कैदियों से क्यों भरी हुई हैं?

कानूनी विशेषज्ञ भारत में विचाराधीन कैदियों के उच्च प्रतिशत की व्याख्या करने के लिए कई कारणों की ओर इशारा करते हैं, उनमें से प्रमुख है बिना सोचे-समझे पुलिस द्वारा अंधाधुंध गिरफ्तारी। इस प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए, उच्चतम न्यायालय ने जुलाई 2022 में कहा कि गिरफ्तारी एक कठोर उपाय है जिसे बेगुनाही के अनुमान के आधार पर संयम से इस्तेमाल किया जाना चाहिए। अनावश्यक गिरफ्तारी ने जांच एजेंसियों की औपनिवेशिक युग की मानसिकता को प्रदर्शित किया है, न्यायालय ने फटकार में कहा।

विचाराधीन कैदियों, खासकर आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के, की कानूनी सहायता प्राप्त करने में असमर्थता भी एक संबंधित मुद्दा है। भारत में मुफ्त कानूनी सहायता एक संवैधानिक अधिकार है। यह गरीब लोगों की जमानत की शर्तों के पालन करने में असमर्थता के साथ जुड़ा हुआ है जिसमें लगभग हमेशा एक वित्तीय बांड शामिल होता है।

इस मुद्दे को जटिल बनाने वाला तथ्य यह है कि एक विचाराधीन कैदी अपनी जीविका कमाने की क्षमता खो देता है, इस प्रकार अतिरिक्त वित्तीय दबाव पैदा होता है और पूरे परिवार को गरीबी में धकेल देता है।

कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि इस समस्या को हल करने के लिए भारत को तत्काल ब्रिटेन के जमानत अधिनियम जैसी प्रथाओं को अपनाना चाहिए, जिसकी अनुशंसा उच्चतम न्यायालय ने भी की है। हालांकि, एक नया जमानत कानून अपने आप में विचाराधीन आबादी को कम करने में मदद नहीं करेगा, विशेषज्ञ पुलिस बलों द्वारा मनमानी गिरफ्तारी को रोकने की आवश्यकता की ओर इशारा करते हुए तर्क देते हैं।

इंडियास्पेंड ने गृह मंत्रालय और कानून और न्याय मंत्रालय (कानूनी मामलों और विधायी विभागों) के वरिष्ठ अधिकारियों से एक नए जमानत कानून, अंधाधुंध गिरफ्तारी और गलत अधिकारियों के लिए दंड, और अन्य देशों से प्रथाओं को अपनाने की योजना पर टिप्पणी के लिए अनुरोध किया है। प्रतिक्रिया मिलने पर हम कहानी को अपडेट करेंगे।

अंधाधुंध गिरफ्तारी और विचाराधीन कैदियों की बढ़ती संख्या

पत्रकार मोहम्मद जुबैर को 27 जून, 2022 को दिल्ली पुलिस ने धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोप में गिरफ्तार किया था। उच्चतम न्यायालय ने 20 जुलाई, 2022 को उन्हें जमानत देते हुए पुलिस द्वारा अंधाधुंध गिरफ्तारी की आलोचना की।

अदालत ने कहा, "गिरफ्तारी कोई दंडात्मक उपकरण नहीं है और इसका इस्तेमाल इस रूप में नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि इसका परिणाम – व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हानि – आपराधिक कानून से उत्पन्न होने वाले गंभीर संभावित परिणामों में से एक है," अदालत ने कहा

जनवरी 2021 में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पुलिस को "तर्कहीन और अंधाधुंध गिरफ्तारी" के खिलाफ आगाह किया था, जिसे उसने "मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन" कहा था। अदालत ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग की तीसरी रिपोर्ट की ओर इशारा किया, जिसमें 40 साल पहले, 1980 में गिरफ्तारी और भ्रष्ट पुलिस कार्यों की समस्या पर प्रकाश डाला गया था। रिपोर्ट में पाया गया था कि 60% से अधिक गिरफ्तारियां "बहुत मामूली अभियोजन से जुड़ी थीं", और यह कि अनावश्यक गिरफ्तारी से जेल का व्यय 42% होता है।

साल 1999 में, गिरफ्तारी से संबंधित कानूनों पर एक विधि आयोग के परामर्श पत्र में पाया गया कि "जमानती अपराधों में गिरफ्तारी का प्रतिशत असामान्य रूप से, 30% से 80%, बड़ा है", और यह कि छोटे अपराधों के लिए गिरफ्तारी भले ही "गंभीर अपराधों के लिए की गई गिरफ्तारियों से अधिक नहीं है लेकिन काफी है"।

मध्य प्रदेश में आबकारी पुलिसिंग पर भोपाल स्थित आपराधिक न्याय और पुलिस जवाबदेही परियोजना (सीपीए प्रोजेक्ट) द्वारा अगस्त 2021 के एक अध्ययन, जिसमें राज्य में 540 से अधिक आबकारी अधिनियम से संबंधित प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) की जांच की गई, में पाया गया कि लगभग 47% गिरफ्तारियां अधिनियम की जमानती धाराओं के तहत की गईं। पुलिस, जो गिरफ्तारी करने के बजाय धारा 41-ए के तहत नोटिस जारी कर सकती थी, ने "जमानती अपराधों के तहत दर्ज 503 प्राथमिकी में से केवल 105 आरोपी व्यक्तियों" के लिए ही ऐसा किया।

बेंगलुरु स्थित कानून और न्याय सुधार थिंक-टैंक, दक्ष के शोध प्रबंधक, लिआ वर्गीज ने कहा, "समस्या (अत्यधिक विचाराधीन कैद की) पुलिस द्वारा अंधाधुंध गिरफ्तारी से शुरू होती है।" "मजिस्ट्रेट को पुलिस से गिरफ्तारी के लिए कारण बताने के लिए कहना चाहिए, और वर्तमान में ऐसा लगता है कि ऐसा नहीं होता है। एक जमानत अधिनियम इस पर मार्गदर्शन प्रदान कर सकता है।"

समस्या यह है कि पुलिस को कभी-कभार ही गलत गिरफ्तारी के लिए नतीजों का सामना करना पड़ता है। सीएचआरआई में प्रिज़न रिफॉर्म्स प्रोग्राम की प्रोग्राम हेड और सीएचआरआई रिपोर्ट की प्रमुख लेखिका मधुरिमा धानुका ने कहा, "अगर कानून में किसी के प्रदर्शन में विफलता के पर्याप्त परिणाम होते हैं, तो वे अपने आप सावधान हो जाएंगे।"

पूर्व पुलिस प्रमुख और पुलिस सुधारों पर थिंक टैंक इंडियन पुलिस फाउंडेशन के अध्यक्ष एन. रामचंद्रन ने कहा, "हमारी पुलिसिंग औपनिवेशिक कानूनों पर निर्भर है, और सरकार को उन प्रथाओं को त्यागने के लिए पहल करनी चाहिए।" उन्होंने कहा कि प्रभावी पुलिसिंग के लिए गिरफ्तार करने या न करने के लिए पुलिस की विवेकाधीन शक्तियों को बनाए रखना महत्वपूर्ण है, लेकिन "महत्वपूर्ण यह है कि इस तरह के विवेक के दुरुपयोग को रोका जाए", उन्होंने कहा।

रामचंद्रन ने कहा कि पुलिस बल के सामने कई सम्बंधित मुद्दे हैं, जैसे स्टाफ की कमी और प्रशिक्षण के बुनियादी ढांचे में बंदिशें, जिसके कारण सेवाकालीन प्रशिक्षण के लिए अपर्याप्त अवसर मिलते हैं और कानूनी मुद्दों पर जानकारी को कम किया जाता है।

कानूनी सहायता कानूनों के बावजूद न्याय बहुत दूर

यदि उपरोक्त कारक विचाराधीन कैदियों की संख्या में वृद्धि करते हैं, तो गिरफ्तारी के बाद जो होता है वह इस समस्या के लिए समान रूप से योगदान करता है।

साल 1979 में पहली जनहित याचिका (हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य) ने जेलों में विचाराधीन कैदियों की स्थिति पर प्रकाश डाला। उस वर्ष के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि "राज्य वित्तीय या प्रशासनिक अक्षमता की दलील देकर अभियुक्तों को शीघ्र सुनवाई प्रदान करने के अपने संवैधानिक दायित्व से नहीं बच सकता", और गरीब विचाराधीन कैदियों की जमानत प्रस्तुत करने में असमर्थ होने की समस्या पर भी प्रकाश डाला। चार दशकों के बाद भी, विचाराधीन कैदियों को उन्हीं चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जैसा कि हमारी रिपोर्ट में पाया गया है।

जब पुणे की यरवदा केंद्रीय जेल में विचाराधीन कैदी 30 वर्षीय रिजवान* दूसरी बार जेल गया, तो उसने कानूनी सहायता वकील के लिए एक आवेदन जमा करने का फैसला किया। लगभग दो महीने जेल में रहने के बाद जमानत पर रिहा हुए रिजवान, एक विधुर और दो बच्चों के पिता, ने इंडियास्पेंड को बताया, "मैं सरकारी वकीलों के बारे में जानता था, लेकिन वे क्रिकेट के टेस्ट मैच की तरह काम करते हैं। एक व्यक्ति उम्मीद खो देता है।"

जमानत पर रिहा होने के लिए "इस बार वकील के साथ सिर्फ दो मुलाक़ात" हुई, और पिछली बार जब उन्होंने पहले एक निजी वकील लिया था, उसकी तुलना में उन्हें कुछ भी खर्च नहीं हुआ।

मोबाइल रिपेयर की दुकान चलाने वाले रिजवान ने कहा कि ड्रग से जुड़े एक मामले में जेल में रहने के दौरान उनके परिवार को एक निजी वकील के लिए करीब 80,000 रुपये खर्च करने पड़े, साथ ही 50,000 रुपये की जमानत भी देनी पड़ी। इस बार, उन्होंने नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में प्रोजेक्ट 39ए के फेयर ट्रायल फेलोशिप प्रोग्राम के माध्यम से एक कानूनी सहायता वकील से संपर्क किया। "जब मैं घर आया, तो मेरी माँ यह जानने के लिए उत्सुक थी कि मैंने कैसे इंतेज़ाम किया, क्योंकि इस प्रक्रिया में हमें पहले 1 लाख रुपये से अधिक का खर्च आया था," उन्होंने कहा।

प्रवीण गुंजाल फेयर ट्रायल फेलोशिप प्रोग्राम में सोशल वर्क फेलो हैं। यह कार्यक्रम नागपुर और पुणे केंद्रीय जेलों में विचाराधीन कैदियों के लिए निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए महाराष्ट्र राज्य कानूनी सहायता विभाग के साथ काम करता है।

गुंजाल सप्ताह में तीन बार पुणे जेल की बैरकों का दौरा करते हैं, जहां विचाराधीन कैदी कानूनी सहायता के लिए और कभी-कभी अन्य प्रकार की सहायता, जैसे रिश्तेदारों से संपर्क करने के लिए या आवेदन को लेकर उनसे संपर्क करते हैं। गुंजाल ने इंडियास्पेंड को बताया, "एक महीने में, हमें वकीलों के लिए लगभग 40 से 50 अनुरोध प्राप्त होते हैं और हम साप्ताहिक रूप से 50-60 क्लाइंट्स से मिलते हैं।" "जिन कैदियों के पास निजी वकील हैं वो जानकारी के लिए हमसे संपर्क करते हैं, और कुछ ऐसे हैं जो कानूनी सहायता वकीलों के पास जाना चाहते हैं।"

फेयर ट्रायल फेलोशिप प्रोग्राम की प्रोग्राम डायरेक्टर मेधा देव ने कहा, "ज्यादातर अंडरट्रायल क्लाइंट्स (55.8%) के पास बेल फाइलिंग [आवेदन] नहीं है या उनके अनुपालन के लिए जमानत के आदेश (27.3%) लंबित हैं।" देव ने कहा कि विचाराधीन कैदियों के पास पहली पेशी में उनका प्रतिनिधित्व करने वाला एक वकील होगा, भले ही उनके द्वारा व्यवस्था न की गई हो, लेकिन बाद में इन वकीलों को इस प्रक्रिया में निवेश नहीं किया जा सकता है।

फेयर ट्रायल फेलोशिप प्रोग्राम ने जनवरी 2019 और अक्टूबर 2021 के बीच 2,770 विचाराधीन कैदियों का प्रतिनिधित्व किया है। इसने कानूनी सहायता वकीलों के लिए 1,795 आवेदन प्राप्त किए, 791 जमानत और संशोधन दायर किया [उदाहरण के लिए जमानत राशि को कम करके, विचाराधीन द्वारा अनुपालन की सुविधा के लिए जमानत आदेश में परिवर्तन] आवेदन, और इस कहानी की रिपोर्टिंग के समय तक 515 विचाराधीन कैदियों को रिहा कर दिया गया।

कानूनी सहायता वकीलों ने हमें बताया कि पुलिस स्टेशन स्तर पर संदिग्धों की वकीलों तक पहुंच नहीं है या उन्हें वकील के अपने अधिकार के बारे में पता नहीं होता है। यह स्थिति राष्ट्रीय कानूनी सेवा प्राधिकरण के दिशा-निर्देशों, जो पुलिस को संदिग्ध को यह सूचित करने का निर्देश देते हैं कि कानूनी सेवा प्राधिकरणों से मुफ्त कानूनी सहायता प्राप्त की जा सकती है, के बावजूद है। कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के अनुसार, सभी आरोपी इस तरह की सहायता के हकदार हैं, चाहे उनके साधन कुछ भी हों।

देव ने कहा कि अक्सर पुलिस आरोपी को प्राइवेट वकील करवाती है। उन्होंने कहा, "पुलिस द्वारा संदर्भित वकील यातना, हिंसा, प्रक्रियात्मक उल्लंघन जैसे किसी भी उल्लंघन के बारे में मुद्दों को नहीं उठाते हैं।"

थाने में आरोपी के कई अधिकारों का हनन होता है, जिसमें शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना भी शामिल है। सीएचआरआई की धानुका ने कहा कि पुलिस हिरासत में या पूछताछ के दौरान अधिकारों का उल्लंघन न हो यह सुनिश्चित करने की दिशा में एक वकील का होना सबसे महत्वपूर्ण कदम है। उदाहरण के लिए, रिज़वान ने हमें बताया कि उसे पुलिस स्टेशन में एक वकील के अपने अधिकार के बारे में सूचित नहीं किया गया था।

इस कमी को देखते हुए, प्रक्रिया का दुरुपयोग आम और गंभीर है। पुलिस हिरासत में 60% से अधिक मौतें गिरफ्तारी के 24 घंटों के भीतर होती हैं, इससे पहले कि उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने अदालत में पेश किया जा सके, जैसा कि इंडियास्पेंड ने अक्टूबर 2020 की रिपोर्ट में बताया है।

कानूनी सहायता वकीलों ने कहा कि पुलिस थाना स्तर पर उपलब्ध कराए जा रहे वकीलों या पैरालीगल से यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि कोई अधिकारों का उल्लंघन नहीं हुआ है।


भारत की लचर जमानत प्रणाली और भविष्य

मई 2017 में भारतीय विधि आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया, "भारत में जमानत की मौजूदा प्रणाली अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए अपर्याप्त और अक्षम है।"

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई में केंद्र सरकार को यूके के जमानत अधिनियम की तर्ज पर, केवल जमानत देने को सुव्यवस्थित करने के लिए एक अधिनियम पर विचार करने के लिए कहा। अधिनियम विभिन्न कारकों पर विचार करता है, जिसमें विचाराधीन जेल की आबादी का स्तर, दोषसिद्धि से पहले और बाद में जमानत देना, जमानत के उल्लंघन के मामले और जमानत तक पहुंचने के अधिकार की स्वीकृति शामिल है।

यद्यपि एक नया जमानत कानून अकेले समस्या को हल करने में मदद नहीं करेगा यदि मनमानी गिरफ्तारी जारी रहती है, धानुका का तर्क है, भारत के पास उच्च विचाराधीन आबादी के संबंध में एक गंभीर मुद्दा है, और दुनिया के अन्य हिस्सों में इस्तेमाल किये जाने वाले समाधान और अच्छी प्रथाओं जिसे जरूरत के आधार पर अनुकूलित किया जा सकता है, की तलाश करना विवेकपूर्ण होगा।

विशेषज्ञों का मानना ​​है कि भारतीय अदालतों को विचाराधीन कैदियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और जमानत देने की उनकी क्षमता पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, भारत में तीन में से दो विचाराधीन कैदी अनुसूचित जाति (एससी) और जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सहित हाशिए के जाति समूहों से संबंधित हैं। इसके अलावा, सभी विचाराधीन कैदियों में से लगभग 68% निरक्षर हैं या माध्यमिक विद्यालय से नीचे शिक्षित हैं।

सीपीए परियोजना के अध्ययन में पाया गया था कि आबकारी अधिनियम के तहत अनावश्यक गिरफ्तारी से हाशिए पर रहने वाले जाति समूहों के व्यक्ति अनुपातहीन रूप से प्रभावित थे। स्वर्गीय फादर स्टेन स्वामी के नेतृत्व में 2015 में किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया था कि झारखंड में कठोर, गैर-जमानती अपराधों के तहत माओवादी होने का आरोप लगाने वाले विचाराधीन कैदियों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग का एक उच्च अनुपात था, और यदि सभी कम पढ़े-लिखे नहीं थे, तो इंडियास्पेंड अक्टूबर 2021 में रिपोर्ट किया गया।

विडंबना यह है कि फादर स्टेन स्वामी खुद भीमा कोरेगांव-एलगार परिषद मामले में अक्टूबर 2020 में गिरफ्तार किए गए लोगों में से एक थे। 84 वर्षीय सामाजिक वैज्ञानिक और आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता की जुलाई 2021 में बिना किसी मुकदमे के या ज़मानत के न्यायिक हिरासत में मृत्यु हो गई।

"विचाराधीन कैदियों को जमानत न मिलने का मुद्दा अकेले पैसे की समस्या नहीं है। अक्सर जमानत की शर्त एक या एक से अधिक जमानतदारों की पेशी होती है [समुदाय में कुछ विश्वसनीय लोग जो अदालत को आश्वस्त कर सकते हैं कि विचाराधीन आरोपी अदालत की सुनवाई में भाग लेंगे]। यह गरीब लोगों और प्रवासियों के लिए जमानत देना मुश्किल है," दक्ष के वर्गीज ने कहा।

मई 2017 की विधि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि अदालतों को "जमानत के लिए उचित शर्तें" लगानी चाहिए और स्थानीय जमानत पर जोर नहीं देना चाहिए, क्योंकि आरोपी व्यक्ति के लिए जमानत देने के बावजूद ऐसी शर्तों का अनुपालन सुनिश्चित करना संभव नहीं हो सकता है।

इसके अलावा, अगर विचाराधीन कैदी जिन्हें जमानत मिली है, उन्हें वास्तव में रिहा कर दिया गया है, तो ट्रैकिंग के लिए कोई व्यवस्था नहीं है, और जेल कर्मचारियों को यह पता नहीं चल सकता है कि क्या किसी व्यक्ति को जमानत मिली है, क्योंकि यह जानकारी जेलों को नहीं दी जाती है, वर्गीज ने कहा।

2020 में, केवल 442 विचाराधीन, या 34% आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 436 ए, जो उन लोगों की रिहाई की अनुमति देता है जो अपराधों के लिए तय सजा की आधे से अधिक अवधि के लिए जेल में थे, के मुताबिक रिहा किये गए थे।

जनवरी 2022 में, सुप्रीम कोर्ट ने जमानत देने के एक महीने बाद भी जमानत के आदेशों का पालन न करने के खिलाफ उत्तर प्रदेश प्रशासन को चेतावनी दी। जून में एक अन्य मामले में, कोर्ट ने राज्य को एक ऐसे विचाराधीन कैदी को रिहा नहीं करने पर चेतावनी दी, जिसने 10 साल से अधिक जेल में बिताया था।

"मौजूदा जमानत प्रणाली टूट चुकी है," देव ने कहा। "हमने सोचा कि कैदी कानूनी सहायता से अनजान हैं या महसूस करते हैं कि इसकी गुणवत्ता ख़राब है; इसके बजाय हमने पाया कि कानूनी सहायता वकीलों के आवंटन के पूरा होने से पहले विचाराधीन कैदी कानूनी सहायता प्रणाली छोड़ देते हैं। इसमें ऐसे विचाराधीन कैदी भी शामिल हैं जो हताशा होकर जेल से बाहर आने के चक्कर में अपराध कबूल कर लेते हैं।"

यह समझने के लिए कि कितने विचाराधीन कैदियों के पास जमानत का आदेश है या नहीं, कितने जमानत की शर्तों का पालन करने में असमर्थता के कारण फंस गए हैं और कितने को फिर से गिरफ्तार किया गया है, डेटा-आधारित निदान की आवश्यकता है, देव ने कहा।

रिजवान, जिसे कानूनी सहायता प्राप्त करने में सक्षम होने के कारण दो महीने में जमानत मिल गई, अब सुकून में हैं, लेकिन कहते हैं कि अभी भी कई कैदी उचित कानूनी मदद के अभाव में जेलों में बंद हैं।

सुनवाई से पहले की गिरफ्तारियों को कम करने के लिए सीएचआरआई रिपोर्ट ने पुलिस थाना स्तर पर जमानत की अनुमति देने वाले प्रावधानों को तैयार करने, अवैध गिरफ्तारी की स्पष्ट परिभाषाओं को शामिल करने के लिए गिरफ्तारी के कानूनों की समीक्षा करने, कानूनी सहायता प्रणाली को मजबूत करने, गैर-हिरासत विकल्पों की खोज करने और पारदर्शी डेटा साझा करने और उसका प्रसार सुनिश्चित करने की सिफारिश की।

* जिन लोगों पर मुकदमा चल रहा है उनकी पहचान छुपाने के लिए नाम बदला गया है।

यह रिपोर्ट अंग्रेजी में प्रकाशित रिपोर्ट का अनुवाद है। अंग्रेजी रिपोर्ट आप यहां पढ़ सकते हैं।

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