सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारतीय कारखानों में हर दिन तीन मजदूरों की मौत होती है
भारत में 2017 और 2020 के बीच पंजीकृत कारखानों में हर साल औसतन 1,109 मौत और 4,000 से ज्यादा मजदूरों के घायल होने के आंकड़े सामने आए है। विशेषज्ञों का कहना है कि ये संख्या कम है क्योंकि जहां एक तरफ बड़े पैमाने पर श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्रों में काम कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ औपचारिक क्षेत्रों में होने वाली सभी घटनाओं की सूचना दर्ज नहीं की जाती है।
नई दिल्ली, अहमदाबाद और बेंगलुरु: पश्चिमी दिल्ली के रानीखेड़ा में एक बिना प्लास्टर वाली ईंट की दीवार के सहारे प्रीति कुमारी, पूनम कुमारी और उनकी चचेरी बहन मधु की तस्वीरें लगी हुईं थीं। ये तस्वीर 12 मई, 2022 को एक शादी में ली गई थीं, उसके अगले दिन रानीखेड़ा से 5 किमी दक्षिण में मुंडका में एक कारखाने में आग लगने की वजह से इन तीनों की मौत हो गई थी। तीनों बहनें 25 साल से कम उम्र की थी और अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही थीं। नवंबर 2022 के अंत में जब इंडियास्पेंड उनके घर पहुंचा और इस घटना के बाद उनकी स्थिति जानने की कोशिश कि तो इन तस्वीरों के अलावा उनके पास और भी बहुत कुछ बताने को था।
उस दिन मुंडका में एक इलेक्ट्रॉनिक और निगरानी उपकरण निर्माण कारखाने में आग लगने से कम से कम 27 मजदूरों की मौत हो गई थी, जिनमें से ज्यादातर महिलाएं थीं।
श्रम और रोजगार मंत्रालय के महानिदेशालय फैक्टरी सलाह सेवा और श्रम संस्थान (डीजीएफएएसएलआई) के आंकड़ों के अनुसार, साल 2017 और 2020 के बीच, भारत के पंजीकृत कारखानों में दुर्घटनाओं के कारण हर दिन औसतन तीन लोगों की मौत हुई और 11 घायल हुए हैं। सूचना के अधिकार (आरटीआई) के जरिए नवंबर 2022 में इंडियास्पेंड ने इन आंकड़ों तक अपनी पहुंच बनाई थी।
हालांकि, 2018 और 2020 के बीच कम से कम 3,331 मौतें दर्ज की गईं। लेकिन आंकड़ों से पता चलता है कि इस दौरान सिर्फ 14 लोगों को फैक्ट्री अधिनियम, 1948 के तहत अपराधों के लिए सजा दी गई।
DGFASLI कारखानों के राज्य मुख्य निरीक्षकों और औद्योगिक सुरक्षा और स्वास्थ्य के निदेशकों से व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य (OSH) आंकड़े एकत्र करता है। ये आंकड़े सिर्फ रजिस्टर्ड फैक्ट्रियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि भारत में लगभग 90 फीसदी श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़े हैं।
हर साल दुनिया भर में 350,000 से ज्यादा मौतें काम के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं के कारण होती हैं। 2015 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, इन दुर्घटनाओं की वजह से 313 मिलियन से ज्यादा लोगों को गंभीर चोटों से गुजरना पड़ा और ये काम से अनुपस्थिति होने का कारण बनीं। व्यावसायिक दुर्घटनाओं और बीमारियों को रोकने के लिए OSH में कम निवेश की कीमत इंसानों की जान से चुकानी पड़ रही है, जो बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं है।
हालांकि भारत ने 2020 में व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य कानून सुधारों को पारित कर दिया था। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि वर्तमान में श्रम कल्याण और सुरक्षा को कवर करने वाला नया OSH कोड फ़ैक्टरी अधिनियम, 1948 की तुलना में कम कठोर है और दो साल से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी इसे अभी तक लागू नहीं किया जा सका है।
नवंबर 2022 के अंत में, इंडियास्पेंड ने दिल्ली और अहमदाबाद को कारखानों और निर्माण स्थलों पर दुर्घटनाओं में मारे गए श्रमिकों के रिश्तेदारों और घायल मजदूरों से मुलाकात की थी ताकि उनकी रिकवरी और उनको दिए जाने वाले हरजाने के सामने आने वाली बाधाओं को समझा जा सके। उन्होंने हमें बताया कि कारखानों में सुरक्षा के इंतजाम न के बराबर है और दुर्घटना के बाद मिलने वाली सहायता नाकाफी होती है। आर्थिक तंगी, नौकरी को लेकर असुरक्षा और सरकार की उदासीनता मुआवजे या लापरवाही के लिए मालिकों और/ या ठेकेदारों के खिलाफ मामला दर्ज करना मुश्किल बना देती है।
औद्योगिक उल्लंघन
मजदूरों के मुद्दों पर काम करने वाले संगठनों के एक राष्ट्रव्यापी समूह 'वर्किंग पीपल्स कोएलिशन' (डब्ल्यूपीसी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, मुंडका कारखाने में कई लेबर और सुरक्षा कानूनों का उल्लंघन किया जा रहा था और यह कारखाना अग्निशमन विभाग की अनुमति के बिना चल रहा था। जुलाई 2022 में आग लगने के तुरंत बाद प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, एक वरिष्ठ नगर पालिका अधिकारी ने कहा था कि इमारत मुंडका के "विस्तारित लाल डोरा" में स्थित थी, जहां औद्योगिक इकाइयों को चलाने की अनुमति नहीं है। यह अधिकारी इस घटना की सरकार की जांच समिति का हिस्सा थे।
फैक्ट्री मालिकों के वकील नितिन अहलावत ने इंडियास्पेंड को बताया कि पुलिस ने गैर इरादतन हत्या का आरोप पत्र दायर किया, जबकि आरोप लापरवाही का था। उन्होंने कहा, "हमने तर्क दिया है कि अगर यह लापरवाही है तो धारा 304 (ए) (लापरवाही से मौत का कारण) लगाई जानी चाहिए। यह कोई दुर्भावना (इरादा) का मामला नहीं है।"
भारतीय व्यापार संघ केंद्र की दिल्ली राज्य समिति के महासचिव अनुराग सक्सेना ने इंडियास्पेंड को बताया कि मुंडका के कुछ हिस्से नॉन-कंफर्मिंग (गैर-अधिसूचित) जोन में आते हैं। ऐसी जगहों पर औद्योगिक गतिविधि के लिए कोई परमिट नहीं मिलता है और यहां कारखानों और इकाइयों को नहीं चलाया जाना चाहिए। सक्सेना ने कहा, "सरकार का कहना है कि अगर इस तरह के कारखाने बंद हो गए तो लोगों की रोजी-रोटी का जरिया चला जाएगा। लेकिन यह श्रमिकों की सुरक्षा से समझौता करने का बहाना नहीं हो सकता है।"
मुंडका कारखाने में आग लगने के मामले में सरकारी जांच के बाद उल्लंघन के आरोप में अधिकारियों को निलंबित कर दिया गया था। डब्ल्यूपीसी के सचिव धर्मेंद्र कुमार ने कहा, "हालांकि अधिसूचित औद्योगिक क्षेत्रों के बाहर स्थापित अनौपचारिक संस्थानों को बंद करना व्यावहारिक नहीं है। क्योंकि यह अनौपचारिक क्षेत्र के रोजगार को प्रभावित करेगा। आम तौर पर ऐसे मामलों में सभी कार्यान्वयन एजेंसियों मसलन पुलिस, भवन, श्रम, अग्नि विभाग और कर्मचारियों के बीच एक मिलीभगत होती है"। कुमार ने इंडियास्पेंड को बताया, "हमें इस मिलीभगत को खत्म करना चाहिए और कानूनों की धज्जियां उड़ाने वालों को दंडित करना चाहिए।"
जरूरत से ज्यादा काम, और कोई ट्रेनिंग नहीं
अगस्त 2022 में अहमदाबाद की एक पावर प्रेस में अमन शुक्ला का हाथ मशीन में आकर कुचल गया था। उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले का 21 वर्षीय अमन कुछ महीने पहले ही शहर आया था और उसने दुर्घटना से कुछ दिन पहले ही कारखाने में पावर प्रेस ऑपरेटर के रूप में काम करना शुरू किया था।
ऑटोमोबाइल कर्मचारियों की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करने वाले मानेसर के एक संगठन 'सेफ इन इंडिया फाउंडेशन' (SII) की क्रश्ड 2022 रिपोर्ट में कहा गया कि हर साल होने वाली दुर्घटनाओं में हजारों श्रमिकों के हाथ और उंगलियां कट जाती हैं। इस वजह से यह इंसान के दुख का कारण तो बनता ही है, साथ ही उद्योग व देश को श्रम-उत्पादकता का नुकसान भी होता है। दिसंबर 2022 में प्रकाशित एसआईआई की इस रिपोर्ट में छह राज्यों में ऑटो सेक्टर में लगी चोटों और दुर्घटनाओं का विश्लेषण किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि ऑटो-हब में कई कर्मचारी प्रवासी हैं जो पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित नहीं हैं। उनसे जरूरत से ज्यादा काम लिया जाता है और बदले में कम भुगतान किया जाता है।
2014 से अहमदाबाद में काम कर रहे सुरक्षा गार्ड विद्यामणि शुक्ला ने इंडियास्पेंड को बताया, " मेरे बेटे अमन के पास (पावर प्रेस को संभालने का) उचित प्रशिक्षण नहीं था। वह एक शिफ्ट पूरी कर चुका था, लेकिन उसे घर से दूसरी शिफ्ट में काम करने के लिए बुला लिया गया था।" सरकार द्वारा जारी विकलांगता प्रमाण पत्र के अनुसार, अमन को दुर्घटना के कारण 65% विकलांगता का सामना करना पड़ा है। विद्यामणि श्रम अदालत में दुर्घटना मुआवजे पाने के लिए अहमदाबाद और यूपी में अपने गांव के बीच चक्कर काट रहे हैं। उनका बेटा दुर्घटना के बाद गांव वापस चला गया है। विद्यामणि ने कहा, "वह काफी परेशान और उदास है।"फैक्टरी में होने वाली मौतें और घायलों की असल संख्या
ताजा उपलब्ध DGFASLI डेटा के अनुसार, 2020 में भारत में 363,442 पंजीकृत कारखाने थे, जिनमें से 84 फीसदी चालू अवस्था में थे और उनमें 20.3 मिलियन कर्मचारी काम कर रहे थे। डीजीएफएएसएलआई के आंकड़े बताते हैं कि 2020 तक पहले के चार सालों में हर साल पंजीकृत कारखानों में औसतन 1,109 मौतें हुईं और 4,000 से ज्यादा लोगों को चोटें आईं। 2018 और 2020 के बीच हर साल घायल होने वाले लोगों की संख्या में कमी आई थी। जब हमें आरटीआई का जवाब मिला था, उस समय तक 2021 और 2022 के DGFASLI डेटा उपलब्ध नहीं थे।चार साल के दौरान रिपोर्ट की गई फैक्टरी में होने वाली पांच में से एक से ज्यादा मौतें और घायल होने की घटनाएं गुजरात में हुई थीं। गुजरात डीजीएफएएसएलआई के आंकड़ों के अनुसार, 2019 में गुजरात में कारखानों में सबसे अधिक घायल (192) और मौतें (79) रासायनिक और रासायनिक उत्पाद क्षेत्र में दर्ज की गईं।
11 नवंबर, 2022 को दिल्ली के श्रम विभाग से एक आरटीआई अनुरोध के जवाब में इंडियास्पेंड को प्राप्त आंकड़ों के आधार पर, दिल्ली में अक्टूबर 2022 तक 13,464 पंजीकृत कारखाने थे। 2018 और 2022 के बीच 118 मौतें और घायलों की सूचना दी गई थीं। दिल्ली श्रम विभाग के आरटीआई जवाब में यह भी कहा गया था कि अनौपचारिक और असंगठित श्रमिकों, जो कारखानों से संबंधित नहीं हैं, की सुरक्षा कारखाना अधिनियम, 1948 के प्रावधानों के तहत नहीं आती हैं और ऐसे श्रमिकों के दुर्घटनाओं के आंकड़े संकलित नहीं किए गए हैं।
विशेषज्ञों ने कहा, सुधारों के नाम पर श्रम सुरक्षा कानूनों को कमजोर किया गया
लेबर इकोनॉमिस्ट और नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक इम्पैक्ट एंड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएमपीआरआई) में विजिटिंग फैकल्टी के.आर. श्याम सुंदर ने इंडियास्पेंड को बताया कि 2020 में श्रम कानून सुधार के रूप में ऑक्यूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ और वर्किंग कंडिशन कोड 2020 (OSH कोड) पारित किया गया था। श्रमिकों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और कल्याण को कवर करने वाला पुराना कारखाना अधिनियम, 1948, OSH कोड की तुलना में अधिक कठोर था। OSH कोड के तहत सभी खतरनाक कारखानों के लिए उनके आकार पर ध्यान दिए बिना, एक सुरक्षा समिति बनाना अनिवार्य कर दिया गया। इनका गठन सरकारी आदेश या अधिसूचना के बाद ही हो सकता है। उन्होंने आगे कहा, "खतरनाक कारखाने सरकारी निगरानी में हैं, जबकि गैर-खतरनाक कारखानों में सुरक्षा के मुद्दे अभी भी एक समस्या हो सकती हैं।"
OSH कोड के लिए सुरक्षा समिति गठित करने के लिए खतरनाक कारखानों में 250 कर्मचारी या कारखाने में कम से कम 500 श्रमिक होने जरूरी हैं। इसके अलावा, बिजली की सहायता और बिना सहायता के उत्पादन करने वाले कारखानों की परिभाषा में भी बदलाव कर दिया गया। बिजली की बिना सहायता के उत्पादन करने वाले कारखानों के लिए श्रमिकों की संख्या को 20 से बढ़ाकर 40 कर दिया गया। वहीं बिजली की सहायता से उत्पादन करने वाले कारखानों के लिए 10 श्रमिकों को बढ़ाकर 20 कर दिया गया है।
जनवरी 2013 से अप्रैल 2014 तक आयोजित भारत की छठी आर्थिक जनगणना के अनुसार, भारत में दस लाख से कम या 1.4% संस्थानों में 10 से अधिक कर्मचारी हैं। इस प्रकार सीमा बढ़ाने से अधिकांश कारखाने नए OSH कोड के दायरे और सुरक्षा आवश्यकताओं के कानूनी दायरे से बाहर हो जाते हैं।
हालांकि, OSH कोड 2020 में पारित किया गया था, लेकिन दो साल बीत जाने के बाद भी इसे लागू नहीं किया जा सका है। श्रम मंत्रालय ने जुलाई 2022 में संसद को सूचित किया था कि ये इसलिए है क्योंकि अभी भी राज्यों द्वारा नियम बनाए जा रहे हैं।
इंडियास्पेंड ने केंद्र सरकार के श्रम सचिव, श्रम और रोजगार मंत्रालय के औद्योगिक सुरक्षा एवं स्वास्थ्य प्रभाग और डीजीएफएएसएलआई से पूछा है कि क्या अपंजीकृत प्रतिष्ठानों या कारखानों में होने वाली मौतों और घायलों पर डेटा संकलित किया जाता है। इसके अलावा नए OSH कोड में सुरक्षा प्रावधानों को कमजोर करने और फ़ैक्टरी-निरीक्षण करने वाले कर्मचारियों की रिक्तियों पर उनसे प्रतिक्रिया मांगी थी। उनका जवाब मिलने पर लेख को अपडेट कर दिया जाएगा।
कंपनियों, अस्पतालों और अधिकारियों के बीच मिलीभगत से घटनाओं की कम रिपोर्टिंग
अमन और 25 वर्षीय फैक्ट्री कर्मचारी अनिल वर्मा ने कहा कि उन्हें एक निजी अस्पताल में ले जाया गया था। उन्हें सही या समय पर इलाज नहीं दिया गया। अनिल ने कहा, "मेरे हाथ को देखो। मैं अपनी हथेली को बंद नहीं कर पाता हूं। क्या यह सही इलाज है?"श्रम विशेषज्ञों का कहना है कि घायल होने पर श्रमिकों को स्थानीय निजी अस्पतालों में ले जाया जाता है जहां फैक्ट्री मालिकों या ठेकेदारों और पुलिस सहित कानून अधिकारियों के बीच सांठगांठ और भ्रष्टाचार होता है, ताकि दुर्घटनाओं की सूचना देने से बचा जा सके और उन्हें कोई कानूनी परेशानी न झेलनी पड़े। कारखाना अधिनियम के खंड 88 में यह अनिवार्य है कि किसी कारखाने के प्रबंधक को किसी मृत्यु या ऐसी दुर्घटना के बारे में संबंधित अधिकारियों को सूचित करना होगा जिसके कारण एक श्रमिक को कम से कम 48 घंटे के लिए काम को रोकना पड़ा हो।
इसके अलावा, चिकित्सा अधिकारियों या डॉक्टरों को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 39 के तहत सभी मेडिको लीगल मामलों (MLCs) की रिपोर्ट पुलिस को देनी होती है, जिसमें विफल रहने पर उन पर मुकदमा चलाया जा सकता है। एमएलसी पर श्रम मंत्रालय की कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ईएसआईसी) पुस्तिका में भी इसके बारे में कहा गया है।
सुंदर ने कहा कि अगर व्यवहारिक तौर पर देखें तो, जब तक कोई बड़ी दुर्घटना नहीं होती है, तब तक रिपोर्ट नहीं की जाती है. यह तस्वीर डेटा में साफ तौर पर नजर आती है। उन्होंने आगे बताया, " नियोक्ताओं की तरफ से सूचना दर्ज न करने की कई वजहें हैं। उन्हें इसके बदले में कर्मचारी को मुआवजे की भरपाई करनी पड़ती है और साथ ही उनकी स्वास्थ्य देखभाल भी। अगर घायल श्रमिकों को सरकारी अस्पताल भेजा जाता है, तो एमएलसी की सूचना अधिकारियों को दी जाती है और ऐसी घटनाओं को छिपाया नहीं जा सकता है। मुद्दे संस्थागत रूप से दिखाई देते हैं। "
दक्षिण राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक में शहरी केंद्रों में प्रवासी श्रमिक कल्याण पर काम करने वाले 'आजीविका ब्यूरो' संगठन के प्रोग्राम मैनेजर महेश गजेरा ने इंडियास्पेंड को बताया, "जब छोटी दुर्घटनाएं होती हैं, तो साइट सुपरवाइजर या ठेकेदार पीड़ित को एक निजी अस्पताल में ले जाते हैं।"
नाम न छापने की शर्त पर गुजरात के एक ठेकेदार ने इंडियास्पेंड को बताया कि दुर्घटना के बाद श्रमिकों को आमतौर पर एक निजी अस्पताल में ले जाया जाता है क्योंकि वहां इलाज जल्दी होता है। जबकि सरकारी अस्पतालों में काफी समय लग जाता है। मुंडका अग्निकांड के बाद इंडियास्पेंड ने जिन परिवारों से मुलाकात की थी,उन सब ने भी देरी की बात को माना था। उन्होंने अधिकारियों की ओर से डीएनए परीक्षण के बाद शवों को सौंपने के लिए लगभग एक महीने तक इंतजार किया था।
निर्माण और रियल एस्टेट फर्म शापूरजी पालनजी ग्रुप (एसपीजी) में औद्योगिक संबंध और कानूनी मामलों के प्रशासक लालजी चुडासमा ने कहा, "अगर कोई दुर्घटना होती है तो कंपनियां अपनी इमेज को लेकर चिंतित रहती हैं। और अगर वो घायल कर्मचारी को एक निजी अस्पताल के बजाय एक सरकारी अस्पताल में ले जाते हैं तो उन्हें अधिकारियों को सूचित करना होगा जो उनके लिए समस्या का कारण बन सकता है।" चुडासमा ने 17 साल तक निर्माण क्षेत्र में काम किया है। चुडासमा ने कहा, "एफआईआर में नाम आने से बचने के लिए लोग तरीके ढूंढते हैं। नियोक्ता या ठेकेदार मध्यस्थता या समझौता करना चाहते हैं और एफआईआर से बचना चाहते हैं।"
"लेकिन एक बड़ी दुर्घटना (मुंडका की तरह) होने पर लोगों को एक सरकारी अस्पताल में ले जाया जाता है, जहां प्रक्रियाओं का पालन किया जाता है।"
विद्यामणि ने आरोप लगाया कि अमन के मामले में पुलिस पहले तो रिपोर्ट दर्ज करने को तैयार नहीं थी। जब वरिष्ठ अधिकारियों से शिकायत की गई, तभी उनका मामला दर्ज हो पाया। अहमदाबाद में एक कानूनी सलाहकार रंजीत कुमार कोरी ने कहा, "ज्यादातर मामलों में पुलिस प्राथमिकी दर्ज करने की इच्छुक नहीं होती है। मौत के मामले में दुर्घटनावश मौत की रिपोर्ट दर्ज की जाती है"। उन्होंने पुष्टि की कि अमन के मामले में कुछ दिनों के बाद शिकायत दर्ज की गई और श्रम विभाग को भेज दी गई। इंडियास्पेंड उस पुलिस थाने तक नहीं पहुंच सका जहां शिकायत दर्ज की गई थी।
गुजरात के पड़ोसी केंद्र शासित प्रदेश दमन और दीव और दादरा और नगर हवेली (DD&DNH) में एक अध्ययन में भी इस तरह की घटनाओं को रेखांकित किया गया था। सज्जन एस यादव ने दादरा और नगर हवेली में औद्योगिक सुरक्षा के 2019 के विश्लेषण में पाया था कि पुलिस रिकॉर्ड में कम रिपोर्टिंग के साथ पुलिस और सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं ने मौतों और घायलों की संख्या को कम करके आंका था। यादव उस समय केंद्र शासित प्रदेश के स्वास्थ्य सचिव थे। इस आवश्यकता के बावजूद कि हर मौत के मामले की सूचना पुलिस को दी जानी चाहिए और उसे एक प्राथमिकी में परिवर्तित किया जाना चाहिए, पुलिस ने 2017 में सिर्फ 30% मौतों की रिपोर्ट दर्ज की, जबकि स्वास्थ्य सुविधाओं ने अनुमानित मौतों के 70% की जानकारी दी थी"। पुलिस ने घायलों के मामले में सिर्फ 3.1% मामलों को पकड़ा जबकि स्वास्थ्य सुविधाओं में यह प्रतिशत 44 रहा।
यादव के अध्ययन में कहा गया है कि 1970 के दशक की शुरुआत में निवेश को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों के लागू होने के बाद केंद्र शासित प्रदेश में हजारों उद्योग स्थापित किए गए थे। 2020 तक छोटे क्षेत्र में 60 गुना आबादी के साथ ओडिशा (1,987) के रूप में पंजीकृत कारखानों (4,989) की संख्या दोगुनी से अधिक थी। फिर भी डीडी और डीएनएच के पास उस वर्ष तक अपनी लगभग 5,000 फैक्ट्रियों के लिए सिर्फ एक इंस्पेक्टर था, जबकि ओडिशा में प्रति इंस्पेक्टर 86 फैक्ट्रियां थीं।
कंपनी की जिम्मेदारी श्रम ठेकेदारों को हस्तांतरित कर दी गई
श्रम कल्याण विशेषज्ञों के मुताबिक, जब तक जनता का ध्यान नहीं जाता है, तब तक इस बात की संभावना नहीं है कि मालिकों या प्रमुख नियोक्ता का नाम एफआईआर में होगा। मुंडका अग्निकांड के मामले में भी यही हुआ था। आम जनता तक बात पहुंचने के बाद ही मालिकों को गिरफ्तार किया गया था। दरअसल इस तरह की घटनाओं में वो ठेकेदारों या उपठेकेदार जिम्मेदारी अपने ऊपर ले लेते है जो श्रमिकों की भर्ती करते हैं।
'आजीविका' के गजेरा ने कहा कि आमतौर पर कारखानों में काम करने वाले श्रमिक ठेकेदार के गांव या परिवार से आते हैं। इसलिए दुर्घटना होने पर दोनों पक्षों पर दबाव होता है। इस रिश्ते के कारण, "ठेकेदारों से (श्रमिक) को मुआवजा देने की अपेक्षा की जाती है और मालिक बच जाता है। श्रमिकों और ठेकेदारों को लगता है कि यह उनकी गलती थी, वह आगे कहते हैं, " लेबर सिस्टम इसी तरह काम कर रहा है। वैसे कानून प्रमुख नियोक्ता पर भी जिम्मेदारी डालता है।"
गुजरात के एक ठेकेदार ने 1990 के दशक की शुरुआत में एक श्रमिक के रूप में शुरुआत की थी और आज लगभग 400 श्रमिकों के साथ एक लाइसेंस प्राप्त ठेकेदार है। उन्होंने आरोप लगाते हुए कहा कि ट्रेनिंग दिए जाने के बावजूद श्रमिक लापरवाही से काम करते हैं। ठेकेदार ने अपना नाम न बताने की शर्त पर कहा "मैं उन्हें नशा न करने और अस्वस्थ होने पर काम पर न आने के लिए कहता हूं। लेकिन वे मेरी बात को नजरअंदाज कर देते हैं।"
जनवरी 2021 में अहमदाबाद में एक केमिकल फैक्ट्री में मशीन चलाते समय अनिल अपने दाहिने हाथ की उंगलियों को सीधा नहीं कर पाए और वह मशीन में आ गईं. दुर्घटना के बाद उस पर शराब के नशे में काम करने का आरोप लगाया गया था। अनिल ने कहा, "ठेकेदार झूठ बोल रहा था।"
दिल्ली की लघु निर्माण इकाइयों में कार्यस्थल स्वास्थ्य और सुरक्षा पर वीवी गिरि राष्ट्रीय श्रम संस्थान की 2017 की शोध रिपोर्ट ने पाया कि श्रमिक अपनी नौकरी खोने के डर से ट्रेड यूनियनों में भाग नहीं लेते हैं। क्योंकि सुपरवाइजर और ठेकेदार के पास मजदूरी के भुगतान और छुट्टियों आदि का नियंत्रण होता है। श्रमिक गांव और रिश्तेदारों के साथ-साथ नियोक्ता के साथ अपने संबंधों के आधार पर व्यक्तिगत रूप से मजदूरी को लेकर समझौता कर लेते है।
निर्माण क्षेत्र पर कोई डेटा नहीं
डीजीएफएएसएलआई डेटा निर्माण क्षेत्र में काम कर रहे श्रमिकों को कवर नहीं करता है। जबकि इस क्षेत्र से 2.6 करोड़ मजदूर जुड़े हुए हैं। श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, कृषि और घरेलू काम के बाद तीसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है।
अहमदाबाद में एक निर्माण श्रमिक संघ 'बंदकम मजदूर' संगठन के महासचिव विपुल पंड्या ने 2008 से 2021 तक विभिन्न पुलिस थानों की एफआईआर से एकत्रित आरटीआई आंकड़ों के आधार पर बताया कि इस दौरान गुजरात में कम से कम 1,280 श्रमिकों की मृत्यु हुई थी और 443 घायल हुए थे।
अहमदाबाद में 19 साल के भीलवार जिग्नेश रामसुभाई के ऊपर सितंबर 2022 में निर्माण का मलबा गिर गया और दो जगहों पर उनके पैरों में फ्रैक्चर हो गया। वह दो महीने से ज्यादा समय तक अपने बिस्तर से नहीं उठ पाए थे। अहमदाबाद से 200 किलोमीटर पूर्व में पड़ने वाले दाहोद से आया एक प्रवासी निर्माण श्रमिक किशोरी भी इस घटना में घायल हुआ था। 4,000 रुपये प्रति माह के किराए के घर में रहने वाला किशोरी पहले रोजाना लगभग 500 रुपये मजदूरी कमा लेता था। लेकिन इस दुर्घटना के बाद उसका भी ज्यादातर समय अब टेलीविजन सेट के पास बीतता है।
जिग्नेश ने कहा, "मेरी मां गांव में पैसे उधार लेने गई है क्योंकि हमारे पास अब पैसे नहीं बचे हैं। ठेकेदार ने जो 40,000 रुपये दिए थे वो सब खत्म हो गए हैं। अगर वे पैसे नहीं देंगे तो मुझे मामला दर्ज करने के बारे में सोचना पड़ेगा. अब मैं ज्यादा वजन नहीं उठा पाता हूं। (निर्माण में) काम करना भी मुश्किल हो गया है। मैं काफी परेशान हूं।", जिग्नेश के पिता एक छोटे किसान हैं।पांड्या ने कहा, " मजदूरों के जीवन को गंभीरता से नहीं लिया जाता है। आमतौर पर अगर कोई बड़ी दुर्घटना होती है, तो कारखाना निरीक्षक दौरा करेगा और टिप्पणी दर्ज करेगा या एक रिपोर्ट दर्ज करा दी जाएगी। लेकिन कोई फॉलोअप नहीं किया जाता है।"
2020 में फैक्टरी इंस्पेक्टर के लिए स्वीकृत 1,040 पदों में से सिर्फ 69% पदों पर भर्ती की गई थी। यानी 412 कार्यरत कारखानों के लिए एक फैक्ट्री इंस्पेक्टर। गुजरात में 453 कार्यरत कारखानों के लिए एक निरीक्षक है, जबकि दिल्ली में 973 कारखानों के लिए एक निरीक्षक है।
पंड्या ने कहा कि फैक्ट्री अधिनियम के उचित कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए निरीक्षकों की भर्ती की जाती है, लेकिन इनकी कुल संख्या कम हो गई है और सरकार ने सेल्फ-सर्टिफिकेशन की इजाजत दी हुई है। वह कहते हैं, "ऐसा कोई कानून नहीं है जिसे स्वयं लागू किया जा सके। फिर यहां भ्रष्टाचार भी है। यह सब दुर्घटनाओं की ओर ले जाता है।"
आईएमपीआरआई के सुंदर ने कहा, व्यवसायों का समर्थन करने वाले सुधारों के चलते इंस्पेक्शन भी उदार हो गए हैं। उन्होंने कहा, "आमतौर पर निरीक्षक रिकॉर्ड और काम करने के दौरान लगी चोटों के मामलों की जांच करते हैं और प्रक्रियात्मक मुद्दों का खुलासा किया जाता है।" लेकिन 2015 के बाद से राज्यों में मानदंडों को इतना उदार बना दिया गया है कि इससे रिपोर्टिंग और डेटा मिलान प्रभावित हो सकता है।
मुआवजा और जुर्माना
मुंडका पीड़ितों के अधिकांश परिवारों को केंद्र और दिल्ली सरकार से अनुग्रह राशि (एक्सग्रेशिया पेमेंट) तो मिल गई है, लेकिन वह अभी तक कर्मचारी मुआवजा अधिनियम, 1923 के तहत दिए जाने वाले मुआवजे का इंतजार कर रहे हैं। प्रक्रिया चल रही है और उन्हें उम्मीद है कि यह जल्द ही पूरी हो जाएगी।
उषा देवी के पड़ोसी चमन सिंह नेगी की 45 वर्षीय पत्नी की भी मुंडका फैक्ट्री में आग से मौत हो गई थी। उन्होंने बताया, "हमें सरकार से 12 लाख रुपये की अनुग्रह राशि मिली, लेकिन (मालिकों से) मुआवजा अभी भी लंबित है। हालांकि पैसा हमारे नुकसान की भरपाई नहीं कर सकता है।"नेगी 12.93 लाख रुपये के हकदार हैं, जिसकी गणना उनकी पत्नी को मिलने वाली मजदूरी और मृत्यु के समय उनकी उम्र के आधार पर की गई थी। यह मुआवजा अधिनियम के तहत एक प्रासंगिक कारक है। दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम जिले के श्रम उपायुक्त के आरटीआई के जवाब के अनुसार, 2018 और 2022 के बीच इस क्षेत्र के पीड़ितों को मुआवजे के रूप में 3.5 करोड़ रुपये दिए गए थे।
कारखाने के मालिक के वकील अहलावत ने कहा कि अधिकारियों के फैसले के आधार पर मरने वालों को मुआवजा देने के लिए "जो भी जरूरी है वो किया जाएगा"। इसमें वो लोग भी शामिल हैं जो ईएसआईसी के तहत पंजीकृत पाए थे। ईएसआईसी के तहत कवर किए गए लोगों को लाभ मिलेगा और हमने स्वेच्छा से अदालत को सूचित किया है कि हम परिसर में मरने वालों (परिवारों) को मुआवजा देने की कोशिश करेंगे।"
आंकड़ों के मुताबिक, फैक्ट्री अधिनियम, 1948 की धारा 92 (अपराधों के लिए सामान्य दंड) और 96ए (खतरनाक प्रक्रिया से संबंधित प्रावधानों के उल्लंघन के लिए दंड) के तहत 14,710 लोगों को दोषी ठहराया गया है, लेकिन 2018 और 2020 के बीच केवल 14 लोगों को सजा दी गई और उल्लंघन करने वालों पर 20 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया गया था।
श्रम विभाग की 8 दिसंबर को आरटीआई जवाब के अनुसार, दिल्ली में 2018 और अक्टूबर 2022 के बीच, 204 अभियोग दायर किए गए हैं और 224 का फैसला किया गया है।
ऐसे कई मामले हैं जहां कोई दस्तावेज नहीं होने के कारण मालिक और श्रमिकों के बीच संबंध स्थापित करना मुश्किल हो जाता है। कानूनी सलाहकार कोरी ने कहा, "हम एक नोटिस भेज सकते हैं और अक्सर हमें कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती है। फिर हम उपस्थिति सहित रिकॉर्ड मांगते हैं, लेकिन उस डेटा को पाने में समय लग जाता है।"
अमन, जिग्नेश और अनिल को सिर्फ पैसा मिला है जो उनकी बुनियादी चिकित्सा लागत को कवर कर सकता है। वे कहते हैं कि दुर्घटनाओं के कारण नौकरी छूटने या विकलांगता के लिए उन्हें मुआवजा नहीं दिया गया है। जिग्नेश ने कहा, "मैं कुछ और समय तक इंतजार करूंगा। अगर मुझे सहायता नहीं मिली तो मैं मामला दर्ज करने के बारे में सोचूंगा।"
उषा देवी जैसे परिवारों को आर्थिक मदद और पुनर्वास की जरूरत होती है, खासकर तब जब एक कमाऊ सदस्य की फैक्ट्री दुर्घटना में मौत हो जाए। डब्ल्यूपीसी के धर्मेंद्र कुमार ने कहा, "मुआवजा सिर्फ पैसों में दिया जाता है। उन्हें मनोवैज्ञानिक-सामाजिक समर्थन और वैकल्पिक आजीविका की जरूरत होती है, खासकर (जब) बुजुर्ग उन (पीड़ितों) पर निर्भर थे।"
छोटे कारखानों के लिए भी सुरक्षा समितियां अनिवार्य होनी चाहिए
लेबर इकोनॉमिस्ट सुंदर ने कहा, कारखाना अधिनियम तीन मुद्दों से जूझ रहा है। सभी कारखानों को कवर नहीं किया गया है, काम की आउटसोर्सिंग ने श्रमिकों की संख्या (10 से कम) को कम कर दिया है और उन्हें अधिनियम के दायरे से बाहर कर दिया है। अधिनियम की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए श्रम विभागों की कमी है।
खतरनाक कारखानों में बेहतर तकनीक के इस्तेमाल से श्रमिकों की संख्या भी कम हुई है। सुंदर ने कहा कि यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि कम से कम 40 श्रमिकों और उससे अधिक काम करने वाले कारखानों और बाद में अन्य वर्गों के लिए सुरक्षा नियम लागू हों। यहां तक कि अगर सेल्फ-सर्टिफिकेशन की इजाजत है या यादृच्छिक निरीक्षण किए जाते हैं, तो निरीक्षकों द्वारा औद्योगिक दुर्घटनाओं पर एक डेटा-आधारित विशेष रिपोर्ट होनी चाहिए, जो नियोक्ताओं को सलाह दे सके।
ऑटो क्षेत्र के लिए SII की क्रश्ड 2022 रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि कंपनियों की OSH नीति को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अनुबंध श्रमिकों को स्थायी श्रमिकों के बराबर रखा जाए। उनकी सुरक्षा ऑडिट और प्रशिक्षण शुरू किया जाए, सप्लाई चैन में दुर्घटना की रिपोर्टिंग की पारदर्शिता और जवाबदेही में सुधार किया जाए और सबसे सुरक्षित कारखानों को पुरस्कृत किया जाए।
बंदकम मजदूर संगठन के पांड्या का मानना है कि सुरक्षा समितियों के लिए सिर्फ कागजों पर काम करने की बजाय और अधिक सक्रिय और सहभागी होने की जरूरत है। अगर गलतियां की जाती हैं, तो मालिकों और ठेकेदारों को समस्या को सुलझाने के लिए इसे स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए सभी हितधारकों को सामूहिक रूप से काम करने की आवश्यकता है।
एसपीजी के चुडासमा ने सुरक्षा के लिए एक पेशेवर नजरिया अपनाने का सुझाव दिया जहां नियोक्ता अपने कर्मचारियों को बार-बार प्रशिक्षित करे और उनका निरीक्षण करता रहे। किसी भी तनाव को कम करने के लिए श्रमिकों के भोजन, रहने और स्वच्छता का ध्यान रखना होगा।
मुंडका अग्निकांड पीड़ितों के परिवार वाले अपने दुख और नुकसान के लिए कंपनी के मालिकों के लिए अनुकरणीय सजा चाहते हैं। नेगी ने कहा, 'अगर उन्होंने पछतावा दिखाया होता या हमसे मुलाकात की होती और माफी मांगी होती तो शायद हम केस भी नहीं करते।'
सेंटर फॉर एजुकेशन एंड कम्युनिकेशन की अशोक कुमारी ने दिल्ली रिपोर्टिंग में मदद की है।