उत्तराखंड: पिरूल से बिजली बनाने की परियोजना क्यों नहीं पकड़ रही रफ्तार
चीड़ समेत अन्य बायोमास से सालाना 150 मेगावाट से अधिक नवीकरणीय ऊर्जा पैदा की जा सकती है। लेकिन राज्य में इससे अभी 150 किलोवाट बिजली भी नहीं बन पा रही। 2018 में इससे जुड़ी नीति आने के बावजूद ये योजना रफ्तार क्यों नहीं पकड़ पा रही?
उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ निवासी रजनीश जैन ने जंगल में मिलने वाली चीड़ की पत्तियां यानी पिरूल से वर्ष 2009 में 10 किलोवाट के पावर प्लांट के साथ बेरीनाग में बिजली पैदा की थी और अपनी तकनीकी में सुधार करते हुए उन्होंने वर्ष 2017 में 25 किलोवाट का प्लांट लगाया जिससे वह सिर्फ बिजली ही नहीं पैदा कर रहे, बल्कि स्थानीय लोगो विशेषकर महिलाओं को रोजगार भी दे रहे हैं, राज्य में वनाग्नि की समस्या को भी कम कर रहे हैं। लेकिन राज्य सरकार से प्रोत्साहन मिलने के बाद भी उनकी यह तकनीक अभी तक रफ्तार पकड़ने में असफल रही है।
अवनि बायो एनर्जी के संस्थापक रजनीश जैन बताते हैं कि बारिश-बर्फबारी जैसे दिनों में कई-कई दिनों तक बिजली गुल होने पर इस प्लांट से बनी बिजली उनके घर और दफ्तर को रोशन किया है।
रजनीश जैन की शुरुआती सफलता और वनाग्नि के समाधान के लिए जंगल से पिरूल हटाने की सोच के साथ वर्ष 2018 में उत्तराखंड सरकार पिरूल व अन्य बायोमास नीति लेकर आई।
वर्ष 2018 में बनी इस नीति में कहा गया था, “उत्तराखंड बायोमास के रूप में चीड़ के पत्तों की उपलब्धता में अत्यधिक समृद्ध है।अनुमान के अनुसार आरक्षित और वन पंचायत वनों (वन्य जीवन क्षेत्र को छोड़कर) में सालाना 15 लाख मीट्रिक टन से अधिक चीड़ के पत्ते उत्पन्न होते हैं। इसलिए, पारंपरिक उपयोगों के लिए पर्याप्त प्रावधान करने के बाद भी अनुमानित मात्रा का लगभग 40 प्रतिशत संग्रहणीय मात्रा के रूप में लिया जाता है; लगभग 6 लाख मीट्रिक टन औद्योगिक उपयोग के लिए उपलब्ध है। चीड़ की पत्तियों के अलावा, लगभग 8 लाख मीट्रिक टन अन्य बायोमास (कृषि फसल अवशेष, लैंटाना, आदि) भी औद्योगिक उद्देश्यों के लिए उपलब्ध है।
नीति में आगे लिखा है कि उपरोक्त के आधार पर राज्य में बायोमास से सालाना 150 मेगावाट से अधिक बिजली उत्पादन की क्षमता है। 250 kW तक की क्षमता वाली बायो-मास आधारित परियोजनाओं और 2,000 मीट्रिक टन प्रति वर्ष तक की क्षमता की ब्रिकेटिंग/बायो-ऑयल इकाइयों से बिजली पैदा करने की यह अप्रयुक्त क्षमता न केवल स्थानीय बिजली की जरूरतों को पूरा करने में मदद कर सकती है, पर साथ ही साथ यह आजीविका और राजस्व सृजन का साधन भी है ।
उत्तराखंड के चीड़ वन और उससे रिन्यूएबल एनर्जी बनाने की क्षमता
उत्तराखंड के कुल वन क्षेत्र में से 16.36% (3,99,329 हेक्टेयर) पर चीड़ वन हैं। इनमें 14 लाख मीट्रिक टन से अधिक पिरूल सालाना पैदा होता है।
पिरूल, उत्तराखंड और वनाग्नि
आपको बताते चलें कि पिरूल को वनाग्नि के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। यह पत्तियां जनवरी माह से ही जंगल की फर्श पर चादर की तरह बिछ जाती हैं और गर्मियों के बढ़ने पर यह नुकीली पत्तियां धधकने लगती हैं।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक लगातार गर्मी के चलते राज्य में फरवरी-मार्च में वनाग्नि की घटनाएं शुरू हो गईं। उत्तराखंड से प्रकाशित खबरों के मुताबिक 1 नवंबर 2022 से 7 मार्च 2023 तक राज्य में 109.75 हेक्टेयर वन क्षेत्र वनाग्नि से प्रभावित हुए। जबकि 14 मार्च तक 148.90 हेक्टेयर वन क्षेत्र वनाग्नि प्रभावित हुए। यानी एक हफ्ते में ही तकरीबन 40 हेक्टेयर क्षेत्र में आग का दायरा बढ़ गया।
काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर की रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन और मौसमी बदलावों के चलते पिछले दो दशक में देश में वनाग्नि की घटनाएं दस गुना तक बढ़ी हैं। उत्तराखंड के अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ समेत पर्वतीय जिलों में जंगल जलने की घटनाएं शुरू हो गई हैं। मौसम विभाग फरवरी महीने में ही अत्यधिक तापमान का अलर्ट जारी कर रहा है ऐसे में पिरूल प्लांट जंगल की आग से जुड़ी समस्या का एक समाधान हो सकते हैं।
2001 से 2021 तक, उत्तराखंड ने 17.9kha वृक्षों (kha = किलो हेक्टेअर) का आवरण खो दिया । राज्यसभा में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा दिए गए एक जवाब के मुताबिक जनवरी 2017 से जून 2017 के बीच राज्य में वनाग्नि की 3,623 घटनाएं दर्ज हुईं। जनवरी 2018 से जून 2018 तक 11,808 घटनाएं, नवंबर 2018 से जून 2019 तक 12,965 घटनाएं, नवंबर 2019 से जून 2020 तक 759 घटनाएं, नवंबर 2020 से जून 2021 तक 21,487 घटनाएं दर्ज की गईं।
आपको बताते चलें कि 2022 में वनाग्नि की 2,200 घटनाओं में करीब 3,500 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ।पिरूल नीति
पिरूल नीति में 2019 तक 1 मेगावाट, 2021 तक 5 मेगावाट और 2030 तक 100 मेगावाट क्षमता के पावर प्रोजेक्ट्स लगाने का लक्ष्य तय किया गया। इसके लिए 10 किलोवाट से लेकर 250 किलोवाट के प्लांट लगाए जाने थे। ग्रिड से जुड़े प्लांट में 7.5 रुपए प्रति किलोवाट की दर से भुगतान किया जाता है।
25 किलोवाट के पिरूल प्लांट की लागत 25 लाख रुपये और सब्सिडी 40% है। इससे 1.2 लाख किलोवाट सालाना बिजली बनने का आकलन किया गया। जिससे 12.33 लाख रुपए आमदनी संभव थी। प्लांट पर आने वाली लागत 7.65 लाख रुपए और मुनाफा 4.68 लाख रुपए होगा। पिरूल प्लांट से बिजली के साथ-साथ बायोचार ( बिजली बनाने की प्रक्रिया में बना कोयला) भी बनता है।
नीति बनने के बाद से अब तक उरेडा ने राज्य में 58 पिरूल प्लांट अलॉट किए। अवनि बायो एनर्जी को तकनीकी सहयोगी के तौर पर प्लांट लगाने का जिम्मा सौंपा गया। लेकिन इन 58 में से कुल 150 किलोवाट के मात्र 6 प्रोजेक्ट ही कमीशन किए जा सके।
यूनाइटेड नेशंस इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक बायोएनर्जी कई देशों में स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ाने में सहायक रही है। ये जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करने के साथ ही ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को भी कम करने में योगदान दे सकती है।
उत्तराखंड में पिरूल से बिजली बनाने की नीति पर आईआईटी कानपुर में जस्ट ट्रांजिशन रिसर्च सेंटर में प्रोफेसर प्रदीप स्वर्णकार कहते हैं, “जीवाश्म ईंधन से स्वच्छ ऊर्जा में बदलाव (Energy Transition) और नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने में भी बायोएनर्जी बेहद अहम है। जिन जगहों पर इसके कच्चे माल की उपलब्धता है वहां हमें इसे तकनीकी तौर पर बेहतर बनाने के लिए काम करने की जरूरत है। बायोएनर्जी का इस्तेमाल ग्रामीण समुदाय के लिए बेहद अच्छा रहेगा। इससे समुदाय आत्मनिर्भर बना रहेगा।”
तकनीकी अड़चन
हालांकि पिरूल से बिजली बनाने में तकनीकी अड़चन भी हैं। उरेडा में बायोएनर्जी के लिए कार्य कर रहे परियोजना अधिकारी वाईएस बिष्ट बताते हैं कि इन 6 में से एक भी प्रोजेक्ट ठीक से कार्य नहीं कर रहा है। उनके मुताबिक पिरूल से बिजली बनाने की तकनीक को बेहतर बनाने की जरूरत है। “इसके रिसर्च और डेवलपमेंट के लिए आईआईटी रुड़की से हमारी बातचीत चल रही है। मौजूदा प्रोजेक्ट तकनीकी तौर पर व्यावहारिक साबित नहीं हो पा रहे हैं। प्लांट की क्षमता कम होने के चलते ये वित्तीय तौर पर भी व्यवहारिक नहीं हैं।”
उरेडा अधिकारी के इस बात की पुष्टि नैनीताल के रामगढ़ विकासखंड के निगराडू गांव में 25 किलोवाट का प्लांट लगाने वाले भूपेंद्र सिंह नेगी करते हैं। उनका प्लांट वर्ष 2020 में शुरू हुआ। “प्लांट से जुड़ी बहुत सी दिक्कतें हैं। जंगल से लाए गए पिरूल में गंदगी बहुत ज्यादा होती है। पिरूल डालने पर बहुत ज्यादा तार (waste material) निकलता है जिससे इंजन जाम होता रहता है। इसलिए सफाई बहुत ज्यादा करनी होती है। जिसके लिए पानी की आवश्यकता होती है। गर्मी के दिनों में 500 लीटर तो अन्य दिनों में रोजाना 300 लीटर तक पानी चाहिए।”
नेगी कहते हैं कि प्लांट में काम करने के लिए उन्हें अपने साथ कम से कम एक व्यक्ति और चाहिए लेकिन पहाड़ों में काम करने के लिए लोग नहीं मिलते। “एक तो यहां लेबर नहीं मिलती, फिर उन्हें भी 400 रुपए रोज का देना होता है। बारिश के दिनों में या अच्छी धूप न होने पर पिरूल में नमी रहती है और ये ठीक से जल नहीं पाता। इससे 25 किलोवाट का प्लांट 15 किलोवाट की क्षमता से काम करता है। बिजली जाने पर ग्रिड ठप हो जाती है। महीने में बमुश्किल 15 दिन ही प्लांट काम कर पाता है।”
“पिछले ढाई वर्षों में मेरे प्लांट से सिर्फ करीब 15 हजार यूनिट बिजली बनी है। यानी 1,12,500 रुपए। इसमें लागत भी नहीं निकल सकी है,” नेगी आगे बताते हैं।
ऊर्जा विभाग के सचिव डॉ आर मीनाक्षी सुंदरम पिरूल से बिजली बनाने के राज्य सरकार के फैसले को गैर-जिम्मेदार ठहराते हैं। इंडिया स्पेंड से बातचीत में उन्होंने कहा “पिरूल नीति लाने से पहले राज्य की एजेंसी से इसकी तकनीकी और वित्तीय व्यावहारिकता की जांच करानी चाहिए थी। खुद संतुष्ट होने के बाद ही इसका प्रचार करना चाहिए था। पिरूल प्लांट्स को लेकर अवनि संस्था और प्लांट चलाने वाले लोगों के साथ हमारी कई बैठकें हो चुकी हैं। अवनि संस्था अब भी कहती है कि ये तकनीकी और वित्तीय तौर पर व्यावहारिक है लेकिन प्लांट चला रहे लोग इससे इंकार कर रहे हैं। उन्होंने पावर प्लांट के लिए बैंक से ऋण भी ले लिया है और उसका भुगतान कर पाने की स्थिति में नहीं हैं”।
डॉ सुंदरम् कहते हैं “अब हम पिरूल से बिजली की जगह ईंट (ब्रिकेट्स) बनाने पर जोर देंगे। ऊर्जा विभाग ने एनटीपीसी को भी पत्र लिखे हैं कि क्या वे अपने मौजूदा थर्मल पावर प्लांट्स में पिरूल से बने ब्रिकेट्स का इस्तेमाल करेंगे। ये कोयले से सस्ता होगा। थर्मल प्लांट और पिरूल प्लांट दोनों को इससे फायदा होगा”। हालांकि एनटीपीसी की तरफ से उन्हें इस पर अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है।
ऊर्जा सचिव के मुताबिक उत्तराखंड सरकार अब पिरूल से बिजली उत्पादन को बढ़ावा नहीं देने जा रही।
अल्मोडा के जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान में वैज्ञानिक इंजीनियर किरीट कुमार कहते हैं अन्य बायोमास की तरह चीड़ की पत्तियों से बिजली बनाने का विचार बहुत अच्छा है लेकिन फिलहाल ये व्यावहारिक साबित नहीं हो पा रहा है।
वह बताते हैं कि अवनि बायो एनर्जी ने जीबी पंत के कैंपस में भी इस प्लांट को चलाकर दिखाया है। “पिरूल प्लांट का तकनीकी मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ। हम इस पर काम कर रहे हैं। प्लांट चलाने वाले उद्यमियों को मैकेनिकल सहयोग की भी जरूरत है। प्लांट की दक्षता, व्यावहारिकता और सालभर पिरूल की उपलब्धता सुनिश्चित करना जरूरी है।”
उधर, अपेक्षित नतीजे न मिलने पर रजनीश जैन पिरूल प्लांट को तकनीकी तौर पर बेहतर बनाने के काम में जुटे हुए हैं। “पर्वतीय क्षेत्र में काम करने वाले लोग नहीं मिल रहे हैं, इसलिए पिरूल प्लांट चलाने वाले उद्यमी परेशान होते हैं। हम एक ऑटोमाइज का सिस्टम बना रहे हैं। पिरूल फीड करने समेत सारा कार्य मैकेनिकल होगा। बिजली और बायोचार बनाने का काम साथ-साथ होगा। इस कार्य के लिए एक ही व्यक्ति पर्याप्त होगा। अभी कम से कम दो लोगों की जरूरत होती है।”
रजनीश पिरूल से बने बायोचार को प्रमुख उत्पाद के तौर पर देखे जाने की बात कहते हैं। वह कहते हैं, “एक किलो बायोचार मांग के मुताबिक 20 से लेकर 35 रुपए किलो तक भी बिक जाता है। इसका इस्तेमाल खेत में मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए होता है। साथ ही ये मिट्टी में कार्बन को 100 से अधिक वर्षों तक संचित रखता है। पर्वतीय क्षेत्रों में खाना बनाने के लिए ईंधन के तौर पर भी इसका इस्तेमाल होता है। बायोचार की डेढ़ किलो ब्रिकेट्स करीब 10 किलो जलावन की लकड़ी के बराबर होती हैं।”
महिलाओं को रोजगार
रजनीश बताते हैं कि ज्यादातर मार्च, अप्रैल और मई के महीने में गांव की महिलाएं नजदीकी जंगल से चीड़ की सूखी पत्तियां इकट्ठा करती हैं। एक दिन में एक महिला 100-200 किलो तक पत्तियां इकट्ठा कर लाती है। उन्हें दो रुपए प्रति किलो के हिसाब से भुगतान किया जाता है। साल के तीन महीने होने वाले इस काम में कुछ स्थानीय महिलाओं ने 20-25 हजार रुपए प्रति माह तक कमाया।
उनके मुताबिक जंगल से चीड़ की पत्तियां यानी पिरूल इकट्ठा करने में स्थानीय लोगों ने शुरुआती झिझक जरूर दिखाई। लेकिन अतिरिक्त आमदनी का जरिया मिलने पर आगे चलकर इस कार्य को करने की होड सी भी लग गई। चीड़ वनों के नजदीक बसे गांवों में पिरूल की अहमियत बहुत ज्यादा है। अल्मोड़ा के ताकुला विकासखंड के बगडांव की रूपा पाटनी इन दिनों रोजाना जंगल से पिरूल इकट्ठा करने जाती हैं। वह बताती हैं अप्रैल-मई में गांव की महिलाओं को फुर्सत ही नहीं मिलेगी। वे सभी सुबह से शाम तक पिरूल लाने जंगल के कई चक्कर लगाती हैं।
“सुबह के समय पिरूल गिरता है। हम कभी एक गट्ठर तो कभी दो गट्ठर लाते हैं। जब जंगल पिरूल से भर जाता है तो दिन में 5-10 गट्ठर भी लाते हैं। एक गट्ठर में 40-45 किलो तक पिरूल आ जाता है। जंगल के भीतर दो-तीन किलोमीटर तक जाते हैं। तेज धूप होती है, हम पसीने में भीग जाते हैं लेकिन पिरूल लाना ही है।”
रूपा कहती है, “पिरूल को पालतू पशुओं के लिए बिस्तर के तौर पर लगाया जाता है। जिसमें गोबर मिलने पर ये खाद का काम करता है। जिसके जितने खेत होते हैं, उन्हें उतनी ज्यादा पिरूल की जरूरत होती है। गांव के जो लोग जंगल नहीं जा पाते वे हमसे पिरूल खरीदते हैं। “
रूपा पावर प्लांट के लिए पिरूल लाने को तैयार हैं। लेकिन उनके क्षेत्र के लोग प्लांट को लेकर आशंकित हैं।