बेंगलुरु: उत्तरी बेंगलुरु के दसरहल्ली में मान्यता एम्बेसी नाम का एक टेक्नॉलजी पार्क है जो शहर के सबसे बड़े टेक्नॉलजी पार्क में से एक है। इससे कुछ किलोमीटर दूर ही 315 रोहिंग्या शरणार्थी कच्ची बस्तियों में रहते हैं। इन लोगों के पास किसी भी देश की नागरिकता नहीं है। एक शरणार्थी ने इंडियास्पेंड को बताया कि शहर में ऐसी कुल तीन बस्तियां हैं जिनमें लगभग 500 रोहिंग्या शरणार्थी रहते हैं।

म्यांमार के 'जातीय संहार' में बच गए ये लोग तिरपाल और बांस के सहारे बने तंबुओं में रहते हैं। इन तंबुओं के अंदर जमीन पर पुराने कपड़े और बोरे बिछाकर 'फर्श' बनाई गई है। एक एकड़ के क्षेत्रफल में लगभग 63 परिवार रहते हैं जिनमें 60 बच्चे भी हैं। औसतन हर टेन्ट में छह लोग रहते हैं। इनमें से हर परिवार जमीन के मालिक को ₹2,000 हर महीने का किराया देता है। अपना घर चलाने के लिए ये परिवार कूड़ा बीनने का काम करते हैं। इनके तंबुओं के चारों ओर प्लास्टिक के कचरे के ढेर, बीयर की बोतलें, और अन्य तरह का कूड़ा इकट्ठा है। इनकी आजीविका का मुख्य साधन यही कूड़ा बीनना है।

मुख्य तौर पर मुस्लिम, रोहिंग्या एक ऐसा जातीय समूह है जिसे म्यांमार में आधिकारिक तौर पर पहचान नहीं मिली है। पिछले चार दशकों में इस समुदाय के खिलाफ कई बार हिंसक घटनाएं भी हुई हैं। एक अनुमान के मुताबिक, अब तक लगभग 9,20,994 लोग बांग्लादेश के कॉक्स बाज़ार इलाके की ओर जा चुके हैं। इसी वजह से, जनवरी 2022 तक यह इलाका दुनिया का सबसे बड़ा शरणार्थी कैंप बन चुका है। भारत में मौजूद यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीज़ (यूएनएचसीआर) ने 31 दिसंबर, 2021 तक 23,592 शरणार्थियों और राजनीतिक आश्रय चाहने वालों को रजिस्टर किया है। यूएनएचसीआर के जनवरी 2019 के भारत के डेटा के मुताबिक, देश में 18,000 रोहिंग्या मौजूद हैं। रोहिंग्याओं को संयुक्त राष्ट्र ने 'विश्व के सबसे प्रताड़ित अल्पसंख्यक' के तौर पर पहचान दी है। इन लोगों को मूलभूत हक भी नहीं मिल रहे हैं और ये लैंगिक आधार पर यौन हिंसाओं का शिकार हो रहे हैं।

प्रताड़ना और जान गंवाने के डर से भारत, बांग्लादेश और दुनिया के दूसरे हिस्सों में पलायन को मजबूर होने से पहले रोहिंग्या, पूर्वी म्यांमार के रखाइन राज्य के समृद्ध निवासी थे। शरणार्थियों ने इंडियास्पेंड को बताया कि शरणार्थी के रूप में अब उन्हें 'सम्मान' और रोजी-रोटी के लाले पड़ गए हैं।

कैंप में रहने वाले ज़्यादातर शरणार्थी पहले किसान थे, उनके पास गांव में जानवर और दूसरे कारोबार भी थे। रखाइन के बोली बाजार से आए 42 वर्षीय शरणार्थी करीमउल्लाह बताते हैं, "मेरे परिवार के पास 200-250 एकड़ जमीन थी। कम से कम 15 से 20 लोग हमारे खेतों पर काम करते थे। मैं झुग्गियों में पला-बढ़ा नहीं हूं।" साल 2013 में भारत आए करीमउल्लाह बताते हैं कि 15 दिन तक जंगलों के रास्ते पैदल चलकर अपने परिवार के साथ वो भारत आए थे। वह बताते हैं कि रास्ते में उन्हें पत्तियां खाकर गुजारा करना पड़ा। इस दौरान रास्ते में कई लोग मर भी गए।

भारत में शरणार्थियों और राजनीति आश्रय चाहने वालों के बारे में राष्ट्रीय स्तर पर कोई घरेलू कानून नहीं है। बाहरी देशों में कुछ ऐसे कानूनों के सहारे नियम तय होते हैं जिनसे शरणार्थियों के लिए कल्याणकारी योजनाओं, सहायता, दस्तावेज से जुड़ी चीजों को सीमित कर दिया जाता है और उन्हें प्रताड़ित होना पड़ता है। विशेषज्ञों ने इंडियास्पेंड से कहा कि देश में शरणार्थियों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक कानून की ज़रूरत है, ताकि सरकार को शरणार्थियों को मदद करने और उनके मैनेजमेंट के लिए जिम्मेदार बनाया जा सके। इससे, यह तय किया जा सकेगा कि जान के खतरे और रोजी-रोटी के खतरे से जूझने वाले रोहिंग्या और अन्य शरणार्थियों को भारत में मूलभूत सुविधाएं जैसे कि स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाएं, राशन, और शिक्षा समान रूप से दी जा सकेंगी। साथ ही, यह भी पक्का किया जा सकेगा कि उन्हें राजनीतिक मजबूरियों और सुविधा के हिसाब से हाशिए पर नहीं धकेला जाएगा।

सम्मान और कमाई की भारी कमी

साठ साल की सारा खातून एक फीकी मुस्कान के साथ हमारा स्वागत करती हैं, लेकिन हिंसा की यादें उभरते ही उनकी ये हंसी गायब हो जाती है। वह याद करती हैं कि रखाइन के बुथिदौंग गांव में स्थानीय बौद्ध परिवारों से उनके समुदाय यानी रोहिंग्याओं के संबंध बहुत अच्छे भले न रहे हों, लेकिन बचपन में उन्हें कभी ऐसी प्रताड़ना नहीं झेलनी पड़ी। रोहिंग्याओं पर म्यांमार की सेना की ओर से की गई हिंसा और हत्याओं के बाद वह अपने पति के साथ म्यांमार बॉर्डर को पार करके बांग्लादेश आ गईं। सारा खातून के पति मछुआरे थे।

सारा खातून दसरहल्ली में अपनी एक छोटी सी दुकान के सामने। फोटो: श्रीहरि पलियथ

सारा खातून बताती हैं, "जब हमने नदी पार की तो पानी गले तक था और पानी में लाशें तैर रही थीं। हमें डर था कि हर 50 मीटर पर तैनात सेना हमें गोली मार देगी।"

सारा के पति की मौत बांग्लादेश के कैंप में हो गई। सारा कहती हैं कि उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि वह एक अनजान जगह पहुंच जाएंगी और वहां कूड़ा बीनने का काम करेंगी। सारा कहती हैं, "मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। अगर मैं काम नहीं करती तो मैं अपने लिए दवाइयां भी नहीं खरीद कर सकती थी।"

कूड़ा बीनने वालों के रूप में ये रोहिंग्या इस महानगर को सेवाएं देते हैं, लेकिन इससे वे इतना नहीं कमा पाते हैं कि वे ठीक से गुजारा कर सकें या दूसरे कामों की ओर मुड़ सकें। पांच बच्चों के बाप करीमउल्लाह कहते हैं, 'मैं एक दिन में ज़्यादा से ज़्यादा 300 से 400 रुपये कमा पाता हूं। हम सुबह चावल खाकर घर से निकलते हैं और बाहर रहने पर अक्सर लंच में चाय या पानी से ही काम चलाते हैं। अगर हम अपने सारे पैसे खाने पर ही खर्च कर दें, तो घर कैसे चलेगा?"

करीमउल्लाह बताते हैं कि वह पांच साल पहले जम्मू से बेंगलुरु आए, क्योंकि वहां रोहिंग्या बस्तियां जला दी गई थीं।

करीमउल्लाह दसरहल्ली के शरणार्थी कैंप में। फोटो: श्रीहरि पलियथ

इन सबसे अलग सारा खातून के भांजे जेम्स ताहियत (25) की किस्मत अच्छी रही और उन्हें भारत में अंग्रेजी की पढ़ाई करने का मौका मिला। अभी जेम्स अडवांस डिग्री कर रहे हैं। वह बताते हैं कि साल 2013 में उनके बड़े भाई को बांग्लादेशी प्रवासियों ने मार डाला था। बचे हुए भाई-बहनों में सबसे बड़े जेम्स ने दिल्ली में पढ़ाई करने जाने से पहले कूड़ा बीनने का काम किया। वह कहते हैं, "शरणार्थी जीवन काफी कठिन है। जब लोग हमें देखते हैं तो वे हमें इज्जत नहीं देते हैं। सिर्फ़ वे कुछ लोग ही इज्जत देते हैं जो हमारी समस्याओं को समझते हैं।"

साल 2012 में पड़ोसी गांव में म्यांमार की सेना की हिंसा का सामना करने के बाद उनके पिता फारूक (55) अपने परिवार - बीबी और तीन बच्चों के साथ दो दिन तक पैदल चले। इसके बाद, परिवार समेत वे कॉक्स बाजार पहुंचे। पहले 15 एकड़ जमीन के मालिक, किसान और बढ़ई रहे फारूक कहते हैं, "जब मैं जवान था, तब भी हमारे खिलाफ हिंसा थी, लेकिन इतनी नहीं थी।"

कोई डेटा नहीं, सुरक्षा को खतरा

वैसे तो कॉक्स बाजार दुनिया का सबसे बड़ा शरणार्थी कैंप है। इस कैप में लगभग 10 लाख रोहिंग्या शरणार्थी रहते हैं। इसके बावजूद, भारत में रहने वाले शरणार्थियों की कुल जनसंख्या के बारे में कोई सही डेटा मौजूद नहीं है। दिसंबर 2021 में आई राइट्स एंड रिस्क्स अनालसिस ग्रुप (आरआरएजी) की एक रिपोर्ट में कहा गया कि "म्यांमार से आए रोहिंग्या शरणार्थियों की सही संख्या पता नहीं है।"

9 अगस्त, 2017 को केंद्र सरकार ने कहा, "लगभग 40 हजार रोहिंग्या भारत में अवैध रूप से रह रहे हैं।" साथ ही सरकार ने यह भी कहा कि "रोहिंग्या समेत तमाम अवैध विदेशी नागरिकों को वापस उनके देश भेजने के लिए' उसकी तरफ से निर्देश भी जारी किए गए हैं।

पिछले दिनों सरकार ने 'अवैध प्रवासियों' की पहचान और मॉनिटरिंग के लिए एडवाइजरी जारी की है। सरकार ने माना है कि 'ये प्रवासी न सिर्फ़ भारतीय नागरिकों के हक मार जाते हैं बल्कि कई बार सुरक्षा के लिए खतरा भी बनते हैं'। सरकार ने यह भी कहा कि 'पिछले कुछ सालों में म्यांमार के रखाइन राज्य से भारतीय सीमा में घुसपैठ करने वाले लोग, देश के सीमित संसाधनों पर बोझ बनने के साथ-साथ देश की सुरक्षा के लिए खतरा भी बन गए हैं।'

एक मानवाधिकार नेटवर्क साउथ एशिया ह्यूमन राइट्स डॉक्यूमेंटेशन सेंटर (एसएएचआरडीसी) के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर रवि नायर कहते हैं कि भारत में शरण लेने से जुड़ा कोई कानून नहीं है, इसलिए रोहिंग्या यहां अपने-आप ही अवैध घुसपैठिए बन जाते हैं और और उन्हें विदेशी कानून के तहत गिरफ्तार किया जा सकता है। रवि कहते हैं कि इससे वे पुलिस और अन्य अधिकारियों की प्रताड़ना और वसूली के शिकार बनते हैं।

सब्बर क्याव मिन, रोहिंग्या ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के को-फाउंडर और डायरेक्टर हैं। इसके साथ ही वह फ्री रोहिंग्या कोएलिशन के लिए भारत में कोऑर्डिनेटर हैं। वह साल 2005 से भारत में रह रहे हैं। सब्बर कहते हैं, "लोगों का एक वर्ग सिर्फ हमारी जातीय पहचान और धार्मिक मत की वजह से हमें अपमानित करता है। हालांकि, रोहिंग्या एक व्यापक समुदाय है और इसमें कई धार्मिक मत हैं।"

भारत के पास राजनीतिक आश्रय मांगने वालों और शरणार्थियों को लेकर अपना कोई कानून नहीं है। भारत ने 1951 के शरणार्थियों के बारे में संयुक्त राज्य के सम्मेलन और इसके 1967 के प्रोटोकॉल पर दस्तखत नहीं किए हैं। हालांकि, उसने यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स पर दस्तखत किए हैं। इसके प्रावधानों के तहत, प्रताड़ना से संरक्षण मांगने वालों को शरण देने के लिए भारत बाध्य है। इसके अलावा, न्यायिक आदेशों ने भी कुछ राहत दी है और कानून की कमी को कुछ हद तक पूरा किया है।

अक्टूबर 2021 में कर्नाटक सरकार ने अपने पिछले स्टैंड से हटते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि बेंगलुरु और राज्य के अन्य हिस्सों में रह रहे रोहिंग्याओं को वापस भेजने के लिए वह 'तत्काल योजना' नहीं बना रही है। साथ ही, कर्नाटक सरकार ने यह भी कहा कि निर्वासन के लिए वह सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करेगी।

आरआरएजी की रिपोर्ट के मुताबिक, 2021 से पहले तक पिछले चार सालों में कम से कम 1,178 रोहिंग्या गिरफ्तार किए, हिरासत में लिए गए या अलग-अलग राज्यों में तस्करी करके ले जाए जा रहे थे और पुलिस ने उन्हें बचाया। इस दौरान कर्नाटक में कुल सात लोग गिरफ्तार किए गए। साल 2021 में 354 रोहिंग्या गिरफ्तार किए गए, हिरासत में लिए गए या बचाए गए। इसमें सबसे ज्यादा जम्मू-कश्मीर से 174 और दिल्ली से 95 लोग शामिल थे।

इस बारे में इंडियास्पेंड ने कर्नाटक के गृह विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों, बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका के चीफ कमिश्नर के साथ-साथ शहर के डेप्युटी कमिश्नर और डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट से सवाल पूछे हैं। साथ ही, उनसे रोहिंग्याओं के सर्वे और उनको दी जाने वाली सहायता के बारे में भी उनकी टिप्पणी मांगी है। जवाब मिलने पर उनकी स्टोरी को अपडेट किया जाएगा।

शरण देने के बारे में बिल

फरवरी 2022 में, तिरुवनंतपुरम से लोकसभा सांसद शशि थरूर ने शरणार्थियों और राजनीतिक आश्रय चाहने वालों के लिए कानूनी ढांचा तैयार किए जाने को लेकर एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया।

शशि थरूर ने इंडियास्पेंड को बताया, "यह ज़रूरी है कि शरणार्थियों और राजनीतिक शरण चाहने वालों के कानूनी संरक्षण से जुड़ी चीजें तय की जाएं. साथ ही, इससे जुड़ी शर्तें भी तय की जाएं जिनके तहत कोई भी व्यक्ति ऐसे संरक्षण पाने का हकदार होगा।" थरूर आगे कहते हैं कि किसी कानूनी ढांचे के अभाव में कई शरणार्थी मूलभूत जनसुविधाओं जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और अन्य आर्थिक मौकों से दूर हैं। इसकी वजह से उनका उत्पीड़न होता है।

जनवरी 2022 में, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक चर्चा में भी माना गया कि 'शरणार्थियों और राजनीतिक आश्रय चाहने वालों के मामलों से निपटने, गड़बड़ियां खत्म करने और लचर व्यवस्था को ठीक करने के लिए' एक कानून की ज़रूरत है।

एसएएचआरडीसी के रवि नायर ने कहा कि शशि थरूर का यह प्रयास काफी अच्छा है, लेकिन प्राइवेट मेंबर बिल का एक आधिकारिक बिल बन पाना काफी दूर की कौड़ी है। वह आगे कहते हैं, "इसी तरह के दूसरे बिल जिन्हें पहले जस्टिस पी एन भगवती ने ड्राफ्ट किया था और फिर वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने फिर से ड्राफ्ट किया, को भी कोई खास अहमियत नहीं मिल पाई क्योंकि राजनीतिक कारणों से सरकार शरणार्थियों के मामले को लटकाकर रखना चाहती है।"

केंद्र सरकार ने अगस्त 2021 में संसद में जवाब दिया कि शरणार्थियों समेत सभी विदेशी नागरिकों पर विदेशी कानून 1946, विदेशियों के रजिस्ट्रेशन का कानून 1939, पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) कानून 1920, और नागरिकता कानून 1955 के प्रावधान लागू होते हैं। साल 2011 में सरकार ने विदेशियों के प्रबंधन के लिए स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर यानी एसओपी जारी किया था. इसके अनुसार, अधिकतम पांच साल के लिए लंबी अवधि का वीजा (एलटीवी) जारी किया जा सकता है। गृह विभाग की समीक्षा के बाद इस अवधि को छह साल तक बढ़ाया जा सकता है।

आरआएजी रिपोर्ट के मुताबिक, "एसओपी में यह माना गया है कि देश में मौजूद शरणार्थियों के मूल देशों में चल रही समस्याएं छह साल के अंदर खत्म हो जाएंगी।" भारत में कानून की मार झेलने वाले और म्यांमार में दशकों से उत्पीड़न का शिकार रहे और वर्तमान में किसी भी देश के नागरिक नहीं, रोहिंग्याओं के लिए यह ठीक ही है।

साल 2019 में पारित किए गए विवादित नागरिकता संशोधन कानून के मुताबिक, सिर्फ़ उन प्रताड़ित धार्मिक अल्पसंख्यकों जैसे हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी या ईसाइयों को नागरिकता मिल सकती है जो अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के निवासी हैं। इस कानून से, बिना देश के रह रहे लोगों जैसे रोहिंग्या और भी हाशिए पर चले गए हैं। ये ज्यादातर मुस्लिम हैं और सीएए में शामिल देशों से संबंधित भी नहीं हैं।

शशि थरूर ने कहा कि 2019 का सीएए पड़ोसी देशों से आए मुस्लिम शरणार्थियों को अयोग्य मानता है और उन्हें बेसहारा छोड़ देता है। थरूर के मुताबिक, "इस सबको सिर्फ़ एक शरणार्थी कानून से ठीक किया जा सकता है।" यूक्रेन में जारी समस्या की ओर इशारा करते हुए शरूर कहते हैं कि ये समस्या बताती है कि हर देश में शरणार्थी कानून की कितनी ज़रूरत है।

साल 2022 में प्रकाशित यूएनएचसीआर की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 2021 में यूएनएचसीआर ने दर्ज किया कि भारत में कुल 5873 लोगों ने राजनीतिक आश्रय पाने के लिए आवेदन किया। रिपोर्ट के मुताबिक, 'अफगानिस्तान और म्यांमार की परिस्थितियों' की वजह से 2020 की तुलना में 2021 में 154 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई।

दस्तावेज़ों की पहेली

दसरहल्ली कैंप में सूखी मछली भिगोते और सब्जी काटते हुए एक महिला राशन की सीमित मात्रा को लेकर शिकायत करती हैं, करीमउल्लाह कहते हैं कि साल 2020 में कोविड-19 की वजह से लगे लॉकडाउन के चलते उनके परिवार को एक दिन में सिर्फ़ आधा किलो चावल से काम चलाना पड़ता था, वह कहते हैं, "हमें कम खाना होता था और हफ्ते भर किसी तरह काम चलाना पड़ता था। हमें कोई मदद नहीं मिली।"

यूएनएचसीआर भारत के पास रजिस्ट्रेशन करवा चुके शरणार्थियों को कुछ तय मानकों के हिसाब से सहायता मिलती है जो कि सीमित है। सीमित फंडिंग की वजह से, नकद सहायता सिर्फ़ उन लोगों को मिल पाती है जिन्हें बेहद ज़रूरत होती है। यह मदद परिवार के आकार, स्वास्थ्य और अन्य चीजों के साथ-साथ परिवार में विकलांगता के हिसाब से दी जाती है। केंद्र सरकार इन शरणार्थियों को कोई सहायता नहीं देती है।

इंडियास्पेंड को यूएनएचसीआर की ओर से मिले सीमित डेटा से पता चला है कि बेंगलुरु में 95 परिवारों को राशन, 87 महिलाओं और युवा लड़कियों को डिग्निटी किट (इसमें सैनिटरी पैड, कंघी, वॉशिंग पाउडर, टूथपेस्ट और साबुन जैसी चीजें होती हैं), 95 परिवारों को मच्छरदानी दी गई और कुल 65 शरणार्थी ऐसे थे जिन्हें वैक्सीन लगाई गई।

ताहियत कहते हैं कि हमें पिछले 10 साल में शायद पांच या छह बार राशन मिला है। लगभग 20 रोहिंग्या ऐसे हैं जिनके पास यूएनएचसीआर कार्ड भी नहीं हैं।

रोहिंग्याओं के पास यूएनएचसीआर के शरणार्थी कार्ड के अलावा कोई दस्तावेज नहीं है। यह भी सिर्फ़ उनके पास है जिन्होंने रजिस्ट्रेशन करवाया हो। यूएनएचसीआर में ट्रांसलेटर की नौकरी पाने से पहले क्याव मिन ने दिल्ली में कम पैसों के में असंगठित क्षेत्र में काम किया था। साल 2020 में आधार कार्ड में स्पेलिंग की गड़बड़ी के चलते उनका कार्ड रद्द हो गया था। क्याव मिन कहते हैं, "बाद में मुझे अधिकारियों ने बताया कि आधार कार्ड शरणार्थियों के लिए जारी नहीं किया जा सकता। मेरा एलटीवी पुराना हो चुका है और अब मेरे पास सिर्फ़ यूएनएचसीआर कार्ड ही बचा है।"

दिसंबर 2020 में शोधार्थी अनुभव दत्त तिवारी और जेसिका फील्ड के एक विश्लेषण के मुताबिक, आधार सेवा से बाहर किए जाने की वजह से रोहिंग्याओं पर बुरा असर पड़ रहा है और उनके लिए खुद का अस्तित्व बचाए रखना भी चुनौती साबित हो रहा है, रिपोर्ट में कहा गया, "म्यांमार में रहने और नागरिकता के लिए पहचान पत्र ज़रूरी हैं। भारत में संरक्षण पाने, अधिकारों और मूलभूत सुविधाओं के लिए भी पहचान पत्र ज़रूरी हैं। इसके बावजूद दोनों देशों में एक जैसी बात यह है कि लोगों को दबाने और उन्हें प्रताड़ित करने के लिए ये दस्तावेजी प्रशासन दोनों जगह एक जैसा है।"

रवि नायर कहते हैं कि कुछ रोहिंग्याओं ने जानकारी छिपाकर आधार कार्ड हासिल कर लिया- होगा। ज़रूरी नहीं है कि उन्होंने जालसाजी ही की हो। लेकिन किसी भी हालत में उन्हें आधार कार्ड तो मिलना ही चाहिए जो कि निवास का प्रमाण है नागरिकता का नहीं

शशि थरूर भी मानते हैं कि दस्तावेजों की सूची में आधार कार्ड शामिल किए जाने से शरणार्थियों को रोजगार पाने और भारत में अपना परिवार चलाने में उन्हें मदद मिलेगी। वह आगे कहते हैं, "शरणार्थियों को मूलभूत जन सुविधाएं देने के लिए मूलभूत ढांचे की कमी और कानूनी रूप से उन्हें रोजगार और जीवन के अवसर न देने की वजह से शरणार्थी उत्पीड़न और मानव तस्करी का शिकार होते हैं।"

क्याव मिन कहते हैं कि सहायता और अवसरों के अभाव में रोहिंग्याओं को सम्मान और मानवाधिकार नहीं मिल पाते हैं। वह यह भी कहते हैं कि बहुत सारे लोग आज भी रखाइन लौटना चाहते हैं, लेकिन नहीं लौट सकते क्योंकि वहां उन्हें जान का खतरा हो सकता है।

सारा खातून को कोई उम्मीद नहीं है कि वे कभी भी लौट सकेंगी। वह आह भरकर कहती हैं, "वहां कभी शांति नहीं होगी। उन्होंने हमसे जो छीन लिया है, उसे कभी लौटा नहीं सकते।"

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