चुनाव -2017 स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करता है उत्तर प्रदेश, बदहाल है सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा
20 करोड़ लोगों की संख्या के साथ उत्तर प्रदेश की आबादी ब्राजील देश के बराबर है। अर्थव्यवस्था की बात करें तो उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था कतर के बराबर है। जबकि कतर की आबादी उत्तर प्रदेश के छोटे से शहर बिजनौर के बराबर है। करीब 24 लाख। यहां प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) केन्या के लोगों की तरह है। और इस राज्य का शिशु मृत्यु दर गाम्बिया के बाराबर है। यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि गाम्बिया गरीबी से त्रस्त एक पश्चिम अफ्रीकी देश है।
75 जिलों में 814 ब्लॉक और 97607 गांवों के साथ, आबादी की दृष्टि से उत्तर प्रदेश इन सभी पांच देशों से बड़ा है। भारत के राजनीतिक प्रभुत्व की कुंजी इस राज्य के पास है, लेकिन स्वास्थ्य, पोषण परिणाम, बुनियादी ढांचे और सुरक्षा संकेतक की दृष्टि में यह अब भी सुस्त है। यहां के इलाकों में व्यापक असमानता है और सुधार की गति बहुत धीमी है।
चुनावी जंग के लिए तैयार पांच राज्यों में से उत्तर प्रदेश में 16.9 करोड़ मतदाता अपना वोट देंगे। हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि इन पांच राज्यों में से उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति सार्वजनिक व्यय यानी राज्य और केंद्र दोनों सरकार का, सबसे कम है।
गोवा, जहां की आबादी उत्तर प्रदेश की आबादी के 1 फीसदी से भी कम है, वहां नागरिकों के स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति पांच गुना ज्यादा खर्च किया जाता है। उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य का सार्वजनिक औसत खर्च भारतीय औसत का 70 फीसदी है। जैसा कि हम देखेंगे, कम खर्च से स्वास्थ्य संस्थानों में डॉक्टरों, नर्सों और सहयोगी स्टाफ की कमी जैसी समस्याएं होती हैं। यही कारण है कि दो में से एक बच्चे का पूर्ण टीकाकरण नहीं होता है। राज्य के 14 फीसदी परिवारों को "अनर्गल" स्वास्थ्य व्यय का सामना करना पड़ता है, जो कि कुल घरेलू खर्च से 25 फीसदी ज्यादा है। भारतीय औसत की तुलना में यहां के 15.2 फीसदी लोगों के लिए स्वास्थ्य बीमा कवरेज से 4.2 फीसदी है। आर्थिक प्रगति के लिए स्वास्थ्य एक महत्वपूर्ण कारक है। इसलिए चुनाव के मद्देनजर यह छह भाग श्रृंखला का दूसरा लेख है। जिसमें हम उत्तर प्रदेश, मणिपुर, गोवा, पंजाब और उत्तराखंड में स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति पर चर्चा करने के लिए नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों पर बात कर रहे हैं।
केन्द्र व राज्य सरकार अनुसार राज्यवार प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य व्यय (2013-14)
Source: Ministry of Health and Family Welfare and EPW Research Foundation India Time Series
अस्पतालों और डॉक्टरों की कमी, बदहाल स्वास्थ्य
विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2016 के इस अध्ययन के अनुसार, उत्तर प्रदेश में सभी स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं में आधे से ज्यादा डॉक्टर हैं। यह अनुपात देश भर में सबसे अधिक है। यह शायद अन्य स्वास्थ्य कर्मियों के पर्याप्त संख्या नहीं होने का एक नतीजा है। उत्तर प्रदेश में, महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की संख्या भी सबसे कम है। यह संख्या करीब 19.9 फीसदी है, जबकि भारतीय औसत 38 फीसदी है।
उदाहरण के लिए, यदि नर्सों की संख्या के हिसाब से रैंकिग देखें तो देश में नीचे से 30 जिलों में से ज्यादातर जिले उत्तर प्रदेश के हैं। कुछ जिले बिहार और झारखंड में भी स्थित हैं। उत्तर प्रदेश जहां देश की 16.16 फीसदी आबादी रहती है, वहां केवल 10.81 समग्र स्वास्थ्य कार्यकर्ताएं थे। हालांकि नवीनतम जनगणना के आंकड़ों (जिसका विश्लेषण बाकी है) के आधार पर संख्या में ‘राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन’ (एनआरएचएम) के कारण आंशिक रुप से सुधार हो सकता है। लेकिन उत्तर प्रदेश के समग्र रैंकिंग में बदलाव होने की संभावना कम है। हम बता दें कि अब भी उत्तर प्रदेश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (सीएचसी) में 50 फीसदी नर्सिंग स्टाफ की कमी है।
उत्तर प्रदेश के सरकारी अस्पतालों पर सरकार की ओर से जारी ताजा आंकड़ें निराश ही करते हैं।
ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी- 2016 के अनुसार, उत्तर प्रदेश के सीएचसी में 84 फीसदी विशेषज्ञों की कमी है। यदि पीएचसी और सीएचसी, दोनों को एक साथ लिया जाए तो उनकी जरुरती की तुलना में मात्र पचास फीसदी स्टाफ हैं।
दिसंबर 2016 में जारी किए गए, 2015 के लिए नवीनतम नमूना पंजीकरण प्रणाली बुलेटिन के अनुसार, 36 भारतीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में, शिशु मृत्यु दर (आईएमआर, प्रति 1000 जीवित जन्मों पर होने वाली मौत) के मामले उत्तर प्रदेश नीचे से तीसरे स्थान पर है। अपेक्षाकृत कई गरीब राज्य उत्तर प्रदेश की तुलना में काफी बेहतर हैं।
शिशु मृत्यु दर, 2015
Source: Sample Registration System bulletin
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश भर में मातृ मृत्यु दर (मैटरनल मोरटालिटी रेशियो-एमएमआर यानी प्रति 100,000 जन्म पर होने वाली मौत) के संबंध में, उत्तर प्रदेश दूसरे स्थान पर है। यदि नवीनतम उपलब्ध वर्ष 2014 के एसआरएस के आंकड़ों पर नजर डालें तो हरियाणा को छोड़कर, बड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश में जन्म के समय लिंग अनुपात सबसे कम है।
पिछले एक दशक के दौरान, उत्तर प्रदेश में शिशु मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा रहा है। हालांकि कुल शिशु मृत्यु दर वर्ष 2005 में 73 से सुधार होकर वर्ष 2015 में 46 हुआ है, लेकिन उत्तर प्रदेश में शिशु मृत्यु दर और भारत के औसत शिशु मृत्यु दर के बीच का अंतर वैसा ही रहा है, जैसा कि नीचे दिए गए ग्राफ में दिखाया गया है।
बच्चे पर रैपिड सर्वे (आरएसओसी) 2013-14 के आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश उन कुछ भारतीय राज्यों में से है, जहां महिलाओं की शादी के लिए औसत उम्र शादी के लिए संवैधानिक उम्र यानी 18 वर्ष से कम है। ये आंकड़े संकेत देते हैं कि राज्य में उच्च शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर में सुधार के लिए बाल विवाह के मुद्दे पर ध्यान देने की सख्त जरुरत है।
एक दशक के दौरान शिशु मृत्यु दर
Source: Sample Registration System bulletin
मौत, जो कभी नहीं बनती चुनावी मुद्दा
देश भर में दर्ज हुए जापानी इन्सेफेलाइटिस (जेई) मामलों में से 75 फीसदी से अधिक मामले उत्तर प्रदेश में पाए गए हैं। वर्ष 2016 में, देश भर में 1,277 एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) मौतों की सूचना मिली थी, जिसमें से 615 मामले उत्तर प्रदेश से थे। इसी तरह देश भर में दर्ज हुई 275 जेई मौतों में से 73 मामले उत्तर प्रदेश से थे। यहां तक पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में, जहां हर साल जेई / एईएस से कई लोगों की जान जाती हैं, फिर भी ऐसी मौतें कभी चुनावी मुद्दा नहीं बनती हैं।
जापानी इंसेफेलाइटिस और एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम से होने वाली मौतें
Source: National Vector Borne Disease Control Programme. *Figures for 2016 are provisional.
भारत के उत्तर प्रदेश में जन्म का पंजीकरण सबसे कम
कानूनी पहचान एक बुनियादी मानव अधिकार है। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) के मुताबिक, बच्चा जो जन्म के समय में पंजीकृत नहीं है, उसके लिए अपने अधिकारों की पहचान मुश्किल है।उसके लिए मान्यता प्राप्त नाम और राष्ट्रीयता के अधिकार से वंचित होने का भी खतरा है। संयुक्त राष्ट्र के सस्टैनबल डिवेलप्मन्ट गोल (यानी सतत विकास लक्ष्य –एसडीजी, जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किए हैं।) ने इस मुद्दे की तरफ आगाह किया है। साथ ही एसडीजी लक्ष्य -16.9 इस बात पर जोर देती है कि वर्ष 2030 तक सभी सदस्य देशों को जन्म पंजीकरण सहित सभी नागरिकों के लिए कानूनी पहचान प्रदान करना चाहिए
नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों अनुसार, भारत में बच्चों के जन्म के पंजीकरण का समग्र स्तर 2013 में 85.6 फीसदी से बढ़ कर 2014 में 88.8 फीसदी हुआ है।
उत्तर प्रदेश में जन्म पंजीकरण प्रगति नहीं हुई है। राज्य में 68.3 फीसदी से ज्यादा जन्मों के पंजीकरण नहीं हुए हैं। यदि हम सरकारी आंकड़ों को छोड़, तीसरे पक्ष के सर्वेक्षणों जैसे आरएसओसी 2013-14 पर नजर डालें तो 39.1 फीसदी के साथ उत्तर प्रदेश का जन्म पंजीकरण सबसे नीचे है, जबकि राष्ट्रीय औसत 71.9 फीसदी है।
जन्म पंजीकरण: अखिल भारतीय और उत्तर भारतीय राज्य
Source: Rapid Survey On Children 2013-14
उत्तर प्रदेश (बिहार के साथ) पर अक्सर जन्म पंजीकरण पर राष्ट्रीय औसत को नीचे खीचने का आरोप लगता रहा है। वर्ष 2016 तक के नागरिक पंजीकरण प्रणाली (सीआरएस) की रिपोर्ट में एक अलग ही विश्लेषण है, जिसमें भारत की प्रगति को देखने के लिए "उत्तर प्रदेश और बिहार को छोड़कर" जैसे शब्द का इस्तेमाल हुआ है।
अपने स्वंय के पैसों से उत्तर प्रदेश के लोग कराते हैं अपना इलाज
सरकार की ओर से नवीनतम उपलब्ध राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय के 71वें दौर के आंकड़ों के आधार पर एक संस्था ‘ब्रूकिंग्स इंडिया’ द्वारा हाल के एक शोध के अनुसार उत्तर प्रदेश प्रत्येक नागरिक के स्वास्थ्य पर हर साल 488 रुपये खर्च करता है। ये आंकड़े केवल बिहार और झारखंड से ज्यादा हैं ।हिमाचल प्रदेश द्वारा 1,830 रुपए खर्च किए जाते हैं, जिसकी तुलना में उत्तर प्रदेश का खर्च केवल 26 फीसदी है।
उत्तर प्रदेश के 20 करोड़ लोगों का स्वास्थ्य बीमा 4 फीसदी तक पहुंचा है। इस मामले में अखिल भारतीय औसत 15 फीसदी है। दूसरे राज्यों की तुलना में उत्तर प्रदेश के सार्वजनिक बुनियादी ढांचे का स्तर भी बहुत खराब है। ऐसे में बिहार और हरियाणा को छोड़कर किसी भी अन्य राज्य की तुलना में यहां के ज्यादातर लोग बहिरंग रोग स्वास्थ्य सेवा के लिए निजी सुविधाओं पर निर्भर करते हैं।
यहां राज्य के द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर कम खर्च और निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र की दमदार मौजूदगी की वजह से 80 फीसदी स्वास्थ्य खर्च परिवारों द्वारा स्वयं किया जाता है। ‘ब्रूकिंग्स’ के शोध के अनुसार, यह केवल केरल, पश्चिम बंगाल और ओडिशा की तुलना में कम है।
छह लेखों की श्रृंखला में से यह दूसरा लेख है। पहला भाग यहां पढ़ सकते हैं।
(कुरियन नई दिल्ली के ‘ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन’ के ‘हेल्थ इनिशिएटिव’ में फेलो हैं।)
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 30 जनवरी 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।
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